शुक्रवार, 6 दिसंबर 2019

Mali Saini Samaj

  जैसा कि आप सभी जानते है, बहु प्रतियोगी प्रशिक्षण संस्थान, माली समाज का अभिन्न अंग है। बहुप्रतियोगी प्रशिक्षण संस्थान एक ऐसा वृक्ष है जिससेसमाज का एक बेरोजगार युवा अपने जीवन के न्यूनतम स्तर से शीर्ष स्तर पर पहुँचने का माध्यम बना सकता हैं। हमारे समाज की कई प्रतिभाएं सरकारी एवं अर्द्धसरकारी क्षेत्रों में विशिष्ट उपलब्धियों प्राप्त कर समाज का नाम गौरान्वित किया है।
5 मई, 1985 को स्थापित, बहु प्रतियोगी प्रशिक्षण संस्थान, समाज के युवा वर्गों को सरकारी व अर्द्धसरकारी भर्ती पूर्व निःशुल्क शिक्षण एवं प्रशिक्षण प्रदान कर रहा है। अब तक समाज के लगभग कुल 3000 युवा देश के विभिन्न राज्यों में सरकारी, अर्द्धसरकारी एवं बैकिग सेवा राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, गुजरात आदि में पदस्थापित है। 25 दिसम्बर 2005 से पूर्व संस्थान का गतिविधि केन्द्र सुमेर उच्च माध्यमिक विद्यालय, महामन्दिर जोधपुर रहा एवं इसके बाद से नवीन परिसर रामबाग, गुरूकुल में संचालित हो रहा है। जिसका नया नाम श्रीमती सोनी देवी देवीलाल गहलोत छात्रावास महामन्दिर जोधपुर है।
राजस्थान के विभिन्न जिलों तथा बाहरी राज्यों के भी युवाओं को निःशुल्क प्रशिक्षण प्राप्त हो रहा है। संस्थान की क्षमता में लगभग 1500 विद्यार्थी की है। वर्तमान में लगभग 1100 से अधिक विद्यार्थी, जिनमें से लगभग 350 से अधिक महिला (50 से अधिक शादीशुदा) अभ्यर्थी अध्ययनरत है प्रायः 10 बजे से रात्रि 9 बजे तक, शिक्षण एवं प्रशिक्षण पूर्ण रूप से स्वयं सेवकों द्वारा संचालित किया जाता है। संस्थान इस ओर लगातार प्रयास करता रहा है कि समाज की युवाशक्ति पहले रोजगार प्राप्त करें, स्वरोजगार युक्त हो अथवा उद्यमी हो, आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर स्वावलम्बी हो। इसका श्रेय लगभग 125 से अधिक स्वयं सेवको एवं उनके सहयोगियों को जाता है। जो संस्थान विभिन्न गतिविधि में अपनी इच्छाशक्ति एवं अथक तकनीकी सेवा प्रतिदिन प्रदान करते है।
गुरूकूल प्रांगण के छात्रावास में 400 से भी अधिक छात्र एवं कीर्ति नगर मगरा पूंजला जोधपुर में स्थित बालिका छात्रावास में 170 छात्राओं को आवासीय एवं भोजन की लागत मात्र में सुविधा प्राप्त करवाई जा रही है।
संस्थान मुख्य रूप से बैकिग सेवा में भर्ती, रेल्वे सेवा भर्ती, कर्मचारी चयन अयोग सेवा भर्ती, राज्य सरकारी की विभिन्न सेवाये शिक्षक भर्ती, पटवारी भर्ती, ग्राम सेवक भर्ती, पुलिस भर्ती एवं अन्य राज्य/केंद्रीय में भर्ती के लिए आवेदन से लगाकर पदस्थापित तक उन्हे दिशा निर्देश एवं मार्गदर्शन, शिक्षण एवं प्रशिक्षण एंव यथांसम्भव तकनीकी ज्ञान प्रदान करता है।
21वी सदी में समाज को कम्प्यूटर शिक्षित बनाने के लिए श्री राजीव गांधीजी के सपनों को पूर्ण करने एवं संस्थान की गतिविधियों को नये आयाम प्रदान करने के उद्देश्य से कम्प्यूटर केन्द्र स्थापित किया गया। जिसमें श्रीमान् किशन सिंह जी गहलोत( वर्तमान केन्या निवासी) का सहयोग रहा। जिन्होने अपनी श्रद्धेय ममतामयी माताजी को समर्पित करते हुए सामाजिक स्तर पर प्रथम प्रयास स्वरूप "श्रीमती कमलादेवी गहलोत कम्प्यूटर केन्द्र" की स्थापना दिनांक 29 अगस्त 1994 (जन्माष्टमी) को आर्थिक सहयोग देकर समाज को इस नवीन तकनीकी जानकारी से लाभान्वित किया। इस केन्द्र का उद्घाटन तत्कालीन सांसद एवं वर्तमान मुख्यमंत्री माननीय श्री अशोक जी गहलोत के कर कमलों द्वारा हुआ। श्री हनुमान सिंह गहलोत एवं श्री मुकेश गहलोत के अथक तकनीकी सहयोग से समाज के युवा वर्ग कम्प्यूटर, सूचान एवं संचार प्रोद्यौगिक का ज्ञान में नवीन आयाम को प्राप्त हो रहे है एवं र्निबाध गति से नये आयाम छूते हुए आज भी जारी है। जिसके परिणाम स्वरूप के लगभग 4700 अभ्यर्थियों ने O Level, DTP, BASIC, Programming(C,C++,JAVA,J2EE,PHP,VB,FOXPRO), Tally आदि का ज्ञानार्जन किया। इसके साथ ही सरकारी, अर्द्धसरकारी एवं अपने स्वयं के कार्यक्षेत्र में सफलता हासिल की। कईयों ने विदेशों में भी अपनी प्रतिभा की अमिट छाप छोड़ी। इसका श्रेय श्रीमान् हनुमान सिंह गहलोत एवं उनके सहयोगियों को जाता है।
वर्तमान में संचालित मुख्य गतिविधियाँ
  1. विभिन्न बैको में अधिकारियों व कर्मचारियों की भर्ती पूर्व शिक्षण व प्रशिक्षण ।
  2. केन्द्र तथा राज्य सरकार की विभिन्न सेवाओं में भर्ती पूर्व शिक्षण व प्रशिक्षण (पटवारी, ग्रामसेवक, एस.आई, पुलिस, आर.ए.एस, रेल्वे भर्ती, ई.पी.एफ. एवं एस.एस.सी. आदि) ।
  3. गैर सरकारी भर्ती मे दिशा निर्देश, शिक्षण व प्रशिक्षण ।
  4. श्रीमती कमलादेवी गहलोत कम्प्यूटर केन्द्र द्वारा निम्न कम्प्यूटर संबंधित प्रशिक्षण दिया जा रहा है ।
    • Computer Fundamental.
    • D.T.P. (Desktop Publishing).
    • Programming Language ( C, C++, Java, J2EE, PHP, VB ).
    • Web Designing.
    • Guidance & Coaching for “O” and “A” Level Cources.
    • Tally Accounting.
  5. गुरूकुल में अध्ययनरत समाज के युवा वर्ग के व्यक्तिगत विकास हेतु शिक्षण, प्रशिक्षण एवं दिशा निर्देश प्रदान करना ।
  6. बहुआयामी रिलीफ एवं पर्यावरण विकास सोसायटी द्वारा Job Placement.यह संस्थान सहयोगी के रूप में वहत स्तर पर सामाजिक, चिकित्सीय, योग एवं प्राणायाम, वृक्षारोपण, महिला शिक्षा, निशक्त जनों हेतु कार्य किया जा रहा हैं।
बहु प्रतियोगी प्रशिक्षण संस्थान का उद्देश्य न केवल शिक्षण एवं प्रशिक्षण देना अपितु सामाजिक सरोकार के रूप में सामाजिक संगठन, आपसी भाईचारा, रहन-सहन एवं अनुशासित सिपाही के रूप में अपने व्यक्तिगत विकास करना भी हैं जिससे सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक स्तर पर समाज सुदृढ़ एवं लाभान्वित हो सकें ।

Saini Genealogy and Saini Family History Information

About the Saini surname
Saini (Hindi: सैनी pronunciation (help·info)) (Punjabi:ਸੈਣੀ) is a Rajput descent warrior caste of India. Sainis, also known as Shoorsaini in Puranic literature, are now found by their original name only in Punjab and in the neighboring states of Haryana, Jammu and Kashmir and Himachal Pradesh. They trace their descent from Rajputs of the Yaduvanshi Surasena lineage, originating from Yadava King Shurasena, who was the grandfather of both Krishna and the legendary Pandava warriors. Sainis relocated to Punjab from Mathura and surrounding areas over different periods of time.

