रविवार, 22 नवंबर 2015

भाटी वंश का इतिहास भाटियों की मान्यताएं और उनके प्रतिक का सम्पूर्ण वर्णन विस्तार से

वंश परिचय :-
चंद्र:- सर्वप्रथम इस बिंदु पर विचार किया जाना आवश्यक हे की भाटीयों की उत्पत्ति केसे हुयी ? और प्राचीन श्रोतों पर द्रष्टि डालने से ज्ञात होता हे की भाटी चंद्रवंशी है. यह तथ्य प्रमाणों से भी परिपुष्ट होता हे इसमें कोई विवाद भी नहीं हे और न किसी कल्पना का हि सहारा लिया गया है. कहने का तात्पर्य यह हे की दुसरे कुछ राजवंशो की उत्पत्ति अग्नि से मानकर उन्हें अग्निवंशी होना स्वीकार किया हे. सूर्यवंशी राठोड़ों के लिए यह लिखा मिलता हे की राठ फाड़ कर बालक को निकालने के कारन राठोड़ कहलाये. ऐसी किवदंतियों से भाटी राजवंश सर्वथा दूर है.
श्रीमदभगवत पुराण में लिखा हे चंद्रमा का जन्म अत्री ऋषि की द्रष्टि के प्रभाव से हुआ था. ब्रह्माजी ने उसे ओषधियों और नक्षत्रों का अधिपति बनाया. प्रतापी चन्द्रमा ने राजसूय यज्ञ किया और तीनो लोको पर विजयी प्राप्त की उसने बलपूर्वक ब्रहस्पति की पत्नी तारा का हरण किया जिसकी कोख से बुद्धिमान 'बुध ' का जन्म हुआ. इसी के वंश में यदु हुआ जिसके वंशज यादव कहलाये. आगे चलकर इसी वंश में राजा भाटी का जन्म हुआ. इस प्रकार चद्रमा के वंशज होने के कारन भाटी चंद्रवंशी कहलाये 7

कुल परम्परा :-
यदु :- भाटी यदुवंशी है. पुराणों के अनुसार यदु का वंश परम पवित्र और मनुष्यों के समस्त पापों को नष्ट करने वाला है. इसलिए इस वंश में भगवान् श्रीकृष्णा ने जन्म लिया तथा और भी अनेक प्रख्यात नृप इस वंश में हुए.

३.कुलदेवता :-
लक्ष्मीनाथजी :- राजपूतों के अलग -अलग कुलदेवता रहे है. भाटियों ने लक्ष्मीनाथ को अपना कुलदेवता माना है.

४. कुलदेवी :-
स्वांगीयांजी :- भाटियों की कुलदेवी स्वांगयांजी ( आवड़जी ) है. उन्ही के आशीर्वाद और क्रपा से भाटियों को निरंतर सफलता मिली और घोर संघर्ष व् विपदाओं के बावजूद भी उन्हें कभी साहस नहीं खोया. उनका आत्मविश्वास बनाये रखने में देवी -शक्ति ने सहयोग दिया.

५. इष्टदेव
श्रीकृष्णा :- भाटियों के इष्टदेव भगवान् श्रीकृष्णा है. वे उनकी आराधना और पूजा करते रहे है. श्रीकृष्णा ने गीता के माध्यम से उपदेश देकर जनता का कल्याण किया था. महाभारत के युद्ध में उन्होंने पांडवों का पक्ष लेकर कोरवों को परास्त किया. इतना हि नहीं ,उन्होंने बाणासुर के पक्षधर शिवजी को परास्त कर अपनी लीला व् शक्ति का परिचय दीया. ऐसी मान्यता है की श्रीकृष्णा ने इष्ट रखने वाले भाटी को सदा सफलता मिलती है और उसका आत्मविश्वास कभी नहीं टूटता है.

