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बुधवार, 13 अप्रैल 2011
गोबर सने हाथ कम्प्यूटर के कीबोर्ड पर-मीरा सैनी, बंदिशों को त्याग अपनाई नई राह, बगड़ की बदली तकदीर
बात 2007 की है, आम भारतीय ग्रामीण महिलाओं की तरह 24 वर्षीय मीरा सैनी को भी नहीं मालूम था कि उनका कैरियर किस तरफ जा रहा है। राजस्थान के एक दूरदराज के गाँव बगड़ की मीरा सैनी वैसे तो एक स्कूल टीचर थी, लेकिन उन्हें हमेशा जि़न्दगी उत्साहविहीन सी लगती थी। वे हर पल कुछ नया और अलग करने की सोच में रहती थीं। लेकिन ग्रामीण परिवेश के सीमित संसाधन और परम्परागत सामाजिक बंदिशें उनकी सोच के आड़े आ रही थी। घर की दहलीज को पार करना उनके लिए आसान नहीं था, लेकिन आज मीरा सैनी के अलावा बगड़ गांव की महिलाएं कम्पयूटर की.बोर्ड पर महारथ हासिल कर देश और दुनिया के ग्राहको को बीपीओ सेवाएं दे रही हैं और अब वे अपने समुदाय की रोल मॉडल बन चुकी हैं।
मीरा सैनी ने जब अपने गाँव बगड़ में खुले महिला बीपीओ के बारे में सुना तो उन्होंने टीचर कि नौकरी को टाटा कह दिया और सोर्स फॉर चेंज (एसएफसी) नामक बीपीओ से जुड़ गयीं। मीरा कहती हैं कि.-यहाँ पर आमदनी पहले से कुछ कम भले ही हो, लेकिन कम्पुटर ट्रेनिंग के माध्यम से महिलाओं को आत्मिनिर्भर बानाने का आइडिया मुझे पसंद आया और मैं एसएफसी से जुड़ गयी।
राजस्थान के झुंझनु जिले के दूरदराज के गांव बगड़ की महिलाओं के पास पढ़ी.लिखी होने के बावजूद स्कूल में पढ़ाने के अलावा काम करने के अन्य अवसर नहीं थें। कुछ नया न करने की छटपटाहट से इन महिलाओं के जीवन में कोई उत्साह नहीं हुआ करता थाए लेकिन गांव में खुले महिला बीपीओ सोर्स फॉर चेंज(एसएफसी) में काम करने के अवसर से बगड़ की महिलाओं को उम्मीद की एक नई किरण नजऱ आने लगी है। दसवीं पास शोभा एकल विद्यालय में बच्चों को पढ़ाती थी, लेकिन अब वे इस बीपीओ से जुड़ चुकी हैं। शोभा कहती हैं, यहां हमें न केवल कम्पयूटर ट्रेनिंग मिलती है, बल्कि अंगेजी भी सिखाई जाती है, पहले मुझे समझ नहीं आ रहा था कि पढ़ाई के बाद मैं क्या करुं, लेकिन अब कम्पयूटर सीखकर मैं इसी क्षेत्र में काम करुंगी।ं रजनी के दो बच्चे हैं और पति खेती का काम करते हैं। घर के काम से समय निकाल कर वे गांव के बीपीओ में काम करती हैं और जो कुछ वे यहां सीखती हैं, अपने बच्चों को भी उसके बारे में घर जाकर बताती है।ं एसएफसी बगड़ में चलने वाला देश का पहला महिला बीपीओ है, जो देश विदेश के ग्राहकों को डाटा एंट्रीए डाटा मेन्टेनेंसए कॉन्टेक्ट वेरीफीकेशन जैसी सेवाएं प्रदान कर रहा है।
अक्टूबर 2007 में10 महिलाओं से शुरु हुए एसएफसी का दूसरा बैच शुरु चल रहा है और 40 महिलायें फिलहाल यहां काम कर रही हैं। महिलाओं को घर का काम भी करना पड़ता है, इस बात को ध्यान में रखते हुए 4 और 8 घंटे की दो शिट में कार्य करने की सहूलियत दी जाती है। ग्रामीण इलाकों में किसी नये प्रयोग को लेकर स्थानीय लोगों के मन में तरह.