Ancient Greek traveller and ambassdor to India, Megasthenes, also came across this clan in its glory days as the ruling tribe with its capital in Mathura. There is also an academic opinion that the ancient king Porus, the celebrated opponent of Alexander the Great, belonged to this once most dominant Yadava sept. Megasthenes described this tribe as Sourasenoi.

Like most other Rajput origin tribes of Punjab, Sainis also took up farming during medieval period due to the Turko-Islamic political domination, and have been chiefly engaged in both agriculture and military service since then until the recent times. During British period Sainis were enlisted as a statutory agricultural tribe as well as a martial class.

Sainis have a distinguished record as soldiers in the armies of pre-British princely states, British India and independent India. Sainis fought in both the World Wars and won some of the highest gallantry awards for 'conspicuous bravery'. Subedar Joginder Singh, who won Param Vir Chakra, Indian Army's highest war time gallantry award, in 1962 India-China War was also a Saini of Sahnan sub clan.

During the British era, several influential Saini landlords were also appointed as Zaildars, or revenue-collectors, in many districts of Punjab and modern Haryana.

Sainis also took active part in the freedom movement of India and many insurgents from Saini community were imprisoned, hanged or killed in encounters with colonial police during the days of British Raj.

However, since the independence of India, Sainis have diversified into different trades and professions other than military and agriculture. Sainis are now also seen in increasing numbers as businessmen, lawyers, professors, civil servants, engineers, doctors and research scientists, etc. Well known computer scientist, Avtar Saini, who co-led the design and development of Intel's flagship Pentium microprocessor, belongs to this community. The current CEO of global banking giant Master Card, Ajay Banga, is also a Saini. Popular newspaper daily Ajit, which is the world's largest Punjabi language news daily, is also owned by Sainis.

A significant section of Punjabi Sainis now lives in Western countries such as USA, Canada and UK, etc and forms an important component of the global Punjabi diaspora.

Sainis profess in both Hinduism and Sikhism. Several Saini families profess in both the faiths simultaneuosly and inter-marry freely in keeping with the age-old composite Bhakti and Sikh spiritual traditions of Punjab.

Until recent times Sainis were strictly an endogamous kshatriya group and inter-married only within select clans. They also have a national level organization called Saini Rajput Mahasabha located in Delhi which was established in 1920.

सर्व सैनी माली समाज ने भरी हुंकार

उदयपुर, जो समाज के साथ होगी, समाज भी उसके साथ होगा। सर्व सैनी माली समाज ने यह ऐलान रविवार को उदयपुर में किया। दक्षिणी राजस्थान के नौ जिलों से आए समाज के प्रबुद्धजनों ने समाज की जरूरतों को रेखांकित करते हुए स्पष्ट कहा कि इस बार समाज उसी का साथ देगा जो समाज को तवज्जो देगा। समाज का इशारा सभी प्रमुख दलों की ओर था कि आने वाली सरकार में समाज के लोगों को भी उचित प्रतिनिधित्व देना होगा, वरना समाज अपना निर्णय बाद में तय करेगा।

उदयपुर के शोभागपुरा सौ फीट रोड स्थित अशोका ग्रीन पैलेस में आयोजित सर्व सैनी माली समाज के प्रबुद्धजन सम्मेलन में दक्षिणी राजस्थान के उदयपुर, पाली, सिरोही, राजसमंद, डूंगरपुर, भीलवाड़ा, चित्तौडग़ढ़ और प्रतापगढ़ जिलों के समाज के प्रतिनिधि शामिल हुए। बाहर के जिलों से समाज के लोग बसों से उदयपुर पहुंचे। सुबह से शुरू हुआ सम्मेलन अपराह्न तक चला। सभी जिलों से आए प्रबुद्धजनों ने विभिन्न स्तरों पर समाज के विकास में आ रही बाधाओं को इंगित किया और उनसे पार पाने के लिए राज्य और केंद्र की सरकारों में समाज के समुचित प्रतिनिधित्व की जरूरत बताई।

सम्मेलन में अतिथि पूर्व संभागीय आयुक्त ओ.पी. सैनी ने सैनी माली समाज की सभी शाखाओं फूलमाली, राजमाली, कहार भोई, सगरवंशी, वनमाली आदि को एक मंच पर लाने की युवाओं की कोशिश की प्रशंसा की और कहा कि समाज की एकरूपता निश्चित रूप से दक्षिणी राजस्थान के अंदर राजनीतिक प्रतिनिधित्व दिलाने की दिशा में अहम साबित होगी। 
समाज के कैलाश धोलास्या ने कहा कि 9 जिलों की 44 विधानसभाओं में से एक भी विधायक सैनी माली समाज का न होना निराशाजनक है। उन्होंने मांग उठाई कि सैनी माली समाज के युवाओं को आगामी चुनाव में टिकट दिया जाना चाहिए। समाज के दिनेश माली ने कहा कि राजस्थान के सभी जिलों के किसी भी मार्ग का नाम ज्योतिबा फूले के नाम से रखा जाना चाहिए। उन्होंने संत ज्योतिबा फूले की जयंती पर राजकीय अवकाश, समाज के निम्नवर्गीय तबकों को विशेष सुविधा के प्रावधानों की भी जरूरत बताई।

सम्मेलन के संयोजक प्रवीण रतलिया ने कहा कि भूराजस्व नियम 1963 के अंतर्गत समाज को 5 बीघा जमीन नि:शुल्क दी जानी चाहिए। सैनी समाज किसी अन्य समाज का विरोध नहीं कर रहा है। समाज यह चाहता है कि सभी समाजों को इस नियम के तहत भूमि का आवंटन नि:शुल्क किया जाना चाहिए, ताकि समाज के लोगों का विवाह व अन्य आयोजनों में होने वाले महंगे खर्च से बच सकें, समाज के होनहारों को किराए पर कमरे ढूंढऩे और महंगे किराए से बचाया जा सके। रतलिया ने ज्योतिबा साहब को भारत रत्न दिए जाने की भी मांग की।

सम्मेलन की अध्यक्षता डॉ. किशन लाल माली ने की। विशिष्ट अतिथि अनुभव चंदेल,दिनेश माली,रेवाशंकर माली, यशवंत मंडावरा, दिनेश माली, नरेंद्र माली आदि थे। मंच संचालन डॉ. लक्ष्मीनारायण माली ने किया। सम्मेलन का आरंभ ज्योतिबा फूले व सावित्री बा की तस्वीर पर माल्यार्पण व दीप प्रज्वलन के साथ हुआ। सम्मेलन में उदयपुर से महावीर बड़ोदिया, कैलाश धोलासिया, अम्बालाल, दौलतराम माली, सिरोही से गोपाल माली, राजसमंद से मांगीलाल माली, बद्रीलाल माली, बाबूलाल माली, पाली से परमाराम माली, हिम्मत गहलोत, बड़ीसादड़ी से पुष्करराज माली, चित्तौडग़ढ़ से गोपाल माली, प्रतापगढ़ से राधेश्याम माली, राजेश माली, डूंगरपुर से मुकेश भोई, बांसवाड़ा से कन्हैयालाल माली, भीलवाड़ा से भगवान लाल हिंडोलिया, शिवराज माली, बंसीलाल माली आदि ने भी अपने-अपने क्षेत्र में समाज की जरूरतों के सम्बंध में विचार व्यक्त किए। सभी प्रबुद्धजनों को ज्योतिबा फूले की तस्वीर व स्मृति चिह्न प्रदान किए गए। 
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पीएम को एक लाख एक हजार पोस्टकार्ड अभियान का आगाज 
-सम्मेलन में समाज ने राजस्थान से एक लाख एक हजार पोस्ट कार्ड प्रधानमंत्री के नाम से लिखने के अभियान का आगाज भी किया। पहला पोस्टकार्ड पूर्व संभागीय आयुक्त ओ.पी. सैनी ने लिखा। इन पोस्टकार्डों में मांग रखी जा रही है कि देश के हर जिले में एक मार्ग का नाम ज्योतिबा फूले और सावित्री बा के नाम से रखा जाए। 
सम्मेलन संयोजक प्रवीण रतलिया ने बताया कि पहले चरण में दक्षिणी राजस्थान के ९ जिलों के प्रतिनिधियों का सम्मेलन हुआ है, अगले तीन चरणों में उत्तरी, पूर्वी और पश्चिमी राजस्थान में ऐसे सम्मेलन किए जाएंगे।
सैनी- माली सेवा समाज के राष्ट्रीय अघ्यक्ष बने सूर्य कुमार
माली-सैनी सेवा समाज के स्थापना दिवस के मौके पर समाज की नई राष्ट्रीय और प्रदेश कार्यकारिणी का गठन किया गया
25 Jan 2018,
 लखनऊ: माली-सैनी सेवा समाज के स्थापना दिवस के मौके पर बुधवार को समाज की नई राष्ट्रीय और प्रदेश कार्यकारिणी का गठन किया गया। सूर्य कुमार सैनी को माली- सैनी सेवा समाज का राष्ट्रीय अध्यक्ष चुना गया। साथ ही ब्रज किशोर सैनी को राष्ट्रीय उपाध्यक्ष अरुण सैनी को राष्ट्रीय महासचिव, बृजेश सैनी को राष्ट्रीय कोषाध्यक्ष, विनोद सैनी को राष्ट्रीय मीडिया प्रभारी उमेश सैनी राष्ट्रीय संगठन मंत्री चुना गया। संगठन संरक्षक के रूप में ओम प्रकाश सैनी, सुंदरलाल सैनी और गंगा प्रसाद सैनी का चुनाव हुआ। इसी तरह प्रदेश कार्यकारिणी के लिए दिनेश सैनी उर्फ भोले को लगातार चैथी बार निर्विरोध प्रदेश अध्यक्ष चुना गया। हरीश सैनी को उपाध्यक्ष, दिनेश चंद्र सैनी को महासचिव, बृजेश सैनी को कोषाध्यक्ष, शिवओम सैनी को मीडिया प्रभारी, दिनेश पुष्पाकार को विधि सलाहकार, कौशल सैनी और सूरज बली सैनी को संगठन मंत्री बनाया गया।