६.वेद :-
यजुर्वेद :- वेद संख्या में चार है - ऋग्वेद ,यजुर्वेद ,सामवेद ,और अर्थवेद.  इनमे प्रत्येक में चार भाग है - संहिता ,ब्राहण, आरण्यक और उपनिषद. संहिता में देवताओं की स्तुति के मन्त्र दिए गए हे तथा ;ब्राहण ' में ग्रंथो में मंत्रो की व्याख्या की गयी है. और उपनिषदों में दार्शनिक सिद्धांतों का विवेचन मिलता है. इनके रचयिता गृत्समद ,विश्वामित्र, अत्री और वामदेव ऋषि थे. यह सम्पूर्ण साहित्य हजारों वर्षों तक गुरु-शिष्यपरम्परा द्वारा मौखिक रूप से ऐक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को प्राप्त होता रहा. बुद्ध काल में इसके लेखन के संकेत मिलते है परन्तु वेदों से हमें इतिहास की पूर्ण जानकारी नहीं मिलती है. इसके बाद लिखे गए पुराण हमें प्राचीन इतिहास का बोध कराते है. भाटियों ने यजुर्वेद को मान्यता दी है. स्वामी दयानंद सरस्वती यजुर्वेद का भाष्य करते हुए लिखते है '' मनुष्यों, सब जगत की उत्पत्ति करने वाला ,सम्पूर्ण ऐश्वर्ययुक्त सब सुखों के देने और सब विद्या को प्रसिद्ध करने वाला परमात्मा है.............. लोगो को चाहिए की अच्छे अच्छे कर्मों से प्रजा की रक्षा तथा उतम गुणों से पुत्रादि की सिक्षा सदेव करें की जिससे प्रबल रोग ,विध्न और चोरों का आभाव होकर प्रजा व् पुत्रादि सब सुखों को प्राप्त हो. यही श्रेष्ठ काम सब सुखों की खान है. इश्वर आज्ञा देता है की सब मनुष्यों को अपना दुष्ट स्वभाव छोड़कर विध्या और धर्म के उपदेश से ओरों को भी दुष्टता आदी अधर्म के व्यवहारों से अलग करना चाहिए. इस प्रकार यजुर्वेद ज्ञान का भंडार है. इसके चालीस अध्याय में १९७५ मंत्र है

७.गोत्र :-
अत्री :- कुछ लोग गोत्र का तात्पर्य मूल पुरुष से मानने की भूल करते है. वस्तुत गोत्र का तात्पर्य मूल पुरुष से नहीं हे बल्कि ब्राहण से है जो वेदादि शास्त्रों का अध्ययन कराता था. विवाह ,हवन इत्यादि सुभ कार्य के समय अग्नि की स्तुति करने वाला ब्राहण अपने पूर्व पुरुष को याद करता है इसलिए वह हवन में आसीन व्यक्ति को 7 वेड के सूक्तों से जिन्होंने आपकी स्तुति की उनका में वंशज हूँ. यदुवंशियों के लिए अत्री ऋषि ने वेदों की रचना की थी 7 इसलिए इनका गोत्र '' अत्री '' कहलाया.

८.छत्र :-
मेघाडम्बर :- श्री कृष्णा का विवाह कुनणपुर के राजा भीष्मक की पुत्री रुकमणी के साथ हुआ. श्रीकृष्ण जब कुनणपुर गए तब उनका सत्कार नहीं होने से वे कृतकैथ के घर रुके. उस समय इंद्र ने लवाजमा भेजा. जरासंध के अलावा सभी राजाओं ने नजराना किया. श्रीकृषण ने लवाजमा की सभी वस्तुएं पुनः लौटा दी परन्तु मेघाडम्बर छत्र रख लिया. श्रीकृष्ण ने कहा की जब तक मेघाडम्बर रहेगा यदुवंशी राजा बने रहेंगे. अब यह मेघाडम्बर छत्र जैसलमेर के राजघराने की सोभा बढ़ा रहा है.

९.ध्वज :-
भगवा पीला रंग :- पीला रंग समृदधि का सूचक रहा है और भगवा रंग पवित्र माना गया है. इसके अतिरिक्त पीले रंग का सूत्र कृष्ण भगवान के पीताम्बर से और भगवा रंग नाथों के प्रती आस्था से जुड़ा हुआ है. इसलिए भाटी वंश के ध्वज में पीले और भगवा रंग को स्थान दिया गया है.

१०.ढोल :-
भंवर :- सर्वप्रथम महादेवजी ने नृत्य के समय १४ बार ढोल बजा कर १४ महेश्वर सूत्रों का निर्माण किया था. ढोल को सब वाध्यों का शिरोमणि मानते हुए ह्वह्यद्ग पूजते आये है. महाभारत के समय भी ढोल का विशेष महत्व रहा है. ढोल का प्रयोग ऐक और जहाँ युद्ध के समय योद्धाओं को एकत्र करने के लिए किया जाता था वही दुसरी और विवाह इत्यादि मांगलिक अवसरों पर भी इसे बजाया जाता है. भाटियों ने अपने ढोल का नाम भंवर रखा.

