परमार वंश: इतिहास, युद्ध, उपलब्धियां और अस्वीकार के कारण
अग्निकुण्ड से जिन राजपूत वंशों की उत्पत्ति वर्णित है उनमें धारा अथवा मालवा के परमार प्रमुख है। इस वंश के साहित्य तथा लेखों में स्पष्टतः अग्निकुण्ड की कथा का उल्लेख किया गया है। पद्मगुप्त, जो परमार काल के प्रसिद्ध कवि थे के ग्रन्थ नवसाहसांकचरित में परमार वंश की उत्पत्ति आबू पर्वत से बताई गयी है।
तदनुसार ऋषि वशिष्ठ ईक्ष्वाकुवंश के पुरोहित थे। उनकी कामधेनु नामक गाय को विश्वामित्र ने चुरा लिया। वशिष्ठ ने गाय प्राप्त करने के लिये आबू पर्वत पर पत्र किया। अग्नि में डाली गयी आहुति से एक धनुर्धर वीर उत्पन्न हुआ जिसने विश्वामित्र को परास्त कर गाय को पुन वशिष्ठ को समर्पित कर दिया।
प्रसन्न होकर ऋषि ने इस वीर का नाम ‘परमार’ रखा जिसका अर्थ है शत्रु का नाश करने वाला। इसी द्वारा स्थापित वंश परमार कहा गया। इस कथानक का उल्लेख धनपाल कृत तिलकमंजरी तथा परमार वंश के उदयपुर, आबूपर्वत, वसन्तगढ़ आदि स्थानों से प्राप्त लेखों में भी हुआ है।
परमारों की उत्पत्ति संबंधी इस अनुश्रुति पर टिप्पणी करते हुए गौरीशंकर ओझा ने मत व्यक्त किया है कि चूंकि इस वंश के आदि पूर्वज धूमराज के नाम का सबध अग्नि से था, इसी कारण विद्वानों ने इस वंश को अग्निवंशी स्वीकार कर लिया । किन्तु यह पूर्णतया अनुमानपरक है जिसका कोई आधार नहीं मिलता।
हलायुध की ‘पिंगल सूत्रवृत्ति’ में परमारों को ‘ब्रह्माक्षत्र कुलीन’ बताया गया है। परमार भी अपना संबंध ऋषि वशिष्ठ से जोड़ते है। ऐसी स्थिति में यही मानना तर्कसंगत प्रतीत होता है कि परमार पहले ब्राह्मण थे जो बाद में शासन करने के कारण क्षत्रियत्व को प्राप्त हुए। उल्लेखनीय है कि इस वंश के प्रथम शासक उपेजराज को उदयपुर लेख में ‘द्विजवर्ग्गरत्न’ कहा गया है । पूर्व मध्यकाल में ब्रह्मक्षत्र परम्परा के व्यापक प्रचलन के प्रमाण मिलते है।
2. परमार वंश का इतिहास के साधन (Tools of History of Paramara Dynasty):
परमार वंश का इतिहास हम अभिलेख, साहित्य तथा विदेशी विवरण के आधार पर ज्ञात करते हैं । इस वंश के अभिलेख में सर्वप्रथम सीयक द्वितीय का हसील अभिलेख (948 ईस्वी) है जिससे परमार वंश का प्रारंभिक इतिहास ज्ञात होता है ।
अन्य लेखों में वाक्पति मुंज का उज्जैन अभिलेख (980 ईस्वी), भोज के बांसवाड़ा तथा बेतमा के अभिलेख, उदयादित्य के समय की उदयपुर-प्रशस्ति, लक्ष्मदेव की नागपुर-प्रशस्ति आदि का उल्लेख किया जा सकता है । इनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रशस्ति है जो भिलसा के समीप उदयपुर नामक स्थान के नीलकण्ठेश्वर मन्दिर के एक शिलापट्ट के ऊपर उत्कीर्ण है ।
यह परमार वंश के शासकों के नाम तथा उनकी उपलब्धियों को ज्ञात करने का प्रमुख साधन है तथा इस प्रकार का विवरण अन्यत्र कहीं नहीं मिलता है । परमार वंश के इतिहास का ज्ञान हमें विभिन्न साहित्यिक ग्रन्थों से भी प्राप्त होता है । इनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण है पद्मगुप्त द्वारा विरचित नवसाहसाड्कचरित ।
पद्मगुप्त परमारनरेशों वाक्पतिमुंज तथा सिंधुराज का राजकवि था । यद्यपि इस ग्रन्थ में उसने मुख्यतः अपने आश्रयदाता राजाओं के जीवन तथा कृतियों का ही वर्णन किया है तथापि इसमें परमार वंश के इतिहास से सम्बन्धित अनेक महत्वपूर्ण तथ्य भी लिखित हैं । हर्षचरित की प्रकृति का यह एक चरित काव्य ही है ।
इसके अतिरिक्त जैन लेख मेरुतुंग के प्रबन्धचिन्तामणि से भी परमार वंश के इतिहास, विशेषकर गुजरात के चौलुक्य शासकों के साथ उनके सम्बन्धों का ज्ञान होता है । वाक्पतिमुंज तथा भोज स्वयं विद्वान तथा विद्वानों के संरक्षक थे । उनके काल में अनेक ग्रन्थों की रचना हुई । उनके अध्ययन से हम तत्कालीन समाज एवं संस्कृति का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर सकते है ।
मुसलमान लेखकों तथा गुणों के विवरण से भी परमार वंश के कुछ शासकों के विषय में कुछ बाते ज्ञात होती है । इनमें अबुलफजल की आइने-अकवरी, अल्बेरूनी तथा फरिश्ता के विवरण आदि उल्लेखनीय हैं । मुसलमान लेखक भोज की शक्ति तथा विद्वता की प्रशंसा करते है ।
3. परमार वंश का राजनैतिक इतिहास (Political History of Paramara Dynasty):
परमार वंश की स्थापना दसवीं शताब्दी ईस्वी के प्रथम चरण में उपेन्द्र अथवा कृष्णराज नामक व्यक्ति ने की थी । धारा नामक नगरी परमार वंश की राजधानी था । उदयपुर लेख से पता चलता है कि उसने स्वयं अपने पराक्रम से राजत्व का उच्च पद प्राप्त किया था (शौयाज्जितोत्तुंगनृपत्वमाण:) । लेकिन यह निश्चित नहीं है कि कब और किन परिस्थितियों में उपेंद्र ने मालवा पर अधिकार किया ।
इस समय का राजनीतिक वातावरण काफी अशान्तपूर्ण था तथा प्रतिहारों एवं राष्ट्रकूटों में संघर्ष चल रहा था । प्रतिपाल भाटिया का अनुमान है कि वत्सराज की ध्रुव द्वारा पराजय के बाद उपेन्द्र को अपनी शक्ति विस्तार का अवसर मिला होगा। गोविन्द तृतीय के उत्तरी अभियान के दौरान उसने राष्ट्रकूटों की अधीनता स्वीकार कर लिया।
किन्तु नागभट्ट के समय में प्रतिहारों के शक्तिशाली हो जाने पर उपेन्द्र तथा उसके उत्तराधिकारी उनके अधीन हो गये। पद्मगुप्त, उपेन्द्र की प्रशंसा में लिखता है कि उसने प्रजा के अनेक करों में छूट कर दी तथा वैदिक यज्ञों का अनुष्ठान किया।
उपेन्द्र के बाद कई छोटे-छोटे शासक हुए। इनमें वैरिसिंह प्रथम, सीयक प्रथम, वाक्पति प्रथम तथा वैरिसिह द्वितीय के नाम मिलते है जिन्होंने 790 ईस्वी के लगभग से 945 ईस्वी तक शासन किया । इनकी स्थिति अधीन अथवा सामन्त शासकों जैसी थी जिनकी किसी विशेष उपलब्धि के विषय में हमें ज्ञात नहीं है। ये सभी राष्ट्रकूटों तथा प्रतिहारों की अधीनता में राज्य करते थे।
i. हर्ष अथवा सीअन द्वितीय:
परमार वंश को स्वतंत्र स्थिति में लाने वाला पहला शासक हर्ष अथवा सीअक द्वितीय वैरिसिंह द्वितीय का पुत्र और उत्तराधिकारी था। उसके पिता के समय में प्रतिहारों ने मालवा पर अधिकार कर लिया था तथा परमारों को माण्डू तथा धारा से निवसित कर दिया था। ऐसा प्रतीत होता है कि इस समय परमारों ने भागकर राष्ट्रकूटों के यहाँ शरण ले ली थी।
अस्तु परमार तथा राष्ट्रकूट सत्ता से अपने वंश को मुक्त कराना सीअक की प्राथामिकतायें थीं। प्रतिहार साम्राज्य इस समय पतनोन्मुख स्थिति में था। इसका लाभ उठाते हुए सीअक ने मालवा तथा गुजरात में अपनी स्थिति मजबूत कर ली ।
तत्पश्चात् उसने अन्य क्षेत्रों में अपना विजय अभियान प्रारम्भ किया । उसके हर्सोल लेख से पता चलता है कि योगराज नामक किसी शत्रु को उसने जीता था । इसकी पहचान संदिग्ध है । संभवतः यह गुजरात के चालुक्यवंश से संबंधित प्रतिहार नरेश महेन्द्रपाल प्रथम का कोई सामन्त था । नवसाहसांकचरित उसे हुणमण्डल की विजय का श्रेय प्रदान करता है ।
तदनुसार सीअक ने हूण राजकुमारों की हत्या कर उनकी रानियों को विधवा बना दिया था हूणमण्डल से तात्पर्य मध्य प्रदेश के इन्दौर के समीपवर्ती प्रदेश से है जिसे जीतकर सीअक ने अपने साम्राज्य में शामिल कर लिया था । किन्तु उसकी बढती हुई शक्ति पर जेजाकभुक्ति के चन्देलों ने अंकुश लगाया ।
खुजराहों लेख से पता चलता है कि चन्देल शासक यशोवर्मन् ने सीअक को पराजित किया था । उसे ‘मालवों के लिये काल के समान’ (काल-वन्मालवानाम्) कहा गया है । ऐसा प्रतीत होता है कि यशोवर्मन् ने परमार राज्य के किसी भाग पर अधिकार नहीं किया तथा उसका युद्ध केवल परमारों को आतंकित करने के लिये ही था ।
सीअक को सबसे महत्वपूर्ण सफलता राष्ट्रकूटों के विरुद्ध मिली तथा उसने अपने वंश को राष्ट्रकूटों की अधीनता से मुक्त कराया । नर्मदा नदी के तट पर राष्ट्रकूट नरेश खोट्टिग की सेनाओं के साथ युद्ध हुआ जिसमें सीयक की विजय । उसने राष्ट्रकूट नरेश का उसकी राजधानी मान्यखेत तक पीछा किया तथा वहाँ से बहुत अधिक सम्पत्ति लूट कर लाया ।
वह अपने साथ ताम्रपत्रों की अभिलेखागार में सुरक्षित प्रतियां भी उठा ले गया । इन्हीं में से एक लेख गोविन्द चतुर्थ का था जिस पर बाद में एक ओरा मुंज ने अपना लेख खुदवाया था । राष्ट्रकूटों के साथ संघर्ष में सीअक का एक सेनापति भी मारा गया ।
