गुरुवार, 30 जनवरी 2020

परमार वंश की उत्पत्ति और राज्य 

परमार ( पंवार ) राजवंश की उतपत्ति और राज्य
परमार पंवार राजवंश
परमार 36 राजवंशों में माने गए है | ८वीं शताब्दी से 13वीं शताब्दी विक्रमी तक इनका इस देश में विशाल सम्राज्य था  इन वीर क्षत्रियों के इतिहास का वर्णन करने से पूर्व उतपत्ति के सन्दर्भ देखे | परमारों तणी प्रथ्वी
उत्पत्ति :- परमार क्षत्रिय परम्परा में अग्निवंशी माने जाते है इसकी पुष्टि साहित्य और शिलालेख और शिलालेख भी करते है | प्रथमत: यहाँ उन अवतरणों को रखा जायेगा जिसमे परमारों की उतपत्ति अग्निकुंड से बताई गयी हे बाद में विचार करेंगे | अग्निकुंड से उतपत्ति सिद्ध करने वाला अवतरण वाक्पतिकुंज वि. सं. १०३१-१०५० के दरबारी कवी पद्मगुप्त द्वारा रचित नवसहशांक -चरित पुस्तक में पाया जाता है जिसका सार यह है की आबू -पर्वत वशिष्ठ ऋषि रहते थे | उनकी गो नंदनी को विश्वामित्र छल से हर ले गए | इस पर वशिष्ठ मुनि ने क्रोध में आकर अग्निकुंड में आहूति दी जिससे वीर पुरुष उस कुंड से प्रकट हुआ जो शत्रु को पराजीत कर गो को ले आया जिससे प्रसन्न होकर ऋषि ने उस का नाम परमार रखा उस वीर पुरुष के वंश का नाम परमार हुआ |
भोज परमार वि. १०७६-१०९९ के समय के कवि धनपाल ने तिलोकमंजरी में परमारों की उत्पत्ति सम्बन्धी प्रसंग इस प्रकार है |
वाषिष्ठेसम कृतस्म्यो बरशेतरस्त्याग्निकुंडोद्रवो |
भूपाल: परमार इत्यभिघयाख्यातो महिमंडले ||
अधाष्युद्रवहर्षगग्दद्गिरो गायन्ति यस्यार्बुदे |
विश्वामित्रजयोजिझ्ततस्य भुजयोविस्फर्जित गुर्जरा: ||
मालवा नरेश उदायित्व परमार के वि.सं. ११२९ के उदयपुर शिलालेख में लिखा है |
”अस्त्युवीर्ध प्रतीच्या हिमगिरीतनय: सिद्ध्दं: (दां) पत्यसिध्दे |
स्थानअच ज्ञानभाजामभीमतफलदोअखर्वित: सोअव्वुर्दाव्य: ||४||
विश्वमित्रों वसिष्ठादहरत व (ल) तोयत्रगांतत्प्रभावाज्यग्ये वीरोग्नीकुंडाद्विपूबलनिधनं यश्चकरैक एव ||५||
मारयित्वा परान्धेनुमानिन्ये स ततो मुनि: |
उवाच परमारा (ख्यण ) थिर्वेन्द्रो भविष्यसि ||६||
बागड़ डूंगरपुर बांसवाडा के अर्थुणा गाँव में मिले परमार चामुंडाराज द्वारा बनाये गए महादेव मंदिर के फाल्गुन सुदी ७ वि. ११३७ के शिलालेख में लिखा है – कोई प्रचंड धनुषदंड को धारण किया हुआ था और अपनी विषम द्रष्टि से यज्ञोपवित धारण कीये हुए था और अपनी विषम द्रष्टि से जीवलोक को डराने का पर्यत्न करता हुआ शत्रुदल के संहार्थ पसमर्थ था | ऐसा कोई प्रखर तेजस्वी अद्भुत पुरुष उस यज्ञ कुंड से मिला |
यह वीर पुरुष वसिष्ठ की आज्ञा से शत्रुओं का संहार करके और कामधेनु अपने साथ में लेकर ऋषि वशिष्ठ के चरण कमलों में नत मस्तक होता हुआ उपस्थित हुआ |उस समय वीर के कार्यों से संतुष्ट होकर ऋषि ने मांगलिक आशीर्वाद देते हुए उसको परमार नाम से अभिहित किया |
परमारों के उत्पत्ति सम्बन्धी ऐसे हि विवरण बाद के शिलालेख व् प्रथ्वीराज रासो आदी साहित्यिक ग्रंथो में भी अंकित किया गया है |
इन विवरणों के अध्धयन से मालूम होता हे की 11वि, १२ वि. शताब्दी के साहित्यिक व् शिलालेखकार उस प्राचीन आख्यान से पूरी तरह प्रभावित थे जिसमे कहा गया है की ऐक बार वशिष्ठ की कामधेनु गाय को विश्वामित्र की सेना को पराजीत करने के लिए कामधेनु ने शक, यवन ,पल्ह्व ,आदी वीरों को उत्पन्न किया |
फिर भी यह निस्संकोच कहा जा सकता है की 11वि. सदी में परमार अपनी उत्पति वशिष्ठ के अग्निकुंड से मानते थे और यह कथानक इतना पुराना हो चूका था जिसके कारन 11वि. शताब्दी के साहित्य और शिलालेखों में चमत्कारी अंश समाहित हो गया था वरना प्रकर्ति नियम के विरुद्ध अग्निकुंड से उत्पत्ति के सिद्धांत को कपोल कल्पित मानते है पर ऐसा मानना भी सत्य के नजदीक नहीं हे कोई न कोई अग्निकुंड सम्बन्धी घटना जरुर घटी है जिसके कारन यह कथानक कई शताब्दियों बाद तक जन मानस में चलता रहा है और आज भी चलन रहा है | अग्निवंश से उत्पत्ति सम्बन्धी इस घटना को भविष्य पुराण ठीक ढंग से प्रस्तुत करता है | इस पुराण में लिखा है |
”विन्दुसारस्ततोअभवतु |
पितुस्तुल्यं कृत राज्यमशोकस्तनमोअभवत ||44||
एत्सिमन्नेत कालेतुकन्यकुब्जोद्विजोतम:  |
अर्वूदं शिखरं प्राप्यबंहाहांममथो करोत      ||45|
वेदमंत्र प्रभाववाच्चजाताश्च्त्वाऋ क्षत्रिय: |
प्रमरस्सामवेदील च चपहानिर्यजुर्विद:  ||46||
त्रिवेदी चू तथा शुक्लोथर्वा स परीहारक: |
                 भविष्य पुराण
भावार्थ यह हे की विंदुसार के पुत्र अशोक के काल में आबू पर्वत पर कान्यकुब्ज के ब्राह्मणों में ब्रह्म्होम किया और वेद मन्त्रों के प्रभाव से चार क्षत्रिय उत्पन्न किये सामवेद प्रमर ( परमार ) यजुर्वेद से चाव्हाण ( चौहान ) 47 वें श्लोक का अर्थ स्पष्ट नहीं है परन्तु परिहारक से अर्थ प्रतिहार और चालुक्य ( सोलंकी) होना चाहिए | क्यूंकि प्रतिहारों को प्रथ्विराज रासो आदी में अग्नि वंशी अंकित किया गया है और परम्परा में भी यही माना जाता है |
भविष्य पुराण के इन श्लोकों से कुछ महत्वपूर्ण बातें सामने आती है | प्रथमतः आबू पर किये गए इस यज्ञ का समय निश्चिन्त होता हे यह यज्ञ माउन्ट आबू पर सम्राट अशोक के पत्रों के काल में २३२ -से २१५ ई. पू. हुआ था |दुसरे यह यज्ञ वशिष्ठ और विश्वामित्र की शत्रुता के फलस्वरूप नहीं हुआ | बल्कि वेदादीधर्म के प्रचार प्रसार के लिए ब्रहम यज्ञ किया और यह यज्ञ वैदिक धर्म के पक्ष पाती चार पुरुषार्थी क्षत्रियों के नेतृत्व में विश्वामित्र सम्बन्धी प्राचीन ट=यज्ञ घटना को भ्रम्वंश अंकित किया गया | वशिष्ठ की गाय सम्बन्ध घटना के समय यदि परमार की उत्पत्ति हो तो बाद के साहित्य रामायण ,महाभारत ,पुराण आदी में परमारों की उतपत्ति का उल्लेख आता पर ऐसा नहीं है | अतः परमारों की उत्पत्ति वशिष्ठ -विश्वामित्र सम्बन्धी घटना के सन्दर्भ में हुए यज्ञ से नहीं , अशोक के पुत्रों के काल में हुए ब्रहम यग्य से हुयी मानी जानी चाहिए |
आबू पर हुए यज्ञ को सही परिस्थतियों में समझने पर यह निश्किर्य है की वैदिक धर्म के उत्थान के लिए उसके प्रचार प्रसार हेतु किसी वशिष्ठ नामक ब्राहमण ने यग्य करवाया , चार क्षत्रियों ने उस यज्ञ को संपन्न करवाया ,उनका नवीन ( यज्ञ नाम ) परमार ,चौहान . चालुक्य और प्रतिहार हुआ | अब प्रसन्न यह हे की वे चार क्षत्रिय कोन थे ? जो इस यज्ञ में सामिल हुए थे | अध्धयन से लगया वे मूलतः  सूर्य एवम चंद्र वंश क्षत्रिय थे |
अग्नि यज्ञ की घटना से पूर्व परमार कोन था ? इसकी विवेचना करते हे | पहले उन उदहारण को रखेंगे जो परमारों के साहित्य ,ताम्र पत्रादि में अंकित किये गए है और तत्वपश्चात उनकी विवेचना करेंगे|
सबसे प्राचीन उल्लेख परमार सियक ( हर्ष ) के हरसोर अहमदाबाद के पास में मिले है वि. सं. १००५ के दानपत्र में पाया गया हे जो इस प्रकार है –
परमभट्टारक महाराजाधिराज राज परमेश्वर
श्रीमदमोघवर्षदेव पादानुधात -परमभट्टारक्
महाराजाधिराज परमेश्वर श्रीमदकालवर्षदेव –
प्रथ्वीवल्लभ- श्रीवल्लभ  नरेन्द्रपादनाम
तस्मिन् कुलेककल्मषमोषदक्षेजात: प्रतापग्निहतारिप्क्ष:
वप्पेराजेति नृप: प्रसिद्धस्तमात्सुतो भूदनु बैर सिंह (ह) |१ |
द्रप्तारिवनितावक्त्रचन्द्रबिम्ब कलकतानधोतायस्य कीतर्याविहरहासावदातया ||२||
दुव्यरिवेरिभुपाल रणरंगेक नायक:  |
नृप: श्री सीयकसतमात्कुलकल्पद्र मोभवत  |३|
यह सियक परमार जिसके पिता का नाम बैरसी तथा दादा का नाम वाक्पति “( वप्पेराय ) था , या वाक्पति मुंज परमार ( मालवा ) का पिता था और राष्ट्रकूटों का इस समय सामंत था | अतः इस ताम्रपत्र में पहले आपने सम्राट के वंश का परिचय देता हे और तत्त्व पश्चात् आपने दादा और आपने पिता का नाम अंकित करता है | भावार्थ यह है की – परमभट्टारक महाराजाधिराज राज परमेश्वर श्री मान ओधवर्षदेव उनकें चरणों का ध्यान करने वाला परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्रीमान अकालवर्षदेव उस कुल में वप्पेराज ,बैरसी ,व् सियक हुए | इससे अर्थ निकलता है परमार भी राष्ट्रकूटों से निकले हुए है थे | अधिक उदार अर्थ करें तो राष्ट्र कूटों की तरह परमार भी यादव थे यानी चन्द्रवंशी थे |
ब्रहमक्षत्रकुलीन: प्रलीनसामंतचक्रनुत चरण: |
सकलसुक्रतैकपूजच श्रीभान्मुज्ज्श्वर जयति  ||
इस प्रकार विक्रमी की 11वि. सदी सो वर्ष की अवधि में हि परमारों की उत्पति के सन्दर्भ में तीन तरह के उल्लेख मिलते हेई अग्निकुंड से उत्पत्ति ,राष्ट्र कूटों से उत्पति ब्रहम क्षत्र कुलीन | इतिहासकार सो वर्ष की अवधि के हि इन विद्वानों ने तीन तरह की बाते क्यूँ लिख दी ? क्या इन्होने अज्ञानवश ऐसा लिखा ? हमारा विचार यह हे की तीनो मत सही है | मूलतः चंद्रवंशी राष्ट्रकूटों के वंश में थे | अतः प्रसंगवश १००५ वि.के ताम्र पात्र अपने लिए लिखा की जिस कुल में अमोध वर्ष आदी राष्ट्र कूट राजा थे उस कुल में हम भी है | परमार आबू पर हुए यज्ञ की घटना से सम्बंधित था अतः परमारों को अग्निवंशी भी अंकित किया गया | ओझाजी ने ब्रहमक्षत्र को ब्राहमण और क्षत्रिय दोनों गुणों युक्त बताया है | परमार पहले ब्राहमण थे फिर क्षत्रिय हो गए |
हमारे प्राचीन ग्रन्थ यह तो सिद्ध करते हे की बहुत से क्षत्रिय ब्राहमण हो गए मान्धाता क्षत्रिय के वंशज , विष्णुवृद्ध हरितादी ब्राहमण हो गए | चन्द्रवंश के विश्वामित्र , अरिष्टसेन आदी ब्राहमण को प्राप्त हो गए | पर ऐसे उदहारण नहीं मिल रहे हे जिनसे यह सिद्ध होता हे की कोई ब्राहमण परशुराम में क्षत्रिय के गुण थे | फिर भी ब्राहमण रहे ,शुंगो ,सातवाहनो ,कन्द्वों आदी ब्राहमण रहे | परमारों को तो प्राचीन साहित्य में भी क्षत्रिय कहा गया हे | यशोवर्मन कन्नोज ८वीं शताब्दी के दरबारी कवी वप्पाराव ( बप्पभट ) ने राजा के दरबारी वाक्पति परमार की क्षत्रियों में उज्वल रत्न कहा है | अतः परमार कभी ब्राहमण नहीं थे क्षत्रिय हि थे | ब्राहमण से क्षत्रिय होने की बात कल्पना हि है | इसका कोई आधार नहीं है ओझाजी ने ब्रहमक्षत्र का अर्थ ब्राहमण व् क्षत्रिय दोनों गुणों से युक्त बतलाया हे पर हमारा चिंतन कुछ दूसरी तरह मुड़ रहा हैं | यहाँ केवल ” ब्रह्मक्षेत्र ” शब्द नहीं है | यह ब्रहमक्षत्र कुल है | प्राचीन साहित्य की तरह ध्यान देते हे तो ब्रहमक्षत्र कुल की पहचान होती है |
श्रीमद भगवद गीता में चंद्रवंशी अंतिम क्षेमक के प्रसंग में लिखा है –
दंडपाणीनिर्मिस्तस्य  क्षेमको भवितानृप:
ब्रहमक्षत्रस्य वे प्राक्तोंवशों देवर्षिसत्कृत: ||( भा.१ //22//44 )
इसकी व्याख्या विद्वानो ने इस प्रकार की है –
तदेव ब्रहमक्षत्रस्य ब्रहमक्षत्रकुलयोयोर्नी: कारणभूतो
वंश सोमवंश: देवे: ऋषिभिस्रचसतत्कृत अनुग्रहित इत्यर्थ  |
अर्थात इस प्रकार मेने तुम्हे ब्राहमण और क्षत्रिय दोनों की उत्पति स्थान सोमवंश का वर्णन सुनाया है |
( अनेक संस्क्रत व्यख्यावली टीका भागवत स्कंध नवम के ४८६ प्र. ८७ के अनुसार ) इस प्रकार विष्णु पुराण अंश ४ अध्याय २० वायु पुराण अंश 99 श्लोक २७८-२७९ में भी यही बात कही गयी है | बंगाल के चंद्रवंशी राजा विजयसेन ( सेनवंशी ) के देवापाड़ा शिलालेख में लिखा गया है –
तस्मिन् सेनान्ववाये प्रतिसुभटतोत्सादन्र्व (ब्र) हमवादी |
स व्र ह्क्षत्रियाँणजनीकुलशिरोदाम सामंतसेन: ए . इ. जि . १ प्र ३०७
इसमें विजयसेन के पूर्वज सामंतसेन को ब्रहमवादी को ब्रहमवादी और ब्रहमक्षत्रिय कुल का शिरोमणि कहा है |
इन साक्ष्यों में ब्रहमक्षत्र कुल चन्द्रवंश के लिए प्रयोग हुआ है | किसी सूर्यवंशी राजा के लिए ब्रहमक्षत्र ? कुल का प्रयोग नजर नहीं आया |इससे मत यह हे की चंद्रवंशी को ब्रहमक्षत्र कुल भी कहा गया है | सोम क्षत्रिय + तारा ब्राहमनी =बुध | इसी तरह ययाति क्षत्रिय क्षत्रिय + देवयानी ब्राह्मणी =यदु | इस प्रकार देखते हे की चन्द्रवंश में ब्राहमण और क्षत्रिय दोनों जातियों का रक्त प्रवाहित था | संभवतः इस कारन चन्द्रवंश की और हि संकेत है | इस प्रकार परमार मूलतः चंद्रवंशी आधुनिक आलेख इस बात का समर्थन करते है – पंवार प्रथम चंद्रवंशी लिखे जाते थे | बहादुर सिंह बीदासर