११. नक्कारा :-
अग्नजोत ( अगजीत)- नक्कारा अथवा नगारा (नगाड़ा ) ढोल का हि ऐक रूप है. युद्ध के समय ढोल घोड़े पर नहीं रखा जा सकता था इसलिए इसे दो हिस्सो में विभक्त कर नगारे का स्वरूप दिया गया था 7 नगारा बजाकर युद्ध का श्रीगणेश किया जाता था. विशेष पराक्रम दिखाने पर राज्य की और से ठिकानेदारों को नगारा ,ढोल ,तलवार और घोडा आदी दिए जाते थे. ऐसे ठिकाने ' नगारबंद' ठिकाने कहलाते थे. घोड़े पर कसे जाने वाले नगारे को 'अस्पी' , ऊंट पर रखे जाने वाले नगारे को सुतरी' और हाथी पर रखे जाने नगारे को ' रणजीत ' कहा गया है .''
भाटियों ने अपने नगारे का नाम अग्नजोत रखा है  अर्थात ऐसा चमत्कारी नक्कारा जिसके बजने से अग्नि प्रज्वलित हो जाय. अग्नि से जहाँ ऐक और प्रकाश फैलता है और ऊर्जा मिलती है वही अग्नि दूसरी और शत्रुओं का विनाश भी करती है. कुछ रावों की बहियों में इसका नाम '' अगजीत '' मिलता है , जिसका अर्थ है पापों पर विजय पाने वाला, नगारा.

१२.गुरु:-
रतननाथ :- नाथ सम्प्रदाय का सूत्र भाटी राजवंश के साथ जुड़ा हुआ है 7 ऐक और नाथ योगियों के आशीर्वाद से भाटियों का कल्याण हुआ तो दूसरी और भाटी राजवंश का पश्रय मिलने पर नाथ संप्रदाय की विकासयात्रा को विशेष बल मिला. ९वीं शताब्दी के मध्य योगी रतननाथ को देरावर के शासक देवराज भाटी को यह आशीर्वाद दिया था की भाटी शासकों का इस क्षेत्र में चिरस्थायी राज्य रहेगा. इसके बारे में यह कथा प्रचलित हे की रतननाथ ने ऐक चमत्कारी रस्कुप्पी वरीहायियों के यहाँ रखी. वरीहायियो के जमाई देवराज भाटी ने उस कुप्पी को अपने कब्जे में कर उसके चमत्कार से गढ़ का निर्माण कराया. रतननाथ को जब इस बात का पता चला तो वह देवराज के पास गए और उन्होंने उस कुप्पी के बारे में पूछताछ की. तब देवराज ने सारी बतला दी. इस पर रतननाथ बहुत खुश हुए और कहा की '' टू हमारा नाम और सिक्का आपने मस्तक पर धारण कर. तेरा बल कीर्ति दोनों बढेगी और तेरे वंशजों का यहाँ चिरस्थायी राज्य रहेगा. राजगद्दी पर आसीन होते समय तू रावल की पदवी और जोगी का भगवा ' भेष ' अवश्य धारण करना.''
भाटी शासकों ने तब से रावल की उपाधि धारण की और रतननाथ को अपना गुरु मानते हुए उनके नियमों का पालन किया.

१३.पुरोहित :-
पुष्करणा ब्राहण :- भाटियों के पुरोहित पुष्पकरणा ब्राहण माने गए है. पुष्कर के पीछे ये ब्राहण पुष्पकरणा कहलाये. इनका बाहुल्य, जोधपुर और बीकानेर में रहा है. धार्मिक अनुष्ठानो को किर्यान्वित कराने में इनका महतवपूर्ण योगदान रहता आया है.

१४ पोळपात
रतनू चारण - भाटी विजयराज चुंडाला जब वराहियों के हाथ से मारा गया तो उस समय उसका प्रोहित लूणा उसके कंवर देवराज के प्राण बचाने में सफल हुए. कुंवर को लेकर वह पोकरण के पास अपने गाँव में जाकर रुके. वराहियों ने उसका पीछा करते हुए वहां आ धमके. उन्होंने जब बालक के बारे में पूछताछ की तो लूणा ने बताया की मेरा बेटा है. परन्तु वराहियों को विस्वाश नहीं हुआ. तब लूणा ने आपने बेटे रतनू को साथ में बिठाकर खाना खिलाया. इससे देवराज के प्राण बच गए परन्तु ब्राह्मणों ने रतनू को जातिच्युत कर दिया. इस पर वह सोरठ जाने को मजबूर हुआ. जब देवराज अपना राज्य हस्तगत करने में सफल हुआ तब उसने रतनू का पता लगाया और सोरठ से बुलाकर सम्मानित किया और अपना पोळपात बनाया. रतनू साख में डूंगरसी ,रतनू ,गोकल रतनू आदी कई प्रख्यात चारण हुए है.