रविवार, 22 सितंबर 2019

माली जाति की उत्पत्ति एवं विकास
 मेवाड़ माली समाज के राव श्री प्रभुलाल ( मोबाईल- +91 97 83 618 184, मु.पो.- बामनिमा कला, तहसील -रेलमगरा, जिला -राजसमन्द, राज्य - राजस्थान, पिन कोड़- 313329 )के अनुसार-
             मेवाड़ माली समाज के आदि पुरुष को "आद माली" के नाम से कहा गया है। जैसा की पूर्व में उल्लेख किया गया है कि "आद" अथवा "अनाद" शब्द के पर्याय रूप में "मुहार" अथवा "कदम"' शब्द मिलते है जिनका शाब्दिक अर्थ होता है 'पुराना अर्थात प्राचीनतम'।
          "माली सैनी दर्पण" के विद्वान लेखक ने पृ. पर लिखा है कि मुहुर अथवा 'माहुर मालियों की सबसे प्राचीनजाति है। इसका सम्बन्ध मेवाड़ के माली समाज से किस प्रकार है। इस पर अध्ययन अपेक्षित है।
        ब्रह्मभट्ट राव के कथानुसार आद माली के 25 पुत्र हुए (किन्तु उनका नामोल्लेख नहीं मिलता है) जिन्होंने कश्मीर में बाग लगाये और लगभग 13वीं शताब्दी में मामा-भाणेज ने सम्भवत: पुष्कर मे अपनी बिरादरी के सदस्यों को चारों दिशाओं से आमंत्रित कर सम्मेलन किया। इस आयोजन में-द्रावट, सौराष्ट्र, पंजाब, मुल्तान, उमर-कश्मीर, मरुधर, थलवट, काठियावाड़, गोडारी, मालवा, गुजरात, हाडोती शेखावाटी, बंगाल, आंतरी, सिन्ध, लोडी, बुन्देलखण्ड, हरियाणा, मदारिया, खेराड़, गौडवाड़, बैराठ, ढूठांड़, अजमेर इकट्टा हुए। इस समारोह के मुख्य अतिथि महाराणा श्री समरसिंह रावल वि.स. थे जिन्हें समाज के मुखिया की ओर से पगड़ी धारण करवायी गयी और श्री महाराणा ने मुखिया को अपनी पगड़ी पहनाई तब से यह समाज "राज. भाई माली" नाम से पहचाना जाने लगा।
       समय के साथ-साथ राज्य व्यवस्था और सामाजिक व्यवस्था में बदलाव आता रहा परिणाम स्वरूप हम अज्ञानतावश अपने असतित्व को भूल गये।
      श्री हीरालाल खर्टिया द्वारा प्राप्त जानकारी के अनुसार महाराणाओं की डोली उठाने के लिये 'कहार भोई' समाज के सदस्यों के साथ माली समाज के युवाओं को भी रात में घेरा डालकर दरबार में ले जाया जाता था और उनसे 'डोली उठाने का कार्य करवाया जाता था। शिक्षा और आर्थिक दृषिट से पिछड़े हुए इस समाज ने समय के साथ समझौता कर सब कुछ स्वीकार किया।
     यह समाज 'राज-भाई माली' के बजाय 'राज-भोई- माली' के नाम से पुकारा जाने लगा। मेरे अनुभव व जानकारी के अनुसार 1975 के दशक तक इस समाज के सदस्यों को 'राज भोई माली' नाम से पुकारा जाता था। धीरे-धीरे भोई-माली और दक्षिण राजस्थान के डूंगरपुर-बाँसवाडा जिले में यह जाति 'भोई' शब्द से जानी जाती है। माली समाज प्रगति संघ ने अपनी पहचान को कायम रखने के लिये 1994 में आयोजित प्रदेश स्तरीय सम्मेलन में अपनी पहचान के रूप में 'माली'शब्द का उपयोग करने का निर्णय लिया। 
         संवत् 1257 में पुष्करजी में हुए सम्मेलन में जाति की पहचान के लिये-कुछ मर्यादा(नियम) तय की गयी ये जिनमें नियम नं. 16 में तय किया गया की समाज के सदस्य 'भोई' का कार्य नहीं करेगें। डोली न उठावें व मछली न पकड़े। 28जनवरी1959 में माली समाज, उदयपुर के सम्मेलन में नाम के साथ 'भोई' शब्द न लगाने का निर्णय लिया गया। संघ द्वारा दिनांक 5 मई 2009 में 'बेणेश्वरधाम' में आयोजित वागड़ सम्मेलन में सचिव डा. विष्णु तलाच ने समाज का पूर्व उल्लेख करते हुए वागड़ के सभी भाई- बहनों को मुख्यधारा से जुड़ने का आग्रह किया।
  राव की पोथी के विवरणानुसार 'राजमाली' समाज की 7 खांप 84 गौत्र का विवरण निम्नानुसार है- 
खांप गौत्र
1. चौहान~ अजमेरा, खर्टिया, दुगारिया, बडोदिया, माणगाया, डामरिया, मौरी, भेली, टांक, धोलासिया, धनोपिया, कराडिया
2. राठोड़~ सरोल्या, दूणिया, असावरा, तलाच, हिण्डोलिया, अण्डेरिया, जाजपुरिया, मगाणिया, मंगरोला (मंगरूपा), खूर्रिया, खमनोरा, रातलिया
3. पंवार~ पाडोलिया, पवेडा, परवाल, पाहया, पानडिया, परखण, लोलगपुरा, सजेत्या, धरावणिया, चुसरा, महनाला (मेहन्दाला), ठलका
4. गहलोत~ मण्डावरा, वडेरा, बडाण्या, बरस, वगेरवाल वगोरिया, बलेणिडया, डागर, सोहित्या, बडगुजर, भदेसरया, कनोजा
5. सौलंकी~ रिछा, जेतल्या, कालडाखा, काकसणिया, ठाकरिया, सरोल्या, चन्दवाडया, रणथम्बा, मुवाला, पालका, मोरी
6. तंवर~ गौड़ा, गांछा, आकड़, उसकल्या, कुकडया, भमिया, मेकालिया, दालोटा, कनस्या, कांकरूणा, धाखा, सोपरिया।
7. परिहार जातरा, गुणिया, डुगलिया, गुणन्दा, सुखला, हेड़ा, बनारिक्या, भीमलपुरिया, पानडिया, भातरा, कच्छावा। सन 2009 में संघ द्वारा माली समाज का सामाजिक सर्वेक्षण करवाया गया प्राप्त जानकारी के अनुसार उदयपुर शहर में 42 गौत्र के परिवार पंजिकृत है जिनका विवरण निम्नानुसार है -
1. असावरा
2. जाजपुरिया
3. सुंगलिया
4. धरावणिया
5. तलाच
6. खमनोरा
7. खर्टिया
8. टांक
9. घासी
10. ड़ामटिया
11. धोलासिया
12. धोरिया
13. पथेरा
14. मेकालिया
15. परखण
16. परमार
17. कराडिया
18. पाडोलिया
19. पानडिया
20. बडोदिया
21. बुगलिया
22. मण्डावरा
23. भमिया
24. मुवाला
25. रातलिया
26. रेमतिया
27. रिछिया
28. वडेरा
29. वगेरवाल
30. वलेणिडया
31. सोइतिया
32. हिण्डोलिया
33. पारोलिया
34. घनोपिया
35. बूटिया
36. लोडियाणा
37. मालविया राठौड़
38. मुवाला
39. मतारिया चौहान
40. दूणिया
41. डगारिया
42. खुरया
माली लोग काश्तकारी यानी खेती करने में ज्यादा होशियार है क्योकिं वे हर तरह का अनाज, साग- पात, फलफूल और पेड़ जो मारवाड़ में होते है, उनको लगाना और तैयार करना जानते है। इसी सबब से इनका दूसरा नाम बागवान है। बागवानी का काम मालियों या मुसलमान बागवानों के सिवाय और कोई नहीं जानता। माली बरखलाफ दूसरे करसों अर्थात् किसानों के अपनी जमीनें हर मौसम में हरीभरी रखते है। उनके खेतों में हमेशा पानी की नहरें बहा करती है और इस लिये ये लोग सजल गॉवों में ज्यादा रहते है। माली लोग अपनी पैदाइश महादेवजी के मैल से बताते है। इनकी मान्यता है कि जब महादेवजी ने अपने रहने के लिये कैलाशवन बनाया तो उसकी हिफाजत के लिये अपने मैल से पुतला बनाकर उस में जान डाल दी और उसका नाम ‘वनमाली’ रखा। फिर उसके दो थोक अर्थात् वनमाली और फूलमाली हो गए। जिन्होनें वन अर्थात् कुदरती जंगलों की हिफाजत की और उनको तरक्की दी, वे वनमाली कहलाये और जिन्होनें अपनी अक्ल और कारीगरी से पड़ी हुई जमीनों में बाग और बगिचे लगाये और उमदा-उमदा फूलफल पैदा किये, उनकी संज्ञा फूलमाली हुई। पीछे से उनमें कुछ छत्री(क्षत्रिय) भी परशुराम के वक्त में मिल गये क्योंकि वे अपने पिता के वध का बैर लेने के लिये पृथ्वी को निछत्री(क्षत्रियविहीन) कर रहे थे। मुसलमानों के वक्त में इस कौम की और अधिक तरक्की हुई जबकि उनके डर से बहुत से राजपूत माली बनकर छुटे थे। उस वक्त कदीमी मालियों के लिये ‘मुहुर माली’ का नाम प्रचलित हुआ अर्थात् पहले के जो माली थे, वे महुर माली कहलाने लगे। महुर के मायने पहले के है। महुर माली जोधपुर में बहुत ही कम गिनती के है। वे कभी किसी समय में पूर्व की तरफ से आये थे। बाकी सब उन लोगों की औलाद है जो राजपूतों से माली बने थे इनकी 12 जातियॉ है जिनके नाम कच्छवाहा, पड़ियार, सोलंकी, पंवार, गहलोत, सांखला, तंवर, चौहान, भाटी, राठौड़, देवड़ा और दहिया है। माली समाज अपने विषय में इससे ज्यादा हाल नहीं जानते। ज्यादा जानने के लिये वे अपने भाटों का सहारा लेते है। जोधपुर में ब्रह्मभट्ट नानूराम इस कौम का होशियार भाट है। उसके पास मालियों का बहुत सा पुराना हाल लिखा हुआ है मगर माली लोग अपनी बेइल्मी के कारण अपने सही और गलत भाटों की सहीं परख नहीं कर पातें। मालियों के भाट उनका सम्बंध देवताओं से जोड़ते है और कहते है कि जब देवताओं और दैत्यों द्वारा समुन्द्र मथने से जहर पैदा हुआ था तो उसकी ज्वाला से लोगों का दम घुटने लगा। महादेव जी उसको पी गये, लेकिन उसे गले से नीचे नहीं उतारा। इस सबब से उनका गला बहुत जलने लगा था जिसकी ठंडक के लिये उन्होने दूब भी बांधी और सांप को भी गले से लपेटा। लेकिन किसी से कुछ आराम न हुआ तब कुबेरजी के बेटे स्वर्ण ने अपने पिता के कहने से कमल के फूलों की माला बनाकर महादेवजी को पहनाई। उससे वह जलन जाती रही। महादेव जी ने खुश होकर स्वर्ण से कहा - हे वीर! तूने मेरे कण्ठ में वनमाला पहलाई है। इस से लोक अब तुझकों वनमाली कहेगे। महादेव जी से स्वर्ण को जब वरदान मिला तो सब देवता और दैत्य बहुत प्रसन्न हुए। उसे वे महावर पुकारने लगे। उन्होने भी उसकी प्रशंसा करके उसे अच्छे-अच्छे वरदान दिये.
माली जाति की उत्पत्ति एवं विकास  