उदयपुर लेख में इस विजय का उल्लेख अत्यन्त काव्यात्मक ढंग से करते हुए कहा गया है कि सीयक ने ‘भयंकरता में गरुड़ की तुलना करते हुए खोट्टिग की लक्ष्मी को युद्ध में छीन लिया’ । उसकी इस विजय के परिणामस्वरूप परमार राज्य की दक्षिणी सीमा ताप्ती नदी तक जा पहुँची । इस प्रकार सीअक एक शक्तिशाली सम्राट सिद्ध हुआ जिसकी विजयों ने परमार साम्राज्य की सुदृढ़ आधारशिला प्रस्तुत किया ।
ii. वाक्पति मुंज:
सीयक के दो पुत्र थे- मुंज तथा सिन्धुराज । इनमें पहला उसका दत्तक पुत्र था लेकिन सीयक की मृत्यु के बाद वही गद्दी पर बैठा । इतिहास में वह वाक्पति मुंज तथा उत्पलराज के नाम से भी प्रसिद्ध है । प्रबन्धचिन्तामणि में उसके जन्म के विषय में एक अनोखी कथा मिलती है । इसके अनुसार सीअक को बहुत दिन तक कोई पुत्र नहीं प्राप्त हुआ ।
संयोगवश उसे एक दिन मुंज घास में पड़ा एक नवजात शिशु मिला । सीअक उसे उठाकर घर लाया तथा पालन पोषण करके बडा किया । बाद में उसकी अपनी पत्नी से सिन्धुराज नामक पुत्र भी उत्पन्न हो गया । किन्तु वह अपने दत्तक पुत्र से पूर्ववत् ह्वेह करता रहा । मुंज में पड़े होने से ही उसका नाम मुंज रखा गया । सीअक ने स्वयं उसे अपना उत्तराधिकारी घोषित किया था ।
किन्तु कुछ विद्वान इस कथानक की ऐतिहासिकता में संदेह व्यक्त करते हुए मत देते है कि मुंजराज नाम की व्याख्या ढूंढने क उद्देश्य से इसका सृजन किया गया है । वाक्पति मुंज एक शक्तिशाली शासक था । राज्यारोहण के पश्चात् वह अपने साम्राज्य को विस्तृत करने में जुट गया । इस उद्देश्य से उसने अनेक युद्ध किये ।
मुंज ने कलचुरि शासक युवराज द्वितीय को हराकर उसकी राजधानी त्रिपुरी को लूटा । उदयपुर लेख में इसका विवरण गिक्षन है। ऐसा प्रतीत होता है कि मुंज त्रिपुरी पर अधिक समय तक अधिकार नहीं रख पाया तथा उसने कलचुरि राज्य से संधि कर उसकी राजधानी वापस कर दिया ।
हूण-मण्डल के हूणों ने उसकी अधीनता स्वीकार की इसमें मालवा क्षेत्र सम्मिलित था । गाओंरी लेख से पता चलता है कि मुंज ने इस क्षेत्र में स्थित वणिका नामक ग्राम ब्राह्मणों को दान में दिया था । यह उसकी हूण क्षेत्र पर विजय एवं अधिकार का स्पष्ट प्रमाण है ।
इसी प्रकार उसने मेवाड़ के गुहिल वंशी शासक शक्तिकुमार को हराकर उसकी राजधानी आघाट (उदयपुर स्थित अहर) को लूटा । राष्ट्रकूट वंशी धवल के बीजापुर लेख से पता चलता है कि गुहिल नरेश ने भागकर धवल के दरबार में शरण ली । इस युद्ध में गुर्जर वंश का कोई शासक भी शक्तिकुमार की ओर से लड़ा था किन्तु वह भी मुंज द्वारा पराजित किया गया । इस गुर्जर नरेश की पहचान के विषय में मतभेद है ।
दशरथ शर्मा तथा एच. सी. राय इसे चालुक्य नरेश मूलराज मानते है । मजूमदार तथा भाटिया के अनुसार वह कन्नौज के प्रतिहारों का कोई सामन्त था । नड्डुल के चौहानों से भी उसका युद्ध हुआ । चौहान शासक बलिराज को हराकर उसने आबू पर्वत तथा जोधपुर के दक्षिण का भाग छीन लिया ।
पश्चिम में उसने लाट राज्य पर आक्रमण किया । इस समय लाट प्रदेश पर कल्याणी के चालुक्यों का अधिकार था जहाँ तैल द्वितीय का सामन्त वारप्प तथा उसका पुत्र गोग्गीराज शासन करते थे । मुंज ने वारप्प को परास्त किया । परिणामस्वरूप उसका चालुक्य नरेश तैल से संघर्ष छिड़ गया ।
प्रबन्धचिन्तामणि से पता चलता है कि मुंज ने छ: बार तेल की सेनाओं को पराजित किया और अन्त में अपने मंत्री रुद्रादित्य के परामर्श की उपेक्षा करते हुए उसने गोदावरी नदी पारकर स्वयं राष्ट्रकूट राज्य पर आक्रमण कर दिया ।
उसे राष्ट्रकूटों की शक्ति का सही अन्दाजा नहीं था । मुंज राष्ट्रकूट सेनाओं द्वारा पराजित किया गया तथा बन्दी बना लिया गया । तेल ने नर्मदा नदी तक परमार राज्य के दक्षिणी भाग पर अधिकार कर लिया । उसने कारागार में ही परमार नरेश मुंज का वध करवा दिया।
प्रबन्धचिन्तामणि के अतिरिक्त कैथोम तथा गडग जैसे चालुक्य लेखों से भी तैल द्वारा मुंज के वध की सूचना मिलती है । इस प्रकार उसका दुखद अन्त हुआ । मुंज ने 992 ईस्वी से 998 ईस्वी तक राज्य किया । विजेता होने के साथ-साथ वह स्वयं एक उच्चकोटि का कवि एवं विद्या और कला का उदार संरक्षक था । पद्मगुप्त, धनन्यय, धनिक, हलायुध, अमितगति जैसे विद्वान् उसकी राजसभा को सुशोभित करते थे ।
पद्मगुप्त उसकी विद्वता एवं विद्या के प्रति अगाध प्रेम की चर्चा करते हुए लिखता है कि ‘विक्रमादित्य के चले जाने तथा सातवाहन के अस्त हो जाने पर सरस्वती को कवियों के मित्र मुंज के यहाँ ही आश्रय प्राप्त हुआ था । वह महान् निर्माता भी था जिसने अनेक मन्दिरों तथा सरोवरों का निर्माण करवाया था ।
अपनी राजधानी में उसने ‘मुंजसागर’ नामक एक तालाब बनवाया तथा गुजरात में मुंजपुर नामक नये नगर की स्थापना करवायी थी । उज्जैन, धर्मपुरी, माहेश्वर आदि में उसने कई मन्दिरों का निर्माण भी करवाया । इस प्रकार उसकी प्रतिभा बहुमुखी थी । श्रीवल्लभ, पृथ्वीवल्लभ, अमोघवर्ष आदि उसकी प्रसिद्ध उपाधिया थीं ।
iii. सिन्धुराज:
मुंज के कोई पुत्र नहीं था, अतः उसकी मृत्यु के बाद उसका छोटा भाई सिन्धुराज शासक बना । उसने कुमारनारायण तथा साहसाड्क जैसी उपाधियों धारण कीं । वह भी महान् विजेता और साम्राज्य निर्माता था । राजा बनने के पश्चात् वह अपने साम्राज्य की प्रतिष्ठा को पुनस्थापित करने के कार्य में जुट गया ।
उसका सबसे पहला कार्य कल्याणी के चालुक्यों से अपने उन क्षेत्रों को जीतना था जिन पर मुंज को हराकर तैलप ने अधिकार कर लिया था । उसका समकालीन चालुक्य नरेश सत्याश्रय था । नवसाहसांकचरित से पता चलता है कि सिंधुराज ने कुन्तलेश्वर द्वारा अधिग्रहीत अपने राज्य को तलवार के बल पर पुन अपने अधिकार में किया ।
यहां कुन्तलेश्वर से तात्पर्य सत्याश्रय से ही है । तत्पश्चात् उसने अन्य स्थानों की विजय का कार्य प्रारम्भ किया । उसकी कुछ विजयों के विषय में पद्मगुप्त सूचना देता है । वह उसे कोशल, लाट, अपरान्त तथा मुरल का विजेता बताता है । यहां कोशल में तात्पर्य दक्षिणी कोशल से है जो वर्तमान छत्तीसगढ़ राज्य में स्थित (रायपुर-विलासपुर क्षेत्र) था ।
लाट प्रदेश गुजरात में था जहां कल्याणी के चालुक्य सामन्त गोग्गीराज शासन कर रहा था । सिन्धुराज ने उस पर आक्रमण कर उसे परास्त किया तथा वहीं से अपरान्त (कोंकण) की विजय की जहां शिलाहार वंश का शासन था । शिलाहारों ने उसकी अधीनता मान ली । मुरल की पहचान निश्चित नहीं है । यह राज्य संभवतः अपरान्त और केरल के बीच स्थित था ।
पता चलता है कि बस्तर राज्य के नलवंशी शासक ने वज़्र (वैरगढ़, म. प्र.) के अनार्य शासक वज़्रकुश के विरुद्ध सिन्धुराज से सहायता की याचना की । परिणामस्वरूप सिन्धुराज ने विद्याधरों को साथ लेकर गोदावरी पार किया तथा अनार्य शासक के राज्य में जाकर उसकी हत्या कर दी । अनुग्रहीत नागशासक ने सिन्धुराज के साथ अपनी कन्या शशिप्रभा का विवाह कर दिया ।
विद्याधर थाना जिले के शिलाहार थे जिनका शासक अपराजित था । उत्तर की ओर उसने हूण मण्डल के शासक को हराया उदयपुर लेख तथा नवसाहसांकचरित दोनों में हूणों का उल्लेख मिलता है । ऐसा प्रतीत होता है कि सिन्धुराज ने हूणों का पूर्णरूपेण दमन कर दिया तथा बाद में विद्रोह खडा करने की हिम्मत उनमें नहीं रही ।
इसी समय वागड के परमार सामन्त चण्डप ने विद्रोह का झंडा खडाकर दिया किन्तु सिंधुराज ने उसके विद्रोह को शान्त किया । किन्तु गुजरात के चालुक्य शासक मूलराज प्रथम के पुत्र चामुण्डराज के हाथों सिन्धुराज को पराजित होना पड़ा ।
जयसिंह सूरि की कुमारभूपालचरित तथा वाडनगर लेख से इसकी सूचना मिलती है । ऐसा प्रतीत होता है कि सिन्धुराज को पराजित हो जाने के बाद युद्धभूमि से भागकर अपनी जान बचानी पड़ी । किन्तु इस असफलता के बावजूद वह एक योग्य शासक था जिसने अपने भाई मुंज के काल में लुप्त हुई परमार वंश की प्रतिष्ठा को पुन स्थापित कि या। उसकी मृत्यु 1000 ईस्वी के लगभग हुई ।
iv. भोज:
सिन्धुराज के पश्चात् उसका भोज परमार वंश का शासक हुआ । वह इस वंश का सर्वाधिक महत्वपूर्ण शासक था जिसके समय में राजनीतिक और सांस्कृतिक दोनों ही दृष्टियों से परमार राज्य की अभूतपूर्व उन्नति हुई ।
भोज के शासन-काल की घटनाओं की सूचना देने वाले आठ अभिलेख मिलते है जो 1011 ईस्वी से 1046 ईस्वी तक के है । उदयपुर प्रशस्ति से हम उनकी राजनैतिक उपलब्धियों का ज्ञान प्राप्त करते है । इसके अनुसार उसने ‘चेदिश्वर, इन्द्ररथ, तोग्गल, राजा भीम, कर्नाट, लाट और गुर्जर, के राजाओं तथा तुर्कों को पराजित किया ।