१५. नदी
यमुना :- भगवान् श्रीकृष्ण की राजधानी यमुना नदी किनारे पर रही ,इसी के कारन भाटी यमुना को पवित्र मानते है.

१६.वृक्ष
पीपल और कदम्ब :- भगवान् श्री कृष्णा ने गीता के उपदेश में पीपल की गणना सर्वश्रेष्ठ वृक्षों में की है. वेसे पीपल के पेड़ की तरह प्रगतिशील व् विकासशील प्रवर्ती के रहे है. जहाँ तक कदम्ब का प्रश्न है , इसका सूत्र भगवान् श्री कृष्णा की क्रीड़ा स्थली यमुना नदी के किनारे कदम्ब के पेड़ो की घनी छाया में रही थी. इसके आलावा यह पेड़ हमेशा हर भरा रहता है इसलिए भाटियों ने इसे अंगीकार किया हे. वृहत्संहिता में लिखा है की कदम्ब की लकड़ी के पलंग पर शयन करना मंगलकारी होता है. चरक संहिता के अनुसार इसका फूल विषनीवारक् तथा कफ और वात को बढ़ाने वाला होता है. वस्तुतः अध्यात्मिक और संस्कृतिक उन्नयन में कदम्ब का जितना महत्व रहा है. उतना महत्व समस्त वनस्पतिजगत में अन्य वृक्ष का नहीं रहा है

१७.राग
मांड :- जैसलमेर का क्षेत्र मांड प्रदेश के नाम से भी जाना गया है. इस क्षेत्र में विशेष राग से गीत गाये जाते है जिसे मांड -राग भी कहते है. यह मधुर राग अपने आप में अलग पहचान लिए हुए है. मूमल ,रतनराणा ,बायरीयो ,कुरंजा आदी गीत मांड राग में गाये जाने की ऐक दीर्धकालीन परम्परा रही है.

१८.माला
वैजयन्ती:- भगवान् श्रीकृष्णा ने जब मुचुकंद ( इक्ष्वाकुवशी महाराजा मान्धाता का पुत्र जो गुफा में सोया हुआ था ) को दर्शन दिया , उस समय उनके रेशमी पीताम्बर धारण किया हुआ था और उनके घुटनों तक वैजयंती माला लटक रही थी. भाटियों ने इसी नाम की माला को अंगीकार किया. यह माला विजय की प्रतिक मानी जाती है.

१९.विरुद
उतर भड़ किवाड़ भाटी :-सभी राजवंशो ने उल्लेखनीय कार्य सम्पादित कर अपनी विशिष्ट पहचान बनायीं और उसी के अनुरूप उन्हें विरुद प्राप्त हुआ. दुसरे शब्दों में हम कह सकते हे की '; विरुद '' शब्द से उनकी शोर्य -गाथा और चारित्रिक गुणों का आभास होता है. ढोली और राव भाट जब ठिकानों में उपस्थित होते है , तो वे उस वंश के पूर्वजों की वंशावली का उद्घोष करते हुए उन्हें विरुद सुनते है
भाटियों ने उतर दिशा से भारत पर आक्रमण करने वाले आततायियों का सफलतापूर्ण मुकाबला किया था , अतः वे उतर भड़ किवाड़ भाटी अर्थात उतरी भारत के रक्षक कहलाये. राष्ट्रिय भावना व् गुमेज गाथाओं से मंडित यह विरुद जैसलमेर के राज्य चिन्ह पर अंकित किया गया है.

२0.अभिवादन
जयश्री कृष्णा :- ऐक दुसरे से मिलते समय भाटी '' जय श्री कृष्णा '' कहकर अभिवादन करते है. पत्र लिखते वक्त भी जय श्री कृष्णा मालूम हो लिखा जाता है.