पंजाब में अब भी चंद्रवंशी मानते है| अम्बाराया परमार ( पंवार ) चंद्रवंशी जगदेव की संतान पंजाब में है | और फिर परमार आबू के ब्रहमहोम में शामिल होने से अग्निवंशी भी कहलाये | आगे चलकर अग्निवंशी इतना लोकपिर्य हो गया की परमारों को अग्निवंशी हि कहने लग गए और शिलालेखों और साहित्य में अग्निवंशी हि अंकित किया गया |
इसके विपरीत परमारों के लिए मेरुतुन्गाचार्य वि. १३६१ स्थिवरावली में उज्जेन के गिर्दभिल्ल को सम्प्रति ( अशोक का पुत्र ) के वंश में होना लिखता है | गर्दभिल्ल ( गन्धर्वसेन ) विक्रमदित्य ( पंवार ) का पिता माना जाता है इससे परमार मोर्य सिद्ध होते है परन्तु सम्प्रति के पुत्रों में कोई परमार नामक पुत्र का अस्तित्व नहीं मिलता है | दुसरे सम्प्रति jain धरम अनुयायी था और उसका पिता अशोक ऐसा सम्राट था जिसने इस देश में नहीं ,विदेशों तक बोध धर्म फैला दिया था | अतः सम्प्रति के पुत्र या पोत्र का वैदिक धरम के लिए प्रचार के लिए होने वाले ब्रहम यज्ञ में शामिल होना समीचीन नहीं जान पड़ता |  दुसरे यह आलेख बहुत बाद का 14वीं शताब्दी का है जो शायद परमारों की ऐक शाखा मोरी होने से परमारों की उत्पत्ति मोर्यों से होना मान लिया लगता है | अन्य पुष्टि प्रमाणों के सामने यह साक्ष्य विशेष महत्व नहीं रखता | अतः मूलतः परमार चन्द्रवंशी और फिर अग्निवंशी हुए |
प्राचीन इतिवृत –
परमारों का प्राचीन इतिवृत लिखने से पूर्व यह निश्चिन्त करना चाहिए की उनका प्राचीन इतिहास किस समय से प्रारंभ होता है | इतिहास के प्रकंड विद्वान् ओझाजी ने शिलालेखों के आधार पर परमारों का इतिहास घुम्राज के वंशज सिन्धुराज से शुरू किया है | जिसका समय परमार शासक पूर्णपाल के बसतगढ़ ( सिरोही -राजस्थान ) में मिले शिलालेखों की वि. सं. १०९९ के आधार पर पूर्णपाल से ७ पीढ़ी पूर्व के परमार शासक सिन्धुराज का समय ९५९ विक्रमी के लगभग होता है | और इस सिन्धुराज को यदि मुंज का भाई माना जाय तो यह समय १०३१ वि. के बाद का पड़ता है | इससे पूर्व परमार कितने प्राचीन थे ? विचार करते है |
चाटसु ( जयपुर ) के गुहिलों के शिलालेखों में ऐक गुहिल नामक शासक की शादी परमार वल्लभराज की पुत्री रज्जा से हुयी थी | इस हूल का पिता हर्षराज राजा मिहिर भोज प्रतिहार के समकालीन था जिसका समय वि. सं. ८९३ -९३८ था | यह शिलालेख सिद्ध करता है की इस शिलालेख का वल्लभराज ,सिन्धुराज परमार ( मारवाड़ ) का वंशज नहीं था इससे प्राचीन था |राजा यशोवर्मन वि. ७५७-७९७ लगभग कन्नोज का सम्राट था उसके दरबारी वाक्पति परमार के लिए कवी बप्पभट्ट आपने ब्प्पभट्ट चरित में लिखता है की वह क्षत्रियों में महत्वपूर्ण रत्न तथा परमार कुल का है इससे सिद्ध होता हे की कन्नोज में यशोवर्मन के दरबारी वाक्पति परमार चाटसु शिलालेख से प्राचीन है | शिलालेख और तत्कालीन साहित्य के विवरण के पश्चात अब बही व्=भाटों के विवरणों की तरह ध्यान दे |
भाटी क्षत्रियों के बहीभाटों के प्राचीन रिकार्ड के आधार पर इतिहास में टाड ने लिखा हे – भाटी मंगलराव ने शालिवाहनपुर ( वर्तमान में सियाल कोट भाटियों की राजधानी ) जब छूट गयी तो पूरब की तरह बढ़े और नदी के किनारे रहने वाले बराह तथा बूटा परमारों के यहाँ शरण ली | यह किला यदु – भाटी इतिहास्वेताओं के अनुसार सं. ७८७ में बना था वराहपती ( परमार के साथ मूलराज की पुत्री की शादी हुयी | केहर के पुत्र तनु ने वराह जाती को परास्त किया और अपने पुत्र विजय राज को बुंटा जाती की कन्या से विवाह किया | ये परमार हि थे |
देवराज देरावर के शासक को धार के परमारों से भी संघर्ष हुआ |
वराह परमारों के साथ इन भाटियों के सघर्ष का समर्थन राजपूताने के इतिहास के लेखक जगदीस सिंह गहलोत भी करते हे | देवराज का समय प्रतिहार बाऊक के मंडोर शिलालेख ८९४ वि. के अनुसार वि. ८९४ के लगभग पड़ता है | इस शिलालेख में लिखा हे की शिलुक प्रतिहार ने देवराज भट्टीक वल्ल मंडल ( वर्तमान बाड़मेर जैसलमेर क्षेत्र ) के शासक को मार डाला | इस द्रष्टि से देवराज से ६ पढ़ी पूर्व मंगलराव का समय 700 वि. के करीब पड़ता है | इस हिसाब से ७वीं शताब्दी में भी परमारों का राज्य राजस्थान के पश्चमी भाग पर था |
उस समय परमारों की वराह और बुंटा खांप का उल्लेख मिलता है नेणसी ऋ ख्यात बराह राजपूत के कहे छ; पंवारा मिले इसी प्रष्ट पर देवराज के पिता भाटी विजयराज और बराधक संघर्ष का वर्णन है | नेणसी ने आगे लिखा हे की धरणीवराह परमार ने अपने नो भाइयों में अपने राज्य को नो कोट ( किले ) में बाँट दिया | इस कारन मारवाड़ नोकोटी मारवाड़ कहलाती है |
नेणसी ने नोकोट सम्बन्धी ऐक छपय प्रस्तुत किया है –
मंडोर सांबत हुवो ,अजमेर सिधसु |
गढ़ पूंगल गजमल हुवो ,लुद्र्वे भाणसु |
जोंगराज धर धाट हुयो ,हासू पारकर |
अल्ह पल्ह अरबद ,भोजराज जालन्धर ||
नवकोटी किराडू सुजुगत ,थिसर पंवारा हरथापिया |
धरनो वराह घर भाईयां , कोट बाँट जूजू किया ||
अर्थात मंडोर सांवत ,को सांभर ( छपय को ,पूंगल गजमल को ,लुद्र्वा भाण को ,धरधाट ( अमरकोट क्षेत्र ) जोगराज को पारकर ( पाकिस्तान में ) हासू को ,आबू अल्ह ,पुलह को जालन्धर ( जालोर ) भोजराज को और किराडू ( बाड़मेर ) अपने पास रखा |
धरणीवराह नामक शासक शिलालेखीय अधरों पर वि १०१७ -१०५२ के बीच सिद्ध होता है | परन्तु परमारों के नव कोटों पर अधिकार की बात सोचे तो यह धरणीवराह भिन्न नजर आता है | मंडोर पर सातवीं शताब्दी के लगभग हरिश्चंद्र ब्राहमण प्रतिहार के पुत्रों का राज्य बाऊक के मंडोर के शिलालेख ८९४ वि. सं. सिद्ध होता है अतः धरणीवराह के भाई सांवत करज्य इस समय से पूर्व होना चाहिए | इस प्रकार लुद्रवा पर भाटियों का अधिकार 9वि. शताब्दी वि. में हो गया था | इस प्रकार भटिंडा क्षेत्र पर जो वराह पंवार शासन कर रहे थे | मेरी समझ धरणीवराह के हि वंशज थे जो अपने पूर्व पुरुष धरणीवराह के नाम से आगे चलकर वराह पंवार ( परमार ) कहलाने लगे थे | ऐसी स्थति में धरणीवराह का समय ६टी ७वि शताब्दी में परमार पश्चमी राजस्थान पर शासन कर रहे थे | परमारों ने यहाँ का राज्य नाग जाती से लिया होगा जेसे निम्न पद्य में संकेत हे
परमांरा रुधाविया ,नाग गिया पाताल |
हमें बिचारा आसिया किणरी झूले चाल ||
मंडोर की नागाद्रिन्दी ,वहां का नागकुंड ,नागोर (नागउर ) पुष्कर का नाम ,सीकर के आसपास का अन्नत -अन्नतगोचर क्षेत्र आदी नाम नाग्जाती के राजस्थान में शासन करने की और संकेत करते हें | तक्षक नाग के वंशज टाक नागोर जिले में 14वीं शताब्दी तक थे | उनमे से हि जफ़रखां गुजरात का शासक हुआ | यह नागों का राज्य चौथी पांचवी शताब्दी तक था | इसके बाद परमारों का राज्य हुआ | चावड़ा व् डोडिया भी परमारों की साखा मानी जाती है | चावडो की प्राचीनता विक्रम की ७वि चावडो का भीनमाल में राज्य था | उस वंश का व्याघ्रमुख ब्रह्मस्पुट सिद्धांत जिसकी रचना ६८५ वि. में हुयी उसके अनुसार वह वि. ६८५ में शासन कर रहा था इन सब साक्ष्यों से जाना जा सकता हे की राजस्थान के पश्चमी भाग पर परमार ६ठी शताब्दी से पूर्व हि जम गए थे और 700 वि. सं. पूर्व धरणीवराह नाम का कोई प्रसिद्द परमार था जिसने अपना राज्य अपने सहित नो भागो में बाँट दिया था |
इन श्रोतों के बाद जब पुरानो को देखते हे तो भविष्य पुराण के अनुवाद मालवा पर शासन करने वाले शासकों के नाम मिलते हे – विक्रमादित्य ,देवभट्ट ,शालिवाहन ,गालीहोम आदी | विक्रमादित्य परमार माना जाता था | इसका अर्थ हुआ विक्रम संवत के प्रारंभ में परमारों का अस्तित्व था | भविष्य पुराण के अनुसार अशोक के पुत्रों के काल में आबू पर्वत पर हुए ब्रहमयज्ञ में परमार उपस्थित था | इस प्रकार परमारों का अस्तित्व दूसरी शादी ई.पू. तक जाता है |
अब यहाँ परमारों के प्राचीन इतिवृत को संक्षिप्त रूप से अंकित किया जा रहा है | अशोक के पुत्रों के काल २३२ से २१४ ई.पू. आबू पर ब्रहमहोम (यज्ञ ) हुआ | इस यज्ञ में कोई चंद्रवंशी क्षत्रिय शामिल हुए | ऋषियों ने सोमवेद के मन्त्र से उसका यज्ञ नाम प्रमार( परमार ) रखा | इसी परमार के वंशज परमार क्षत्रिय हुए | भविष्य पुराण के अनुसार यह परमार अवन्ती उज्जेन का शासक हुआ | ( अवन्ते प्रमरोभूपश्चतुर्योजन विस्तृताम | अम्बावतो नाम पुरीममध्यास्य सुखितोभवत ||49||  भविष्य पुराण पर्व खंड १ अ. ६  इसके बाद महमद ,देवापी ,देवहूत ,गंधर्वसेन हुए | इस गंधर्वसेन का पुत्र विक्रमदित्य था भविष्य पुराण के अनुसार यह विक्रमादित्य जनमानस में बहुत प्रसिद्द रहा है | इसे जन श्रुतियों में पंवार परमार माना है | प्रथम शताब्दी का सातवाहन शासक हाल अपने ग्रन्थ गाथा सप्तशती में लिखता हे –
संवाहणसुहरतोसीएणदेनतण  तुह करे लक्खम  |
चलनेण   विक्कमाईव्  चरीऊँअणु सिकिखअंतिस्सा ||
भविष्य पुराण १४वि शदी विक्रम प्रबंध कोष आदी ग्रन्थ विक्रमादित्य के अस्तित्व को स्वीकारते हे | संस्कृत साहित्य का इतिहास बलदेव उपाध्याय लिखते हे –
सरम्या नगरीमहान न्रपति: सामंत चक्रंतत |
पाश्रवेततस्य च सावीग्धपरिषद ताश्र्वंद्र बिबानना |
उन्मत: सच राजपूत: निवहस्तेवन्दिन: ताकथा |
सर्वतस्यवशाद्गातस्स्रतिपंथ  कालाय तस्मे नमः ||
उस काल को नमस्कार है जिसने उज्जेनी नगरी ,राजा विक्रमादित्य ,उसका सामंतचक्र और विद्वत परिषद् सबको समेट लिया | यह सब साक्ष्य विक्रमादित्य ने शकों को पराजीत कर भारतीय जनता को बड़ा उपकार किया | मेरुतुंगाचार्य की पद्मावली से मालूम होता हे की गर्दभिल्ल के पुत्र विक्रमादित्य ने शकों से उज्जयनी का राज्य लोटा दिया था |विक्रमादित्य का दरबार विद्वानों को दरबार था |विद्वानों की राय में इस समय पुन: कृतयुग का समय आ रहा था | अतः शकों पर विजय की पश्चात् विक्रमादित्य का दरबार पुनः विद्वानों का दरबार था | विद्वानों की राय से कृत संवत का सुभारम्भ किया | फिर यही कृत संवत ( सिद्धम्कृतयोद्ध्रे मोध्वर्षशतोद्ध्र्यथीतयो  २००८५ ( २ चेत्र पूर्णमासी मालव जनपद के नाम से मालव संवत कहलाया |उज्जेन के चारों और का क्षेत्र मालव ( मालवा ) कहलाता था | उसी जनपद के नाम से मालव संवत कहलाया | फिर 9वीं शताब्दी में विक्रमादित्य के नाम से विक्रम संवत हो गया | कथा सरित्सागर में विक्रमादित्य के पिता का नाम महेंद्रदित्य लिखा गया है |
विक्रमादित्य के बाद भविष्य पुराण के अनुसार रेवभट्ट ,शालिवाहन ,शालिवर्धन ,सुदीहोम ,इंद्रपाल ,माल्यवान ,संभुदत ,भोमराज ,वत्सराज ,भाजराज ,संभुदत ,विन्दुपाल ,राजपाल ,महिनर,शकहंता,शुहोत्र ,सोमवर्मा ,कानर्व ,भूमिपाल ,रंगपाल ,कल्वसी व् गंगासी मालवा के शासक हुए | इसी प्रकार करीब ५वि ६ठी शताब्दी तक परमारों का मालवा पर शासन करने की बात भविष्य पुराण कहता हे | मालूम होता हे हूणों ने मालवा से परमारों का राज्य समाप्त कर दिया होगा | संभवत परमार यहाँ सामंत रूप थे
पश्चमी राजस्थान आबू ,बाड़मेर ,लोद्रवा ,पुगल  आदी पर भी परमारों का राज्य था और उन्होंने संभतः नागजाती से यह राज्य छीन लिया था | इन परमारों में धरणीवराह नामक प्रसिद्द शासक हुआ जिसने अपने सहित राज्य को नो भागो में बांटकर आपने भाइयों को भी दे दिया था | वी .एस परमार ने विक्रमादित्य से धरणीवराह तक वंशावली इस प्रकार दी हे
विक्रमादित्य के बाद क्रमशः ,विक्रम चरित्र ,राजा कर्ण, अहिकर्ण ,आँसूबोल ,गोयलदेव ,महिपाल ,हरभान.,राजधर ,अभयपाल ,राजा मोरध्वज ,महिकर्ण ,रसुल्पाल,द्वन्दराय ,इति , यदि यह वंशावली ठीक हे तो वंशावली की यह धारा विक्रमादित्य के पुत्र या पोत्रों से अलग हुयी | क्यूँ की यह वंशवली भविष्य पुराण की वंशवली से मेल नहीं खाती हे | नवी शताब्दी में वराह परमारों से देवराज भाटी ने लोद्रवा ले लिया था तथा वि. की सातवीं में ब्राहमण हरियचंद्र के पुत्रों मंडोर का क्षेत्र लिया | सोजत का क्षेत्र हलो ने छीन लिया था तब परमारों का राज्य निर्बल हो गया था | आबू क्षेत्र में परमारों का पुनरुथान vikram की 11वीं शताब्दी में हुआ | पुनरुत्थान के इस काल में आबू पश्चमी राजस्थान के परमारों में सर्वप्रथम सिन्धुराज का नाम मिलता है इस प्रकार मालवा व् पश्चमी राजस्थान के परमारों का प्राचीन राज्य वर्चस्वहीन हो गया
परमार वंश: इतिहास, युद्ध, उपलब्धियां और अस्वीकार के कारण 