4. परमार वंश का युद्ध तथा विजयें (Wars and Victories of Paramara Dynasty):
उसका सर्वप्रथम संघर्ष कल्याणी के चालुक्यों के साथ हुआ । प्रारम्भ में उसे कुछ सफलता मिली तथा गोदावरी के आस-पास का क्षेत्र उसने जीत लिया । इस युद्ध में त्रिपुरी के कलचुरि नरेश गांगेयदेव विक्रमादित्य तथा चोलनरेश राजेन्द्र से भोज को सहायता प्राप्त हुई थी ।
कल्वन लेख, जो भोज के सामन्त यशोवर्मा का है, से सूचित होता है कि उसने कर्णाट, लाट तथा कोंकण को जीता था । ऐसा प्रतीत होता है कि उसे कर्णाट से होकर ही कोंकण को जीता था जिसमें चालुक्य साम्राज्य के उत्तर का गोदावरी का समीपवर्ती कुछ भाग उसके अधिकार में आ गया था ।
उसके लेखों से इसकी सूचना मिलती है । बेलगाँव लेख में बताया गया है कि वह ‘भोजरूप कमल के लिये चन्द्र के समान’ था । मीराज लेख से पता चलता है कि उसने कोंकण नरेश की समस्त सम्पत्ति छीन लिया तथा कोल्हापुर मे सैनिक शिविर लगाकर उत्तर भारत की विजय के निमित्त योजनायें तैयार किया था । परन्तु चालुक्य नरेश जयसिंह द्वितीय ने उसे हरा दिया ।
भोज ने लाट के शासक कीर्तिराज के ऊपर आक्रमण किया । वह पराजित हुआ तथा आत्मसमर्पण करने को विवश हुआ । भोज के सामन्त यशोवर्मा का कल्वन से प्राप्त लेख लाट प्रदेश पर उसके अधिकार की पुष्टि करता है । ऐसा लगता है कि कीर्तिवर्मा को हटाकर भोज ने यशोवर्मा को लाट का शासक बनाया था ।
बताया गया है कि वह भोज की ओर से नासिक में 1500 ग्रामों पर शासन कर रहा था । लाट को जीतने के बाद उसने कोंकण प्रदेश की विजय की जहाँ शिलाहार वंश का शासन था । किन्तु कोंकण पर उसकी विजय स्थायी नहीं हुई तथा शीघ्र ही चालुक्य नरेश जयसिंह द्वितीय ने वही अपना अधिकार कर लिया ।
मीराज लेख से सूचना मिलती है कि उसने कोंकण नरेश को पराजित कर उसकी सारी सम्पत्ति छीन लिया था । भोज ने उड़ीसा की भी विजय की जहाँ का शासक इन्द्ररथ था । उसकी राजधानी आदिनगर में थी । इन्द्ररथ का उल्लेख चोल शासक राजेन्द्र के तिरुमलै लेखों में भी मिलता है । कुछ विद्वानों के अनुसार उसी के सहयोग से भोज ने इन्द्ररथ को जीता होगा ।
उदयपुर तथा कल्वन लेखों से सूचना मिलती है कि भोज ने चेदिवंश के राजा को जीता था । यह पराजित नरेश गांगेयदेव रहा होगा जो भोज का समकालीन था । पहले गांगेयदेव तथा भोज के बीच मैत्रीपूर्ण संबंध थे । ऐसा प्रतीत होता है कि प्रतिहार क्षेत्रों पर अधिकार को लेकर दोनों में अनवन हो गयी तथा भोज ने उसे पराजित कर खुशियों मनायी ।
उदयपुर लेख से पता चलता है कि उसने तोग्गल तथा तुरुष्क को जीता था । कुछ विद्वान् इसका तात्पर्य मुसलमानों की विजय से लेते प्रतिपादित करते है कि भोज ने महमूद गजनवी के किसी सरदार को युद्ध में हराया था । लेकिन यह निष्कर्ष संदिग्ध हैं । हूणों के विरुद्ध भी उसे सफलता प्राप्त हुई ।
चन्देलों में संघर्ष-जिस समय भोज मालवा में अपने साम्राज्य का विस्तार कर रहा था, उसी समय बुन्देलखण्ड में चन्देल भी अपनी सत्ता सुदृढ़ करने में लगे हुए थे । भोज का समकालीन चन्देल सम्राट विद्याधर उससे बढ़कर महत्वाकांक्षी एवं पराक्रमी था ।
ग्वालियर तथा दूबकुण्ड में उसके कछवाहा वंशी सामन्त शासन करते थे । ऐसी स्थिति में दोनों के बीच संघर्ष अनिवार्य हो गया । ऐसा प्रतीत होता है कि भोज विद्याधर की बढती हुई शक्ति के आगे मजबूर हो गया तथा उसके सामन्तों से उसे पराजित भी होना पड़ा । चन्देल वंश के एक लेख में कहा गया है कि “कलचुरि चन्द्र तथा भोज विद्याधर की गुरु के समान पूजा करने थे ।”
यह ज्ञात नहीं है कि भोज तथा विद्याधर के बीच सीधा संघर्ष हुआ अथवा उसने बिना युद्ध के ही चन्देल नरेश की प्रभुता मान ली । गांगुली का विचार है कि भोज ने विद्याधर के ऊपर आक्रमण किया तथा पराजित हुआ था ।
किन्तु इस विषय में हम निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कह सकते । ग्वालियर के कछवाहा शासक महीपाल के सासबहू लेख से पता चलता है कि कछवाहा सामन्त कीर्त्तिराज ने भोज की सेनाओं को हराया था । संभव है उसे अपने स्वामी विद्याधर से सहायता मिली हो । किन्तु विद्याधर की मृत्यु के बाद चन्देल शक्ति निर्बल पड़ गयी जिससे कछवाहों ने भोज की अधीनता स्वीकार कर ली ।
मालवा के पश्चिमोत्तर में चाहमानों का राज्य था । भोज का उनके साथ भी संघर्ष हुआ । पृथ्वीराजविजय से सूचना मिलती है कि भोज ने चाहमान शासक वीर्याराम को पराजित कर कुछ समय के लिये शाकम्भरी के ऊपर अपना अधिकार कर लिया । किन्तु वीर्याराम के उत्तराधिकारी चामुण्डराज ने पुन: शाकम्भरी पर अधिकार कर लिया । इस युद्ध में परमारों का सेनापति साढ़ मार डाला गया ।
मेरुतुंग के ‘प्रबन्धचिन्तामणि’ से पता चलता है कि भोज ने चालुक्य नरेश भीम पर आक्रमण करने के लिये अपने जैन सेनानायक कुलचन्द्र के नेतृत्व में एक सेना भेजी । इस समय भीम सिन्ध अभियान पर निकला हुआ था । कुलचन्द्र ने उसकी राजधानी अन्हिलवाड़ को लूटा । उदयपुर लेख में कहा गया है कि भोज ने अपने भृत्यों के माध्यम से भीम पर विजय पाई थी ।
इस प्रकार भोज ने अपने समकालीन कई शक्तियों को पराजित कर एक विशाल एवं सुदृढ़ साम्राज्य स्थापित कर लिया । भोज की पराजय तथा परमार सत्ता का अन्त-भोज की अतिशय महत्वाकांक्षा एवं युद्ध प्रियता ही अन्ततोगत्वा उसके पतन का कारण सिद्ध हुई ।
ऐसा ज्ञात होता है कि अपने जीवन के अन्तिम दिनों में भोज अपने साम्राज्य की रक्षा नहीं कर सका तथा उसे भारी असफलताओं का सामना करना पड़ा । सर्वप्रथम चालुक्य नरेश सोमेश्वर द्वितीय ने भी उसकी राजधानी धारा पर आक्रमण किया । भोज पराजित हुआ तथा भाग खड़ा हुआ ।
चालुक्यों ने उनकी राजधानी धारा को खूब लूटा । आक्रमणकारियों ने धारा नगरी को जला दिया। सोमेश्वर की इस विजय की चर्चा नगाई लेख (1058 ईस्वी) में मिलती है । विल्हण कृत विक्रमांकदेवचरित से भी इसकी पृष्टि होती है जिसमें कहा गया है कि भोज ने भाग कर अपनी जीवन-रक्षा की ।
आक्रमणकारियों के लौट जाने के बाद ही वह अपनी राजधानी पर अधिकार कर सका । भोज के शासन-काल के अन्य में चालुक्यों तथा चेदियों ने उसके विरुद्ध एक संघ बनाया । इस संघ ने भोज की राजधानी पर आक्रमण किया ।
इस आक्रमण का नेता कलचुरि नरेश लक्ष्मीकर्ण था । भोज चिन्ता में बीमार पड़ा था तथा अन्ततः उसकी मृत्यु हो गयी । उसके मरते ही कर्ण धारा पर टूट पड़ा तथा लूट-पाट कर प्रचुर सम्पत्ति अपने साथ लेता गया । चालुक्य भीम ने भी दूसरी ओर से धारा नगरी पर आक्रमण कर उसे ध्वस्त किया ।
इस प्रकार परमार साम्राज्य का अन्त हो गया । भोज का अन्त यद्यपि रहा तथापि इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि वह अपने युग का एक पराक्रमी नरेश था । उसके उत्कर्ष काल में उत्तर तथा दक्षिण की सभी शक्तियों ने उसका लोहा माना था । उसने परमार सत्ता को चरमोत्कर्ष पर पहुँचा दिया ।
उदयपुर लेख में उसकी प्रशंसा करते हुये कहा गया है- “पृथु की तुलना करने वाले भोज ने कैलाश से मलय पर्वत तक तथा उदयाचल से अस्ताचल तक की समस्त पृथ्वी पर शासन किया । उसने अपने धनुष-बाण से पृथ्वी के समस्त राजाओं को उखाड़ कर उन्हें विभिन्न दिशाओं में बिखेर दिया तथा पृथ्वी का परम प्रीतिदाता बन गया ।”
हमें पता चला है कि भोज ने पूर्व में उड़ीसा, पश्चिम में गुजरात और लाट तथा दक्षिण में कोंकण को जीता था । कन्नौज के उत्तर में उसकी सेनायें हिमगिरि तक गयी थीं । अतः प्रशस्ति का उपर्युक्त विवरण अतिश्योक्ति नहीं कहा जा सकता ।
5. परमार वंश का सांस्कृतिक उपलब्धियाँ (Cultural Achievements of Paramara Dynasty):
भारतीय इतिहास में भोज की ख्याति उसकी विद्वता तथा विद्या एवं कला के उदार संरक्षक के रूप में अधिक है । उदयपुर लेख में कहा गया है कि उसने सब कुछ साधा, सम्पन्न किया, दिया और जाना, जो अन्य किसी के द्वारा संभव नहीं था। इससे अधिक कविराज भोज की प्रशंसा क्या हो सकती है ।
