स्त्रीवादी फुले
महिलाओं की मुक्ति की दिशा में जोतिबा का पहला कदम था अपनी पत्नी सावित्रीबाई को पढऩा-लिखना सिखाना। जब वे इस संघर्ष को अपने घर से बाहर ले गए तब उन्हें यह अहसास हुआ कि ”महिलाओं को शिक्षा देना, उनकी मेधा को जगाना, उन्हें वह सम्मान देना जिसकी वो अधिकारी हैं …, हिंदुओं की धार्मिक आस्थाओं के विरूद्ध है…।’’
लेखक- ललिता धारा
महात्मा फुले (1827-1890) को भारत की सामाजिक क्रांति के पितामह के रूप में याद किया जाता है परंतु बहुत कम लोग जानते हैं कि वे भारत की लैंगिक क्रांति के जनक भी थे। बचपन और किशोरावस्था में ही स्त्रियों के प्रति संवेदनशीलता के बीज उनके मन में पड़ गए थे। उन्होंने सावित्रीबाई के साथ लगभग 50 वर्षों तक 19वीं सदी के महाराष्ट्र में महिला सुधार आंदोलन में काम किया। फुले दंपत्ति सच्चे अर्थों में एक-दूसरे के साथी थे। जोतिराव की कथनी और करनी में कोई फर्क नहीं था और ना ही उनके कार्य को सावित्रीबाई से अलग करके देखा जा सकता है। फुले दंपत्ति ने अपने सिद्धांतों और मूल्यों को अपने जीवन में उतारा।
प्रांरभिक प्रभाव
जोतिराव गोविंदराव फुले माली जाति के थे, जिसके सदस्य पारपंरिक रूप से बगीचों की देखभाल करते थे और ब्राह्मणवादी (हिंदू) जाति पदक्रम में उन्हें ”नीची जाति’’ का या शूद्र माना जाता था। इस समुदाय के सदस्यों से यह अपेक्षा नहीं की जाती थी कि वे शिक्षा प्राप्त करें। उनकी नियति तो केवल ”उच्च जातियों’’ के अधीन रहकर काम करना थी। इन सामाजिक अवरोधों के बावजूद, जोतिराव को उनकी बाल विधवा मौसी सगुनाबाई के कारण अंग्रेज़ी शिक्षा प्राप्त करने का अवसर मिला। जोतिराव की मां की मृत्यु तभी हो गई थी जब वे बहुत छोटे थे और सगुनाबाई, जो उस समय के हिसाब से अत्यंत प्रबुद्ध स्त्री थीं, उनकी देखभाल के लिए पुणे आकर रहने लगीं।
अपनी रोज़ी-रोटी कमाने के लिए उन्होंने एक समर्पित मिशनरी जॉन के घर में घरेलू काम और बच्चों की देखभाल करना शुरू कर दिया। जॉन एक यतीमखाना चलाते थे। जोतिराव अपनी मौसी के साथ रोज़ जॉन के घर जाते थे। वहां काम करते हुए सगुनाबाई ने अंग्रेज़ी के कुछ शब्द सीख लिए। वहीं उन्होंने समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के ईसाई मूल्यों को भी जाना, जिन पर उनके कार्यस्थल में अक्सर चर्चा होती रहती थी। उन्होंने जोतिराव को भी इन्हीं मूल्यों की शिक्षा दी। उनके ज़ोर देने पर जोतिराव को एक स्कॉटिश मिशन स्कूल में भर्ती कराया गया। इससे जोतिराव का परिचय पश्चिमी सुधारवादी साहित्य से हुआ। फ्रांस में पुनर्जागरण के बाद, संस्थागत धर्म की आलोचना और फ्रांस व इंग्लैण्ड में उत्तर-क्रांति काल के राजनैतिक विचारों ने भी उन पर गहरा असर डाला। थोमस पेन की पुस्तकें ”राईट्स ऑफ मैन’’ व ”एज ऑफ रीजऩ’’ से भी वे गहरे तक प्रभावित हुए। इन पुस्तकों में मनुष्यों के प्राकृतिक अधिकारों और धर्म सहित सभी पारंपरिक संस्थाओं पर खुलकर विचार और उनकी समालोचना करने पर ज़ोर दिया गया था।
यह महत्वपूर्ण है कि सगुनाबाई ने 1846 में ”अछूतों’’ के लिए एक स्कूल प्रारंभ किया था परंतु कोई मदद न मिलने के कारण, उन्हें छ: महीने के अंदर वह स्कूल बंद करना पड़ा। इस तरह, सगुनाबाई और उनके कार्यों के रूप में फुले दंपत्ति को एक रोल मॉडल उपलब्ध था।
युवा जोतिराव पर कई तरह के प्रभाव पड़े, जिनका वर्णन उन्होंने स्वयं अपने मौलिक लेख ”शेतकर्याचा आसुड’’ में किया है।
मैं अपने बचपन के मुसलमान पड़ोसियों और मेरे साथ खेलने वाले मुस्लिम बच्चों का बहुत एहसानमंद हूं, जिनके कारण मुझे स्वार्थी हिंदू धर्म के मिथ्या वचनों का सच समझ में आया और मैं यह जान सका कि जातिभेद किस तरह की गलत सोच पर आधारित है। मैं पुणे के स्कॉटिश मिशन और सरकारी संस्था का भी आभारी हूं, जिनके ज़रिए मैं कुछ शिक्षा प्राप्त कर सका और मुझे यह पता चला कि हर मनुष्य के क्या अधिकार हैं…मैं ब्रिटिश सरकार के स्वतंत्र शासन का भी धन्यवाद करता हूं, जिसके कारण मैं बिना डर के अपने विचार व्यक्त कर सका…(देशपांडे, 2002, पृष्ठ 183)।