          माली समाज की उत्पत्ति के बारे में यूं तो कभी एक राय नहीं निकली फिर भी विभिन्न ग्रंथो अथवा लेखा-जोखा रखने वाले राव, भाट, जग्गा, बडवा, कवी भट्ट, ब्रम्ह भट्ट व कंजर आदि से प्राप्त जानकारी के अनुसार तमाम माली बन्धु भगवान् शंकर माँ पार्वती के मानस पुत्र है !             
       एक कथा के अनुसार दुनिया की उत्पत्ति के समय ही एक बार माँ पार्वती ने भगवान् शंकर से एक सुन्दर बाग़ बनाने की हट कर ली तब अनंत चौदस के दिन भगवान् शंकर ने अपने शरीर के मेल से पुतला बनाकर उसमे प्राण फूंके! यही माली समाज का आदि पुरुष मनन्दा कहलाया! इसी तरह माँ पार्वती ने एक सुन्दर कन्या को रूप प्रदान किया जो आदि कन्या सेजा कहलायी ! तत्पश्चात इन्हें स्वर्ण और रजत से निर्मित औजार कस्सी, कुदाली आदि देकर एक सुन्दर बाग़ के निर्माण का कार्य सोंपा! मनन्दा और सेजा ने दिन रात मेहनत कर निश्चित समय में एक खुबसूरत बाग़ बना दिया जो भगवान् शंकर और पार्वती की कल्पना से भी बेहतर बना था! भगवान् शंकर और पार्वती इस खुबसूरत बाग़ को देख कर बहुत प्रसन्न हुये ! तब भगवान् शंकर ने कहा आज से तुम्हे माली के रूप में पहचाना जायेगा ! इस तरह दोनों का आपस में विवाह कराकर इस पृथ्वी लोक में अपना काम संभालने को कहा !
    आगे चलकर उनके एक पुत्री और ग्यारह पुत्र हुये ! जो कुल बारह तरह के माली जाति में विभक्त हो गए! अत: माली समाज को इस उपलक्ष पर अनंत चौदस के दिन माली जयंती अर्थात मानन्दा जयंती मनानी है!
प्रसाद- फल, खीर, सामूहिक भोज(बजट के अनुसार ) !
स्थान- समाज का मंदिर, धर्मशाला, नोहरा, समाज की स्कूल !
[नोट : मनन्दा जयंती पर्तिवर्ष अनंत चौदस( रक्षाबंधन के एक महीने बाद ) मनाई जाएगी !]