उसने अपनी राजधानी धारा नगर में स्थापित किया तथा उसे विविध प्रकार से अलंकृत करवाया । यह विद्या तथा कला का सुप्रसिद्ध केन्द्र बन गया । यहाँ अनेक महल एवं मन्दिर बनवाये गये जिनमें सरस्वती मन्दिर सर्वप्रमुख था । वह स्वयं विद्वान् था तथा उसकी उपाधि कविराज की थी । उसने ज्योतिष, काव्य शास्त्र, वास्तु आदि विषयों पर महत्वपूर्ण गुच्छों की रचना की तथा धारा के सरस्वती मन्दिर में एक प्रसिद्ध संस्कृत विद्यालय की स्थापना करवायी ।
उसकी राजसभा पंडितों एवं विद्वानों से अलंकृत थी । उसकी राजधानी धारा विद्या तथा विद्वानों का प्रमुख केन्द्र थी । आइने-अकबरी के अनुसार उसकी राजसभा में पाँच सौ विद्वान् निवास करते थे । भोज की रचनाओं में सरस्वतीकण्णभरण, शृंगारप्रकाश, प्राकृत व्याकरण, कूर्मशतक, शृंगारमंजरी, भोजचंपू, युक्तिकल्पतरु, समरांगणसूत्रधार, तत्वप्रकाश, शब्दानुशासन, राजमृगांक आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय है ।
ये विविध विषयों से संबंधित है । युक्तिकल्पतरु समरांगणसूत्रधार वास्तुशास्त्र के ग्रंथ है । इनसे पता चलता कि भोज की काव्यात्मक प्रतिभा उच्चकोटि की थी । बताया गया है कि वह अच्छी कविताओं पर विद्वानों को पुरस्कार देता था । वह इतना बड़ा दानी था कि उसके नाम से यह अनुश्रुति चल पड़ी कि वह हर कवि को हर श्लोक पर एक लाख मुद्रायें प्रदान करता था । इससे उसकी दानशीलता सूचित होती है ।
उसके दरबारी कवियों एवं विद्वानों में भास्करभट्ट, दामोदरमिश्र, धनपाल आदि प्रमुख थे । वह विद्वानों को उनकी विद्वता पर प्रसन्न होकर उपाधियों भी देता था । उसकी मृत्यु पर पण्डितों को महान् दुख हुआ था, सभी तो एक प्रसिद्ध लोकोक्ति के अनुसार उसकी मृत्यु से विद्या और विद्वान् दोनों ही निराश्रित हो गये ।
भोज एक महान् निर्माता भी था । भोपाल के दक्षिण-पूर्व में उसने 250 वर्ग मील लम्बी एक झील का निर्माण करवाया था जो आज भी ‘भोजसर’ नाम से प्रसिद्ध है । यह परमारकालीन अभियांत्रिक कुशलता एवं कारीगरी का अद्भुत नमूना प्रस्तुत करता है ।
धारा में सरस्वती मन्दिर के समीप उसने एक विजय-स्तम्भ स्थापित किया तथा भोजपुर नामक नगर की स्थापना करवाई । चित्तौड़ में उसने त्रिभुवन नारायण का मन्दिर बनवाया तथा मेवाड़ के नागोद क्षेत्र में भूमि दान में दिया । इसके अतिरिक्त उसने अन्य अनेक मन्दिरों का भी निर्माण करवाया था ।
इस प्रकार भोज की प्रतिभा बहुमुखी थी । निश्चयत वह अपने वंश का सर्वाधिक यशस्वी शासक था । उसका शासन-काल राजनैतिक तथा सांस्कृतिक दोनों ही दृष्टियों से परमार वंश के चरमोत्कर्ष को व्यक्त करता है ।
6. परमार सत्ता का अन्त (Decline of Paramara Dynasty):
भोज ने 1010 ईस्वी से 1060 ईस्वी तक शासन किया । उसकी मृत्यु के साथ ही परमार वंश के गौरव का भी अन्त हो गया । भोज के उत्तराधिकारी लगभग 1210 ईस्वी तक स्थानीय शासकों की हैसियत से शासन करते रहे परन्तु उनके शासन-काल का कोई महत्व नहीं है ।
भोज का पुत्र जयसिंह प्रथम (1055-1070 ई.) उसके बाद गद्दी पर बैठा । इस समय धारा पर कलचुरि कर्ण तथा चालुक्य भीम प्रथम का अधिकार था । जयसिंह ने कल्याणी नरेश सोमेश्वर प्रथम के पुत्र विक्रमादित्य की सहायता प्राप्त की तथा अपनी राजधानी को शत्रुओं से मुक्त करा लिया । वह सोमेश्वर प्रथम का आश्रित राजा वन गया । किन्तु जब कल्याणी का शासक सोमेश्वर द्वितीय हुआ तो स्थिति बदल गयी ।
उसने कर्ण तथा कुछ अन्य राजाओं के साथ मिलकर मालवा पर आक्रमण कर दिया । युद्ध में जयसिंह पराजित हुआ तथा मार डाला गया । आक्रमणकारियों ने उसकी राजधानी को के बाद ध्वस्त कर दिया । तत्पश्चात उदयादित्य राजा बना ।
प्रारम्भ में तो उसे कलचुरि कर्ण के विरुद्ध संघर्ष में सफलता नहीं मिली किन्तु बाद में उसने मेवाड़ के गुहिलोत, नाडोल तथा शाकम्भरी के चाहमान वंशों की सहायता प्राप्त कर अपनी स्थिति मजबूत बना ली । इनमें शाकम्भरी के चाहमान नरेश विग्रहराज की सहायता विशेष कारगर सिद्ध हुई तथा उदयादित्य ने कर्ण को पराजित कर अपनी राजधानी को मुक्त करा लिया ।
तत्पश्चात् उदयादित्य ने कुछ समय तक शान्तिपूर्वक शासन किया तथा अपना समय राजधानी के पुनरुद्धार में लगाया । उसने भिलसा के पास उदयपुर नामक नगर बसाया तथा वहाँ नीलकण्ठ के मन्दिर का निर्माण करवाया ।
उदयादित्य का बड़ा पुत्र लक्ष्मदेव उसके बाद राजा बना । नागपुर से उसका लेख मिलता है जिसमें उसकी उपलब्धियों का अतिश्योक्तिपूर्ण विवरण दिया गया है । इसे यथार्थ नहीं माना जा सकता । ऐसा लगता है कि मालवा के समीपवर्ती कुछ क्षेत्रों में उसे सफलता प्राप्त हुई हो ।
इस समय पालों की स्थिति निर्बल थी जिसका लाभ उठाते हुए लक्ष्मदेव ने बिहार तथा बंगाल में स्थित उनके कुछ प्रदेशों पर आक्रमण किया होगा । इसी प्रकार उसने कलचुरि नरेश यश:कर्ण को भी युद्ध में पराजित किया था । किन्तु मुसलमानों के विरुद्ध उसे सफलता नहीं मिली तथा महमूद ने उज्जैन पर आक्रमण कर वहां अधिकार जमा लिया ।
लक्ष्मदेव के बाद उसका छोटा भाई नरवर्मा (1094-1113 ई.) राजा बना । वह एक निर्बल शासक था जो अपने साम्राज्य को सुरक्षित नहीं रख पाया । किन्तु सांस्कृतिक दृष्टि से उसका शासन काल उल्लेखनीय माना जा सकता है ।
वह स्वयं एक विद्वान तथा विद्वानों का आश्रयदाता था । निर्माण कार्यों में भी उसने रुचि ली तथा मन्दिर एवं तालाब बनवाये । उसने ‘निर्वाण नारायण’ की उपाधि धारण की थी । राजनीतिक मोर्चे पर उसे असफलता मिली । पूर्व में चन्देल शासक मदनवर्मा ने भिलसा क्षेत्र के परमार राज्य पर अधिकार कर लिया।
उत्तर पश्चिम में चाहमान शासक अजयराज तथा उसके पुत्र अर्णोराज ने नरवर्मा को हराया। अन्हिलवाड़ के चालुक्य नरेश जयसिंह सिद्धराज ने उसके राज्य पर कई आक्रमण किये जिसमें अन्ततः नरवर्मा पराजित हो गया।
नरवर्मा का उत्तराधिकारी उसका पुत्र यशोवर्मा (1133-1142 ई.) हुआ । उसके समय चालुक्यों के आक्रमण के कारण मालवा की स्थिति काफी खराब हो गयी गई। यशोवर्मा अपने साम्राज्य को व्यवस्थित नहीं रख पाया तथा साम्राज्य बिखरता गया। भिलसा क्षेत्र पर चन्देल मदनवर्मा ने अधिकार कर लिया।
चालुक्य नरेश जयसिंह सिद्धराज ने नाडोल के चाहमान आशाराज के साथ मिलकर मालवा पर आक्रमण कर दिया । यशोवर्मा बन्दी बना लिया गया, सम्पूर्ण मालवा पर जयसिंह का अधिकार हो गया तथा उसने ‘अवन्तिनाथ’ की उपाधि धारण की । यशोवर्मा के अन्तिम दिनों के विषय में ज्ञात नहीं है ।
उसका पुत्र जयवर्मन् जयसिह के शासन काल के अन्त में मालवा का उद्धार करने में सफल हुआ लेकिन उसका शासन भी अल्पकालिक ही रहा। कल्याणी के चालुक्य शासक जगदेकमल्ल एवं होयसल शासक नरसिंहवर्मन् प्रथम ने मालवा पर आक्रमण कर उसकी शक्ति को नष्ट कर दिया तथा अपनी ओर से बल्लाल को वहां का राजा बना दिया।
किन्तु 1143 ई. के तुरन्त बाद जयसिंह के उत्तराधिकारी कुमारपाल ने बल्लाल को अपदस्थ पर भिलसा तक का सम्पूर्ण मालवा का क्षेत्र अपने साम्राज्य में मिला लिया। लगभग बीस वर्षों तक मालवा गुजरात राज्य का अंग बना रहा। इस बीच वहाँ ‘महाकुमार’ उपाधिधारी कुछ राजकुमार शासन करते थे जो अर्धस्वतंत्र थे।
1175-1195 ई० के बीच विन्ध्यवर्मन्, जो परमार जयवर्मन् का पुत्र था, ने चालुक्य मूलराज द्वितीय को हराकर मालवा पर अधिकार करने में सफलता प्राप्त की लेकिन वह उसके पुराने गौरव को कभी वापस नहीं ला सका। उसका पुत्र सुभटवर्मन् कुछ शक्तिशाली राजा था जिसने गुजरात पर आक्रमण कर चालुक्यों के लाट के सामन्त सिंह को अपनी अधीनता मानने के लिये विवश कर दिया।
डभोई तथा काम्बे में कई जैन मन्दिरों को उसने लूटा, अन्हिलवाड़ को आक्रान्त किया तथा सेना के साथ सोमनाथ तक बढ़ गया। लेकिन भीम के मंत्री लवणप्रसाद ने उसे वापस लौटने को मजबूर किया तथा यादव जैतुगी ने भी सुभटवर्मन पराजित कर दिया।
उसके बाद उसका पुत्र अर्जुनवर्मन् मालवा का राजा बना। उसने गुजरात के जयसिंह को पराजित कर उसकी कन्या से विवाह किया। किन्तु यादव वंशी सिंघन ने उसे हरा दिया। अर्जुनवर्मन् विद्वान् तथा विद्या प्रेमी था। मदन, आशाराम जैसे विद्वान उसकी सभा में रहते थे।
अर्जुनवर्मन् के बाद क्रमशः देवपाल, जैतुगिदेव, जयवर्मन् द्वितीय तथा कई छोटे-छोटे राज्य हुए जिनके शासन काल की कोई उपलब्धि नहीं है। क्रमशः परमार वंश तथा उसके गौरव का विलोप हो गया। 1305 ई. में अलाउद्दीन खिलजी ने मारवा को जीतकर वहाँ मुस्लिम सत्ता स्थापित कर दी।