२१. राजचिन्ह :- राजचिन्ह का ऐतिहासिक महत्व रहा है. प्रत्येक चिन्ह के अंकन के पीछे ऐतिहासिक घटना जुडी हुयी रहती हे. जैसलमेर के राज्यचिन्ह में ऐक ढाल पर दुर्ग की बुर्ज और ऐक योद्धा की नंगी भुजा में मुदा हुआ भाला आक्रमण करते हुए दर्शाया गया है. श्री कृष्णा के समय मगध के राजा जरासंघ के पास चमत्कारी भाला था. यादवों ने जरासंघ का गर्व तोड़ने के लिए देवी स्वांगियाजी का प्रतिक माना गया है. ढाल के दोनों हिरण दर्शाए गए है जो चंद्रमा के वाहन है. नीचे '' छ्त्राला यादवपती '' और उतर भड़ किवाड़ भाटी अंकित है. जैसलमेर -नरेशों के राजतिलक के समय याचक चारणों को छत्र का दान दिया जाता रहा है इसलिए याचक उन्हें '' छ्त्राला यादव '' कहते है. इस प्रकार राज्यचिन्ह के ये सूत्र भाटियों के गौरव और उनकी आस्थाओं के प्रतिक रहे है.

२२.भट्टीक सम्वत :- भट्टीक सम्वत भाटी राजवंश की गौरव -गरिमा ,उनके दीर्धकालीन वर्चस्व और प्रतिभा का परिचयाक है. वैसे चौहान ,प्रतिहार ,पंवार ,गहलोत ,राठोड़ और कछवाह आदी राजवंशों का इतिहास भी गौरवमय रहा है परन्तु इनमे से किसी ने अपने नाम से सम्वत नहीं चलाया. भाटी राजवंश  द्वारा कालगणना के लिए अलग से अपना संवत चलाना उनके वैभव का प्रतिक है. उनके अतीत की यह विशिष्ट पहचान शिलालेखों में वर्षों तक उत्कीर्ण होती रही है.
भाटियों के मूल पुरुष भाटी थे. इस बिंदु पर ध्यान केन्द्रित करते हुए ओझा और दसरथ शर्मा ने आदी विद्वानों ने राजा भाटी द्वारा विक्रमी संवत ६८०-८१ में भट्टीक संवत आरम्भ किये जाने का अनुमान लगाया है. परन्तु भाटी से लेकर १०७५ ई. के पूर्व तक प्रकाश में आये शिलालेख में भट्टीक संवत का उल्लेख नहीं है. यदि राजा भाटी इस संवत का पर्वर्तक होते तो उसके बाद के राजा आपने शिलालेखों में इसका उल्लेख जरुर करते.
भट्टीक संवत का प्राचीनतम उल्लेख देरावर के पास चत्रेल जलाशय पर लगे हुए स्तम्भ लेख में हुआ है जो भट्टीक संवत ४५२ ( १०७५ ई= वि.सं.११३२) है इसके बाद में कई शिलेखों प्रकाश में आये जिनके आधार पर कहा जा सकता है की भट्टीक सम्वत का उल्लेख करीब २५० वर्ष तक होता रहा.
खोजे गए शिलालेखों के आधार पर यह तथ्य भी उजागर हुआ हे की भट्टीक सम्वत के साथ साथ वि. सं. का प्रयोग भी वि. सं,. १४१८ से होने लगा 7 इसके बाद के शिलालेखों में वि. सं,  संवत के साथ साथ भट्टीक संवत का भी उल्लेख कहीं कहीं पर मिलता है अब तक प्राप्त शिलालेखों में अंतिम उल्लेख वि. सं. १७५६ ( भट्टीक संवत १०७८ ) अमरसागर के शिलालेख में हुआ है. ऐसा प्रतीत होता है की परवर्ती शासकों ने भाटियों के मूल पुरुष राजा भाटी के नाम से भट्टीक संवत का आरम्भ किया गया. कालगणना के अनुसार राजा भाटी का समय वि. संवत ६८० में स्थिर कर उस समय से हि भट्टीक संवत १ का प्रारंभ माना गया है और उसकी प्राचीनता को सिद्ध करने के लिए भट्टीक संवत का उल्लेख कुंवर मंगलराव और दुसज तथा परवर्ती शासकों ने शिलालेखों में करवाया. बाद में वि.सं. और भट्टीक संवत के अंतर दर्शाने के लिए दोनों संवतों का प्रयोग शिलालेखों में होने लगा.
एंथोनी ने विभिन्न क्षेत्रों का भ्रमण कर भट्टीक संवत आदी शिलालेखों कि खोज की है. उसके अनुसार अभी तक २३१ शिलालेख भट्टीक संवत के मिले है जिसमे १७३ शिलालेखों में सप्ताह का दिन ,तिथि ,नक्षत्र ,योग आदी पर्याप्त जानकारियां मिली है. भट्टीक संवत ७४० और ८९९ के शिलालेखों में सूर्य राशियों स्पष्ट रूप से देखि जा सकती है. यह तथ्य भी उजागर हुआ है की मार्गशीर्ष सुदी १ से नया वर्ष और अमावस्या के बाद नया महिना प्रारंभ होता है. भट्टीक सम्वत का अधिकतम प्रयोग ५०२-६०० अर्थात ११२४-१२२४ ई. के दोरान हुआ जिसमे १०३ शिलालेख है जबकि १२२४-१३५२ ई. के मध्य केवल ६६ शिलालेख प्राप्त हुए है. १२२२ से १२५० ई और ११३३४ से १३५२ के मध्य कोई शिलालेख नहीं मिलता है. जहाँ तह सप्ताह के दिनों का महत्व का प्रसन्न है ११२४- १२२२ के शिलालेखों में रविवार की आवृति बहुत अधिक है परन्तु इसके बाद गुरुवार और सोमवार का अधिक प्रयोग हुआ है. मंगलवार और शनिवार का प्रयोग न्यून है