अग्निकुण्ड से जिन राजपूत वंशों की उत्पत्ति वर्णित है उनमें धारा अथवा मालवा के परमार प्रमुख है। इस वंश के साहित्य तथा लेखों में स्पष्टतः अग्निकुण्ड की कथा का उल्लेख किया गया है। पद्‌मगुप्त, जो परमार काल के प्रसिद्ध कवि थे के ग्रन्थ नवसाहसांकचरित में परमार वंश की उत्पत्ति आबू पर्वत से बताई गयी है।

तदनुसार ऋषि वशिष्ठ ईक्ष्वाकुवंश के पुरोहित थे। उनकी कामधेनु नामक गाय को विश्वामित्र ने चुरा लिया। वशिष्ठ ने गाय प्राप्त करने के लिये आबू पर्वत पर पत्र किया। अग्नि में डाली गयी आहुति से एक धनुर्धर वीर उत्पन्न हुआ जिसने विश्वामित्र को परास्त कर गाय को पुन वशिष्ठ को समर्पित कर दिया।

प्रसन्न होकर ऋषि ने इस वीर का नाम ‘परमार’ रखा जिसका अर्थ है शत्रु का नाश करने वाला। इसी द्वारा स्थापित वंश परमार कहा गया। इस कथानक का उल्लेख धनपाल कृत तिलकमंजरी तथा परमार वंश के उदयपुर, आबूपर्वत, वसन्तगढ़ आदि स्थानों से प्राप्त लेखों में भी हुआ है।

परमारों की उत्पत्ति संबंधी इस अनुश्रुति पर टिप्पणी करते हुए गौरीशंकर ओझा ने मत व्यक्त किया है कि चूंकि इस वंश के आदि पूर्वज धूमराज के नाम का सबध अग्नि से था, इसी कारण विद्वानों ने इस वंश को अग्निवंशी स्वीकार कर लिया । किन्तु यह पूर्णतया अनुमानपरक है जिसका कोई आधार नहीं मिलता।

हलायुध की ‘पिंगल सूत्रवृत्ति’ में परमारों को ‘ब्रह्माक्षत्र कुलीन’ बताया गया है। परमार भी अपना संबंध ऋषि वशिष्ठ से जोड़ते है। ऐसी स्थिति में यही मानना तर्कसंगत प्रतीत होता है कि परमार पहले ब्राह्मण थे जो बाद में शासन करने के कारण क्षत्रियत्व को प्राप्त हुए। उल्लेखनीय है कि इस वंश के प्रथम शासक उपेजराज को उदयपुर लेख में ‘द्विजवर्ग्गरत्न’ कहा गया है । पूर्व मध्यकाल में ब्रह्मक्षत्र परम्परा के व्यापक प्रचलन के प्रमाण मिलते है।

2. परमार वंश का इतिहास के साधन (Tools of History of Paramara Dynasty):

परमार वंश का इतिहास हम अभिलेख, साहित्य तथा विदेशी विवरण के आधार पर ज्ञात करते हैं । इस वंश के अभिलेख में सर्वप्रथम सीयक द्वितीय का हसील अभिलेख (948 ईस्वी) है जिससे परमार वंश का प्रारंभिक इतिहास ज्ञात होता है ।

अन्य लेखों में वाक्पति मुंज का उज्जैन अभिलेख (980 ईस्वी), भोज के बांसवाड़ा तथा बेतमा के अभिलेख, उदयादित्य के समय की उदयपुर-प्रशस्ति, लक्ष्मदेव की नागपुर-प्रशस्ति आदि का उल्लेख किया जा सकता है । इनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रशस्ति है जो भिलसा के समीप उदयपुर नामक स्थान के नीलकण्ठेश्वर मन्दिर के एक शिलापट्ट के ऊपर उत्कीर्ण है ।

यह परमार वंश के शासकों के नाम तथा उनकी उपलब्धियों को ज्ञात करने का प्रमुख साधन है तथा इस प्रकार का विवरण अन्यत्र कहीं नहीं मिलता है । परमार वंश के इतिहास का ज्ञान हमें विभिन्न साहित्यिक ग्रन्थों से भी प्राप्त होता है । इनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण है पद्‌मगुप्त द्वारा विरचित नवसाहसाड्कचरित ।

पद्‌मगुप्त परमारनरेशों वाक्पतिमुंज तथा सिंधुराज का राजकवि था । यद्यपि इस ग्रन्थ में उसने मुख्यतः अपने आश्रयदाता राजाओं के जीवन तथा कृतियों का ही वर्णन किया है तथापि इसमें परमार वंश के इतिहास से सम्बन्धित अनेक महत्वपूर्ण तथ्य भी लिखित हैं । हर्षचरित की प्रकृति का यह एक चरित काव्य ही है ।

इसके अतिरिक्त जैन लेख मेरुतुंग के प्रबन्धचिन्तामणि से भी परमार वंश के इतिहास, विशेषकर गुजरात के चौलुक्य शासकों के साथ उनके सम्बन्धों का ज्ञान होता है । वाक्पतिमुंज तथा भोज स्वयं विद्वान तथा विद्वानों के संरक्षक थे । उनके काल में अनेक ग्रन्थों की रचना हुई । उनके अध्ययन से हम तत्कालीन समाज एवं संस्कृति का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर सकते है ।

मुसलमान लेखकों तथा गुणों के विवरण से भी परमार वंश के कुछ शासकों के विषय में कुछ बाते ज्ञात होती है । इनमें अबुलफजल की आइने-अकवरी, अल्बेरूनी तथा फरिश्ता के विवरण आदि उल्लेखनीय हैं । मुसलमान लेखक भोज की शक्ति तथा विद्वता की प्रशंसा करते है ।


3. परमार वंश का राजनैतिक इतिहास (Political History of Paramara Dynasty):

परमार वंश की स्थापना दसवीं शताब्दी ईस्वी के प्रथम चरण में उपेन्द्र अथवा कृष्णराज नामक व्यक्ति ने की थी । धारा नामक नगरी परमार वंश की राजधानी था । उदयपुर लेख से पता चलता है कि उसने स्वयं अपने पराक्रम से राजत्व का उच्च पद प्राप्त किया था (शौयाज्जितोत्तुंगनृपत्वमाण:) । लेकिन यह निश्चित नहीं है कि कब और किन परिस्थितियों में उपेंद्र ने मालवा पर अधिकार किया ।

इस समय का राजनीतिक वातावरण काफी अशान्तपूर्ण था तथा प्रतिहारों एवं राष्ट्रकूटों में संघर्ष चल रहा था । प्रतिपाल भाटिया का अनुमान है कि वत्सराज की ध्रुव द्वारा पराजय के बाद उपेन्द्र को अपनी शक्ति विस्तार का अवसर मिला होगा। गोविन्द तृतीय के उत्तरी अभियान के दौरान उसने राष्ट्रकूटों की अधीनता स्वीकार कर लिया।

किन्तु नागभट्ट के समय में प्रतिहारों के शक्तिशाली हो जाने पर उपेन्द्र तथा उसके उत्तराधिकारी उनके अधीन हो गये। पद्‌मगुप्त, उपेन्द्र की प्रशंसा में लिखता है कि उसने प्रजा के अनेक करों में छूट कर दी तथा वैदिक यज्ञों का अनुष्ठान किया।

उपेन्द्र के बाद कई छोटे-छोटे शासक हुए। इनमें वैरिसिंह प्रथम, सीयक प्रथम, वाक्पति प्रथम तथा वैरिसिह द्वितीय के नाम मिलते है जिन्होंने 790 ईस्वी के लगभग से 945 ईस्वी तक शासन किया । इनकी स्थिति अधीन अथवा सामन्त शासकों जैसी थी जिनकी किसी विशेष उपलब्धि के विषय में हमें ज्ञात नहीं है। ये सभी राष्ट्रकूटों तथा प्रतिहारों की अधीनता में राज्य करते थे।

i. हर्ष अथवा सीअन द्वितीय:

परमार वंश को स्वतंत्र स्थिति में लाने वाला पहला शासक हर्ष अथवा सीअक द्वितीय वैरिसिंह द्वितीय का पुत्र और उत्तराधिकारी था। उसके पिता के समय में प्रतिहारों ने मालवा पर अधिकार कर लिया था तथा परमारों को माण्डू तथा धारा से निवसित कर दिया था। ऐसा प्रतीत होता है कि इस समय परमारों ने भागकर राष्ट्रकूटों के यहाँ शरण ले ली थी।

अस्तु परमार तथा राष्ट्रकूट सत्ता से अपने वंश को मुक्त कराना सीअक की प्राथामिकतायें थीं। प्रतिहार साम्राज्य इस समय पतनोन्मुख स्थिति में था। इसका लाभ उठाते हुए सीअक ने मालवा तथा गुजरात में अपनी स्थिति मजबूत कर ली ।

तत्पश्चात् उसने अन्य क्षेत्रों में अपना विजय अभियान प्रारम्भ किया । उसके हर्सोल लेख से पता चलता है कि योगराज नामक किसी शत्रु को उसने जीता था । इसकी पहचान संदिग्ध है । संभवतः यह गुजरात के चालुक्यवंश से संबंधित प्रतिहार नरेश महेन्द्रपाल प्रथम का कोई सामन्त था । नवसाहसांकचरित उसे हुणमण्डल की विजय का श्रेय प्रदान करता है ।

तदनुसार सीअक ने हूण राजकुमारों की हत्या कर उनकी रानियों को विधवा बना दिया था हूणमण्डल से तात्पर्य मध्य प्रदेश के इन्दौर के समीपवर्ती प्रदेश से है जिसे जीतकर सीअक ने अपने साम्राज्य में शामिल कर लिया था । किन्तु उसकी बढती हुई शक्ति पर जेजाकभुक्ति के चन्देलों ने अंकुश लगाया ।

खुजराहों लेख से पता चलता है कि चन्देल शासक यशोवर्मन् ने सीअक को पराजित किया था । उसे ‘मालवों के लिये काल के समान’ (काल-वन्मालवानाम्) कहा गया है । ऐसा प्रतीत होता है कि यशोवर्मन् ने परमार राज्य के किसी भाग पर अधिकार नहीं किया तथा उसका युद्ध केवल परमारों को आतंकित करने के लिये ही था ।

सीअक को सबसे महत्वपूर्ण सफलता राष्ट्रकूटों के विरुद्ध मिली तथा उसने अपने वंश को राष्ट्रकूटों की अधीनता से मुक्त कराया । नर्मदा नदी के तट पर राष्ट्रकूट नरेश खोट्टिग की सेनाओं के साथ युद्ध हुआ जिसमें सीयक की विजय । उसने राष्ट्रकूट नरेश का उसकी राजधानी मान्यखेत तक पीछा किया तथा वहाँ से बहुत अधिक सम्पत्ति लूट कर लाया ।