अग्निकुण्ड से जिन राजपूत वंशों की उत्पत्ति वर्णित है उनमें धारा अथवा मालवा के परमार प्रमुख है। इस वंश के साहित्य तथा लेखों में स्पष्टतः अग्निकुण्ड की कथा का उल्लेख किया गया है। पद्मगुप्त, जो परमार काल के प्रसिद्ध कवि थे के ग्रन्थ नवसाहसांकचरित में परमार वंश की उत्पत्ति आबू पर्वत से बताई गयी है।
तदनुसार ऋषि वशिष्ठ ईक्ष्वाकुवंश के पुरोहित थे। उनकी कामधेनु नामक गाय को विश्वामित्र ने चुरा लिया। वशिष्ठ ने गाय प्राप्त करने के लिये आबू पर्वत पर पत्र किया। अग्नि में डाली गयी आहुति से एक धनुर्धर वीर उत्पन्न हुआ जिसने विश्वामित्र को परास्त कर गाय को पुन वशिष्ठ को समर्पित कर दिया।
प्रसन्न होकर ऋषि ने इस वीर का नाम ‘परमार’ रखा जिसका अर्थ है शत्रु का नाश करने वाला। इसी द्वारा स्थापित वंश परमार कहा गया। इस कथानक का उल्लेख धनपाल कृत तिलकमंजरी तथा परमार वंश के उदयपुर, आबूपर्वत, वसन्तगढ़ आदि स्थानों से प्राप्त लेखों में भी हुआ है।
परमारों की उत्पत्ति संबंधी इस अनुश्रुति पर टिप्पणी करते हुए गौरीशंकर ओझा ने मत व्यक्त किया है कि चूंकि इस वंश के आदि पूर्वज धूमराज के नाम का सबध अग्नि से था, इसी कारण विद्वानों ने इस वंश को अग्निवंशी स्वीकार कर लिया । किन्तु यह पूर्णतया अनुमानपरक है जिसका कोई आधार नहीं मिलता।
हलायुध की ‘पिंगल सूत्रवृत्ति’ में परमारों को ‘ब्रह्माक्षत्र कुलीन’ बताया गया है। परमार भी अपना संबंध ऋषि वशिष्ठ से जोड़ते है। ऐसी स्थिति में यही मानना तर्कसंगत प्रतीत होता है कि परमार पहले ब्राह्मण थे जो बाद में शासन करने के कारण क्षत्रियत्व को प्राप्त हुए। उल्लेखनीय है कि इस वंश के प्रथम शासक उपेजराज को उदयपुर लेख में ‘द्विजवर्ग्गरत्न’ कहा गया है । पूर्व मध्यकाल में ब्रह्मक्षत्र परम्परा के व्यापक प्रचलन के प्रमाण मिलते है।
2. परमार वंश का इतिहास के साधन (Tools of History of Paramara Dynasty):
परमार वंश का इतिहास हम अभिलेख, साहित्य तथा विदेशी विवरण के आधार पर ज्ञात करते हैं । इस वंश के अभिलेख में सर्वप्रथम सीयक द्वितीय का हसील अभिलेख (948 ईस्वी) है जिससे परमार वंश का प्रारंभिक इतिहास ज्ञात होता है ।
अन्य लेखों में वाक्पति मुंज का उज्जैन अभिलेख (980 ईस्वी), भोज के बांसवाड़ा तथा बेतमा के अभिलेख, उदयादित्य के समय की उदयपुर-प्रशस्ति, लक्ष्मदेव की नागपुर-प्रशस्ति आदि का उल्लेख किया जा सकता है । इनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रशस्ति है जो भिलसा के समीप उदयपुर नामक स्थान के नीलकण्ठेश्वर मन्दिर के एक शिलापट्ट के ऊपर उत्कीर्ण है ।
यह परमार वंश के शासकों के नाम तथा उनकी उपलब्धियों को ज्ञात करने का प्रमुख साधन है तथा इस प्रकार का विवरण अन्यत्र कहीं नहीं मिलता है । परमार वंश के इतिहास का ज्ञान हमें विभिन्न साहित्यिक ग्रन्थों से भी प्राप्त होता है । इनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण है पद्मगुप्त द्वारा विरचित नवसाहसाड्कचरित ।
पद्मगुप्त परमारनरेशों वाक्पतिमुंज तथा सिंधुराज का राजकवि था । यद्यपि इस ग्रन्थ में उसने मुख्यतः अपने आश्रयदाता राजाओं के जीवन तथा कृतियों का ही वर्णन किया है तथापि इसमें परमार वंश के इतिहास से सम्बन्धित अनेक महत्वपूर्ण तथ्य भी लिखित हैं । हर्षचरित की प्रकृति का यह एक चरित काव्य ही है ।
इसके अतिरिक्त जैन लेख मेरुतुंग के प्रबन्धचिन्तामणि से भी परमार वंश के इतिहास, विशेषकर गुजरात के चौलुक्य शासकों के साथ उनके सम्बन्धों का ज्ञान होता है । वाक्पतिमुंज तथा भोज स्वयं विद्वान तथा विद्वानों के संरक्षक थे । उनके काल में अनेक ग्रन्थों की रचना हुई । उनके अध्ययन से हम तत्कालीन समाज एवं संस्कृति का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर सकते है ।
मुसलमान लेखकों तथा गुणों के विवरण से भी परमार वंश के कुछ शासकों के विषय में कुछ बाते ज्ञात होती है । इनमें अबुलफजल की आइने-अकवरी, अल्बेरूनी तथा फरिश्ता के विवरण आदि उल्लेखनीय हैं । मुसलमान लेखक भोज की शक्ति तथा विद्वता की प्रशंसा करते है ।
3. परमार वंश का राजनैतिक इतिहास (Political History of Paramara Dynasty):
परमार वंश की स्थापना दसवीं शताब्दी ईस्वी के प्रथम चरण में उपेन्द्र अथवा कृष्णराज नामक व्यक्ति ने की थी । धारा नामक नगरी परमार वंश की राजधानी था । उदयपुर लेख से पता चलता है कि उसने स्वयं अपने पराक्रम से राजत्व का उच्च पद प्राप्त किया था (शौयाज्जितोत्तुंगनृपत्वमाण:) । लेकिन यह निश्चित नहीं है कि कब और किन परिस्थितियों में उपेंद्र ने मालवा पर अधिकार किया ।
इस समय का राजनीतिक वातावरण काफी अशान्तपूर्ण था तथा प्रतिहारों एवं राष्ट्रकूटों में संघर्ष चल रहा था । प्रतिपाल भाटिया का अनुमान है कि वत्सराज की ध्रुव द्वारा पराजय के बाद उपेन्द्र को अपनी शक्ति विस्तार का अवसर मिला होगा। गोविन्द तृतीय के उत्तरी अभियान के दौरान उसने राष्ट्रकूटों की अधीनता स्वीकार कर लिया।
किन्तु नागभट्ट के समय में प्रतिहारों के शक्तिशाली हो जाने पर उपेन्द्र तथा उसके उत्तराधिकारी उनके अधीन हो गये। पद्मगुप्त, उपेन्द्र की प्रशंसा में लिखता है कि उसने प्रजा के अनेक करों में छूट कर दी तथा वैदिक यज्ञों का अनुष्ठान किया।
उपेन्द्र के बाद कई छोटे-छोटे शासक हुए। इनमें वैरिसिंह प्रथम, सीयक प्रथम, वाक्पति प्रथम तथा वैरिसिह द्वितीय के नाम मिलते है जिन्होंने 790 ईस्वी के लगभग से 945 ईस्वी तक शासन किया । इनकी स्थिति अधीन अथवा सामन्त शासकों जैसी थी जिनकी किसी विशेष उपलब्धि के विषय में हमें ज्ञात नहीं है। ये सभी राष्ट्रकूटों तथा प्रतिहारों की अधीनता में राज्य करते थे।
i. हर्ष अथवा सीअन द्वितीय:
परमार वंश को स्वतंत्र स्थिति में लाने वाला पहला शासक हर्ष अथवा सीअक द्वितीय वैरिसिंह द्वितीय का पुत्र और उत्तराधिकारी था। उसके पिता के समय में प्रतिहारों ने मालवा पर अधिकार कर लिया था तथा परमारों को माण्डू तथा धारा से निवसित कर दिया था। ऐसा प्रतीत होता है कि इस समय परमारों ने भागकर राष्ट्रकूटों के यहाँ शरण ले ली थी।
अस्तु परमार तथा राष्ट्रकूट सत्ता से अपने वंश को मुक्त कराना सीअक की प्राथामिकतायें थीं। प्रतिहार साम्राज्य इस समय पतनोन्मुख स्थिति में था। इसका लाभ उठाते हुए सीअक ने मालवा तथा गुजरात में अपनी स्थिति मजबूत कर ली ।
तत्पश्चात् उसने अन्य क्षेत्रों में अपना विजय अभियान प्रारम्भ किया । उसके हर्सोल लेख से पता चलता है कि योगराज नामक किसी शत्रु को उसने जीता था । इसकी पहचान संदिग्ध है । संभवतः यह गुजरात के चालुक्यवंश से संबंधित प्रतिहार नरेश महेन्द्रपाल प्रथम का कोई सामन्त था । नवसाहसांकचरित उसे हुणमण्डल की विजय का श्रेय प्रदान करता है ।
तदनुसार सीअक ने हूण राजकुमारों की हत्या कर उनकी रानियों को विधवा बना दिया था हूणमण्डल से तात्पर्य मध्य प्रदेश के इन्दौर के समीपवर्ती प्रदेश से है जिसे जीतकर सीअक ने अपने साम्राज्य में शामिल कर लिया था । किन्तु उसकी बढती हुई शक्ति पर जेजाकभुक्ति के चन्देलों ने अंकुश लगाया ।
खुजराहों लेख से पता चलता है कि चन्देल शासक यशोवर्मन् ने सीअक को पराजित किया था । उसे ‘मालवों के लिये काल के समान’ (काल-वन्मालवानाम्) कहा गया है । ऐसा प्रतीत होता है कि यशोवर्मन् ने परमार राज्य के किसी भाग पर अधिकार नहीं किया तथा उसका युद्ध केवल परमारों को आतंकित करने के लिये ही था ।
सीअक को सबसे महत्वपूर्ण सफलता राष्ट्रकूटों के विरुद्ध मिली तथा उसने अपने वंश को राष्ट्रकूटों की अधीनता से मुक्त कराया । नर्मदा नदी के तट पर राष्ट्रकूट नरेश खोट्टिग की सेनाओं के साथ युद्ध हुआ जिसमें सीयक की विजय । उसने राष्ट्रकूट नरेश का उसकी राजधानी मान्यखेत तक पीछा किया तथा वहाँ से बहुत अधिक सम्पत्ति लूट कर लाया ।
वह अपने साथ ताम्रपत्रों की अभिलेखागार में सुरक्षित प्रतियां भी उठा ले गया । इन्हीं में से एक लेख गोविन्द चतुर्थ का था जिस पर बाद में एक ओरा मुंज ने अपना लेख खुदवाया था । राष्ट्रकूटों के साथ संघर्ष में सीअक का एक सेनापति भी मारा गया ।
उदयपुर लेख में इस विजय का उल्लेख अत्यन्त काव्यात्मक ढंग से करते हुए कहा गया है कि सीयक ने ‘भयंकरता में गरुड़ की तुलना करते हुए खोट्टिग की लक्ष्मी को युद्ध में छीन लिया’ । उसकी इस विजय के परिणामस्वरूप परमार राज्य की दक्षिणी सीमा ताप्ती नदी तक जा पहुँची । इस प्रकार सीअक एक शक्तिशाली सम्राट सिद्ध हुआ जिसकी विजयों ने परमार साम्राज्य की सुदृढ़ आधारशिला प्रस्तुत किया ।