तरह के सवाल उठना स्वाभाविक है। बगड़ में रूरल बीपीओ संचालित करने वाली संस्था ृसोर्स फॉर चेंजं के संस्थापकों को कुछ इसी तरह के सवालों का सामना करना पड़ा। आप यहां क्यों आये हैं, आपको क्या मिलता है, क्या आपको सर्टीफिकेट मिलता हैघ्ं बगड़ में देश के पहले महिला बीपीओ की स्थापना करने जा रहे नौजवानों से स्थानीय लोग अक्सर इस तरह के सवाल पूछते थे। ृसोर्स फॉर चेंजं राजस्थान के झुंझनु जिले के पीरामल फांउडेशन द्वारा संचालित ृग्रासरूट डेव्लपमेंट लेबोरेट्रीं (जीडीएल) का हिस्सा है। जीडीएल ग्रामीण जीवन में सकारात्मक बदलावों पर आधारित आइडिया को सहयोग एवं प्रोत्साहन प्रदान करती है।
अमेरिका में जन्मे और वहीं से ऑप्टीकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने के बाद आलिम हाजी चाहते तो किसी कार्पोरेट कंपनी में नौकरी करते हुए आराम की जिंदगी बसर कर सकते थे। लेकिन ग्रामीण भारत में एक सकारात्मक बदलाव की चाह उन्हें राजस्थान के दूरदराज के गांव बगड़ तक खींच लाई। बगड़ में आलिम सोलर एनर्जी का प्रोजेक्ट लगाना चाहते थे, लेकिन जब उन्हें पता चला कि यहां बिजली पहले से मौजूद है और सस्ती भी है, तो सोलर एनर्जी का विचार छोड़कर उन्होंने अन्य विकल्पों के बारे में सोचना शुरु कर दिया। यहीं पर आलिम की मुलाकात कैलीफोर्निया युनीवर्सिटी से अर्थशास्त्र की डिग्री प्राप्त गगन राणा से हुई और दोनों ने मिलकर ृसोर्स फॉर चेंजं की शुरुआत कर दी। उत्साही युवाओं की इस टीम में गगन और आलिम के अतिरिक्त अमेरिका की केस वेस्टर्न रिजर्व युनीवर्सिटी से अर्थशात्र में स्नातक कार्तिक रमनए बेल्जियम में पली.बढ़ी और शिक्षित आशिनी कोठारी एवं बायोटेक्नॉलजी में स्नातक मुंबई के बीपीओ प्रोफेशनल श्रोत कटेवा शामिल हैं। इन युवाओं ने परदेस की गलियां छोड़कर ग्रामीण भारत की पगडंडियों पर चलने का निर्णय किया और अब वे महिलाओं को तकनीक का पाठ पढ़ाकर न केवल उन्हें आत्मनिर्भर बनाने में जुटे हैं, बल्कि बगड़ जैसे गांव को एक नई पहचान दी है।
एसएफसी के प्रमुख ग्राहकों में दवा निर्माता कंपनी पीरामलग्रुप , प्रथम एनजीओ, सीआईआई, राजस्थान सरकार और अमेरिका की मेरीलैंड यूनीवर्सिटी शामिल हैं। जबकि आईसीआईए बंगलौर स्थित ड्रीम.ए.ड्रीम और जयपुर की अरावली नामक एनजीओ के साथ बातचीत जारी है। हाल ही में प्रथम के लिए एसएफसी में कार्यरत महिलाओं ने 19 हजार से अधिक फार्म की डाटा एंट्री 21 दिनों में कुशलतापूर्वक संपन्न की है। प्रथम के लिए डाटा एंट्री करने वाली 20 संस्थाओं में सबसे गुणवत्तापूर्ण कार्य के लिए एसएफसी को सराहा भी गया है।
हालांकि ग्रामीण भारत की अन्य महिलाओं की तरह शोभा और रजनी को भी घर की दहलीज से बाहर कदम रखने में अनेक सामाजिक बंदिशों का सामना करना पड़ा। बीपीओ की शुरुआत से पहले स्थानीय माहौल और लोगों की प्रतिक्रिया जानने के लिए बगड़ का सर्वे किया गया। सर्वे से पता चला कि ग्रामीण परिवेश में प्रचलित सामाजिक प्रतिबंधों के चलते महिलाओं एवं पुरुषों से एक साथ काम नहीं कराया जा सकता। इसके अलावा यह बात भी आई कि यदि पुरुषों को ट्रेनिंग दी गई तो वे अच्छी नौकरी के फेर में गांव छोड़कर बड़े शहरों की ओर पलायन कर जाएंगे। इसी बात को ध्यान में रखकर महिलाओं को प्रशिक्षित करने का निर्णय लिया गया, ताकि वे अपने घर परिवार में रहकर स्वयं आत्मनिर्भर बनने के साथ साथ बच्चों को भी बेहतर सीख दे सकें। आशिनी कोठारी इस आइडिया को बिजनेस मॉडल के लिए भी अच्छा मानती हैं। लेकिन यह सब इतना आसान नहीं था। टीम के अन्य सदस्यों की अपेक्षा गांव की महिलाओं और उनके परिवार वालों को सहमत करने की जिम्मेदारी आशिनी पर सबसे अधिक थी। टूटी.फूटी हिन्दी में आशिनी कहती हैं कि.हमने बहुत मेहनत किया, सुबह से शाम मेहनत किया।ं