वह अपने साथ ताम्रपत्रों की अभिलेखागार में सुरक्षित प्रतियां भी उठा ले गया । इन्हीं में से एक लेख गोविन्द चतुर्थ का था जिस पर बाद में एक ओरा मुंज ने अपना लेख खुदवाया था । राष्ट्रकूटों के साथ संघर्ष में सीअक का एक सेनापति भी मारा गया ।

उदयपुर लेख में इस विजय का उल्लेख अत्यन्त काव्यात्मक ढंग से करते हुए कहा गया है कि सीयक ने ‘भयंकरता में गरुड़ की तुलना करते हुए खोट्टिग की लक्ष्मी को युद्ध में छीन लिया’ । उसकी इस विजय के परिणामस्वरूप परमार राज्य की दक्षिणी सीमा ताप्ती नदी तक जा पहुँची । इस प्रकार सीअक एक शक्तिशाली सम्राट सिद्ध हुआ जिसकी विजयों ने परमार साम्राज्य की सुदृढ़ आधारशिला प्रस्तुत किया ।


ii. वाक्पति मुंज:

सीयक के दो पुत्र थे- मुंज तथा सिन्धुराज । इनमें पहला उसका दत्तक पुत्र था लेकिन सीयक की मृत्यु के बाद वही गद्दी पर बैठा । इतिहास में वह वाक्पति मुंज तथा उत्पलराज के नाम से भी प्रसिद्ध है । प्रबन्धचिन्तामणि में उसके जन्म के विषय में एक अनोखी कथा मिलती है । इसके अनुसार सीअक को बहुत दिन तक कोई पुत्र नहीं प्राप्त हुआ ।

संयोगवश उसे एक दिन मुंज घास में पड़ा एक नवजात शिशु मिला । सीअक उसे उठाकर घर लाया तथा पालन पोषण करके बडा किया । बाद में उसकी अपनी पत्नी से सिन्धुराज नामक पुत्र भी उत्पन्न हो गया । किन्तु वह अपने दत्तक पुत्र से पूर्ववत् ह्वेह करता रहा । मुंज में पड़े होने से ही उसका नाम मुंज रखा गया । सीअक ने स्वयं उसे अपना उत्तराधिकारी घोषित किया था ।

किन्तु कुछ विद्वान इस कथानक की ऐतिहासिकता में संदेह व्यक्त करते हुए मत देते है कि मुंजराज नाम की व्याख्या ढूंढने क उद्देश्य से इसका सृजन किया गया है । वाक्पति मुंज एक शक्तिशाली शासक था । राज्यारोहण के पश्चात् वह अपने साम्राज्य को विस्तृत करने में जुट गया । इस उद्देश्य से उसने अनेक युद्ध किये ।

मुंज ने कलचुरि शासक युवराज द्वितीय को हराकर उसकी राजधानी त्रिपुरी को लूटा । उदयपुर लेख में इसका विवरण गिक्षन है। ऐसा प्रतीत होता है कि मुंज त्रिपुरी पर अधिक समय तक अधिकार नहीं रख पाया तथा उसने कलचुरि राज्य से संधि कर उसकी राजधानी वापस कर दिया ।

हूण-मण्डल के हूणों ने उसकी अधीनता स्वीकार की इसमें मालवा क्षेत्र सम्मिलित था । गाओंरी लेख से पता चलता है कि मुंज ने इस क्षेत्र में स्थित वणिका नामक ग्राम ब्राह्मणों को दान में दिया था । यह उसकी हूण क्षेत्र पर विजय एवं अधिकार का स्पष्ट प्रमाण है ।

इसी प्रकार उसने मेवाड़ के गुहिल वंशी शासक शक्तिकुमार को हराकर उसकी राजधानी आघाट (उदयपुर स्थित अहर) को लूटा । राष्ट्रकूट वंशी धवल के बीजापुर लेख से पता चलता है कि गुहिल नरेश ने भागकर धवल के दरबार में शरण ली । इस युद्ध में गुर्जर वंश का कोई शासक भी शक्तिकुमार की ओर से लड़ा था किन्तु वह भी मुंज द्वारा पराजित किया गया । इस गुर्जर नरेश की पहचान के विषय में मतभेद है ।

दशरथ शर्मा तथा एच. सी. राय इसे चालुक्य नरेश मूलराज मानते है । मजूमदार तथा भाटिया के अनुसार वह कन्नौज के प्रतिहारों का कोई सामन्त था । नड्‌डुल के चौहानों से भी उसका युद्ध हुआ । चौहान शासक बलिराज को हराकर उसने आबू पर्वत तथा जोधपुर के दक्षिण का भाग छीन लिया ।

पश्चिम में उसने लाट राज्य पर आक्रमण किया । इस समय लाट प्रदेश पर कल्याणी के चालुक्यों का अधिकार था जहाँ तैल द्वितीय का सामन्त वारप्प तथा उसका पुत्र गोग्गीराज शासन करते थे । मुंज ने वारप्प को परास्त किया । परिणामस्वरूप उसका चालुक्य नरेश तैल से संघर्ष छिड़ गया ।

प्रबन्धचिन्तामणि से पता चलता है कि मुंज ने छ: बार तेल की सेनाओं को पराजित किया और अन्त में अपने मंत्री रुद्रादित्य के परामर्श की उपेक्षा करते हुए उसने गोदावरी नदी पारकर स्वयं राष्ट्रकूट राज्य पर आक्रमण कर दिया ।

उसे राष्ट्रकूटों की शक्ति का सही अन्दाजा नहीं था । मुंज राष्ट्रकूट सेनाओं द्वारा पराजित किया गया तथा बन्दी बना लिया गया । तेल ने नर्मदा नदी तक परमार राज्य के दक्षिणी भाग पर अधिकार कर लिया । उसने कारागार में ही परमार नरेश मुंज का वध करवा दिया।

प्रबन्धचिन्तामणि के अतिरिक्त कैथोम तथा गडग जैसे चालुक्य लेखों से भी तैल द्वारा मुंज के वध की सूचना मिलती है । इस प्रकार उसका दुखद अन्त हुआ । मुंज ने 992 ईस्वी से 998 ईस्वी तक राज्य किया । विजेता होने के साथ-साथ वह स्वयं एक उच्चकोटि का कवि  एवं विद्या और कला का उदार संरक्षक था । पद्‌मगुप्त, धनन्यय, धनिक, हलायुध, अमितगति जैसे विद्वान् उसकी राजसभा को सुशोभित करते थे ।

पद्‌मगुप्त उसकी विद्वता एवं विद्या के प्रति अगाध प्रेम की चर्चा करते हुए लिखता है कि ‘विक्रमादित्य के चले जाने तथा सातवाहन के अस्त हो जाने पर सरस्वती को कवियों के मित्र मुंज के यहाँ ही आश्रय प्राप्त हुआ था । वह महान् निर्माता भी था जिसने अनेक मन्दिरों तथा सरोवरों का निर्माण करवाया था ।

अपनी राजधानी में उसने ‘मुंजसागर’ नामक एक तालाब बनवाया तथा गुजरात में मुंजपुर नामक नये नगर की स्थापना करवायी थी । उज्जैन, धर्मपुरी, माहेश्वर आदि में उसने कई मन्दिरों का निर्माण भी करवाया । इस प्रकार उसकी प्रतिभा बहुमुखी थी । श्रीवल्लभ, पृथ्वीवल्लभ, अमोघवर्ष आदि उसकी प्रसिद्ध उपाधिया थीं ।

iii. सिन्धुराज:

मुंज के कोई पुत्र नहीं था, अतः उसकी मृत्यु के बाद उसका छोटा भाई सिन्धुराज शासक बना । उसने कुमारनारायण तथा साहसाड्क जैसी उपाधियों धारण कीं । वह भी महान् विजेता और साम्राज्य निर्माता था । राजा बनने के पश्चात् वह अपने साम्राज्य की प्रतिष्ठा को पुनस्थापित करने के कार्य में जुट गया ।

उसका सबसे पहला कार्य कल्याणी के चालुक्यों से अपने उन क्षेत्रों को जीतना था जिन पर मुंज को हराकर तैलप ने अधिकार कर लिया था । उसका समकालीन चालुक्य नरेश सत्याश्रय था । नवसाहसांकचरित से पता चलता है कि सिंधुराज ने कुन्तलेश्वर द्वारा अधिग्रहीत अपने राज्य को तलवार के बल पर पुन अपने अधिकार में किया ।

यहां कुन्तलेश्वर से तात्पर्य सत्याश्रय से ही है । तत्पश्चात् उसने अन्य स्थानों की विजय का कार्य प्रारम्भ किया । उसकी कुछ विजयों के विषय में पद्‌मगुप्त सूचना देता है । वह उसे कोशल, लाट, अपरान्त तथा मुरल का विजेता बताता है । यहां कोशल में तात्पर्य दक्षिणी कोशल से है जो वर्तमान छत्तीसगढ़ राज्य में स्थित (रायपुर-विलासपुर क्षेत्र) था ।

लाट प्रदेश गुजरात में था जहां कल्याणी के चालुक्य सामन्त गोग्गीराज शासन कर रहा था । सिन्धुराज ने उस पर आक्रमण कर उसे परास्त किया तथा वहीं से अपरान्त (कोंकण) की विजय की जहां शिलाहार वंश का शासन था । शिलाहारों ने उसकी अधीनता मान ली । मुरल की पहचान निश्चित नहीं है । यह राज्य संभवतः अपरान्त और केरल के बीच स्थित था ।

पता चलता है कि बस्तर राज्य के नलवंशी शासक ने वज़्र (वैरगढ़, म. प्र.) के अनार्य शासक वज़्रकुश के विरुद्ध सिन्धुराज से सहायता की याचना की । परिणामस्वरूप सिन्धुराज ने विद्याधरों को साथ लेकर गोदावरी पार किया तथा अनार्य शासक के राज्य में जाकर उसकी हत्या कर दी । अनुग्रहीत नागशासक ने सिन्धुराज के साथ अपनी कन्या शशिप्रभा का विवाह कर दिया ।

विद्याधर थाना जिले के शिलाहार थे जिनका शासक अपराजित था । उत्तर की ओर उसने हूण मण्डल के शासक को हराया उदयपुर लेख तथा नवसाहसांकचरित दोनों में हूणों का उल्लेख मिलता है । ऐसा प्रतीत होता है कि सिन्धुराज ने हूणों का पूर्णरूपेण दमन कर दिया तथा बाद में विद्रोह खडा करने की हिम्मत उनमें नहीं रही ।

इसी समय वागड के परमार सामन्त चण्डप ने विद्रोह का झंडा खडाकर दिया किन्तु सिंधुराज ने उसके विद्रोह को शान्त किया । किन्तु गुजरात के चालुक्य शासक मूलराज प्रथम के पुत्र चामुण्डराज के हाथों सिन्धुराज को पराजित होना पड़ा ।

जयसिंह सूरि की कुमारभूपालचरित तथा वाडनगर लेख से इसकी सूचना मिलती है । ऐसा प्रतीत होता है कि सिन्धुराज को पराजित हो जाने के बाद युद्धभूमि से भागकर अपनी जान बचानी पड़ी । किन्तु इस असफलता के बावजूद वह एक योग्य शासक था जिसने अपने भाई मुंज के काल में लुप्त हुई परमार वंश की प्रतिष्ठा को पुन स्थापित कि या। उसकी मृत्यु 1000 ईस्वी के लगभग हुई ।

iv. भोज:

सिन्धुराज के पश्चात् उसका भोज परमार वंश का शासक हुआ । वह इस वंश का सर्वाधिक महत्वपूर्ण शासक था जिसके समय में राजनीतिक और सांस्कृतिक दोनों ही दृष्टियों से परमार राज्य की अभूतपूर्व उन्नति हुई ।

भोज के शासन-काल की घटनाओं की सूचना देने वाले आठ अभिलेख मिलते है जो 1011 ईस्वी से 1046 ईस्वी तक के है । उदयपुर प्रशस्ति से हम उनकी राजनैतिक उपलब्धियों का ज्ञान प्राप्त करते है । इसके अनुसार उसने ‘चेदिश्वर, इन्द्ररथ, तोग्गल, राजा भीम, कर्नाट, लाट और गुर्जर, के राजाओं तथा तुर्कों को पराजित किया ।

4. परमार वंश का युद्ध तथा विजयें (Wars and Victories of Paramara Dynasty):

उसका सर्वप्रथम संघर्ष कल्याणी के चालुक्यों के साथ हुआ । प्रारम्भ में उसे कुछ सफलता मिली तथा गोदावरी के आस-पास का क्षेत्र उसने जीत लिया । इस युद्ध में त्रिपुरी के कलचुरि नरेश गांगेयदेव विक्रमादित्य तथा चोलनरेश राजेन्द्र से भोज को सहायता प्राप्त हुई थी ।

कल्वन लेख, जो भोज के सामन्त यशोवर्मा का है, से सूचित होता है कि उसने कर्णाट, लाट तथा कोंकण को जीता था । ऐसा प्रतीत होता है कि उसे कर्णाट से होकर ही कोंकण को जीता था जिसमें चालुक्य साम्राज्य के उत्तर का गोदावरी का समीपवर्ती कुछ भाग उसके अधिकार में आ गया था ।

उसके लेखों से इसकी सूचना मिलती है । बेलगाँव लेख में बताया गया है कि वह ‘भोजरूप कमल के लिये चन्द्र के समान’ था । मीराज लेख से पता चलता है कि उसने कोंकण नरेश की समस्त सम्पत्ति छीन लिया तथा कोल्हापुर मे सैनिक शिविर लगाकर उत्तर भारत की विजय के निमित्त योजनायें तैयार किया था । परन्तु चालुक्य नरेश जयसिंह द्वितीय ने उसे हरा दिया ।

भोज ने लाट के शासक कीर्तिराज के ऊपर आक्रमण किया । वह पराजित हुआ तथा आत्मसमर्पण करने को विवश हुआ । भोज के सामन्त यशोवर्मा का कल्वन से प्राप्त लेख लाट प्रदेश पर उसके अधिकार की पुष्टि करता है । ऐसा लगता है कि कीर्तिवर्मा को हटाकर भोज ने यशोवर्मा को लाट का शासक बनाया था ।

बताया गया है कि वह भोज की ओर से नासिक में 1500 ग्रामों पर शासन कर रहा था । लाट को जीतने के बाद उसने कोंकण प्रदेश की विजय की जहाँ शिलाहार वंश का शासन था । किन्तु कोंकण पर उसकी विजय स्थायी नहीं हुई तथा शीघ्र ही चालुक्य नरेश जयसिंह द्वितीय ने वही अपना अधिकार कर लिया ।

मीराज लेख से सूचना मिलती है कि उसने कोंकण नरेश को पराजित कर उसकी सारी सम्पत्ति छीन लिया था । भोज ने उड़ीसा की भी विजय की जहाँ का शासक इन्द्ररथ था । उसकी राजधानी आदिनगर में थी । इन्द्ररथ का उल्लेख चोल शासक राजेन्द्र के तिरुमलै लेखों में भी मिलता है । कुछ विद्वानों के अनुसार उसी के सहयोग से भोज ने इन्द्ररथ को जीता होगा ।

