समाज का इतिहास
हमारी जाति का इतिहास तो बहुत पुराना हैं
सर्व प्रथम हम को जाति के विषय में जानना आवश्यक है कि जाति किसे कहते है। विभिन्न विद्धानों ने जाति की परिभाषा भिन्न-भिन्न दी है। बम उन परिभाषाओं पर विस्तार से विचार न कर यही बतलाते है कि जाति मुख्यत: जन्म के आधार पर सामाजिक श्रेणी बद्धता और खण्ड विभाजन की वह सक्रिय व्यवस्था है, जो खाने, पीने, विवाह , व्यवसाय और सामाजिक संम्पर्क के सम्बन्ध में अनेक या कुछ बंधनों को अपने सदस्यों पर लागु करती है। भारत में जाति प्रथा सैकडों वर्षो से प्रचलित है और विदेशी विद्धानो का ध्यान इस संस्था की और आकर्षित करती रही है। भारत में एसा कोई सामाजिक समूह ऐसा नहीं है जो इसके प्रभाव से अपने को मुक्त रख सका है। आज भारत में लगभग तीन हजार जातियां और उपजातियां है। उन्हीं में से एक माली जाति है जो विभिन्न प्रन्त में माली, सैनी, शाक्य, कुशवाहा, मौर्य आदि नामों से प्रसिद्ध है। राजस्थान में माली मुख्यत: माली के अलावा सैनी आदि कहलाते है।
प्राचीन काल में आर्य जाति चार वर्णों में विभाजन थी – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र। वर्णाश्रम धर्म की वह धुरी है जिसके चारों और संपूर्ण हिन्दु सामाजिक व्यवस्था घूमती है। इसको धर्म की सग्ना इसलिए ही गई है कि चारों वर्ण इस व्यवस्था के अनुसार चलने या अपने को ढालने के काम को अपना परम और पवित्र कर्तव्य समझे। मनुष्य की चार स्वाभाविक इच्छाएं होती है। ज्ञान, रक्षा, जीवीका तथा सेवा। इन इच्छाओं की पूर्ति के लिये ही समाज चार भागों या वर्णों मे विभाजित किया गया। हम इनमे से रक्षा करनेवालें क्षत्रिय वर्ण के लिए बतलाते है कि क्षत्रिय बल के द्वारा समाज की रक्षा करनेवाले थे और इनका यह काम स्वतंत्र प्रचीन भारत में चलता रहा। क्षत्रिय सैकडों वर्षो तक देश की रक्षा करते रहे। यहां ईरानी यूनानी, शक, पल्लव, आदि जातियों के आक्रमण हुए। लेकिन उनका क्षत्रियों ने बराबर सामना किया। उन्हें यहां टिकने ही नहीं दिया। और यदि यहां रह भी गये तो उन्हें अस्पताल कर लिया।
यहां हम माली जाति के विषय में बतलाना चाहते है कि मुहम्मद गौरी के राज्य काल में जो राजपूत माली बने। यह भी कहा जाता है कि कई बन्दी सैनिक किसी भी प्रकार मुक्त होकर माली बन गये। ऐसे लोगों ने अपना समाज बनाने के लिए पुष्कर (अजमेर, जिला राजस्थान) में माघ शुक्ला 7 वि.सं.1267 (सन 1201 की 12 जनवरी, शुक्रवार) में एक सम्मेलन किया।
इस सम्मेलन में सभी प्रकार के मालियों को बुलाया गया तथा नये समाज की मर्यादाएं तय की गई। इन मालियों में राजपूत मालियो के अलावा माहुर माली भी आये थे। माहुर माली भी माली थे जो महावर भी कहलाते है।
इन राजपूत मालियों ने अपने समाज के लिए कई कडे नियम बनाए जो अभी तक प्रचलित है। इनकी गौत्र निम्न है – गहलोत, कच्छवाहा, चौहान, टाक, तंवर दइया, पंवार, परिहार, भाटी, राठौड व सोलंकी। जिन राजपूतों ने अपने आपको राजपूत माली समाज का होना स्वीकार किया उनके नाम पिता का नाम खांप तथा नख मारवाड राज्य की जनगणना रिपोर्ट सन 1891 के पृष्ठ 89 पर इस प्रकार दिये गये है –
ये लोग भूलत: नागौर व अजमेर जिला के थे और वहां से ये लोग समय-समय पर अन्यत्रजा बसे। मारवाड की जनगणना रिपोर्ट 1891 के भाग 2 के पृष्ठ 40 पर लिखा है –