गुरुवार, 19 सितंबर 2019

साेजत में जयकाराें के बीच विराजीं जैकल माता

साेजत| शहर के 132 केवी जीएसएस के पीछे स्थित जैकल माताजी मंदिर में मां की प्रतिमा शुभ मुहूर्त में विराजित की गई। इस दाैरान पंडितों के सानिध्य में विभिन्न प्रकार के वैदिक संस्कार सम्पन्न हुए। तत्पश्चात अारती का अायाेजन किया गया। इसके बाद में बडी संख्या में श्रद्धालुअाें ने महाप्रसादी का लाभ उठाया। कार्यक्रम की पूर्व संध्या पर भजनाें की प्रस्तुति दुर्गेश मारवाड़ी ने दी। 

मुख्य समाराेह के दिन पंडित सागर भाई व्यास की अगुवाई में संताें की उपस्थिति में शुभवेला में मां जैकल की नई प्रतिमा काे स्थापित किया गया। 

इस माैके मगाराम भाटी, चम्पालाल टांक, रमेश सांखला, नेमाराम हलवाई, श्याम माहेश्वरी, सुरेश पलाेड, भंवरलाल तंवर, विकास टांक, प्रकाश भाटी, जवरीलाल अग्रवाल, रामअवतार भाटी, लक्ष्मण सांखला, मंदिर पुजारी नरसिंगदास वैष्णव, गणपतसिंह कच्छवाह, अर्जुन सांखला, गणपतलाल पालरिया, पन्नाराम चाैहान, रामलाल सांखला अादि माैजूद थे। 


शनिवार, 31 अगस्त 2019

सन्त लिखमीदास जी महाराज 
 (जन्म विक्रम संवत् 1807 आषाढ सुदी 15 (पूर्णिमा) तत्दनुसार 8 जुलाई 1750)

सन्त लिखमीदास राजस्थान के प्रसिद्ध सन्त थे। माली समाज में उनकी बड़ी प्रतिष्ठा है। वे विवाहित थे तथा उनके दो पुत्र और एक पुत्री थी। वे नागौर के निवासी थे। उन्होने अनेकों भजन और दोहों की रचना की है जो आज भी बहुत लोकप्रिय हैं। राजस्थान में उनके बहुत से अनुयारी हैं। नागौर के निकट अमरपुर में उनका एक मन्दिर है जहाँ उन्होने जीवित ही समाधि ले ली थी।

सन्त लिखमीदास का जन्म समुदास जी सोलंकी माली के घर श्रीमति नत्थी देवी के कोख में हुआ। राजस्थान के नागौर जिले में चैनार गांव में बड़की बस्ती है और धाम नागौर से 6 किलोमीटर दूर अमरपुरा नामक गांव मे है। जो राष्ट्रीय राजमार्ग 65 पर स्थित है। बाल्यकाल और भक्ति:- आप बाल्यकाल में ही ईष्वर की अराधना में लीन रहने लगे थे और रामदेव जी भक्ति करते थे। आपके गुरू खिंयारामजी राजपूत थे।आपका विवाह परसरामजी टाक की पुत्री श्रीमति चैनी के साथ हुआ। आपके दो पुत्र और एक पुत्री थी बड़े पुत्र का नाम जगरामजी तथा छोटे पुत्र का नाम गेनदासजी तथा पुत्री का नाम बदिगेना था। धाम:- लिखमिदासजी महाराज की प्रधान धाम अमरपुरा गुरूद्वारा है, अन्य धामें देह, गुडला, ताऊसर, गोंआ आदि स्थान पर है आपके मंदिर शिवगंज, अहमदाबाद, मेड़माड़वास आदि स्थानों पर है।

लिखमिदास जी महाराज ने सैकड़ों पर्चें दिये है और हजारों भजन तथा दोहों की रचना की है। आपके कुछ पर्चें निम्न प्रकार है। घोड़े से पैदल हाथ नही आना, अमरपुरा, को खाली करना, महाराज भीमसिंह जी को चारभुजा के दर्शन देना, हाकम द्वारा क्षमा माॅगकर आपको छोड़ना, बाड़ी में सिचाई करना, जैसलमेर में लड़के को जीवित करना, भगवान द्वारा खेत की कड़ब काटना, एक समय में दो गांवो में जागरण देना, जीवित समाधि की पूर्व में सूचना देना समाधि वाली वस्तुएॅ अहमदाबाद के मूल्ला का आज भी जो श्रदालु मंदिर में जाकर विनती करता हैं उसकी इच्‍छा पुर्ण होती हैं

लिखमिदास जी महाराज ने विक्रम संवत् 1887 आसोज बदी 6 (षष्टमी) 08 सितम्बर 1830 को ग्राम अमरपुरा जीवित समाधि ली। आपकी जयंती पूरे भारत वर्ष में मनाई जाती है।

षिरोमणि श्री लिखमीदास जी महाराज का जीवन परिचय


द्वारकाधीष के अवतार बाबा रामदेव के प्रति आपकी अगाध श्रद्धा एवं भक्ति भावना थी। 
आप अपने पैतृक कृशि कर्म को करते हुए ही श्री हरि का गुणगान किया करते, रात्रि जागरण में 
जाया करते तथा साधु-संतो के साथ बैठकर भजन-कीर्तन करते थे। ऐसा कहा जाता है कि 
महाराज श्री जब भी भजन- कीर्तन के लिए कहीं जाया करते थे तो उनकी अनुपसिथति में 
भगवान द्वारकाधीष स्वयं आकर उनके स्थान पर फसल की सिंचार्इ (पाणत) किया करते थे।



मनुश्य जीवन को प्राप्त कर 'मानवता नहीं रखी जाय तो मनुश्य जन्म कैसा?
महाराज श्री ने जीव मात्र के प्रति दया अपने ह्रदय में धारण कर, मनुश्यों का
 सदैव हित साधन कर अपना मानव जीवन सार्थक किया। संत षिरोमणि ने
सदा निर्विकार भाव से सादगीपूर्ण जीवन जीया। 
आप मिथ्या अभिमान, निंदा, आत्मष्लाघा, पाप कर्म एवं
 अनैतिकता से सदा दूर रहे।
 ऐसे महापुरुश कभी किसी जाति, धर्म या सम्प्रदाय के नहीं होते अपितु
 सबके होते हैं। षुद्ध सातिवक भाव से कर्तव्य कर्म करते रहना और
अन्त में श्री भगवान का गुणगान करते हुए उसी में लीन हो जाना।
 षायद इसी महामन्त्र को महाराज श्री ने अपने जीवन में अपनाया
 और अन्त में परमात्मा तत्व में विलीन हो गये। आइये! नमन करें ऐसी
दिव्य विभूति को, प्रेरणा लेते हैं ऐसे अनन्य स्वरूप् से-जिन्होंने 
अपना भौतिक स्वरूप (देह) माली-सैनी समाज में प्राप्त कर
इसे गौरवानिवत किया।
 दान-दया-धर्म-अहिंसा-मानवता की प्रतिमूर्ति बनकर युगों-युगों
के लिए हमारी प्रेरणा के स्रोत बन गये।
 हमें भी महाराज श्री लिखमीदासजी के जीवन-आदेर्षों को अपना
 कर मनुश्य धन्य करना चाहिए।






























लिखमीदास जी महाराज महाराज के समाधि स्थल: र्इष्वर भक्ति कि साक्षात प्रतिमूर्ति
महाराज  श्री लिखमीदासजी की समाधि नागौर जिला मुख्यालय से 8 किमी दूरी पर
 सिथत अमरपुरा ग्राम में है। 
यहां आपके वंष के ही परिवार आज भी पिवास करते हैं।
महाराज श्री की समाधि के अतिरिक्त यहां 2-3  अन्य वंषों के संतों की समाधियां भरी हैं।
 र्इष्वर के अनन्य भक्त श्री लिखमीदासजी महाराज का समाधि स्थल
 होने के कारण यह स्थल करोडों लोगों की आस्था का केन्द्र है।
देष-प्रदेष-विदेष से यहां आने वाले दर्षनार्थियों का सदैव तांता लगा रहता है।
माली समाज के अलावा अन्य जाति, धर्म एवं समुदाय के 
श्रद्वालु भक्त भी यहां आकर कथा-कीर्तन सत्संग भजन रात्रि जागरण आदि
का आयोजन भी करते हैं।
 जिला मुख्यालय नागौर सडक मार्ग से जुडा होने के कारण यहां
यातायात के साधनों की कोर्इ कमी नहीं है।
 निकटतम रेलवे स्टेषन नागौर ही है। नागौर से बस टैक्सी टैम्पो
आदि यात्रियों के लिए सदैव सुलभ हैं।
 यातायात साधनों की सुलभता से यहां श्रद्वालुओ का आना-जाना बना रहता है

