मंगलवार, 14 फ़रवरी 2017

काछी (कुशवाह) जाति

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काछी एक हिन्दू जाति है जो की प्रमुख रूप से बिहारराजस्थान व उत्तर प्रदेश राज्यो मे निवास करती है। काछी समुदाय वर्तमान मे कुशवाह नाम से भी जाना जाता है।
कुशवाह समुदाय भारत मे परंपरागत कृषक लोग है, जो मधुमक्खी पालन का कार्य भी करते है। काछी जाति पारंपरिक तौर पर सब्जियाँ उगाने व बेचने का कार्य करने वाली जाति है।[3] कुशवाह शब्द न्यूनतम चार उपजातियों (काछी, कछवाहा, कोइरी व मुराओ) के लिए प्रयुक्त होता है, जो कि पौराणिक काल्पनिक सूर्यववंशी राजा राम के पुत्र कुश के वंशज होने का काल्पनिक दावा करते है। जब कि पूर्वकाल मे यह समुदाय शिव व शाक्त का उपासक था।

  • उत्पत्ति की दंतकथा

काछी एक बृहद समुदाय का हिस्सा है जो कि समन्वित उद्भव का दावा करते हैं। यह समुदाय कुशवाह नाम से जाना जाता है। आजकल यह समुदाय स्वयं को विष्णु के अवतार भगवान राम के पुत्र कुश के वंशज तथा सूर्यवंश से अवतरित होने का दावा करते हैं, किन्तु यह दावा मात्र एक दंतकथा पर आधारित है। इससे पूर्व कुशवाह समुदाय कि जातियाँ- मौर्य, काछी व कोइरी स्वयं को शिव व शाक्त संप्रदाय से जुड़ा हुआ बताते रहे हैं। वर्ष 1920 मे, गंगा प्रसाद गुप्ता ने दावे के साथ अपना मत व्यक्त किया कि कुशवाह समुदाय हिन्दू कलेंडर के कार्तिक माह मे हनुमान की उपासना करता है, हनुमान को पिंच ने राम व सीता का सच्चा भक्त बताया है।
जनसांख्यिकी
विलियम पिंच के अनुसार यह लोग उत्तर प्रदेश व बिहार मे पाये जाते हैं।

वर्तमान परिस्थितियाँ

भारत की सकारात्मक भेद भाव की व्यवस्था के तहत,1991 मे काछी (कुशवाह) जाति को "अन्य पिछड़ा वर्ग" के रूप मे वर्गीकृत किया गया है। भारत के कुछ राज्यों मे कुशवाह "अत्यंत पिछड़ी जाति" के रूप मे वर्गीकृत किए गए है। वर्ष 2013 मे हरियाणा सरकार ने कुशवाह, कोइरी व मौर्य जातियो को "पिछड़ी जतियों" मे सम्मिलित किया है।

वर्गीकरण

कुशवाह पारंपरिक रूप से किसान थे व लांछित शूद्र वर्ण के माने जाते है. पिंच ने इन्हे कुशल कृषक बताया है। ब्रिटिश शासन के उत्तर दशको मे कुशवाह समुदाय व अन्य जतियों ने ब्रिटिश प्रशासको के समक्ष अपने परंपरागत शूद्र स्तर के विरुद्ध चुनौती प्रस्तुत की व उच्च स्तर की मांग प्रस्तुत की।
काछी व कोइरी दोनों जातियाँ अफीम की खेती मे अपने योगदान के कारण काफी समय से ब्रिटिश शासन के करीब रही थी। करीब 1910 से,इन दोनों ही समूहो ने एक संगठन बनाया और स्वयं को कुशवाह क्षत्रिय बताने लगे। व मुराओ जाति ने 1928 मे क्षत्रिय वर्ण मे पहचान हेतु लिखित याचिका दायर की।
अखिल भारतीय कुशवाह क्षत्रिय महासभा का यह कदम पारंपरिक रूप से शूद्र मानी जाने वाली जातियों द्वारा सामाजिक उत्थान की प्रवृत्ति को दर्शाता है, जिसे एम॰एन॰ श्रीवास ने "संस्कृतिकरण" के रूप मे परिभाषित किया है, जो कि उन्नीसवी सदी के उत्तर व बीसवी सदी के पूर्व मे जातिगत राजनीति का एक लक्षण था।
अखिल भारतीय कुशवाह क्षत्रिय महासभा का यह अतिस्ठान उस वैष्णव विचारधारा पर आधारित था, जिसके अनुसार वह अपने अनुवांशिक शूद्र सदृश मजदूरी के पेशे के वावजूद जनेऊ धरण करने की स्वतन्त्रता देता है व भगवान राम व कृष्ण की उपासना करने व उनके क्षत्रिय वंश के वंशज होने के दावे को माध्यम देता है। इस अतिस्ठान के फलस्वरूप उन्होने भगवान शिव से अवतरित होने के अपने पुराने दावे को छोडकर, भगवान राम का वंशज होने का वैकल्पिक दावा किया 1921 मे, कुशवाह क्रांति के समर्थक गंगा प्रसाद गुप्ता ने कोइरी, काछी, मुराओ व कछवाहा जातियों के क्षत्रिय होने के साक्ष्यों पर एक पुस्तक प्रकाशित की। उनके द्वारा इतिहास की पुनरसंरचना मे तर्क दिया गया कि कुशवाह कुश के वंशज है व बारहवी शताब्दी मे दिल्ली सल्तनत के मुस्लिम सुदृणीकरण के समय राजा जयचन्द को इन्होंने सैन्य सेवाए प्रदान की थी। बाद मे विजयी मुस्लिमो के कारण कुशवाह समुदाय तितर बितर होकर अपनी पहचान भूल गया व जनेऊ आदि परंपराए त्याग कर निम्न स्तर के अलग अलग नामो के स्थानीय समुदायो मे विभाजित हो गया।गुप्ता व अन्य की विभिन्न जतियों के क्षत्रिय प्रमाण के इतिहास लिखने की इस आम कोशिश का जातीय संगठनो द्वारा प्रसार किया गया, जिसे दीपान्कर गुप्ता 'शहरी राजनैतिक शिष्ट' व 'अल्पशिक्षित ग्रामीणो' के मध्य संबंध स्थापना के रूप मे देखते है। कुछ जतियों ने इस क्षत्रित्व के दावे के समर्थन मे मंदिर निर्माण भी करवाए, जैसे कि मुराओ लोगो के अयोध्या मे मंदिर।
कुछ कुशवाह सुधारकों ने कुर्मी सुधारक देवी प्रसाद सिन्हा चौधरी के तर्ज पर यह तर्क दिया कि राजपूत, भूमिहार व ब्राह्मण भी खेतो मे श्रम करते है, अतः श्रम कार्य मे लग्न होने का शूद्र वर्ण से कोई संबंध नही जोड़ा जा सकता है।

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