उदयपुर तथा कल्वन लेखों से सूचना मिलती है कि भोज ने चेदिवंश के राजा को जीता था । यह पराजित नरेश गांगेयदेव रहा होगा जो भोज का समकालीन था । पहले गांगेयदेव तथा भोज के बीच मैत्रीपूर्ण संबंध थे । ऐसा प्रतीत होता है कि प्रतिहार क्षेत्रों पर अधिकार को लेकर दोनों में अनवन हो गयी तथा भोज ने उसे पराजित कर खुशियों मनायी ।

उदयपुर लेख से पता चलता है कि उसने तोग्गल तथा तुरुष्क को जीता था । कुछ विद्वान् इसका तात्पर्य मुसलमानों की विजय से लेते प्रतिपादित करते है कि भोज ने महमूद गजनवी के किसी सरदार को युद्ध में हराया था । लेकिन यह निष्कर्ष संदिग्ध हैं । हूणों के विरुद्ध भी उसे सफलता प्राप्त हुई ।

चन्देलों में संघर्ष-जिस समय भोज मालवा में अपने साम्राज्य का विस्तार कर रहा था, उसी समय बुन्देलखण्ड में चन्देल भी अपनी सत्ता सुदृढ़ करने में लगे हुए थे । भोज का समकालीन चन्देल सम्राट विद्याधर उससे बढ़कर महत्वाकांक्षी एवं पराक्रमी था ।

ग्वालियर तथा दूबकुण्ड में उसके कछवाहा वंशी सामन्त शासन करते थे । ऐसी स्थिति में दोनों के बीच संघर्ष अनिवार्य हो गया । ऐसा प्रतीत होता है कि भोज विद्याधर की बढती हुई शक्ति के आगे मजबूर हो गया तथा उसके सामन्तों से उसे पराजित भी होना पड़ा । चन्देल वंश के एक लेख में कहा गया है कि “कलचुरि चन्द्र तथा भोज विद्याधर की गुरु के समान पूजा करने थे ।”

यह ज्ञात नहीं है कि भोज तथा विद्याधर के बीच सीधा संघर्ष हुआ अथवा उसने बिना युद्ध के ही चन्देल नरेश की प्रभुता मान ली । गांगुली का विचार है कि भोज ने विद्याधर के ऊपर आक्रमण किया तथा पराजित हुआ था ।

किन्तु इस विषय में हम निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कह सकते । ग्वालियर के कछवाहा शासक महीपाल के सासबहू लेख से पता चलता है कि कछवाहा सामन्त कीर्त्तिराज ने भोज की सेनाओं को हराया था । संभव है उसे अपने स्वामी विद्याधर से सहायता मिली हो । किन्तु विद्याधर की मृत्यु के बाद चन्देल शक्ति निर्बल पड़ गयी जिससे कछवाहों ने भोज की अधीनता स्वीकार कर ली ।

मालवा के पश्चिमोत्तर में चाहमानों का राज्य था । भोज का उनके साथ भी संघर्ष हुआ । पृथ्वीराजविजय से सूचना मिलती है कि भोज ने चाहमान शासक वीर्याराम को पराजित कर कुछ समय के लिये शाकम्भरी के ऊपर अपना अधिकार कर लिया । किन्तु वीर्याराम के उत्तराधिकारी चामुण्डराज ने पुन: शाकम्भरी पर अधिकार कर लिया । इस युद्ध में परमारों का सेनापति साढ़ मार डाला गया ।

मेरुतुंग के ‘प्रबन्धचिन्तामणि’ से पता चलता है कि भोज ने चालुक्य नरेश भीम पर आक्रमण करने के लिये अपने जैन सेनानायक कुलचन्द्र के नेतृत्व में एक सेना भेजी । इस समय भीम सिन्ध अभियान पर निकला हुआ था । कुलचन्द्र ने उसकी राजधानी अन्हिलवाड़ को लूटा । उदयपुर लेख में कहा गया है कि भोज ने अपने भृत्यों के माध्यम से भीम पर विजय पाई थी ।

इस प्रकार भोज ने अपने समकालीन कई शक्तियों को पराजित कर एक विशाल एवं सुदृढ़ साम्राज्य स्थापित कर लिया । भोज की पराजय तथा परमार सत्ता का अन्त-भोज की अतिशय महत्वाकांक्षा एवं युद्ध प्रियता ही अन्ततोगत्वा उसके पतन का कारण सिद्ध हुई ।

ऐसा ज्ञात होता है कि अपने जीवन के अन्तिम दिनों में भोज अपने साम्राज्य की रक्षा नहीं कर सका तथा उसे भारी असफलताओं का सामना करना पड़ा । सर्वप्रथम चालुक्य नरेश सोमेश्वर द्वितीय ने भी उसकी राजधानी धारा पर आक्रमण किया । भोज पराजित हुआ तथा भाग खड़ा हुआ ।

चालुक्यों ने उनकी राजधानी धारा को खूब लूटा । आक्रमणकारियों ने धारा नगरी को जला दिया। सोमेश्वर की इस विजय की चर्चा नगाई लेख (1058 ईस्वी) में मिलती है । विल्हण कृत विक्रमांकदेवचरित से भी इसकी पृष्टि होती है जिसमें कहा गया है कि भोज ने भाग कर अपनी जीवन-रक्षा की ।

आक्रमणकारियों के लौट जाने के बाद ही वह अपनी राजधानी पर अधिकार कर सका । भोज के शासन-काल के अन्य में चालुक्यों तथा चेदियों ने उसके विरुद्ध एक संघ बनाया । इस संघ ने भोज की राजधानी पर आक्रमण किया ।

इस आक्रमण का नेता कलचुरि नरेश लक्ष्मीकर्ण था । भोज चिन्ता में बीमार पड़ा था तथा अन्ततः उसकी मृत्यु हो गयी । उसके मरते ही कर्ण धारा पर टूट पड़ा तथा लूट-पाट कर प्रचुर सम्पत्ति अपने साथ लेता गया । चालुक्य भीम ने भी दूसरी ओर से धारा नगरी पर आक्रमण कर उसे ध्वस्त किया ।

इस प्रकार परमार साम्राज्य का अन्त हो गया । भोज का अन्त यद्यपि रहा तथापि इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि वह अपने युग का एक पराक्रमी नरेश था । उसके उत्कर्ष काल में उत्तर तथा दक्षिण की सभी शक्तियों ने उसका लोहा माना था । उसने परमार सत्ता को चरमोत्कर्ष पर पहुँचा दिया ।

उदयपुर लेख में उसकी प्रशंसा करते हुये कहा गया है- “पृथु की तुलना करने वाले भोज ने कैलाश से मलय पर्वत तक तथा उदयाचल से अस्ताचल तक की समस्त पृथ्वी पर शासन किया । उसने अपने धनुष-बाण से पृथ्वी के समस्त राजाओं को उखाड़ कर उन्हें विभिन्न दिशाओं में बिखेर दिया तथा पृथ्वी का परम प्रीतिदाता बन गया ।”

हमें पता चला है कि भोज ने पूर्व में उड़ीसा, पश्चिम में गुजरात और लाट तथा दक्षिण में कोंकण को जीता था । कन्नौज के उत्तर में उसकी सेनायें हिमगिरि तक गयी थीं । अतः प्रशस्ति का उपर्युक्त विवरण अतिश्योक्ति नहीं कहा जा सकता ।

5. परमार वंश का सांस्कृतिक उपलब्धियाँ (Cultural Achievements of Paramara Dynasty):

भारतीय इतिहास में भोज की ख्याति उसकी विद्वता तथा विद्या एवं कला के उदार संरक्षक के रूप में अधिक है । उदयपुर लेख में कहा गया है कि उसने सब कुछ साधा, सम्पन्न किया, दिया और जाना, जो अन्य किसी के द्वारा संभव नहीं था। इससे अधिक कविराज भोज की प्रशंसा क्या हो सकती है ।

उसने अपनी राजधानी धारा नगर में स्थापित किया तथा उसे विविध प्रकार से अलंकृत करवाया । यह विद्या तथा कला का सुप्रसिद्ध केन्द्र बन गया । यहाँ अनेक महल एवं मन्दिर बनवाये गये जिनमें सरस्वती मन्दिर सर्वप्रमुख था । वह स्वयं विद्वान् था तथा उसकी उपाधि कविराज की थी । उसने ज्योतिष, काव्य शास्त्र, वास्तु आदि विषयों पर महत्वपूर्ण गुच्छों की रचना की तथा धारा के सरस्वती मन्दिर में एक प्रसिद्ध संस्कृत विद्यालय की स्थापना करवायी ।

उसकी राजसभा पंडितों एवं विद्वानों से अलंकृत थी । उसकी राजधानी धारा विद्या तथा विद्वानों का प्रमुख केन्द्र थी । आइने-अकबरी के अनुसार उसकी राजसभा में पाँच सौ विद्वान् निवास करते थे । भोज की रचनाओं में सरस्वतीकण्णभरण, शृंगारप्रकाश, प्राकृत व्याकरण, कूर्मशतक, शृंगारमंजरी, भोजचंपू, युक्तिकल्पतरु, समरांगणसूत्रधार, तत्वप्रकाश, शब्दानुशासन, राजमृगांक आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय है ।

ये विविध विषयों से संबंधित है । युक्तिकल्पतरु समरांगणसूत्रधार वास्तुशास्त्र के ग्रंथ है । इनसे पता चलता कि भोज की काव्यात्मक प्रतिभा उच्चकोटि की थी । बताया गया है कि वह अच्छी कविताओं पर विद्वानों को पुरस्कार देता था । वह इतना बड़ा दानी था कि उसके नाम से यह अनुश्रुति चल पड़ी कि वह हर कवि को हर श्लोक पर एक लाख मुद्रायें प्रदान करता था । इससे उसकी दानशीलता सूचित होती है ।

उसके दरबारी कवियों एवं विद्वानों में भास्करभट्ट, दामोदरमिश्र, धनपाल आदि प्रमुख थे । वह विद्वानों को उनकी विद्वता पर प्रसन्न होकर उपाधियों भी देता था । उसकी मृत्यु पर पण्डितों को महान् दुख हुआ था, सभी तो एक प्रसिद्ध लोकोक्ति के अनुसार उसकी मृत्यु से विद्या और विद्वान् दोनों ही निराश्रित हो गये ।

भोज एक महान् निर्माता भी था । भोपाल के दक्षिण-पूर्व में उसने 250 वर्ग मील लम्बी एक झील का निर्माण करवाया था जो आज भी ‘भोजसर’ नाम से प्रसिद्ध है । यह परमारकालीन अभियांत्रिक कुशलता एवं कारीगरी का अद्‌भुत नमूना प्रस्तुत करता है ।

धारा में सरस्वती मन्दिर के समीप उसने एक विजय-स्तम्भ स्थापित किया तथा भोजपुर नामक नगर की स्थापना करवाई । चित्तौड़ में उसने त्रिभुवन नारायण का मन्दिर बनवाया तथा मेवाड़ के नागोद क्षेत्र में भूमि दान में दिया । इसके अतिरिक्त उसने अन्य अनेक मन्दिरों का भी निर्माण करवाया था ।

इस प्रकार भोज की प्रतिभा बहुमुखी थी । निश्चयत वह अपने वंश का सर्वाधिक यशस्वी शासक था । उसका शासन-काल राजनैतिक तथा सांस्कृतिक दोनों ही दृष्टियों से परमार वंश के चरमोत्कर्ष को व्यक्त करता है ।

6. परमार सत्ता का अन्त (Decline of Paramara Dynasty):

भोज ने 1010 ईस्वी से 1060 ईस्वी तक शासन किया । उसकी मृत्यु के साथ ही परमार वंश के गौरव का भी अन्त हो गया । भोज के उत्तराधिकारी लगभग 1210 ईस्वी तक स्थानीय शासकों की हैसियत से शासन करते रहे परन्तु उनके शासन-काल का कोई महत्व नहीं है ।

भोज का पुत्र जयसिंह प्रथम (1055-1070 ई.) उसके बाद गद्‌दी पर बैठा । इस समय धारा पर कलचुरि कर्ण तथा चालुक्य भीम प्रथम का अधिकार था । जयसिंह ने कल्याणी नरेश सोमेश्वर प्रथम के पुत्र विक्रमादित्य की सहायता प्राप्त की तथा अपनी राजधानी को शत्रुओं से मुक्त करा लिया । वह सोमेश्वर प्रथम का आश्रित राजा वन गया । किन्तु जब कल्याणी का शासक सोमेश्वर द्वितीय हुआ तो स्थिति बदल गयी ।

उसने कर्ण तथा कुछ अन्य राजाओं के साथ मिलकर मालवा पर आक्रमण कर दिया । युद्ध में जयसिंह पराजित हुआ तथा मार डाला गया । आक्रमणकारियों ने उसकी राजधानी को के बाद ध्वस्त कर दिया । तत्पश्चात उदयादित्य राजा बना ।

प्रारम्भ में तो उसे कलचुरि कर्ण के विरुद्ध संघर्ष में सफलता नहीं मिली किन्तु बाद में उसने मेवाड़ के गुहिलोत, नाडोल तथा शाकम्भरी के चाहमान वंशों की सहायता प्राप्त कर अपनी स्थिति मजबूत बना ली । इनमें शाकम्भरी के चाहमान नरेश विग्रहराज की सहायता विशेष कारगर सिद्ध हुई तथा उदयादित्य ने कर्ण को पराजित कर अपनी राजधानी को मुक्त करा लिया ।

तत्पश्चात् उदयादित्य ने कुछ समय तक शान्तिपूर्वक शासन किया तथा अपना समय राजधानी के पुनरुद्धार में लगाया । उसने भिलसा के पास उदयपुर नामक नगर बसाया तथा वहाँ नीलकण्ठ के मन्दिर का निर्माण करवाया ।

उदयादित्य का बड़ा पुत्र लक्ष्मदेव उसके बाद राजा बना । नागपुर से उसका लेख मिलता है जिसमें उसकी उपलब्धियों का अतिश्योक्तिपूर्ण विवरण दिया गया है । इसे यथार्थ नहीं माना जा सकता । ऐसा लगता है कि मालवा के समीपवर्ती कुछ क्षेत्रों में उसे सफलता प्राप्त हुई हो ।

इस समय पालों की स्थिति निर्बल थी जिसका लाभ उठाते हुए लक्ष्मदेव ने बिहार तथा बंगाल में स्थित उनके कुछ प्रदेशों पर आक्रमण किया होगा । इसी प्रकार उसने कलचुरि नरेश यश:कर्ण को भी युद्ध में पराजित किया था । किन्तु मुसलमानों के विरुद्ध उसे सफलता नहीं मिली तथा महमूद ने उज्जैन पर आक्रमण कर वहां अधिकार जमा लिया ।