संत शिरोमणी लिखमी दास महाराज
भारत आदिकाल से गुरू परमपरा संस्कृति वाला राष्ट्र रहा  है । गुरू   अथार्त अज्ञान से ज्ञान की ओऱ ले  जाने वाला] मृत्यु से अमरत्व की ओर ले जाने वाला   आध्यात्मिक  जाग्रत कर प्रभु से साक्षात्कार करने वाला । इसी पम्परा में श्री लिखमीदासजी नाम शामिल है । 
श्री लिखमीदासजी को भी सैनिक क्षत्रिय माली सैनी समाज द्वारा समाज के  के  श्रेष्ट  संत महाराज को गुरू परम्परा की कडी के  रूप में श्रद्धा दी  जाती हैै । 
  इस  अनमाल संत का  जन्‍म  विक्रम संवत 180आशाढ सुदी पूर्णिमा या व्यास पूर्णिमा तदनुरूप 8 जुलाई 1750 ईस्‍वी सन्‍ में भडकी बस्ती (चेनार ग्राम) में हुआ, जो नागोर जिला मुख्यालय से मात्र  3 किलोमीटर दूर  हैं।  उनकी माता श्रीमती नत्थी व पिता रामुदास सोलंकी तथा गुरू खींयारामजी थे ।  चेनार बडकी बस्ती वास में आज दिनभी लिखमीदासजी के  ईष्ट देवता बाबा रामदेवजी का मंदिर जीर्णशीर्ण  अवस्था में  खडा  है ।  

       बडे बुजुगो के अनुसार आप बाल्य काल से  ईश्‍वर  की आराधाना  में लीन रहने  लगे थो । उसी समय  से  आपने बाबा रामदेवजी  महाराज की सेवा शुरू कर  दी थी ।  महान व्यक्तित्व के धनी संत बचपन से ही  बाबारामदेवजी के भक्त थे किंतु  भक्ति मार्ग में ज्ञाान मार्गी  थे ।  जिन पर सदगुरू व  संतों का व्यापक प्रभाव था ।

          आपने युवावस्था में प्रवेश किया तब  आपका  विवाह परसरामजी टॉक की सुपुत्री श्रीमती सैनी के साथ सम्पन्न हुआा  आपके विवाह के बाद आपके पिताजी  रामुदासजी इस  संसार से चल  बसे । आपकी माताजी आपके पिताजी की तरह भक्ति  मे  बराबर आपका मार्गदर्शन करती रही ।  जिस समय आपकी 25 वर्ष की आयु हुई थी तब आपकी माताजी भी परमधाम पधार गई । भक्ति मार्ग  ज्ञानमार्गी शाखा के प्रवर्तक संत कबीर के  समान संत लिखमीदासजी भी पढाईं लिखाई से अनजान थे । 
           अमरपुरा गांव  में पवित्र  कृषि कार्य को अपनी गहस्थ जीवन धारा का आधार बना कर संत प्रतिदिन भजन मण्डलीयों के बीच भजन गाते व नये नये  पदो की रचना करते । कबीर  के समान जैसी स्थ‍िति होती उन में से  वह वाणी बोलते थे । 

         ऐसी आम धारणाा  है कि  उनहोने हजारो भजन व दोहो की रचना की किन्तु लेखन का ज्ञाान न होने के कारण व केवल श्रवण पधति का माध्यम बन कर  रह गया । 

               संत लिखमीदासजी ने गुरू महिमा हिन्दु मुस्लिमो की  एकता सत संगति आदि अनेक विषयों पर भजन बनाये इण विध सायब सीवरो अब तुं  कर सिमरन"  तथा " हरिजन हरि  भज  जनम रे रे गाफल कयां जागिया" आदि भजन शीर्ष्‍क " राम नाम स्मरण व गुरू महिमा का ज्ञान करते हैं ।  " ऊच नीच कुल को नाही", " संत बिना निवण कुण करिया " , "साधोे भाई मस्जिद  मंदिर " आद‍ि भजन  उनके सामाजिक समरसता व श्रेष्ठ धार्मिक  मूल्यों के प्रति श्रधा  को व्यक्त करते है ।  उनके द्वारा गेय भक्ति  पद व वाणिया  राग अवसारी प्रभाती राग सौरठ  फकीरी आद‍ि से  युक्त  हैं  , जिन पर शोध किया जाना अत्यन्त आवश्यक है । 

             संत लिखमीदासजी के बारे में  लोक धारणा है कि उन्होने  अपने जीवन काल में अनेक  चमत्क़त कार्य किये परचे दिये जैसे अमरपूरा को  खाली कराना , महाराजा भीमसिंहजी जोधपुर  का  ओडिट ठीक करना,  झुझाले के गोसाईजी  के मंदिर  का बिना चाबी वाणाी द्वारा ताला खेालना, बाडी  में  सिंचाई करना  तथा  दुसरे गांव उसी समय सत्संग करना जिससे लोगों में उनके ईश्वर के प्रति श्रद्धा  का भाव जाग्रत हुआ ।   संत शिरोमणी ने विक्रम संवत 1888 आसोज वदी शष्ठी 8 सितम्‍बर 1830 को ग्राम अमरपुरा में जीवित समाधि  ली ऐसा लोक श्रवण  है । 

       आज भी उनकी जयन्ती पर नागौर जिले  के  मेडता जसनगरकुचेरा के साथ-साथ फालना,  सुमेरपुर,  शिवगंज,  सिरोही,  जोधपुर,  पाली  अहमदाबाn तथा हैदराबाद में भ्‍वय समारोहका आयोजन प्रति  वर्ष किया जाता  है । 

           मानव धर्म व समाज  के लिए जीने का सन्देश देने वाले संत शिरोमणी लिखमीदासजी का क़तित्व व व्यक्तित्व सैनिक क्षत्रिय माली सैनी  समाज के लिए प्रेरणा के साथ साथ गहन अध्ययन व शोध का भी विषय सभी जाति बन्धुओं के लिए  है । 

संकलनकर्ता &  अम`तलाल  टांक शिवगंज] मोबkइल 9414533745                        
  

मंगलवार, 20 अगस्त 2019

Parmar Rajputs (Agnivanshi)

         Parmar (Pramara or Panwar) with 35 branches : Mori, Sodha,Sankhla, Khechar , Umra & Sumra , Kohil, Daddha, Maipawat, Khair, Bhuller, orgatia,Pachawara,Varah, KabaBeedh, Badhel, Dheek, Ujjjainia, Kaleja.....etc 