कुछ राजपूतों को शाहबुद्दीन मुहम्मद गौरी ने कैद कर लिया था। वे ही कैद से छोड जोने के बाद माली बन गए। उनमें राजपूतों की भाति गौत्र (खापे) पाई जाती है जैसे चौहान, सोलंकी, भाटी, तंबर आदि।
हम क्षत्रिय है इतिहास की गवाही
माली जाति भूलत : क्षत्रिय है। परशुराम के द्वारा सभी क्षत्रियों के नष्ट किये जाने से बचने के लिये इनके पूर्वजों ने अपना सामाजिक कार्य त्याग दिया और भिन्न-भिन्न व्यवसायो में लग गये।
सही बाच यह है कि ये मूलत : क्षत्रिय थे। राजपूतों की सेना में सैनिक थे और जब विजेताओं ने सेना के सैनिकों को कैद कर लिया था, उन्हे निकाल दिया गया, तब उन्होंने अपनी जीविका चलाने हेतु माली का धन्धा अपना लिया और यह उचित भी था। गौतम स्मृति (1012) में भी लिखा है कि क्षत्रिय के विशेष कार्य प्रजापालन के अलावा खेतीवाडी व शिल्पकारी है।
इसी कारण आज भी गांवो की 80 प्रतिशत जनता खेती व उनसे सम्बन्धित व्यवसायों में लगी है। केवल व्यवसाय के बदलने के कारण गोत्र रीति रिवाज, रस्में आदि नहीं बदलती है।
यह भी ध्यान देने की बात है कि सेना में भी दो प्रकार के सैनिक होते है। एक जो युद्ध के लिए सदा तैयार रहते है और दुसरे जो आरक्षित सैनिक होते है। ये आरक्षित सैनिक भी सैनिक ही थे जो आगे चलकर सैनी कहलाने लगे। विलियम कुक कृत कास्टस एण्ड ट्राइन्स ऑफ़ नार्थ वेस्टर्न प्रोविन्सेज (वर्तमान यू.पी.) 1896 की जिल्द 4 पृष्ठ 256 पर लिखा है कि –
सैनी जाति बागवानी व खेतीवाडी करनेवाली जाति है। इस जाति के लोग ज्यादातर नौकरीपेशा है और मुख्यत : घुडसवारों से है। ये अपनी उपत्ति राजपूतों से बतलाते है। आर्थिक कारणो से ये लोग पंजाब में चले गये और वहां खेती करने लगे। वे इतनी अच्छी खेती करते थे के लोग इन्हे रसायनी (रसायन विशेषज्ञ) कहने लगे और यही शब्द बिगड कर सैनी हो गया।
पंजाब गेजेटियर (जिला हिसार) 1812 के भाग 3 पृष्ठ 132 के पर लिखा है कि ये (सैनी) जाटों व राजपूतों के साथ हुक्का पीते है और खाते-पीते हैं। ये मूलत : क्षत्रिय है।
इन्हीं पुस्तको के आधार पर सन 1937 में जब जनगणना अंतिन वार जातिवार हुई तब इन मालियों व सैनियों को भारत के जनगणना कमिश्नर ने सैनिक क्षत्रिय लिखे जाने पर आपत्ति न करने पर आदेश जारी किया था।
माली या सैनी जाति वास्तव में क्षत्रिय वर्ण से थे और ये कही माली कहीं राजपूत माली, और कहीं सैनी कहलाते है। मध्य युग से, लगभग 800 वर्ष पूर्व इन्होंने राजनीतिक व आर्थिक कारणों से बागवाणी व कृषि का धन्धा अपनाया। बचनसिंह शेखावत ने सैनिक क्षत्रिय कौन है के पृष्ठ 9-19 पर लिखा है –
यहां पर माहूर मालियों के विषय में लिखना अप्रासंगिक नहीं होगा। माहूर माली भी माली है जो महावर भी कहलाते है। इनके दो वर्ग है – वनमाली, जो वनों का रख रखाव करते रहे और फुल माली जो उपवनों का रख रखाव करते रहे। इनके गोत्र है – मुडेरवाला, चूरीवाल, दातलिया, जमालपुरमा, दधेडवाल, मथुरिया हैं। सुदामवंशी, अरडिया, छरडिया, मोराणा, अमेरिया, मोराणा, अमेरिया, बिसनोलिया, अदोपिया, धनोरिया, तुरगणिया आदि। ये लोग राजस्थान के हैं।
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