ii. वाक्पति मुंज:
सीयक के दो पुत्र थे- मुंज तथा सिन्धुराज । इनमें पहला उसका दत्तक पुत्र था लेकिन सीयक की मृत्यु के बाद वही गद्दी पर बैठा । इतिहास में वह वाक्पति मुंज तथा उत्पलराज के नाम से भी प्रसिद्ध है । प्रबन्धचिन्तामणि में उसके जन्म के विषय में एक अनोखी कथा मिलती है । इसके अनुसार सीअक को बहुत दिन तक कोई पुत्र नहीं प्राप्त हुआ ।
संयोगवश उसे एक दिन मुंज घास में पड़ा एक नवजात शिशु मिला । सीअक उसे उठाकर घर लाया तथा पालन पोषण करके बडा किया । बाद में उसकी अपनी पत्नी से सिन्धुराज नामक पुत्र भी उत्पन्न हो गया । किन्तु वह अपने दत्तक पुत्र से पूर्ववत् ह्वेह करता रहा । मुंज में पड़े होने से ही उसका नाम मुंज रखा गया । सीअक ने स्वयं उसे अपना उत्तराधिकारी घोषित किया था ।
किन्तु कुछ विद्वान इस कथानक की ऐतिहासिकता में संदेह व्यक्त करते हुए मत देते है कि मुंजराज नाम की व्याख्या ढूंढने क उद्देश्य से इसका सृजन किया गया है । वाक्पति मुंज एक शक्तिशाली शासक था । राज्यारोहण के पश्चात् वह अपने साम्राज्य को विस्तृत करने में जुट गया । इस उद्देश्य से उसने अनेक युद्ध किये ।
मुंज ने कलचुरि शासक युवराज द्वितीय को हराकर उसकी राजधानी त्रिपुरी को लूटा । उदयपुर लेख में इसका विवरण गिक्षन है। ऐसा प्रतीत होता है कि मुंज त्रिपुरी पर अधिक समय तक अधिकार नहीं रख पाया तथा उसने कलचुरि राज्य से संधि कर उसकी राजधानी वापस कर दिया ।
हूण-मण्डल के हूणों ने उसकी अधीनता स्वीकार की इसमें मालवा क्षेत्र सम्मिलित था । गाओंरी लेख से पता चलता है कि मुंज ने इस क्षेत्र में स्थित वणिका नामक ग्राम ब्राह्मणों को दान में दिया था । यह उसकी हूण क्षेत्र पर विजय एवं अधिकार का स्पष्ट प्रमाण है ।
इसी प्रकार उसने मेवाड़ के गुहिल वंशी शासक शक्तिकुमार को हराकर उसकी राजधानी आघाट (उदयपुर स्थित अहर) को लूटा । राष्ट्रकूट वंशी धवल के बीजापुर लेख से पता चलता है कि गुहिल नरेश ने भागकर धवल के दरबार में शरण ली । इस युद्ध में गुर्जर वंश का कोई शासक भी शक्तिकुमार की ओर से लड़ा था किन्तु वह भी मुंज द्वारा पराजित किया गया । इस गुर्जर नरेश की पहचान के विषय में मतभेद है ।
दशरथ शर्मा तथा एच. सी. राय इसे चालुक्य नरेश मूलराज मानते है । मजूमदार तथा भाटिया के अनुसार वह कन्नौज के प्रतिहारों का कोई सामन्त था । नड्डुल के चौहानों से भी उसका युद्ध हुआ । चौहान शासक बलिराज को हराकर उसने आबू पर्वत तथा जोधपुर के दक्षिण का भाग छीन लिया ।
पश्चिम में उसने लाट राज्य पर आक्रमण किया । इस समय लाट प्रदेश पर कल्याणी के चालुक्यों का अधिकार था जहाँ तैल द्वितीय का सामन्त वारप्प तथा उसका पुत्र गोग्गीराज शासन करते थे । मुंज ने वारप्प को परास्त किया । परिणामस्वरूप उसका चालुक्य नरेश तैल से संघर्ष छिड़ गया ।
प्रबन्धचिन्तामणि से पता चलता है कि मुंज ने छ: बार तेल की सेनाओं को पराजित किया और अन्त में अपने मंत्री रुद्रादित्य के परामर्श की उपेक्षा करते हुए उसने गोदावरी नदी पारकर स्वयं राष्ट्रकूट राज्य पर आक्रमण कर दिया ।
उसे राष्ट्रकूटों की शक्ति का सही अन्दाजा नहीं था । मुंज राष्ट्रकूट सेनाओं द्वारा पराजित किया गया तथा बन्दी बना लिया गया । तेल ने नर्मदा नदी तक परमार राज्य के दक्षिणी भाग पर अधिकार कर लिया । उसने कारागार में ही परमार नरेश मुंज का वध करवा दिया।
प्रबन्धचिन्तामणि के अतिरिक्त कैथोम तथा गडग जैसे चालुक्य लेखों से भी तैल द्वारा मुंज के वध की सूचना मिलती है । इस प्रकार उसका दुखद अन्त हुआ । मुंज ने 992 ईस्वी से 998 ईस्वी तक राज्य किया । विजेता होने के साथ-साथ वह स्वयं एक उच्चकोटि का कवि एवं विद्या और कला का उदार संरक्षक था । पद्मगुप्त, धनन्यय, धनिक, हलायुध, अमितगति जैसे विद्वान् उसकी राजसभा को सुशोभित करते थे ।
पद्मगुप्त उसकी विद्वता एवं विद्या के प्रति अगाध प्रेम की चर्चा करते हुए लिखता है कि ‘विक्रमादित्य के चले जाने तथा सातवाहन के अस्त हो जाने पर सरस्वती को कवियों के मित्र मुंज के यहाँ ही आश्रय प्राप्त हुआ था । वह महान् निर्माता भी था जिसने अनेक मन्दिरों तथा सरोवरों का निर्माण करवाया था ।
अपनी राजधानी में उसने ‘मुंजसागर’ नामक एक तालाब बनवाया तथा गुजरात में मुंजपुर नामक नये नगर की स्थापना करवायी थी । उज्जैन, धर्मपुरी, माहेश्वर आदि में उसने कई मन्दिरों का निर्माण भी करवाया । इस प्रकार उसकी प्रतिभा बहुमुखी थी । श्रीवल्लभ, पृथ्वीवल्लभ, अमोघवर्ष आदि उसकी प्रसिद्ध उपाधिया थीं ।
iii. सिन्धुराज:
मुंज के कोई पुत्र नहीं था, अतः उसकी मृत्यु के बाद उसका छोटा भाई सिन्धुराज शासक बना । उसने कुमारनारायण तथा साहसाड्क जैसी उपाधियों धारण कीं । वह भी महान् विजेता और साम्राज्य निर्माता था । राजा बनने के पश्चात् वह अपने साम्राज्य की प्रतिष्ठा को पुनस्थापित करने के कार्य में जुट गया ।
उसका सबसे पहला कार्य कल्याणी के चालुक्यों से अपने उन क्षेत्रों को जीतना था जिन पर मुंज को हराकर तैलप ने अधिकार कर लिया था । उसका समकालीन चालुक्य नरेश सत्याश्रय था । नवसाहसांकचरित से पता चलता है कि सिंधुराज ने कुन्तलेश्वर द्वारा अधिग्रहीत अपने राज्य को तलवार के बल पर पुन अपने अधिकार में किया ।
यहां कुन्तलेश्वर से तात्पर्य सत्याश्रय से ही है । तत्पश्चात् उसने अन्य स्थानों की विजय का कार्य प्रारम्भ किया । उसकी कुछ विजयों के विषय में पद्मगुप्त सूचना देता है । वह उसे कोशल, लाट, अपरान्त तथा मुरल का विजेता बताता है । यहां कोशल में तात्पर्य दक्षिणी कोशल से है जो वर्तमान छत्तीसगढ़ राज्य में स्थित (रायपुर-विलासपुर क्षेत्र) था ।
लाट प्रदेश गुजरात में था जहां कल्याणी के चालुक्य सामन्त गोग्गीराज शासन कर रहा था । सिन्धुराज ने उस पर आक्रमण कर उसे परास्त किया तथा वहीं से अपरान्त (कोंकण) की विजय की जहां शिलाहार वंश का शासन था । शिलाहारों ने उसकी अधीनता मान ली । मुरल की पहचान निश्चित नहीं है । यह राज्य संभवतः अपरान्त और केरल के बीच स्थित था ।
पता चलता है कि बस्तर राज्य के नलवंशी शासक ने वज़्र (वैरगढ़, म. प्र.) के अनार्य शासक वज़्रकुश के विरुद्ध सिन्धुराज से सहायता की याचना की । परिणामस्वरूप सिन्धुराज ने विद्याधरों को साथ लेकर गोदावरी पार किया तथा अनार्य शासक के राज्य में जाकर उसकी हत्या कर दी । अनुग्रहीत नागशासक ने सिन्धुराज के साथ अपनी कन्या शशिप्रभा का विवाह कर दिया ।
विद्याधर थाना जिले के शिलाहार थे जिनका शासक अपराजित था । उत्तर की ओर उसने हूण मण्डल के शासक को हराया उदयपुर लेख तथा नवसाहसांकचरित दोनों में हूणों का उल्लेख मिलता है । ऐसा प्रतीत होता है कि सिन्धुराज ने हूणों का पूर्णरूपेण दमन कर दिया तथा बाद में विद्रोह खडा करने की हिम्मत उनमें नहीं रही ।
इसी समय वागड के परमार सामन्त चण्डप ने विद्रोह का झंडा खडाकर दिया किन्तु सिंधुराज ने उसके विद्रोह को शान्त किया । किन्तु गुजरात के चालुक्य शासक मूलराज प्रथम के पुत्र चामुण्डराज के हाथों सिन्धुराज को पराजित होना पड़ा ।
जयसिंह सूरि की कुमारभूपालचरित तथा वाडनगर लेख से इसकी सूचना मिलती है । ऐसा प्रतीत होता है कि सिन्धुराज को पराजित हो जाने के बाद युद्धभूमि से भागकर अपनी जान बचानी पड़ी । किन्तु इस असफलता के बावजूद वह एक योग्य शासक था जिसने अपने भाई मुंज के काल में लुप्त हुई परमार वंश की प्रतिष्ठा को पुन स्थापित कि या। उसकी मृत्यु 1000 ईस्वी के लगभग हुई ।
iv. भोज:
सिन्धुराज के पश्चात् उसका भोज परमार वंश का शासक हुआ । वह इस वंश का सर्वाधिक महत्वपूर्ण शासक था जिसके समय में राजनीतिक और सांस्कृतिक दोनों ही दृष्टियों से परमार राज्य की अभूतपूर्व उन्नति हुई ।
भोज के शासन-काल की घटनाओं की सूचना देने वाले आठ अभिलेख मिलते है जो 1011 ईस्वी से 1046 ईस्वी तक के है । उदयपुर प्रशस्ति से हम उनकी राजनैतिक उपलब्धियों का ज्ञान प्राप्त करते है । इसके अनुसार उसने ‘चेदिश्वर, इन्द्ररथ, तोग्गल, राजा भीम, कर्नाट, लाट और गुर्जर, के राजाओं तथा तुर्कों को पराजित किया ।