               Also known as Parwar or Pawar in Maharashtra, where the brances are: Pawar, Bagwe, Ichare, Renuse, Jagdhane, Rasal, Landage, Bane, Rokade, Chandane, Khairnar, Malwade, Wagaje.                    According to the myths their great-grand forefather, Parmar, was created out of fire by Inder Devta, the god of fire, at Mount Abu. It is said that as the newly created man had come out from fire saying “mar, mar” loudly, he came to be known as parmar, and Abu, Dhar, and Ujjain were assigned to him as a territory. 
           The 4 clans known as Agnikula were the Panwar, Chauhan, Parihar, and Chalukya or Solanki.
The Navasahasanka charitra of Padmaguta (11th cent AD) mentions the first of the Parmara clan : Vashishta created a hero from his agnikunda to get back the cow that Vishvamitra had taken from him. Vashishta then said: “you will become a lord of the kings called Paramara”. Here Paramara indicated killer of others. This hero’s son Upendra was succeeded by Vakpatiraj I. The copper-plates of Harsola, that are from 949 AD give the descent of Bappairaja (Vakpatiraja) from Akalavarsha. Akalavarsha was a famous Rashtrakuta king. A later inscription of Vakpatiraj II of the Parmara dynasty mentions that the king bore titles Amoghavarsha, Prathvivallabha and Shrivallabha. There are Rashtrakuta titles. This Vakpatiraj II was an uncle of famous Raja Bhoja.
        The kings of Malwa or Ujain who reigned at Dhar and flourished from the ninth to the twelfth centuries were of the Panwar clan. The 7th and 9th kings of this dynasty rendered it famous. “Raja Munja, the 7th king (974-995), renowned for his lerarning and eloquence, was not only a patron of poets, but was himself a poet of small reputation, the anthologies including various works from his pen. He penetrated in a career of conquest as far as Godavari, but was finally defeated and executed there by the Chalukya king. His nephew, the famous Bhoja, ascended the throne of Dhara about 1018 andreigned gloriously for more than forty years. Like his uncle he cultivated with equal assiduity the arts of peace and war.
          Though his fights with neighbouring powers, including one of the Muhamadan armies of Mahmud of Ghazni, are now forgotten, his fame as an enlightened patron of learning and a skilled author remains undimmed, and his name has become proverbial as that of the model king acoording to Hindu standard. Works on astronomy, architecture, the art of poetry and other subjects are attributed to him. About AD 1060 Bhoja was attacked and defeated by the confederate kings of Gujarat and Chedi, and the Panwar kingdom was reduced to a petty local dynasty until the 13th century. It was finally superseeded by the chiefs of the Tomara and Chauhan clans, who in their turn succumbed to the Muhamaddans in 1401” (V.A. Smith, Early History of India 3rd ed. p395). The city of Ujjain was at this time a centre of Indian intelectual life. Some celebrated astronomers made it their home, and it was adopted as the basis of the Hindu meridional system like Greenwhich in England. The Panwars were held to have ruled from nine castles over the Marustali or ‘Region of death’, the name given to the great dessert of Rajputana, which extends from Sind to the Aravalli mountains and from the great salt lakes to the skirting of Garah. The principal of these castles were Abu, Nundore, Umarkot, Arore, and Lodorva. Mr. Crooke states that the expulsion of the Panwars from Ujjain under their leader Mitra Sen is ascribed to the attack of the Muhamaddans under Shahab-ud-din Ghori about AD 1190. After this they spread to Madhya Pradesh and Maharashtra, where they are known as Pawar (Sivaji was a Puar and so is the Nimbhalkar tribe) Mr. Crooke (Tribes and castes) states: “The Khidmatia,Barwar or Chobdar are said to be an inferior branch of the Panwars, descended from a low-caste woman” . “The Panwars had the abit of keeping women of lower castes to a greater degree than the ordinary, and this has been found to be trait of other castes of mixed origin, and they are sometimes known as Dhakar, a name having the sense of illigitimacy”. (Russel, p339). In the Maratha rice coutry of Wainganga the Panwars have developed into 36 exogamous sections, bearing names of Rajput clans and of villages. Their titles are: Chaudhri (headman), Patlia (patel or chief officer of a village) and Sonwania.
Pawars are descendents of Parmar kings of Dhar. Some of Parmar kings were followers of Jainism, others that of Shaivism. Parmar is a big caste of Jains in Gujarat and it is also a famous clan of Oswals. Another Jain caste named Parwar is also descendent of Parmar kings. Osho Rajnish was from this community, that once was part of the Parwars. 
The Parwar Jain caste is called “Paurpatta” in Sanskrit inscriptions. There are quite a few Sanskrit inscriptions in the Chanderi region that mention them from 11-12th century. It is likely that they are the same people involved in installing Jain images going back to Gupta period in that region, thus they are unlikley to be the descendants of Parmar kings. The Jain caste in Gujarat (Porwal or Porwad) is called “Pragvata” in Sanskrit. Most of the famous Jain temples in Gujarat (Mt. Abu, Ranakpur) were build by them. Their home is South Rajastan. The Parmar kings are called “Pragvata” in Sanskrit. Their original home too is Southern Rajasthan. Thus “Pragvata” must be the name of the region that is now Southern Rajasthan; and the Parmar Rajputs and the Porwal Jains of Rajasthan/Gujarat both take their name from this region. This is the region where Mount Abu is located.
            At the Time of Alexander’s raid into India, he ran up against the Puru tribe. The leader’s name was taken as Porus. There is at least one other “ Porus’ referred to in the Greek accounts. The clan or a name is Puru, and now possibly found amoung the Jats as Puru, Pawar, Parmar, Paur, Por, Paurava or Pauria, or Paurya as a gotra name. However clan names and gotra names may not coincide, the gotra denoting a forefather with the personal name, which may not always be the tribe name
Mori = Branch of Panwar Rajputs. They claim descent from Chandragupta Maurya, but they are probably not realated to the Maurya emperors. In Maharashtra the septs are: More, Madhure, Devkate, Harphale, Dhyber, Marathe, Darekar, Devkar, Adavale.
        This dynasty was founded by Chandragupta Mourya at Patliputra (Modern Patna in Bihar) in 317 B.C. Chandragupta was born in Mayurposag (Peacock tamer) community. Chandragupta became the first historical emperor of India. His empire included almost all of the south Asia. He defeated the Greek invaders. Chandragupta ruled for 22 years. After him his son Bindusar became the emperor. After him Ashok became the emperor. After the war of Kalinga, Ashok adopted Buddhism. After Ashok his grand son Samprati became the emperor and ruled from Ujjain while Dashrath, another grandson ruled from Patliputra. Brihdrath was the last emperor of this dynasty. He was killed by his General Pushyamitra Shung. He founded Pushy dynasty. Kharvel, king of Kaling attacked and killed Pushyamitra. The ‘Devak’ of Mores is feather of peacock. This is because of their ‘Mayurposag’ (Peacock tamer) origin.

मंगलवार, 7 मई 2019

Parmar Rajputs (Agnivanshi)

Parmar (Pramara or Panwar) with 35 branches : 
Mori, Sodha,Sankhla, Khechar, Umra & Sumra, Kohil, Daddha, Maipawat, Khair, Bhuller, orgatia,Pachawara,Varah, KabaBeedh, Badhel, Dheek, Ujjjainia, Kaleja.....etc 

Also known as Parwar or Pawar in Maharashtra, where the brances are: Pawar, Bagwe, Ichare, Renuse, Jagdhane, Rasal, Landage, Bane, Rokade, Chandane, Khairnar, Malwade, Wagaje. According to the myths their great-grand forefather, Parmar, was created out of fire by Inder Devta, the god of fire, at Mount Abu. It is said that as the newly created man had come out from fire saying “mar, mar” loudly, he came to be known as parmar, and Abu, Dhar, and Ujjain were assigned to him as a territory. 