लक्ष्मदेव के बाद उसका छोटा भाई नरवर्मा (1094-1113 ई.) राजा बना । वह एक निर्बल शासक था जो अपने साम्राज्य को सुरक्षित नहीं रख पाया । किन्तु सांस्कृतिक दृष्टि से उसका शासन काल उल्लेखनीय माना जा सकता है ।

वह स्वयं एक विद्वान तथा विद्वानों का आश्रयदाता था । निर्माण कार्यों में भी उसने रुचि ली तथा मन्दिर एवं तालाब बनवाये । उसने ‘निर्वाण नारायण’ की उपाधि धारण की थी । राजनीतिक मोर्चे पर उसे असफलता मिली । पूर्व में चन्देल शासक मदनवर्मा ने भिलसा क्षेत्र के परमार राज्य पर अधिकार कर लिया।

उत्तर पश्चिम में चाहमान शासक अजयराज तथा उसके पुत्र अर्णोराज ने नरवर्मा को हराया। अन्हिलवाड़ के चालुक्य नरेश जयसिंह सिद्धराज ने उसके राज्य पर कई आक्रमण किये जिसमें अन्ततः नरवर्मा पराजित हो गया।

नरवर्मा का उत्तराधिकारी उसका पुत्र यशोवर्मा (1133-1142 ई.) हुआ । उसके समय चालुक्यों के आक्रमण के कारण मालवा की स्थिति काफी खराब हो गयी गई। यशोवर्मा अपने साम्राज्य को व्यवस्थित नहीं रख पाया तथा साम्राज्य बिखरता गया। भिलसा क्षेत्र पर चन्देल मदनवर्मा ने अधिकार कर लिया।

चालुक्य नरेश जयसिंह सिद्धराज ने नाडोल के चाहमान आशाराज के साथ मिलकर मालवा पर आक्रमण कर दिया । यशोवर्मा बन्दी बना लिया गया, सम्पूर्ण मालवा पर जयसिंह का अधिकार हो गया तथा उसने ‘अवन्तिनाथ’ की उपाधि धारण की । यशोवर्मा के अन्तिम दिनों के विषय में ज्ञात नहीं है ।

उसका पुत्र जयवर्मन् जयसिह के शासन काल के अन्त में मालवा का उद्धार करने में सफल हुआ लेकिन उसका शासन भी अल्पकालिक ही रहा। कल्याणी के चालुक्य शासक जगदेकमल्ल एवं होयसल शासक नरसिंहवर्मन् प्रथम ने मालवा पर आक्रमण कर उसकी शक्ति को नष्ट कर दिया तथा अपनी ओर से बल्लाल को वहां का राजा बना दिया।

किन्तु 1143 ई. के तुरन्त बाद जयसिंह के उत्तराधिकारी कुमारपाल ने बल्लाल को अपदस्थ पर भिलसा तक का सम्पूर्ण मालवा का क्षेत्र अपने साम्राज्य में मिला लिया। लगभग बीस वर्षों तक मालवा गुजरात राज्य का अंग बना रहा। इस बीच वहाँ ‘महाकुमार’ उपाधिधारी कुछ राजकुमार शासन करते थे जो अर्धस्वतंत्र थे।

1175-1195 ई० के बीच विन्ध्यवर्मन्, जो परमार जयवर्मन् का पुत्र था, ने चालुक्य मूलराज द्वितीय को हराकर मालवा पर अधिकार करने में सफलता प्राप्त की लेकिन वह उसके पुराने गौरव को कभी वापस नहीं ला सका। उसका पुत्र सुभटवर्मन् कुछ शक्तिशाली राजा था जिसने गुजरात पर आक्रमण कर चालुक्यों के लाट के सामन्त सिंह को अपनी अधीनता मानने के लिये विवश कर दिया।

डभोई तथा काम्बे में कई जैन मन्दिरों को उसने लूटा, अन्हिलवाड़ को आक्रान्त किया तथा सेना के साथ सोमनाथ तक बढ़ गया। लेकिन भीम के मंत्री लवणप्रसाद ने उसे वापस लौटने को मजबूर किया तथा यादव जैतुगी ने भी सुभटवर्मन पराजित कर दिया।

उसके बाद उसका पुत्र अर्जुनवर्मन् मालवा का राजा बना। उसने गुजरात के जयसिंह को पराजित कर उसकी कन्या से विवाह किया। किन्तु यादव वंशी सिंघन ने उसे हरा दिया। अर्जुनवर्मन् विद्वान् तथा विद्या प्रेमी था। मदन, आशाराम जैसे विद्वान उसकी सभा में रहते थे।

अर्जुनवर्मन् के बाद क्रमशः देवपाल, जैतुगिदेव, जयवर्मन् द्वितीय तथा कई छोटे-छोटे राज्य हुए जिनके शासन काल की कोई उपलब्धि नहीं है। क्रमशः परमार वंश तथा उसके गौरव का विलोप हो गया। 1305 ई. में अलाउद्दीन खिलजी ने मारवा को जीतकर वहाँ मुस्लिम सत्ता स्थापित कर दी।

स्वतंत्र परमार साम्राज्य की स्थापना : हर्ष अथवा सीयक द्वितीय (945 – 972 ईस्वी)


परमार वंश को स्वतंत्र स्थिति में लाने वाला पहला शासक हर्ष था जो वैरिसिंह द्वितीय का पुत्र था। यह सीयक द्वितीय के नाम से भी जाना जाता था। वैरिसिंह के समय में प्रतिहारों ने मालवा परअधिकार कर लिया था। तथा परमारों को मांडू तथा धारा से भगा दिया था। ऐसा लगता है, कि इस समय परमारों ने भागकर राष्ट्रकूटों के यहाँ पर शरण ली थी। इस प्रकार परमार तथा राष्ट्रकूट सत्ता से अपने वंश को मुक्त कराना सीयक का उत्तरदायित्व हो गया था।
इस समय प्रतिहार साम्राज्य पतन की अवस्था में था। इस स्थिति का लाभ उठाते हुये सीयक ने मालवा तथा गुजरात में अपनी स्थिति मजबूत कर ली थी। इसके बाद उसने अन्य स्थानों को जीतने का अभियान प्रारंभ किया था।सीयक के हर्सोल लेख से पता चलता है, कि योगराज नामक किसी शत्रु को उसने जीत लिया था।
खजुराहो लेख से पता चलता है, कि चंदेल शासक यशोवर्मन् ने सीअक को पराजित किया था। उसे मालवों के लिये काल के समान (काल-वन्मालवानाम्) कहा गया है। ऐसा प्रतीत होता है,कि यशोवर्मन् ने परमार राज्य के किसी भाग पर अधिकार नहीं किया तथा उसका युद्ध केवल परमारों को आतंकित करने के लिये ही था।
सीयक को सबसे महत्त्वपूर्ण सफलता राष्ट्रकूटों के विरुद्ध मिली तथा उसने अपने वंश को राष्ट्रकूटों की अधीनता से मुक्त करवाया । नर्मदा नदी के तट पर राष्ट्रकूट नरेश खोट्टिग की सेनाओं के साथ युद्ध हुआ, जिसमें सीयक की विजय हुई। उसने राष्ट्रकूट नरेश का उसकी राजधानी मान्यखेत तक पीछा किया तथा वहाँ से बहुत अधिक सम्पत्ति लूट कर लाया। वह अपने साथ ताम्रपत्रों की अभिलेखागार में सुरक्षित प्रतियां भी उठा ले गया।
इन्हीं में से एक लेख गोविंद चतुर्थ का था, जिस पर बाद में एक ओर मुंज नेअपना लेख खुदवाया था। राष्ट्रकूटों के साथ संघर्ष में सीयक का एक सेनापति भी मारा गया था।
उसकी इस विजय से परमार राज्य की दक्षिणी सीमा ताप्ती नदी तक जा पहुँची। इस प्रकार सीयक एक शक्तिशाली सम्राट सिद्ध हुआ ।
References :1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक-के.सी.श्रीवास्तव

कछवाहा

-कछवाहा श्री रामचंद्रजी के छोटे बेटे कुश की औलाद है । इनका दूसरा नाम ‘कुरम’ भी है । कछवाहे अयोध्या से रुहतास से नरवर में और नरवर से ढूढ़ार में आये जयपुर में राज करते रहे । कछवाहों की बहुत-सी खांपे ढूढ़ार में आने के बादफटी है । इनमें शेखावतों की खांप सबसे बड़ी है और बहुत-सा हिस्सा इस रियासत का उनके नीचे है जिसको शेखावाटी कहते हैं । -शेखावत : भोरसि आला मूल पुरूष जो शेखाजी शेखबुरहान नामक एक मुसलमान फकीर की दुआ से पैदा हुआ और उनका नाम ‘शेख’ रखा । शेखावतों में कई मुसलमानी बातें -
1. शेखावत सूअर का मांस नहीं खाते । झटके का मांस भी नहीं खाते ।
2. बच्चे को कई बरस नीले कपड़े पहनाते हैं ।
3. बच्चे का झड़ूला शेखबुरहान की कब्र पर उतारते हैं ।
4.बच्चे के गले में शेख बुरहान की नाम की बध्धी बांधते हैं ।
दूसरी खांप नरूका है जिसमें अलवर के महाराजा हैं । तीसरी खांप राजावत है जो आमेर की गद्दी की हकदार समझी जाती है । चौथी खांप नाथावतों की है । यह आमेर के पटेल समझे जाते हैं । राज के कामों में इनका दखल ठेट से चला आता है ।....कछवाहों की कुलदेवी जमवायमाता है जिसका मंदिर मांची रामगढ़ में है । कछवाहे अपने आमेर का राज जमवायमाता का दिया हुआ मानते हैं । बच्चों का झड़ूला भी जमवायमाता के थान पर उतारते हैं । सीतारामजी और सूरज देवता को भी कछवाहे पूजते हैं । लड़ाई में सीतारामजी का हाथी जयपुर की फौज के आगे रहता है इसके वास्ते यह कहावत है कि ‘लड़ने को सीतारामजी, लाडु खाने को मदनमोहनजी ।’ सूरज सप्तमी का त्यौहार खास करके जयपुर में ही माह सुद 7 को होता है और उस दिन जयपुर के महाराज सवारी करके सूरज के रथ के पीछे चलते हैं । कछवाहे जयपुर की गद्दी को रामचन्द्रजी की गद्दी समझते हैं और कछवाहे आपस में जयरूघनाथजी करते हैं । कछवाहों में नातरायत राजपूत नहीं होते । औरतें हाथ और कान में चांदी नहीं पहनतीं । -6/6-8.
-कछवाह सूरजवंसी कहीजै । कछवांहांरी पीढ़ी- 1. आदि, 2. अनाद, 3.चांद, 4. कंवळ, 5. ब्रह्मा, 6. मरीच, 7. कस्यप, 8. कासिब, 9. सूरज, 10. रुघ सूं रुघवंसी कहीजै । 11. रघोस, 12. धरमोस, 13. त्रसिंघ, 14. राजा हरिचंद, 15. रोहितास, 16.राजा सिवराज, 17. संतोष, 18. राजा रवदंत, 19. राजा कलमष, 20. घुंधमार, चकवै, 21. राजा सगर, 22. असमंज, 23.भागीरथ, 24. कउकुस्त, 25. दिलीप, दिल्ली वसाई, 26. सिवधांन, 27. केवांध, 28. अज, अजोध्या वसाई, 29. अजैपाळ, चकवै, 30. राजा दसरथ, 31. श्री रामचंद्रजी, 32. कुसथी कछवाहा हुवा, 33. बुधसेन, 34. चंद्रसेन चाटसू वसाई, 35.श्री वछ, 36. सूर, 37. वीरचरित, 38. अजैबंध, 39. उग्रसेन, 40. सूरसेन, 41. हरनांम, 42. हरजस, 43. द्रढ़हास, 44. प्रसेनजित, 45. सुसिध, 46. अमरतेज, 47. दीरघबाह, 48. विबसांन, 49. विवसत, 50. रोरक, 51. रजमाई, 52. जसमाई, 53. गौतम, 54. नळराजा, नळवर वसायो, 55. ढोलो नळरो, 56.लछमण, 57. वजरदीप, 58. मांगळ, मांगळोर वसायो, 59. सुमित्र, 60. सुधिब्रह्मा, 61. राजा कहनी, 62. देवांनी, 63. राजा उसै, 64. सोढ़, 65.दुलराज, 66. राजा हणुं, आंबर, 67. जोजड़, 68. राजा पुंजन ।10/277-9.
-कछवाहां रो राज थेटू पूरबमें रोहितासगढ़ जठै । उठासूं नरवर वसिया । नरवरसूं दोसौ ठकुराई बांधी । दोसासूं आंबेर, आंबेरसूं जैपुर ।.....कछवाहां री वंसावळी- कुंतल, जीवण्सी, उधरण, चांदणो, प्रिथीराज ।.....राजा प्रिथीराजरै बेटा तेरह-भारमल,रतनसी, भींव, सांगो, बळभद्र, सुरताण, परताप, जगमाल, रूपसी वैरागर, डूंगरसी, कल्याणमल, गोपाळ, चत्रभुज । 15/123.
-राजा प्रिथीराजरा राजावत कहाणा ।.....नाथो गोपाळरो जिणरा नाथावत कहीजै । जगमालरो खंगार तिणरा खंगारोत कहावै । 15/123. 
-राजा काकिल रो अलघ, तिणरा मेड़ कछवाह कहीजै । रालण रा रालणोत कहीजै । देलण, तिणरा लाहरका कहीजै । 10/280.
-भांेवड़ नै लाखणसी बेऊं पुंजनरा, त्यांरा परधांनका कछवाहा कहीजै ।...भोजराज नै दलो, त्यांरा लवांणका कछवाहा कहीजै । रांमेस्वर, तिणरा रांणावत कछवाहा कहीजै । सीहो, तिणरा सीहांणी कहीजै ।....रावत अख्ैाराज तिणरा धीरावत कछवाहा कहीजै । ..रावळ जसराजरा हीज पोतरा कहीजै ।...हमीर, तिणरा हमीर पोता कहीजै ।..भड़सी, तिणरा भाखरोत कीतावत । आलणसी, तिणरा जोगी कछवाहा कहीजै ।...कूंभो, तिणरा कूंभांणी ।....उदैकरणोत बालो तिणरा सेखावत, वरसिंघ तिणरा नरूका, सिवब्रह्म तिणरानिंदड़का कछवाहा ।...राजा वणवीर, तिणारा राजावत नै वणवीर पोता कहीजै । 10/280-1.
-खंगार जगमालोत । जिण खंगाररा खंगारोत कछवाहा नराइणरा धणी छै । 10/290.
-खैराज खरहथ बालारा, जिणरा पोता करणावत कछवाहा कहीजै । 10/315.
-रावत खैराज कीलणदेरो । तिणरा धीरावत कछवाहा कहीजै । 10/317.
-कछवाहो अळधरो राजा काकिलरो, जिणरा पोता मेड़का कुंडळका कहीजै ।....कछवाहो रालण राजा काकिलरो जिणरा पोतारालणोत कछवाहा कहीजै ।.....कछवाहो देलण राजा काकिलरो, जिएरा पोता लहर कछवाहा कहीजै । 10/318.
-राजा मलैसी, जिण मलैसीरै रांणी मेलणदे खीवण, अनळ, खीचीरी बेटी । जिण पिहरसूं खंथडि़या प्रोहित गुर आंणिया । पैहली गांगावत था सो दूर किया । 10/280.
-मलैसीरा बेठा बालोजी, जिण खेत्रपाळ जीतो । सात तवा वेधिया ।... जैतल, जिण आपरा मांसरी बोटी काट तिणसूं आपरै साहिब ऊपर बैठी ग्रीधण उड़ाई । 10/280.
-द्योसारा डेरां भगोतसिंघजी, जैमलजी, जगमालजी, आसकरणजी वगेरै सात कछवाहा पातसाह अकबररा पगां लागा ।15/192.
-तुंवरवाटीरो गांव मांवडो़ मडोली जठै जाटरै जंग हुवो कछवाहांसूं -संवत् 1824 । बारै हजार घोड़ो जाटरै कनै हुतौ ।15/126.
-माहम नंगा नामा अकबररी धाय जिणरी मारफत सैंभररा डेरा कछवाहां अकबरनूं डोळो दियो । 15/192.
-कछवाहो राजावत फतैसिंघ ‘मूळी’ कहीजतो । मूळ नक्षत्रमें जनमियो हो तिणसूं । 15/127.