4. परमार वंश का युद्ध तथा विजयें (Wars and Victories of Paramara Dynasty):
उसका सर्वप्रथम संघर्ष कल्याणी के चालुक्यों के साथ हुआ । प्रारम्भ में उसे कुछ सफलता मिली तथा गोदावरी के आस-पास का क्षेत्र उसने जीत लिया । इस युद्ध में त्रिपुरी के कलचुरि नरेश गांगेयदेव विक्रमादित्य तथा चोलनरेश राजेन्द्र से भोज को सहायता प्राप्त हुई थी ।
कल्वन लेख, जो भोज के सामन्त यशोवर्मा का है, से सूचित होता है कि उसने कर्णाट, लाट तथा कोंकण को जीता था । ऐसा प्रतीत होता है कि उसे कर्णाट से होकर ही कोंकण को जीता था जिसमें चालुक्य साम्राज्य के उत्तर का गोदावरी का समीपवर्ती कुछ भाग उसके अधिकार में आ गया था ।
उसके लेखों से इसकी सूचना मिलती है । बेलगाँव लेख में बताया गया है कि वह ‘भोजरूप कमल के लिये चन्द्र के समान’ था । मीराज लेख से पता चलता है कि उसने कोंकण नरेश की समस्त सम्पत्ति छीन लिया तथा कोल्हापुर मे सैनिक शिविर लगाकर उत्तर भारत की विजय के निमित्त योजनायें तैयार किया था । परन्तु चालुक्य नरेश जयसिंह द्वितीय ने उसे हरा दिया ।
भोज ने लाट के शासक कीर्तिराज के ऊपर आक्रमण किया । वह पराजित हुआ तथा आत्मसमर्पण करने को विवश हुआ । भोज के सामन्त यशोवर्मा का कल्वन से प्राप्त लेख लाट प्रदेश पर उसके अधिकार की पुष्टि करता है । ऐसा लगता है कि कीर्तिवर्मा को हटाकर भोज ने यशोवर्मा को लाट का शासक बनाया था ।
बताया गया है कि वह भोज की ओर से नासिक में 1500 ग्रामों पर शासन कर रहा था । लाट को जीतने के बाद उसने कोंकण प्रदेश की विजय की जहाँ शिलाहार वंश का शासन था । किन्तु कोंकण पर उसकी विजय स्थायी नहीं हुई तथा शीघ्र ही चालुक्य नरेश जयसिंह द्वितीय ने वही अपना अधिकार कर लिया ।
मीराज लेख से सूचना मिलती है कि उसने कोंकण नरेश को पराजित कर उसकी सारी सम्पत्ति छीन लिया था । भोज ने उड़ीसा की भी विजय की जहाँ का शासक इन्द्ररथ था । उसकी राजधानी आदिनगर में थी । इन्द्ररथ का उल्लेख चोल शासक राजेन्द्र के तिरुमलै लेखों में भी मिलता है । कुछ विद्वानों के अनुसार उसी के सहयोग से भोज ने इन्द्ररथ को जीता होगा ।
उदयपुर तथा कल्वन लेखों से सूचना मिलती है कि भोज ने चेदिवंश के राजा को जीता था । यह पराजित नरेश गांगेयदेव रहा होगा जो भोज का समकालीन था । पहले गांगेयदेव तथा भोज के बीच मैत्रीपूर्ण संबंध थे । ऐसा प्रतीत होता है कि प्रतिहार क्षेत्रों पर अधिकार को लेकर दोनों में अनवन हो गयी तथा भोज ने उसे पराजित कर खुशियों मनायी ।
उदयपुर लेख से पता चलता है कि उसने तोग्गल तथा तुरुष्क को जीता था । कुछ विद्वान् इसका तात्पर्य मुसलमानों की विजय से लेते प्रतिपादित करते है कि भोज ने महमूद गजनवी के किसी सरदार को युद्ध में हराया था । लेकिन यह निष्कर्ष संदिग्ध हैं । हूणों के विरुद्ध भी उसे सफलता प्राप्त हुई ।
चन्देलों में संघर्ष-जिस समय भोज मालवा में अपने साम्राज्य का विस्तार कर रहा था, उसी समय बुन्देलखण्ड में चन्देल भी अपनी सत्ता सुदृढ़ करने में लगे हुए थे । भोज का समकालीन चन्देल सम्राट विद्याधर उससे बढ़कर महत्वाकांक्षी एवं पराक्रमी था ।
ग्वालियर तथा दूबकुण्ड में उसके कछवाहा वंशी सामन्त शासन करते थे । ऐसी स्थिति में दोनों के बीच संघर्ष अनिवार्य हो गया । ऐसा प्रतीत होता है कि भोज विद्याधर की बढती हुई शक्ति के आगे मजबूर हो गया तथा उसके सामन्तों से उसे पराजित भी होना पड़ा । चन्देल वंश के एक लेख में कहा गया है कि “कलचुरि चन्द्र तथा भोज विद्याधर की गुरु के समान पूजा करने थे ।”
यह ज्ञात नहीं है कि भोज तथा विद्याधर के बीच सीधा संघर्ष हुआ अथवा उसने बिना युद्ध के ही चन्देल नरेश की प्रभुता मान ली । गांगुली का विचार है कि भोज ने विद्याधर के ऊपर आक्रमण किया तथा पराजित हुआ था ।
किन्तु इस विषय में हम निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कह सकते । ग्वालियर के कछवाहा शासक महीपाल के सासबहू लेख से पता चलता है कि कछवाहा सामन्त कीर्त्तिराज ने भोज की सेनाओं को हराया था । संभव है उसे अपने स्वामी विद्याधर से सहायता मिली हो । किन्तु विद्याधर की मृत्यु के बाद चन्देल शक्ति निर्बल पड़ गयी जिससे कछवाहों ने भोज की अधीनता स्वीकार कर ली ।
मालवा के पश्चिमोत्तर में चाहमानों का राज्य था । भोज का उनके साथ भी संघर्ष हुआ । पृथ्वीराजविजय से सूचना मिलती है कि भोज ने चाहमान शासक वीर्याराम को पराजित कर कुछ समय के लिये शाकम्भरी के ऊपर अपना अधिकार कर लिया । किन्तु वीर्याराम के उत्तराधिकारी चामुण्डराज ने पुन: शाकम्भरी पर अधिकार कर लिया । इस युद्ध में परमारों का सेनापति साढ़ मार डाला गया ।
मेरुतुंग के ‘प्रबन्धचिन्तामणि’ से पता चलता है कि भोज ने चालुक्य नरेश भीम पर आक्रमण करने के लिये अपने जैन सेनानायक कुलचन्द्र के नेतृत्व में एक सेना भेजी । इस समय भीम सिन्ध अभियान पर निकला हुआ था । कुलचन्द्र ने उसकी राजधानी अन्हिलवाड़ को लूटा । उदयपुर लेख में कहा गया है कि भोज ने अपने भृत्यों के माध्यम से भीम पर विजय पाई थी ।
इस प्रकार भोज ने अपने समकालीन कई शक्तियों को पराजित कर एक विशाल एवं सुदृढ़ साम्राज्य स्थापित कर लिया । भोज की पराजय तथा परमार सत्ता का अन्त-भोज की अतिशय महत्वाकांक्षा एवं युद्ध प्रियता ही अन्ततोगत्वा उसके पतन का कारण सिद्ध हुई ।
ऐसा ज्ञात होता है कि अपने जीवन के अन्तिम दिनों में भोज अपने साम्राज्य की रक्षा नहीं कर सका तथा उसे भारी असफलताओं का सामना करना पड़ा । सर्वप्रथम चालुक्य नरेश सोमेश्वर द्वितीय ने भी उसकी राजधानी धारा पर आक्रमण किया । भोज पराजित हुआ तथा भाग खड़ा हुआ ।
चालुक्यों ने उनकी राजधानी धारा को खूब लूटा । आक्रमणकारियों ने धारा नगरी को जला दिया। सोमेश्वर की इस विजय की चर्चा नगाई लेख (1058 ईस्वी) में मिलती है । विल्हण कृत विक्रमांकदेवचरित से भी इसकी पृष्टि होती है जिसमें कहा गया है कि भोज ने भाग कर अपनी जीवन-रक्षा की ।
आक्रमणकारियों के लौट जाने के बाद ही वह अपनी राजधानी पर अधिकार कर सका । भोज के शासन-काल के अन्य में चालुक्यों तथा चेदियों ने उसके विरुद्ध एक संघ बनाया । इस संघ ने भोज की राजधानी पर आक्रमण किया ।
इस आक्रमण का नेता कलचुरि नरेश लक्ष्मीकर्ण था । भोज चिन्ता में बीमार पड़ा था तथा अन्ततः उसकी मृत्यु हो गयी । उसके मरते ही कर्ण धारा पर टूट पड़ा तथा लूट-पाट कर प्रचुर सम्पत्ति अपने साथ लेता गया । चालुक्य भीम ने भी दूसरी ओर से धारा नगरी पर आक्रमण कर उसे ध्वस्त किया ।
इस प्रकार परमार साम्राज्य का अन्त हो गया । भोज का अन्त यद्यपि रहा तथापि इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि वह अपने युग का एक पराक्रमी नरेश था । उसके उत्कर्ष काल में उत्तर तथा दक्षिण की सभी शक्तियों ने उसका लोहा माना था । उसने परमार सत्ता को चरमोत्कर्ष पर पहुँचा दिया ।
उदयपुर लेख में उसकी प्रशंसा करते हुये कहा गया है- “पृथु की तुलना करने वाले भोज ने कैलाश से मलय पर्वत तक तथा उदयाचल से अस्ताचल तक की समस्त पृथ्वी पर शासन किया । उसने अपने धनुष-बाण से पृथ्वी के समस्त राजाओं को उखाड़ कर उन्हें विभिन्न दिशाओं में बिखेर दिया तथा पृथ्वी का परम प्रीतिदाता बन गया ।”
हमें पता चला है कि भोज ने पूर्व में उड़ीसा, पश्चिम में गुजरात और लाट तथा दक्षिण में कोंकण को जीता था । कन्नौज के उत्तर में उसकी सेनायें हिमगिरि तक गयी थीं । अतः प्रशस्ति का उपर्युक्त विवरण अतिश्योक्ति नहीं कहा जा सकता ।
5. परमार वंश का सांस्कृतिक उपलब्धियाँ (Cultural Achievements of Paramara Dynasty):
भारतीय इतिहास में भोज की ख्याति उसकी विद्वता तथा विद्या एवं कला के उदार संरक्षक के रूप में अधिक है । उदयपुर लेख में कहा गया है कि उसने सब कुछ साधा, सम्पन्न किया, दिया और जाना, जो अन्य किसी के द्वारा संभव नहीं था। इससे अधिक कविराज भोज की प्रशंसा क्या हो सकती है ।
उसने अपनी राजधानी धारा नगर में स्थापित किया तथा उसे विविध प्रकार से अलंकृत करवाया । यह विद्या तथा कला का सुप्रसिद्ध केन्द्र बन गया । यहाँ अनेक महल एवं मन्दिर बनवाये गये जिनमें सरस्वती मन्दिर सर्वप्रमुख था । वह स्वयं विद्वान् था तथा उसकी उपाधि कविराज की थी । उसने ज्योतिष, काव्य शास्त्र, वास्तु आदि विषयों पर महत्वपूर्ण गुच्छों की रचना की तथा धारा के सरस्वती मन्दिर में एक प्रसिद्ध संस्कृत विद्यालय की स्थापना करवायी ।