The 4 clans known as Agnikula were the Panwar, Chauhan, Parihar, and Chalukya or Solanki. 
The Navasahasanka charitra of Padmaguta (11th cent AD) mentions the first of the Parmara clan : Vashishta created a hero from his agnikunda to get back the cow that Vishvamitra had taken from him. Vashishta then said: “you will become a lord of the kings called Paramara”. Here Paramara indicated killer of others. This hero’s son Upendra was succeeded by Vakpatiraj I. The copper-plates of Harsola, that are from 949 AD give the descent of Bappairaja (Vakpatiraja) from Akalavarsha. Akalavarsha was a famous Rashtrakuta king. A later inscription of Vakpatiraj II of the Parmara dynasty mentions that the king bore titles Amoghavarsha, Prathvivallabha and Shrivallabha. There are Rashtrakuta titles. This Vakpatiraj II was an uncle of famous Raja Bhoja.
The kings of Malwa or Ujain who reigned at Dhar and flourished from the ninth to the twelfth centuries were of the Panwar clan. The 7th and 9th kings of this dynasty rendered it famous. “Raja Munja, the 7th king (974-995), renowned for his lerarning and eloquence, was not only a patron of poets, but was himself a poet of small reputation, the anthologies including various works from his pen. He penetrated in a career of conquest as far as Godavari, but was finally defeated and executed there by the Chalukya king. His nephew, the famous Bhoja, ascended the throne of Dhara about 1018 andreigned gloriously for more than forty years. Like his uncle he cultivated with equal assiduity the arts of peace and war.
Though his fights with neighbouring powers, including one of the Muhamadan armies of Mahmud of Ghazni, are now forgotten, his fame as an enlightened patron of learning and a skilled author remains undimmed, and his name has become proverbial as that of the model king acoording to Hindu standard. Works on astronomy, architecture, the art of poetry and other subjects are attributed to him. About AD 1060 Bhoja was attacked and defeated by the confederate kings of Gujarat and Chedi, and the Panwar kingdom was reduced to a petty local dynasty until the 13th century. It was finally superseeded by the chiefs of the Tomara and Chauhan clans, who in their turn succumbed to the Muhamaddans in 1401” (V.A. Smith, Early History of India 3rd ed. p395). The city of Ujjain was at this time a centre of Indian intelectual life. Some celebrated astronomers made it their home, and it was adopted as the basis of the Hindu meridional system like Greenwhich in England. The Panwars were held to have ruled from nine castles over the Marustali or ‘Region of death’, the name given to the great dessert of Rajputana, which extends from Sind to the Aravalli mountains and from the great salt lakes to the skirting of Garah. The principal of these castles were Abu, Nundore, Umarkot, Arore, and Lodorva. Mr. Crooke states that the expulsion of the Panwars from Ujjain under their leader Mitra Sen is ascribed to the attack of the Muhamaddans under Shahab-ud-din Ghori about AD 1190. After this they spread to Madhya Pradesh and Maharashtra, where they are known as Pawar (Sivaji was a Puar and so is the Nimbhalkar tribe) Mr. Crooke (Tribes and castes) states: “The Khidmatia,Barwar or Chobdar are said to be an inferior branch of the Panwars, descended from a low-caste woman” . “The Panwars had the abit of keeping women of lower castes to a greater degree than the ordinary, and this has been found to be trait of other castes of mixed origin, and they are sometimes known as Dhakar, a name having the sense of illigitimacy”. (Russel, p339). In the Maratha rice coutry of Wainganga the Panwars have developed into 36 exogamous sections, bearing names of Rajput clans and of villages. Their titles are: Chaudhri (headman), Patlia (patel or chief officer of a village) and Sonwania. 
Pawars are descendents of Parmar kings of Dhar. Some of Parmar kings were followers of Jainism, others that of Shaivism. Parmar is a big caste of Jains in Gujarat and it is also a famous clan of Oswals. Another Jain caste named Parwar is also descendent of Parmar kings. Osho Rajnish was from this community, that once was part of the Parwars. 
The Parwar Jain caste is called “Paurpatta” in Sanskrit inscriptions. There are quite a few Sanskrit inscriptions in the Chanderi region that mention them from 11-12th century. It is likely that they are the same people involved in installing Jain images going back to Gupta period in that region, thus they are unlikley to be the descendants of Parmar kings. The Jain caste in Gujarat (Porwal or Porwad) is called “Pragvata” in Sanskrit. Most of the famous Jain temples in Gujarat (Mt. Abu, Ranakpur) were build by them. Their home is South Rajastan. The Parmar kings are called “Pragvata” in Sanskrit. Their original home too is Southern Rajasthan. Thus “Pragvata” must be the name of the region that is now Southern Rajasthan; and the Parmar Rajputs and the Porwal Jains of Rajasthan/Gujarat both take their name from this region. This is the region where Mount Abu is located.
At the Time of Alexander’s raid into India, he ran up against the Puru tribe. The leader’s name was taken as Porus. There is at least one other “ Porus’ referred to in the Greek accounts. The clan or a name is Puru, and now possibly found amoung the Jats as Puru, Pawar, Parmar, Paur, Por, Paurava or Pauria, or Paurya as a gotra name. However clan names and gotra names may not coincide, the gotra denoting a forefather with the personal name, which may not always be the tribe name
Mori = Branch of Panwar Rajputs. They claim descent from Chandragupta Maurya, but they are probably not realated to the Maurya emperors. In Maharashtra the septs are: More, Madhure, Devkate, Harphale, Dhyber, Marathe, Darekar, Devkar, Adavale. 
This dynasty was founded by Chandragupta Mourya at Patliputra (Modern Patna in Bihar) in 317 B.C. Chandragupta was born in Mayurposag (Peacock tamer) community. Chandragupta became the first historical emperor of India. His empire included almost all of the south Asia. He defeated the Greek invaders. Chandragupta ruled for 22 years. After him his son Bindusar became the emperor. After him Ashok became the emperor. After the war of Kalinga, Ashok adopted Buddhism. After Ashok his grand son Samprati became the emperor and ruled from Ujjain while Dashrath, another grandson ruled from Patliputra. Brihdrath was the last emperor of this dynasty. He was killed by his General Pushyamitra Shung. He founded Pushy dynasty. Kharvel, king of Kaling attacked and killed Pushyamitra. The ‘Devak’ of Mores is feather of peacock. This is because of their ‘Mayurposag’ (Peacock tamer) origin.

रविवार, 28 अप्रैल 2019

प्रशासनिक क्षेत्र में केरियर बनाने के लिये आजमाईश करें विद्यार्थी- गहलोत



लाडनूं में तहसील स्तरीय विशाल प्रतिभा सम्मान समारोह आयोजित

लाडनूं। सैनी वल्र्ड इकोनॉमिक फोरम के तत्वावधान में स्थानीय सैनी अतिथि भवन में आयोजित तहसील स्तरीय प्रतिभा सम्मान समारोह में तहसील भर के कुल 206 विद्यार्थियों को सम्मानित किया गया। कार्यक्रम में मुख्य अतिथि कृपाराम गहलोत नागौर ने कहा है कि सैनी समाज के बालक-बालिकायें शिक्षा के क्षेत्र में निरन्तर आगे बढ रहे हैं, यह समाज की प्रगति का द्योतक है। समाज की प्रतिभाओं को निरन्तर प्रोत्साहन देना समाज के लिये आवश्यक हिस्सा होना चाहिये। उन्होंने प्रतिभाशाली विद्यार्थियों को  प्रशासनिक क्षेत्र में अपना केरियर बनाने का आह्वान किया। कार्यक्रम में फोरम के राष्ट्रीय कोर कमेटी सदस्य डा. श्रीचन्द तूनवाल ने विद्यार्थियों से कडी मेहनत करने की प्रेरणा देते हुये उन्हें फेसबुक, व्हाट्सअप आदि से दूर रहने की चेतावनी दी तथा कहा कि समाज की युवा प्रतिभायें केवल शिक्षा ही नहीं बल्कि विविध क्षेत्रों में आगे बढ़े, तभी समाज का सर्वांगीण विकास संभव है। माली सैनी विकास संस्थान जयपुर के राष्ट्रीय संयोजक रामगोपाल गहलोत ने कहा कि प्रतिभाएं समाज की धरोहर होती है। प्रतिभाओं के विकास में सहयोग करना व प्रोत्साहन करना समाज का कर्तव्य है। उन्होनें इस अवसर पर महिला शिक्षा पर बल देते हुए समाज की महिला प्रतिभाओं के विकास की ओर और अधिक ध्यान देने का आह्वान किया। कार्यक्रम की अध्यक्षता जगदीश प्रकाश आर्य ने की तथा विशिष्ट अतिथि के रूप में इंदरचंद तंवर सुजानगढ, अजयपाल चौहान व जसकरण गहलोत मंचस्थ थे। प्रारम्भ में फोरम के अध्यक्ष प्रेमप्रकाश आर्य ने संस्था व कार्यक्रम का परिचय प्रस्तुत करते हुये अतिथियों का स्वागत किया।
कुल 224 जनों का किया गया सम्मान
इस प्रतिभा सम्मान समारोह में कक्षा 10, 12, स्नातक, स्नातकोत्तर एवं अन्य तकनीकी शिक्षा में सत्र 2016 से 18 के दरमियान अच्छे प्राप्तांको से उतीर्ण लाडनूं शहर के अलावा ग्राम मंगलपुरा, दुजार, डाबड़ी, सारडी, खानपुर के कुल 206 विद्यार्थियों का सम्मान करने के अलावा राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर खेल, सांस्कृतिक व अन्य गतिविधियों में जिला या राज्य स्तर पर श्रेष्ठ प्रदर्शन करने वाली  प्रतिभाओं सहित कुल 224 जनों का सम्मान किया गय़ा। कार्यक्रम में सरकारी नौकरी में नव-नियुक्ति एवं राजकीय सेवाओं से किसी भी पद से सेवानिवृत्त होने वाले बंधुओं का भी सम्मान किया गया। कार्यक्रम में सैनी वल्र्ड इकोनॉमिक फोरम के प्रदेश मंत्री साहित्यकार डॉ. वीरेंद्र भाटी मंगल को उनके द्वारा लिखित पुस्तक घरेलु हिंसा को मानवाधिकार आयेाग द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर पुरस्कृत करने पर विशेष रूप से सम्मानित किया गया। इस अवसर पर टेण्ट व्यवसायी समाजसेवी जंवरीमल पंवार एवं सैनी अतिथि भवन के व्यवस्थापक राजकुमार टाक का भी सम्मान किया गया। कार्यक्रम में विद्यार्थियों द्वारा गीत एवं नृत्यों की प्रस्तुति दी गई। कार्यक्रम में ग्राम डाबडी की सरिता सैनी व विमला माली द्वारा योग के विभिन्न आसनों का शानदार प्रदर्शन किया गया। समारोह में महाराजा सैनी संस्थान के संयोजक जगदीश यायावर, महेंद्र सिंह सांखला, अनोपचंद सांखला, बजरंगलाल यादव, भंवरलाल महावर,  गुलाब चंद चौहान, मालचंद टाक मंगलपुरा, शिवलाल टाक, रामनिवास सारड़ी, जितेंद्र पाल टाक, सुखवीर सिंह आर्य, मुकेश आर्य, रामचंद्र माली, भंवरलाल चौहान, गणपतलाल टाक, जितेन्द्र पंवार, हरजी सैनिक, संजीव प्रकाश आर्य, खीवराज मारोठिया, निर्मल आर्य, विमल मारोठिया आदि उपस्थित रहे।