गहलोत/गुहलोत

-ये श्रीरामचंद्रजी के बेटे लव की औलाद में है । पहिले लाहोर में रहते थे वहां से बल्लभीपुर इलाके गुजरात में गये और बहुत बरसों तक राज करते रहे आखीरी राजा सिलादित्य था । वहां एक दुश्मन के मुकबिले में मारा गया । उसकी रानी भाग कर आबू के पहाड़ में आ छुपी । वहां उसके गोहा नाम एक लड़का पैदा हुआ उसने ईडर में राज किया । उसकी औलाद गहलोत कहलाई । 6/6.
-कुछ पुरानी खांपे गहलोतों की जो हुल, आसायच, मांगलिया, गोहिल, पीपाड और गहलोत कहलाती है । राणावतों के पहिले से मारवाड़ में बस्ती हैं और हल खड़ती है । 6/6.
-पहले इनकी ठकुराई दक्षिण में नासिक त्रंबक थी । पूर्वज सूर्य उपासक पूर्वज राजा के कोई संतान नहीं थी तब उसने सूर्य से पुत्र का वरदान मांगा । सूर्य ने उसे ‘आंबाइ देवी’ की जात के लिये कहा, जो मेवाड़-ईडर की संधि सीमा पर है । राजा और रानी ‘आंबाइ देवी’ की जात देने के लिये रवाना हुए । जात से उनकी कामना पूरी हुई और रानी के गर्भ ठहरा ।  वापसी में रास्ते में शत्रुओं का दाव लगा और उन्होंने राजा को मार दिया । इसकी सूचना रानी को नागदहे ब्राह्मण के यहां, जहां वह ठहरी हुई थी मिली । रानी राजा के साथ सती होने के लिये तैयार हुई परन्तु गर्भवती होने के कारण लोगों ने उसे
रोक लिया । 15-20 दिन बाद उसके पुत्र पैदा हुआ । उसने सती होने के लिये जाने के पूर्व उस बालक को वहां कोअेश्वर महादेव के पुजारी विजयदत्त को दान करना चाहा । विजयदत्त ने यह दान लेने से मना किया तब रानी ने विजयदत्त ब्राह्मण को कहा -‘थे वात कही सु सही, पिण जो हूं सतसूं बळूं छूं तो इण डावड़ारी ओलादरा राजा हुसी तिके दस पीढी थाहरै कुळरै आचार हालसी । थांनूं घणो सुख देसी ।’ तरै बांभणनूं डावड़ो दियो । सु बांभण विजैदत्त लियो । कितरोइक ऊपर गहणो, क्यूंइक रोकड़ दियो । तद बांभण डावड़ानूं ले घर गयो । राणी बळी । तठा पछै विजैदत्तरै उण डावड़ारी ओलाद हुई
सु पीढ़ी 10 वांभणारी क्रिया चालीया । नागदहा बांभण कहांणां - पीढि़यांरी विगत:
1. विजैदत्त, 2. सोमदत, सूर्यवंसी गहलोत, 3. सिलादत, 4. ग्रहादित, 5. केसवादित, 6. नागादित, 7. भोगादित, 8. देवादित, 9. आसादित, 10. भोजादित, 11. गुहादि विजैदत्तत, 12. रावळ बापो । ...रावळ बापो गुहादितरो । तिण हारीत रिखरी सेवा करी । पछै हारीत रिखीष्वर प्रसन्न हुय, बापानूं मेवाड़रो राज दियो । 10/1-2.
-सीसोदो गांव उदैपुरसूं तठै घणा दिन रह्या तिण वास्तै ‘सीसोदिया’ गाव लारै कहावै छै । नागदहा कहावै छै सु घणा दिन नागदहे गांव वसीया तिण कारण ।......सीसोदियांरा विरद ‘आहूठमा नरेस’ कहावै । 10/8.
-1. गुहादित्य, 2. विजयादित्य, 3. केशवादित्य, 4. भोगादित्य, 5. आसाधरादित्य, 6. श्रीदेवादित्य, 7. महादेवादित्य, 8. गुरुदेवादित्य, 9. रावळ बापो, 10. रावळ काळभोज, 11. रावळ खुमाण, 12. रावळ श्रीगोविंद, 13. रावळ आळू, 14. रावळ सिंघ,15. रावळ सगतकुमार, 16. रावळ शळिवाहण, 17. रावळ नरवाहण, 18. रावळ अंबप्रसाद, 19. रावळ श्रीकीरत, 20. रावळ करणादित्य, 21. रावळ भादो, 22. रावळ गोतम, 23. रावळ प्रियहंस, 24. रावळ जोगराज, 25. रावळ भेरडू, 26. रावळ वरसिंघ, 27.रावळ तेजसी, 28. रावळ समरसी, 29. रावळ रतनसी ....पछैै राणो हुवो थो । ...चांपो चाहड़देरो करण रावळरो 1. देव राणो, 2. नरू राणो, 3. राहप राणो, 4. हरसूर राणो, 5. जसकरण राणो, 6. नागपाळ राणो, 7. पुण्यपाळ राणो, 8. पीथड़ राणो, 9. भुवणसी राणो, 10. भीमसी राणो, 11. अजैसी राणो, 12. लखमसी राणो । 15/87-8.
-चैईस साख गहलोतां री: गहलोत, मांगळिया, डाहलिया, टीबाणा, चंद्रावत, सीसोदिया, आसावत, मोटसीरा, मोहल, वला, आहड़ा, केलवा, गोदारा, तिवड़किया, बुटिया, पीपाड़ा, मगरोपा, भाशला, धीरणिया, गोतम, हुल, मेर, बूटा, ग्ुहिल आदि 15/87 -मोरी वंस गहलोत इंद्र सूं प्रगट हुओ । चित्रांग मोरी चितोड़ किलो करायौ । चितोड़ भुवणसी रांणौ कहाणौ । पैला चितोड़ रावळ कहिजता । 15/87.
खंापे:-अढूओत: राणै अढूरा वंस रा । 10/15.
-ऊदावत: ऊदा रे वंसरा । 10/15.
-किसनावत: किसना रे वंस रा । 10/18.
-कीतावत: राणे सता रा । 10/15.
-गजसिंघोत: गजसिंघरे वंसरा । 10/15.
-गढुओत: राणै गढ़ू रे वंसरा । 10/15.
-चंडावत: राणै चंडावत रे वंसरा । 10/15.
-दूलावत: दूलह रे वंसरा । 10/15.
-नगावत: नगा रे वंस रा । 10/16.
-भाखरोत: राणे भाखररे बवंस रा । 10/15.
-भांडावत: डूंगररे वंसरा । 10/15.
-भूवरोत: राणै भूवर रा वंसरा । 10/15.
-रूदावत: रूदारा वंस रा । 10/15.
-सकतावत: सकतो रांणो उदैसिंघरे वंस रा । 10/23.
-सलखणोत: राणे सलखारा । 10/15.
-सिखरावत: राणै सिखर रा । 10/15.
-सुआवत: राणै सुआ रा । 10/15.
-गांव दोय सौ गहलोतांरा दिली-मंडळ में है । राणो नपरतसिंघ उठै हुवो । हमें अेक राणो वाजै दूजा गहलोत चैधरी वाजै । 15/108.

चौहान

-आदू चहुवांण अनळकूंडरी उतपत । वसिस्ठ रिखीस्वर आबू ऊपर राकस निकंदणनूं खत्री 4 उपाया - 1. पंवार, 2. चहुवांण, 3. सोळंकी, 4. डाभी । 10/123.
-मशहूर और ताकतवर कौम तंवरों के पीछे दिल्ली की बादशाही चैहानों में रही और उनसे तुरकांे ने ली । मारवाड़ में इनकी -चहुवांणांरी साख मांहै एक साख कांपलिया कहावै
छै । सु कांपलो साचोररो गांव छै, तिको इणांरो राजथांन, तिण गांव लारै कांपलिया नांव पडि़यो । आगै कुंभो कांपलियो वडो रजपूत हुवो छै तिणरा गांव कुभछतरा कहीजता । सु धनवो, धोरीनमो कुभाछतमें मुदै छै । 10/236-7.
-साचोर और पश्चिम मारवाड़ के चैहानों केी इन खांपों में नाता होता है -बोडा, सोढ़ल, खीची, साईदरा, सेफटा, देवड़ा, निरबाण, रतपाल, वालिया, सुरताणचा, सेजपाल, जोजा, बीयोल, भूपा वगैरह । मगर पूरब मारवाड़ के चैहान नाते को सखत ऐब गिनते हैं । पच्छम मारवाड़ के चैहानों में भाई बंटा भाइयों के हिसाब से भी होता है और लुगाइयों के हिसाब से भी । ये लोग देसी मुसलमानों से ज्यादा छूतछात नहीं रखते हैं । 6/14.
-बहुत-से चैहान बादशाही राज में मुसलमान भी किये गये थे जिनमें क्यामखांनी और खानजादे ज्यादा मशहूर हैं । इसके सिवाय बहुत सी छोटी जातें हिंदू-मुसलमानों की अपने को चैहान बताती है । 6/14.
-चैहानों का वशिष्ट गोत्र है । कुलदेवी आसापुर और धर्म वैष्णव है । शिवजी को भी पूजते हैं । 6/14.
-गोगा चैहानों में देवता हुआ है जिसको सांप काटता है उसके गोगा के नाम का डोरा बांधते हैं जिसको तांती कहते हैं । गोगा का थान जिसमें सांप की मूर्ति पत्थर में खोदी होती है अकसर गांवों में होता है । इसी वास्ते यह मारवाड़ी ओखाना चला है कि ‘गांव गांव गोगो ने गांव गांव खेजड़ी ।’ 6/14.
खांपे - खीची - जिसका राज जायल में था ।
जोजा - जिसका राज जोजावर में था ।
टाक - जिसका राज नागौर में था ।
देवड़ा - जिसका राज सिरोही में है ।
नाडोला -जिसका राजा पहिले नाडोल में था ।
निरवाणा - जिसका राज खंडेले में था ।
नीमराणा -ये अपने को चैहानों में पाटवी पृथ्वीराज की औलाद से समझते हैं ।
पावेचा - जिसका राज पावे में था । पूरबिया ।
बालिया -जिसका राज रायपुर में था । बोडा । हाडा -जिसका राज कोटा-बूंदी में था ।
             (चहुवांणां मांहै साख 1 बोड़ांरी छै । अैही रावलाखणरा पोतरा सोनगरा जाळोर रा धणी, कीतूरा पोतरा बोड़ो भाखरो बेटो हुवो । तिणरा वांसला बोड़ा कहीजै छै । इणांरो                उतन परगनो  जाळोररै सेणांरो छोटो सो परगनो छै ।...10/234)
मादरचा - जिसका राज देसूरी में था ।
मोयल - जिसका राज लाडणूं में था ।
साचोर -जिसका राज सांचोर में था ।
सोनगरा -जिसका जालोर में राज था । 6/13.
-चौहानों का प्रारंभिक राज्य नागौर/अहिच्छत्रपुर में स्थापित हुआ । वहां से आगे बढ़ते हुए उन्होंने सांभर/शाकम्भरी को अपनी राजधानी बनाया । शाकम्भरी के राजा वाक्यतिराज के दो पुत्र सिंहराज और लक्ष्मण थे । उनमें से लक्ष्मण ने मारवाड़ के नाडोल में अपना राज्य स्थापित किया । नाडोल के एक अभिलेख के अनुसार लक्ष्मण ने अपना राज्य वि. सं. 1024 के आसपास स्थापित किया । आगे चलकर नाडोल के चौहानों ने ही कीर्तिपाल के नेतृत्व में परमारों को पराजित कर जालौर के दुर्ग सोनलगिरि को अधिकृत किया । इसीलिये जालौर के चौहान ‘सोनगरा’ कहलाये । सोनगरा चौहानों ने मारवाड़ में नाडोल के अलावा मण्डोर, बाड़मेर, भीनमाल, रतनपुर, सत्यपुर, सांचौर पर आधिपत्य स्थापित किया । उन्होंने वि. सं. 1218 के पश्चात् परमारों से किराड़ू छीन लिया था । चौलुक्य के अभिलेखों से ज्ञात है कि कुछ समय तक चौहान चौलुक्य शासको के भी सामन्त रहे । कीर्तिपाल के वंशधर कान्हड़देव के समय अलाउद्दीन खिलजी ने जालौर पर अधिकार कर वहां से चौहानों की सत्ता को समाप्त कर दिया । कान्हड़देव के वंशज बाद में गोडवाड़ एवं पाली में जागीरदारों के रूप में बने रहे किन्तु सिसोदियों ने इस भू-भाग पर अपना अधिकार कर लिया । -35/4-5.