उसकी राजसभा पंडितों एवं विद्वानों से अलंकृत थी । उसकी राजधानी धारा विद्या तथा विद्वानों का प्रमुख केन्द्र थी । आइने-अकबरी के अनुसार उसकी राजसभा में पाँच सौ विद्वान् निवास करते थे । भोज की रचनाओं में सरस्वतीकण्णभरण, शृंगारप्रकाश, प्राकृत व्याकरण, कूर्मशतक, शृंगारमंजरी, भोजचंपू, युक्तिकल्पतरु, समरांगणसूत्रधार, तत्वप्रकाश, शब्दानुशासन, राजमृगांक आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय है ।
ये विविध विषयों से संबंधित है । युक्तिकल्पतरु समरांगणसूत्रधार वास्तुशास्त्र के ग्रंथ है । इनसे पता चलता कि भोज की काव्यात्मक प्रतिभा उच्चकोटि की थी । बताया गया है कि वह अच्छी कविताओं पर विद्वानों को पुरस्कार देता था । वह इतना बड़ा दानी था कि उसके नाम से यह अनुश्रुति चल पड़ी कि वह हर कवि को हर श्लोक पर एक लाख मुद्रायें प्रदान करता था । इससे उसकी दानशीलता सूचित होती है ।
उसके दरबारी कवियों एवं विद्वानों में भास्करभट्ट, दामोदरमिश्र, धनपाल आदि प्रमुख थे । वह विद्वानों को उनकी विद्वता पर प्रसन्न होकर उपाधियों भी देता था । उसकी मृत्यु पर पण्डितों को महान् दुख हुआ था, सभी तो एक प्रसिद्ध लोकोक्ति के अनुसार उसकी मृत्यु से विद्या और विद्वान् दोनों ही निराश्रित हो गये ।
भोज एक महान् निर्माता भी था । भोपाल के दक्षिण-पूर्व में उसने 250 वर्ग मील लम्बी एक झील का निर्माण करवाया था जो आज भी ‘भोजसर’ नाम से प्रसिद्ध है । यह परमारकालीन अभियांत्रिक कुशलता एवं कारीगरी का अद्भुत नमूना प्रस्तुत करता है ।
धारा में सरस्वती मन्दिर के समीप उसने एक विजय-स्तम्भ स्थापित किया तथा भोजपुर नामक नगर की स्थापना करवाई । चित्तौड़ में उसने त्रिभुवन नारायण का मन्दिर बनवाया तथा मेवाड़ के नागोद क्षेत्र में भूमि दान में दिया । इसके अतिरिक्त उसने अन्य अनेक मन्दिरों का भी निर्माण करवाया था ।
इस प्रकार भोज की प्रतिभा बहुमुखी थी । निश्चयत वह अपने वंश का सर्वाधिक यशस्वी शासक था । उसका शासन-काल राजनैतिक तथा सांस्कृतिक दोनों ही दृष्टियों से परमार वंश के चरमोत्कर्ष को व्यक्त करता है ।
6. परमार सत्ता का अन्त (Decline of Paramara Dynasty):
भोज ने 1010 ईस्वी से 1060 ईस्वी तक शासन किया । उसकी मृत्यु के साथ ही परमार वंश के गौरव का भी अन्त हो गया । भोज के उत्तराधिकारी लगभग 1210 ईस्वी तक स्थानीय शासकों की हैसियत से शासन करते रहे परन्तु उनके शासन-काल का कोई महत्व नहीं है ।
भोज का पुत्र जयसिंह प्रथम (1055-1070 ई.) उसके बाद गद्दी पर बैठा । इस समय धारा पर कलचुरि कर्ण तथा चालुक्य भीम प्रथम का अधिकार था । जयसिंह ने कल्याणी नरेश सोमेश्वर प्रथम के पुत्र विक्रमादित्य की सहायता प्राप्त की तथा अपनी राजधानी को शत्रुओं से मुक्त करा लिया । वह सोमेश्वर प्रथम का आश्रित राजा वन गया । किन्तु जब कल्याणी का शासक सोमेश्वर द्वितीय हुआ तो स्थिति बदल गयी ।
उसने कर्ण तथा कुछ अन्य राजाओं के साथ मिलकर मालवा पर आक्रमण कर दिया । युद्ध में जयसिंह पराजित हुआ तथा मार डाला गया । आक्रमणकारियों ने उसकी राजधानी को के बाद ध्वस्त कर दिया । तत्पश्चात उदयादित्य राजा बना ।
प्रारम्भ में तो उसे कलचुरि कर्ण के विरुद्ध संघर्ष में सफलता नहीं मिली किन्तु बाद में उसने मेवाड़ के गुहिलोत, नाडोल तथा शाकम्भरी के चाहमान वंशों की सहायता प्राप्त कर अपनी स्थिति मजबूत बना ली । इनमें शाकम्भरी के चाहमान नरेश विग्रहराज की सहायता विशेष कारगर सिद्ध हुई तथा उदयादित्य ने कर्ण को पराजित कर अपनी राजधानी को मुक्त करा लिया ।
तत्पश्चात् उदयादित्य ने कुछ समय तक शान्तिपूर्वक शासन किया तथा अपना समय राजधानी के पुनरुद्धार में लगाया । उसने भिलसा के पास उदयपुर नामक नगर बसाया तथा वहाँ नीलकण्ठ के मन्दिर का निर्माण करवाया ।
उदयादित्य का बड़ा पुत्र लक्ष्मदेव उसके बाद राजा बना । नागपुर से उसका लेख मिलता है जिसमें उसकी उपलब्धियों का अतिश्योक्तिपूर्ण विवरण दिया गया है । इसे यथार्थ नहीं माना जा सकता । ऐसा लगता है कि मालवा के समीपवर्ती कुछ क्षेत्रों में उसे सफलता प्राप्त हुई हो ।
इस समय पालों की स्थिति निर्बल थी जिसका लाभ उठाते हुए लक्ष्मदेव ने बिहार तथा बंगाल में स्थित उनके कुछ प्रदेशों पर आक्रमण किया होगा । इसी प्रकार उसने कलचुरि नरेश यश:कर्ण को भी युद्ध में पराजित किया था । किन्तु मुसलमानों के विरुद्ध उसे सफलता नहीं मिली तथा महमूद ने उज्जैन पर आक्रमण कर वहां अधिकार जमा लिया ।
लक्ष्मदेव के बाद उसका छोटा भाई नरवर्मा (1094-1113 ई.) राजा बना । वह एक निर्बल शासक था जो अपने साम्राज्य को सुरक्षित नहीं रख पाया । किन्तु सांस्कृतिक दृष्टि से उसका शासन काल उल्लेखनीय माना जा सकता है ।
वह स्वयं एक विद्वान तथा विद्वानों का आश्रयदाता था । निर्माण कार्यों में भी उसने रुचि ली तथा मन्दिर एवं तालाब बनवाये । उसने ‘निर्वाण नारायण’ की उपाधि धारण की थी । राजनीतिक मोर्चे पर उसे असफलता मिली । पूर्व में चन्देल शासक मदनवर्मा ने भिलसा क्षेत्र के परमार राज्य पर अधिकार कर लिया।
उत्तर पश्चिम में चाहमान शासक अजयराज तथा उसके पुत्र अर्णोराज ने नरवर्मा को हराया। अन्हिलवाड़ के चालुक्य नरेश जयसिंह सिद्धराज ने उसके राज्य पर कई आक्रमण किये जिसमें अन्ततः नरवर्मा पराजित हो गया।
नरवर्मा का उत्तराधिकारी उसका पुत्र यशोवर्मा (1133-1142 ई.) हुआ । उसके समय चालुक्यों के आक्रमण के कारण मालवा की स्थिति काफी खराब हो गयी गई। यशोवर्मा अपने साम्राज्य को व्यवस्थित नहीं रख पाया तथा साम्राज्य बिखरता गया। भिलसा क्षेत्र पर चन्देल मदनवर्मा ने अधिकार कर लिया।
चालुक्य नरेश जयसिंह सिद्धराज ने नाडोल के चाहमान आशाराज के साथ मिलकर मालवा पर आक्रमण कर दिया । यशोवर्मा बन्दी बना लिया गया, सम्पूर्ण मालवा पर जयसिंह का अधिकार हो गया तथा उसने ‘अवन्तिनाथ’ की उपाधि धारण की । यशोवर्मा के अन्तिम दिनों के विषय में ज्ञात नहीं है ।
उसका पुत्र जयवर्मन् जयसिह के शासन काल के अन्त में मालवा का उद्धार करने में सफल हुआ लेकिन उसका शासन भी अल्पकालिक ही रहा। कल्याणी के चालुक्य शासक जगदेकमल्ल एवं होयसल शासक नरसिंहवर्मन् प्रथम ने मालवा पर आक्रमण कर उसकी शक्ति को नष्ट कर दिया तथा अपनी ओर से बल्लाल को वहां का राजा बना दिया।
किन्तु 1143 ई. के तुरन्त बाद जयसिंह के उत्तराधिकारी कुमारपाल ने बल्लाल को अपदस्थ पर भिलसा तक का सम्पूर्ण मालवा का क्षेत्र अपने साम्राज्य में मिला लिया। लगभग बीस वर्षों तक मालवा गुजरात राज्य का अंग बना रहा। इस बीच वहाँ ‘महाकुमार’ उपाधिधारी कुछ राजकुमार शासन करते थे जो अर्धस्वतंत्र थे।
1175-1195 ई० के बीच विन्ध्यवर्मन्, जो परमार जयवर्मन् का पुत्र था, ने चालुक्य मूलराज द्वितीय को हराकर मालवा पर अधिकार करने में सफलता प्राप्त की लेकिन वह उसके पुराने गौरव को कभी वापस नहीं ला सका। उसका पुत्र सुभटवर्मन् कुछ शक्तिशाली राजा था जिसने गुजरात पर आक्रमण कर चालुक्यों के लाट के सामन्त सिंह को अपनी अधीनता मानने के लिये विवश कर दिया।
डभोई तथा काम्बे में कई जैन मन्दिरों को उसने लूटा, अन्हिलवाड़ को आक्रान्त किया तथा सेना के साथ सोमनाथ तक बढ़ गया। लेकिन भीम के मंत्री लवणप्रसाद ने उसे वापस लौटने को मजबूर किया तथा यादव जैतुगी ने भी सुभटवर्मन पराजित कर दिया।
उसके बाद उसका पुत्र अर्जुनवर्मन् मालवा का राजा बना। उसने गुजरात के जयसिंह को पराजित कर उसकी कन्या से विवाह किया। किन्तु यादव वंशी सिंघन ने उसे हरा दिया। अर्जुनवर्मन् विद्वान् तथा विद्या प्रेमी था। मदन, आशाराम जैसे विद्वान उसकी सभा में रहते थे।
अर्जुनवर्मन् के बाद क्रमशः देवपाल, जैतुगिदेव, जयवर्मन् द्वितीय तथा कई छोटे-छोटे राज्य हुए जिनके शासन काल की कोई उपलब्धि नहीं है। क्रमशः परमार वंश तथा उसके गौरव का विलोप हो गया। 1305 ई. में अलाउद्दीन खिलजी ने मारवा को जीतकर वहाँ मुस्लिम सत्ता स्थापित कर दी।
Aabu or malva k parmaro me aaps me kya smbndh h ??
जवाब देंहटाएंShital gotra ki kuldevi konsi hai?
जवाब देंहटाएंKhevariya gotra ki kuldevi konsi hai?
जवाब देंहटाएं