भाटियो का राव वंश वेलियो ,सोरम घाट ,आत्रेस गोत्र ,मारधनी साखा ,सामवेद ,गुरु प्रोहित ,माग्न्यार डगा ,रतनु चारण तीन परवर ,अरनियो ,अपबनो ,अगोतरो ,मथुरा क्षेत्र ,द्वारका कुल क्षेत्र ,कदम वृक्ष ,भेरव ढोल ,गनादि गुणेश ,भगवां निशान ,भगवी गादी ,भगवी जाजम ,भगवा तम्बू ,मृगराज ,सर घोड़ों अगनजीत खांडो ,अगनजीत नगारों ,यमुना नदी ,गोरो भेरू ,पक्षी गरुड़ ,पुष्पकर्णा पुरोहित ,कुलदेवी स्वांगीयाजी ,अवतार श्री कृष्णा ,छत्र मेघाडंबर ,गुरु दुर्वासा रतननाथ ,विरूप उतर भड किवाड़ ,छ्त्राला यादव ,अभिवादन जय श्री कृष्णा ,व्रत एकादशी ।

                                ::छतीस वंश ::
१ दस चन्द्रवंश        २ दस सूर्य वंश         ३ बारह ऋषि वंश     ४ चार अग्नि वंश

                                  :: चंद्रवंशी ::
१ तुंवर    २ यादव  ३ यवन  ४  चंदेल   ५ इदु  असा  ६ बेही    ७  तावणी   ८  जामड़ा  ९ गोड़    १०  झाला

                                 ::सुर्यवंश ::
१ गेहलोत  २ कछावा  ३ शुक्रवार  ४ गायक वाड़   ५ बड़गुजर ६ बनाकर ७ डाबी  ८ टाक  ९ रायजादा १० राठौर

                                :: अग्निवंश ::
१      सोलंकी                २ चौहान             ३ पड़िहार                    ४ परमार

                               :: ऋषि वंश ::
 १ सिंगलआद २ आदपडिहार ३ ब्रह्मपांचल ४ भेटिया सीर ५ लुहावत ६ गोरखा ७ गावा ८ दीखबला ९ जनुवार १० अबतआखा ११ पैजवार १२ भुराजिया


  कवि चंदबरदाई के कथनानुसार-

सूर्य वन्श की शाखायें:-
१. कछवाह२. राठौड ३. मौर्य ४. सिकरवार५. सिसोदिया ६.गहलोत ७.गौर ८.गहलबार ९.रेकबार १०. बडगूजर ११. कलहश १२. कटहरिय़ा
चन्द्र वंश की शाखायें:-
१.जादौन२.भाटी३.तन्वर४ चन्देल ५ .छोंकर६.होंड७.पुण्डीर८.कटैरिया९.कंदहिया १०.वै स
अग्निवंश की शाखायें:-
१.चौहान २.सोलंकी ३.परिहार ४.पमार ५. बिष्ट
ऋषिवंश की बारह शाखायें:-
१.सेंगर२.दीक्षित३.दायमा४.गौतम५.अनवार (राजा जनक के वंशज)६.विसेन७.करछुल८.हय९.अबकू तबकू १०.कठोक्स ११.द्लेला १२.बुन्देला 

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