एसएफसी के सीईओ कार्तिक रमन रूरल बीपीओ स्थापित करने की कड़ी में ग्रामीण महिलाओं की ट्रेनिंग को सबसे मुश्किल एवं चुनौतीपूर्ण कार्य मानते हैं। रमन की योजना साल के अंत तक चिड़ावा एवं झुंझनु जैसे आसपास के कस्बों में भी एसएफसी के सेन्टर खोलने की है और आगामी तीन सालों में एसएफसी में 1000 महिलाएं शामिल करने का वे इरादा रखते हैं। वे कहते है कि.ृसोर्स फॉर चेन्ज का केन्द्र ग्रामीण इलाके में होने से ग्राहकों को जल्दी विश्वास नहीं होताए जिसके लिए ट्रायल देकर उन्हें संतुष्ट करना पड़ता है। मीडिया में एसएफसी को एनजीओ बताये जाने से कई बार ग्राहकों का विश्वास जीतने में दिक्कत आती है।ं इसलिए रमन स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि.ृहम कोई एनजीओ नहीं बल्कि एक बिजनेस आर्गेनाइजेशन हैंए जिसका मकसद ग्रामीण महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने के साथ.साथ दुनिया भर में अपने ग्राहकों को सर्वोत्तम सेवाएं देना है। हमारा दृष्टिकोण तकनीक पर आधारित विभिन्न उद्यमों द्वारा ग्रामीण भारत की 100,000 महिलाओं को रोजगार के अवसर उपलब्ध कराने का है।ं
आलिम बताते हैं कि चार घंटे काम करने वाली महिलाओं को दो हजार रुपये और आठ घंटे काम करने वाली महिलाओं को चार हजार रुपये प्रतिमाह दिये जाते हैं। आगे वे कहते हैं कि.ृशुरु में हमें परिवार वालों को महिलाओं को घर से बाहर भेजने के लिए विश्वास में लेने में काफी मेहनत करनी पड़ी, लेकिन जब दूसरे बैच के लिए गांव में प्रचार किया गया तो करीब 70 महिलाएं एडमिशन के लिए पहुंच गई, जिसमें से इंटरव्यू और अभिरुचि टेस्ट के आधार पर 30 महिलाओं का चयन किया गया। एसएफसी में काम करने की इच्छुक महिलाओं को कम कम से कम 10वीं पास होना अनिवार्य है। आशिनी कहती हैं कि.ृयहां की महिलाएं पढ़ी लिखी तो हैं, लेकिन टीचर बनने के अलावा उनके पास अन्य अवसर नहीं थे, लेकिन आज वे रोल मॉडल बन चुकी हैं।ं आशिनी बताती हैं कि समुदाय के जो लोग पहले हम पर विश्वास नहीं करते थेए आज वही हमारी टीम को घर पर खाने के लिए और पारीवारिक उत्सव में बुलाते हैं तो अच्छा लगता है। फिलहाल हिन्दी एवं राजस्थानी में कॉल सेंटर शुरु करने के लिए कुछेक टेलीकॉम ऑपरेटर्स से भी बात चल रही है। आगे एसएफसी की योजना फोटो एडीटिंग एवं ले.आऊट डिजाईन जैसे कामों के लिए जमीन तैयार करना है। बकौल रमन.ृलैंग्वेज स्किल्स की अपेक्षा टैक्नीकल स्किल्स सिखाना ज्यादा आसान होता है।ं भारत के 14.8 बिलीयन की बीपीओ इंडस्ट्री में एसएफसी भले ही एक छोटा प्रयास जान पड़ता हो, लेकिन ग्रामीण भारत के सशक्तिकरण की संभावनाएं इसमें साफ दिखाई पड़ती हैं।
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