चहुवांणां री चैईस साख

-- हाडौ, खीची, सोनगरौ, बाली, सोभदार, चोमालण (हण), गोरवाळ, भदोरिया, मीरवांण, वाकुर, चील, थेथा, दूंदलोत, सेपदा, गरावा, पबइया, सतवाळ, चाभुलेवा, पावचै, खेबर, चाहिल, मोहिल, भंडारी, वांणिया में, चीतामेर (राठौड़ां रा भाट रायचंद कन्नेै लिखी)।.......सोनगरा मांहे सूं देवड़ा निसरिया । देवड़ां मांहे सूं बोड़ा निसरिया । वालोत, चीवा, अबीह अे खांप निसरी। 15/141
-चहुवांण, 2. सोनगरा, 3. खीची, 4. देवड़ा, 5. राखसिया (साखसिया), 6. गीला, 7. डेडरिया, 8. बगसरिया, 9. हाडा, 10. चीबा, 11. चाहेल, 12. सैलोत, 13. वेहल, 14. बोड़ा, 15. बालोत, 16. गोलासण, 17. नहरवण, 18. बेस, 19. निरवांण, 20. सेपटा, 21. ढीमडि़या, 22. हुरड़ा, 23. माल्हण, 24. वंकट । 10/79.
-चहुवांणां रै कुळदेवी अंबाय है । माणकदे चहुवांणां नूं साख भरी, तूठी लाखणसी नूं । आसापुरी तूठी जदसूं लाखणसी रा आसापुरा नूं पूजै है ।..... सोनगरा महणसी रै घरवासै देवी रहै । उणरै पुत्र हुवौ, नांव देवौ । देवा रा वंस रा देवड़ा कहाणा ।... तेजावत, सांगावत, प्रथीराजोत, कलावत इत्यादिक देवड़ा लाखावतों री खांपां है ।......अमरावत, वीजावत, सूरावत, सिखरावत, मैरावत, कंुभावत छह अे खांपां देवड़ा डूंगरोतां री सिरोही में- ।....देवड़ौ निरवाण जिणरै वंस रा निरवांण कहावै ।.....सांचैरी में बळू सांवतसिंघोत रा बेटा तीन ज्यांरी तड़ां तीन -नाहरदासोत, सहसमलोत, वेणीदासोत ।........सरणौदेवी कुळदेवी वागडि़या चहुवांणां रे । 15/142.
-चहुवाण हाफो वीकमसी सगा भई । हाफै कालवांनू मार साचोर लिवी । वीकमसी राणुवांनूं मार सूराचंद लिवी । 15/162.
-सांचोरीमें बळू सांवतसिंघोत रा बेटा तीन ज्यांरी तड़ां तीन -नरहरदासोत, सहसमलोत, वेणीदासोत । 15/162.
-सरणोदेवी कुळदेवी वागडि़या चहुवांणांरै ।.....मही नदीरो अेक घाट वागडि़या चहुवाण तोलक है । उण घाट माथै वागडि़या काम आया ज्यांरी छत्रियां है । 15/163.

त्ंवर/तुंवर

-पाण्डववंशी राजपूत हैं । इनका राज्य 9वीं से 12वीं शताब्दी तक दिल्ली में रहा । तंवर राजा अनंगपाल द्वितीय ने संवत् 1109 में दिल्ली बसाई। जयपुर क्षेत्र में भी तंवर राजपूत रहते थे । जयपुर का एक भाग तंवरावाटी कहलाता है । -21/78.
-तंवर अपनी वंशावली पांडवों से मिलाते हैं । तंवरों का राज दिल्ली में बहुत मुद्दत तक रहा । कहावत है ‘जब तब दिल्ली तंवरों की ।’ दूसरी कहावत यह भी है कि ‘कीली तो ढीली हुई, तंवर हुए मतहीन ।’ इसका किस्सा इस तरह बयान करते हैं कि एक तंवर राजा से ज्योतिषयों ने कहा था कि एक ऐसी पुल आती है कि जिसमें खूंटी गाडने से आपका राज नहीं जावेगा । क्योंकि वह खूंटी शेष नाग के मस्तक में जा गडेगी । राजा ने एक बड़ी कीली अष्टधात की बनवाई । जब वह पुल आई तो पंडितों ने उसको जमीन में गाड कर राजा को मुबारक बाद दी कि अब आपका राज अचल हो गया। मगर राजा को यकीन नहीं आया और कहा कि मुझको उखाड़कर बताओ और जिद्द करके कीली उखड़वाई तो उसकी नोक खूनसे भरी हुई थी । पंडितों ने कहा- देख लीजिये यह शेषनाग का खून है। राजा ने र्शिंर्मदा होकर उनसे फिर गाड़ने को कहा तो उन्होंने जबाब दिया कि अब वह समय निकल गया कि कीली शेषनाग के सिर पर जाकर गड़े । ‘कीली ढीली’ होने की कहावत उसी दिन से चली है । 6/8.
-रामदेवजी तंवर बड़े करामाती हुए जो रामशाह पीर कहलाते हैं इनकी पूजा मारवाड़, मेवाड़ और मालवे में भी हाती है ।
हर साल भादों के महीने में एक बड़ा मेला रामदेवरे इलाके पोकरण में जहां उनकी समाधि है हुआ करता है । 6/8.
-तुंवर चंद्रवंसी ज्यांरी साख नव -जनवारीअट, चांद, लवो, डाणा, कळपा, भमर इत्यादिक ।.....यजुरवेद माध्यंदिनी साखा, पंच प्रवर यग्योपवीतरा, व्याघ्रपद गोत्र, चील कुळदेवी, खेजड़ी सहित आसोज सुद 8 रै दिन पूजीजै तुंवरारै ।....खतान जातरो ढाढ़ी, सीवोरो जातरौ भाट, श्रीमाळ जातरौ पुरोहित तुंवरांरै ।....दिळीमंडळमें तुंवरांरी चैरासी है । गांव दोयसोै गहलोतांरा दिलीमंडळमें है । राणो नरपतसिंघ उठै हुवो । हमै अेक राणो वाजै, दूजा गहलोत चैधरी वाजै । 15/164.

परमार

-मालवे में परमार वंश की स्थापना ई. सं. 800 से हुई । कृष्ण राज सेे लेकर जयसिंह चतुर्थ तक परमारों के चैबीस राजपुरूष हुवे । कृष्णराज के बाद वैरसिंह प्रथम और सियक दो नरेश हुए । वाक्यतिराज प्रथम जिनका दूसरा नाम अजयराज भी था, गद्दी पर ई.सं. 875-914 में बैठे । उत्तर में गंगा तक उन्हांनें विजय प्राप्त की । -परमार वंश की सत्ता, विश्वम्भरा, पृ.45-6.-वर्ष-4.3,1967.

-परमार वंश का वि. सं.स 1136 का शिलालेख बांसवाड़ा से 20 मील दूर मण्डलेश्वर महादेव का प्राचीन मंदिर है वहां से सन् 1914 में झालावाड़ के नरेश भवानी सिंहजी के दीवान ने क्यूरेटर श्री गोपाललालजी व्यास को भेज कर मंगवाया था, जिसका अंग्रेजी में अनुवाद कर ई. सन् 1916 में पं. श्यामाशंकर जी (प्रसिद्ध नर्तक पं. उदयशंकर भट्ट एवं प्रसिद्ध सितार वादक पं. रविशंकर के पिता जो झालावाड़ रियासत के प्रधानमंत्री रह चुके है ) के द्वारा लंदन भेजा गया। वहां उसे वारनेट ने झालावाड़ म्यूजियम के नाम से ‘ एपीग्राफिया इण्डिका’ में प्रकाशित किया। जिसका सारांश यह है कि आबू पहाड़ पर व्सिष्ठ ऋषि रहते थे । उनकी गौ को गधिराज के पुत्र विश्वामित्र छल से चुरा ले गये । इससे वसिष्ठ कु्रद्ध हो कर अग्निकुण्ड में मंत्रो द्वारा हवन करने लगे जिससे एकवीर पुरुष उस अग्निकुण्ड में से निकला । वह शत्रु की सेना का संहार कर गौ को पीछे ले आया । जिस पर प्रसन्न हो कर वसिष्ठ ने उसका नाम परमार अर्थात् शत्रुओं को मारने वाला रखा, उस वीर पुरुष का वंश परमार नाम से प्रसिद्ध हुवा । यह शिलालेख झालावाड़ पुरातत्व संग्रहालय में रखा हुआ है । 
-परमार वंश की सत्ता, विश्वम्भरा, पृ.45.-वर्ष-4.3,1967.

-परमारां रै यजुरवेद माध्यंदिनी साखा। वसिष्ठ गोत्र। धारायसचियाय दीप देवी। मालाहेत पीतर। पींपळ पूजा।
- वाकळ, सचियाय, सालण, कल्यांण कुंवर, रूपांदे, जोग -अे छव देवी परमारां रै वंस में हुई।

-परमारां री पैंतीस साख:
परमार, पाणीस, बलसी लोदा, धरिया, गोहलड़ा, सोढ़ा, बहिया, सुर, जेपाळ, भाथी, ढल, कलोळिया,सांखला, वाला, फागुआ, कछोटिया, टेवल, कूकणा, भाभा, छाहड़, काला, जागार, पीथळिया, भायल, मोटसी, ऊमर, कालमुहा, दूठाा, सूवड़, धंध, खेर, डोड, पेल, गूगा, फाबा आदि । 15/136.

-परमार राजा श्रीहरस जिणरौ वडौ बेटौ मुंज छोटौ बेटौ सिंधुराव रौ भोज ।.....परमार राजा मुंज मंत्रियां वरजतां गोदावरी उलांघि करणाटकरा राजा तेलपदेव माथै गयो । जंगमें तेलपदेव इणनुं पकड़ लियो । भाखसीमें दियो । किताईक वरसां बहन म्रणालवतीरा कह्यासूं आपरा सहरमें घर-घर भीख मंगाय मुंजनुं सूळी दियो । 15/136.

प्ंवार/परमार

-पंवारों ने अग्निवंशी राजपूतों में ज्यादा नाम पाया है और राज भी इनका हिंदुस्थान में जियादाह रहा है । राजा महाराजा भी इनमें बिक्रम और भोज जैसे बड़े-बड़े नामी और दातार हुए हैं । इसलिये कहावत है - 
‘पृथ्वी बड़ा परमार, पृथ्वी परमारां तणी, एक उजेणी धार, दूजौ आबू बैठणौ ।’ 6/10.

-मरू प्रदेश में प्राचीन नगरों विक्रमपुर, लोद्रवा, धार-प्रदेश, ओसियां पर पंवारों के राज्य होने का उल्लेख स्थानीय इतिहास के स्रोतों, ख्यातों, तवारीखों, विरदावलियां तथा दंतकथाओं में भी मिलते हैं । जब विक्रमी 258-457 में कुषाण और हूण लोगों ने पंजाब और गंगा के प्रदेशों पर आक्रमण किया तब ये लोग राजपूताने में आ बसे । -21/4.

-मारवाड़ में पंवार आबू से आये हैं धरणीं बाराह बहुत बड़ा पंवार राजा मारवाड़ का था उसने अपने राज के 9 हिस्से करके अपने भाइयों को बांट दिये थे। नवकोट मारवाड़ का नाम जब ही से निकला है, जिनकी तफसील यह है -

छप्पय: मंडोवर सांवत हुओ अजमेर सिंधसू ।
गढ़ पूगल गजमल्ल हुओ लुद्रवे भान भू ।
आलपाल अर्बुद भोज राजा जालंधर ।
जोगराज धरधाट हुओ हंसू पारक्कर ।
नवकोट किराड़ू संजुगत थिर पंवारां थरपिया ।
धरणी बराह धर भाइयां कोट बांट जुअ जुअ किया । 6/11.

-पंवारांरी पैंतीस साख
-1. पवार, 2. सोढ़ा, 3. सांखला, 4. भाभा, 5. भायल, 6. पेस, 7. पाणीसबळ, 8. बहिया, 9. वाहळ, 10. छाहड़, 11. मोटसीख 12. हुबड़, 13. सीलारा, 14. जैपाळ, 15. कगवा, 16. काबा, 17. ऊमट, 18. धंाधु, 19. धुरिया, 20. भाई, 21. कछोटिया, 22. काळा, 23. काळमुहा, 24. खैरा, 25. खूंट, 26. टल, 27. टेखळ, 28. जागा, 29. छोटा, 30. गूंगा, 31. गैहलड़ा, 32. कलोळिया, 33. कूंकण, 34. पीथळिया, 35. डोडकाग, 36. बारड़ । 10/79. 

-खांपे -पंवार। भायल -ये पहिले सिवाने में राज करते थे। सोढ़ा -जिनका ऊमरकोट और थरपारक में राज था। सांखला - जो पहिले जांगलू में राज करते थे। ऊमट -जिनका भीनमाल में राज था। कालमा -जिनका सांचैर में राज था। काबा - जिनका रामसींण में राज था। गल - ये पालणपुर की तरफ राज करते थे। डोड । 6/11.
-पंवार जो गरीब हैं और जिनके पास जमीन भी थोड़ी है उनमें बेवा औरतों का नाता गोडवाड़, जालोर और मालानी की तरफ होता है। 6/11.

-मंडोवर सामंत हुवो, अजमेर अजै सूं ,
गढ़ पूंगल गजमल हुवो, लुद्रवै भाणभुय।
जोगराज धर धाट, हुवो हांसू पारकर,
अल्लपल्ल अरबुद, भोजराज जालंधर ।
नवकोट कराडू संजुगत, गिर पंवार हर थापिया,
धरणीवराह धर भाइयां, कोट बाट जू जू किया । 2/59.

-पैहली इणांरो दादो धरणीबराह, बाहड़मेर जूनो किराड़ू कहीजै, तिणरो धणी हुतो । तिणरै नवै कोट मारवाड़रा हुता । तिणरै बेटो बाहड़ हुवो । तिणसूं आ धरती छूटी । एक बार बाहड़ रायधणपुर कनै गांव झांझमो तठै जाय रिह्यो। पछै बाहड़रो बेटो सोढ़ो तो सूंमरां कनै गयो, तिणनूं सूमरां रातो कोट दियो, ऊमरकोटसूं कोस 14 । नै तठा पछै सोढ़ा हमीरनूं जाम तमाइची ऊमरकोट दियो। 
बाघ मारवाड़ मांहै पडि़हारां कनै आयो। बाघोरियै वसियो । बाघ पंवार, तिणरी औलादरा सांखला हूवा।
......अजमेर धणी था तिणनूं मु. सुगणो वैरसी बाघावतनूं ले जाय मिळियो । घणा दिन चाकरी की । पछै मुजरो हुवो तरै कह्यो- ‘जांणै सो मांग । तरै इण कह्यो- ‘म्हारो बाप गैचंद बिना खूंन मारियो छै, तिणरी ऊपरा करो, फौज दो।’ तरै फौज उणै दी। 
तरै वैरसी माताजीरी इंछना मन में करी - ‘म्हारै बापरो वैर बळै। गैचंद हाथ आवै तो हूं कंवळपूजा करनै श्री सचियायजीनूं माथो चढ़ाऊं ।’ पछै सचियायजी आय सुपनै में हुकम दियो, वांसै हाथ दिया नै कह्यो- ‘काळै वागैख् काळी टोपी, वैहलरै काळी खोळी, काळा बळद जोतरियां, जिंदारै रूप कियां सांम्हां मिळसी । ओ गैचंद छै, तू मत चूकै, कूट मारै।’ पछै वैरसर मूंधियाड़ ऊपर फौज लेने दौडि़यो । सांम्हां उण रूप आयो, सु गैचंद मारियो । पछै ओसियां जात आयो । आप एकंत देहुरो जड़नै कंवळपूजा करणी मांडी। तरै देवीजी हाथ झालियो, कह्यो- ‘म्हैं थारी सेवा-पूजासौं राजी हुवा, तांनै माथो बगसियो, तूं सोनारो माथो कर चाढ़ ।’ आपरै हाथरो संख बैरसीनूं दियो, कह्यो-‘ओ संख वजायनै सांखळो कहाय ।10/323-5.