सावित्रीबाई फुले की लड़ाई आगे बढ़ाओ,
नि:शुल्क शिक्षा के हक़ के लिए एकजुट हो जाओ!
आज सावित्रीबाई फुले की जयन्ती है। उनका जन्म 3 जनवरी 1831 को हुआ था। आज से 169 साल पहले ब्राह्मणवादी ताकतों से वैर मोल लेकर पुणे के भिडे वाडा में सावित्री बाई और ज्योतिबा ने लड़कियों के लिए स्कूल खोला था। इस घटना का एक क्रान्तिकारी महत्व है। पीढ़ी दर पीढ़ी दलितों पर अनेक प्रतिबन्धों के साथ ही “शिक्षाबन्दी ” के प्रतिबन्ध ने भी दलितों व स्त्रियों का बहुत नुकसान किया था। ज्योतिबा व सावित्रीबाई ने इसी कारण वंचितों की शिक्षा के लिए गंभीर प्रयास शुरू किये। मनुस्मृति के अघोषित शिक्षाबन्दी क़ानून के विरूद्ध ये जोरदार विद्रोह था। इस संघर्ष के दौरान उन पर पत्थर, गोबर, मिट्टी तक फेंके गये पर सावित्रीबाई ने शिक्षा का महत्वपूर्ण कार्य बिना रूके किया।
अंग्रेजों ने भारत में जिस औपचारिक शिक्षा की शुरूआत की थी, उसका उद्देश्यं “शरीर से भारतीय पर मन से अंग्रेज” क्लर्क पैदा करना था। इसलिए उन्होंने न तो शिक्षा के व्यापक प्रसार पर बल दिया और ना ही तार्किक और वैज्ञानिक शिक्षा पर। ज्योतिबा-सावित्रीबाई ने सिर्फ शिक्षा के प्रसार पर ही नहीं बल्कि प्राथमिक शिक्षा में ही तार्किक और वैज्ञानिक शिक्षा पर बल दिया। अंधविश्वासों के विरूद्ध जनता को शिक्षित किया। आज जब ज्योतिषशास्त्र को फासीवादी सरकार द्वारा शिक्षा का अंग बनाने की कोशिश हो रही है, तमाम सारी अतार्किक चीजें पाठ्यक्रमों में घोली जा रही हैं तो ऐसे में ज्योतिबा-सावित्री के संघर्ष का स्मरण करना जरूरी हो जाता है।
ज्योतिबा और सावित्री ने शिक्षा का ये प्रोजेक्ट अंग्रेजी राज्यसत्ता पर निर्भर रहे बिना चलाया। चाहे वो लड़कियों की पाठशाला हो या प्रौढ़ साक्षरता पाठशाला, उन्होंने सिर्फ जनबल के दम पर इसे खड़ा किया और चलाया। अड़चनों व संकटों का सामना अत्यन्त बहादुरी से किया। ज्योतिबा ये भी समझने लगे थे कि अंग्रेज राज्यसत्ता भी दलितों की कोई हमदर्द नहीं है। इसीलिए उन्होंने किसान का कोड़ा में लिखा था कि अगर अंग्रेज अफसरशाही व ब्राह्मण सामन्तशाही की चमड़ी खूरच कर देखी जाये तो नीचे एक ही खून मिलेगा यानी कि दोनों में कोई अंतर नहीं है।
शिक्षा के क्षेत्र में इतना क्रान्तिकारी काम करने वाली सावित्रीबाई का जन्मदिवस ही असली शिक्षक दिवस है पर ये विडंबना है कि आज एक ऐसे व्यक्ति का जन्मदिवस शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है जिस पर थीसिस चोरी का आरोप है और जो वर्ण व्यवस्था का समर्थक था।
सावित्रीबाई के समय भी ज्यादातर गरीब शिक्षा से वंचित थे और दलित उससे अतिवंचित थे। आज शिक्षा का पहले के मुकाबले ज्यादा प्रसार हुआ है। पर फिर भी व्यापक गरीब आबादी आज भी वंचित है और दलित उसमें भी अतिवंचित हैं। स्वतंत्रता के बाद राज्य सत्ता ने शिक्षा की पूरी जिम्मेदारी से हाथ ऊपर कर लिये और 1991 की निजीकरण, उदारीकरण की नीतियों के बाद तो उसे पूरी तरह बाजार में लाकर छोड़ दिया है। सरकारी स्कूलों की दुर्व्यवस्था व निजी स्कूलों व विश्वविद्यालयों के मनमाने नियमों व अत्यधिक आर्थिक शोषण के कारण पहले ही दूर रही शिक्षा सामान्य गरीबों की क्षमता से बाहर चली गयी है। आज एक आम इंसान अपने बच्चों को डॉक्टर या इंजीनियर बनाना तो सपने में भी नहीं सोच सकता। स्वतंत्रता के 70 साल बाद भी साक्षरता सिर्फ 64 प्रतिशत पहुँची है। आज शिक्षा और विशेषकर उच्च शिक्षा के दरवाजे सिर्फ अमीरों के लिए खुले हैं। शिक्षा की अत्यन्त सृजनात्मक क्रिया शिक्षण माफिया के लिए सोने के अण्डे देने वाली मुर्गी हो गयी है। अनिवार्य शिक्षा, छात्रवृत्तियाँ व आरक्षण आज खेत में खड़े बिजूका की तरह हो गये हैं जिसका फायदा आम मेहनतकश को नहीं या बहुत कम मिल पा रहा है। आज एक बार फिर से गरीबों व विशेषकर दलितों व अन्य वंचित तबकों से आने वालों पर नयी शिक्षाबन्दी लागू हो गयी है। आज सावित्रीबाई को याद करते हुए हमें ये विचार करना होगा कि उनके शुरू किये संघर्ष का आज क्या हुआ? नयी शिक्षाबन्दी को तोड़ने के लिए सभी गरीबों-मेहनतकशों की एकजुटता का आह्वान कर सबके लिए नि:शुल्क शिक्षा का संघर्ष हमें आगे बढ़ाना होगा।
सावित्रीबाई ने पहले खुद सीखा व सामाजिक सवालों पर एक क्रान्तिकारी अवस्थिति ली। ज्योतिबा की मृत्यु के बाद भी वो अन्तिम साँस तक जनता की सेवा करती रहीं। उनकी मृत्यु प्लेगग्रस्त लोगों की सेवा करते हुए हुई। अपना सम्पूर्ण जीवन मेहनतकशों, दलितों व स्त्रियों के लिए कुर्बान कर देने वाली ऐसी जुझारू महिला को नौजवान भारत सभा की तरफ से हम क्रान्तिकारी सलाम करते हैं व उनके सपनों को आगे ले जाने का संकल्प लेते हैं।
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