इसके साथ-साथ, गौतम बुद्ध, कबीर, अश्वघोष (”वज्रसूची” पुस्तक के लेखक) के विचारों और लेखन व ईसा मसीह और पैगंबर मोहम्मद की शिक्षाओं का भी उन पर गहरा प्रभाव पड़ा।
ऐतिहासिक संदर्भ
19वीं सदी में भारत में अनेक समाजसुधार आंदोलनों की शुरूआत हुई। ये आंदोलन सबसे पहले बंगाल में उभरे और धीरे-धीरे महाराष्ट्र सहित देश के अन्य भागों में फैल गए। अंग्रेज़ों ने 1818 में पुणे पर अपना शासन कायम किया और इसके साथ ही, ब्राह्मणों के पेशवा राज का अंत हो गया। इन समाजसुधार आंदोलनों का एक महत्वपूर्ण पक्ष था महिलाओं की स्थिति में बेहतरी पर उनका ज़ोर। भारतीय समाज में महिलाओं का दर्जा अत्यंत निम्न था और सतीप्रथा, बाल विधवाओं पर लादे जाने वाले क्रूर प्रतिबंध, बहुत छोटी उम्र में शादी व पर्दा प्रथा जैसी बुराईयों की ओर भी समाजसुधारकों की निगाहें गईं।
जिस समय जोतिराव युवा हो रहे थे, लगभग उसी समय समाजसुधार आंदोलन धीरे-धीरे गति पकड़ रहे थे। परंतु ये सुधार आंदोलन मुख्यत: ऊँची जातियों से उपजे थे और महिलाओं के प्रति उनकी चिंता, ऊँची जातियों की महिलाओं तक सीमित थी। परंतु ये आंदोलन वर्गीय-जातीय हितों से ऊपर उठने की क्षमता भी रखते थे और ऐसा हुआ भी, जिसके नतीजे में जोतिराव फुले के नेतृत्व में गैर-ब्राह्मण समाजसुधारकों को इस आंदोलन में प्रवेश मिला।
जोतिराव ने जाति व लिंग भेद पर आधारित हिंदू ब्राह्मणवादी सामाजिक व्यवस्था को मानवाधिकार विमर्श के सिद्धांतों की कसौटी पर कसना शुरू कर दिया। उन्हें यह एहसास हुआ कि शूद्रों, अतिशूद्रों व महिलाओं की मुक्ति की कुंजी शिक्षा में है क्योंकि इन वर्गों को ब्राह्मणवादी जाति व्यवस्था ने जानबूझकर और जबरदस्ती शिक्षा से दूर रखा था।
फुले के लैंगिक सुधार
जोतिराव का पहला स्त्रीवादी कदम था अपनी युवा पत्नी सावित्रीबाई को पढऩा-लिखना सीखने के लिए प्रोत्साहित करना। जब वे मिशनरी स्कूल में पढ़ रहे थे, तभी से उन्होंने सावित्रीबाई और अपनी मौसी सगुनाबाई को पढ़ाना शुरू कर दिया था। सावित्रीबाई एक मेधावी और ज्ञानपिपासु विद्यार्थी थीं और आगे चलकर उन्होंने शिक्षक प्रशिक्षण प्रमाणपत्र हासिल किया।
फुले दंपत्ति ने लड़कियों के लिए अपना पहला स्कूल 15 मई, 1848 को पुणे के भिड़ेवाड़ा इलाके में शुरू किया। सावित्रीबाई इस स्कूल की प्रधानाचार्या थीं। इस स्कूल में सभी जातियों की लड़कियां एक छत के नीचे पढ़ती थीं। पहले साल स्कूल में 25 लड़कियों ने दाखिला लिया। उसी वर्ष, उन्होंने अछूत लड़कियों के लिए भी एक स्कूल शुरू किया। सावित्रीबाई, सगुनाबाई, फातिमा शेख और उनके कुछ पुरूष सहकर्मी इन स्कूलों में पढ़ाते थे। अगले चार सालों में फुले दंपत्ति ने महिलाओं के लिए 18 स्कूल शुरू किए।
अपने स्कूलों की एक वार्षिक परीक्षा के मौके पर जोतिराव ने लिखा, ”महिलाओं को शिक्षा देना, उनकी मेधा को जगाना, उन्हें वह सम्मान देना जिसकी वो अधिकारी हैं और उनके कल्याण की जिम्मेदारी लेना, हिंदुओं की धार्मिक आस्थाओं के विरूद्ध है…’’। यहां वे शिक्षा को सम्मान और गरिमा से जोड़ते हैं और बिना किसी लागलपेट के महिलाओं के शिक्षा पाने के अधिकार के दमन के लिए हिंदू धर्म को दोषी ठहराते हैं।
बंबई के गवर्नर को 5 फरवरी, 1852 को लिखे पत्र में उन्होंने कहा, ”मेरा यह विश्वास है कि स्थानीय निवासियों की बेहतरी के लिए यह आवश्यक और महत्वपूर्ण है कि महिलाओं को शिक्षा प्रदान की जाए और इसी विश्वास के चलते, हमने एक पाठशाला की स्थापना की है ताकि ये लक्ष्य पूरा हो सके।’’ जोतिराव की मान्यता थी कि समाज की बेहतरी के लिए महिला शिक्षा बहुत महत्वपूर्ण है। इसके विपरीत, उनके दौर के अन्य समाजसुधारक, महिलाओं को केवल इतनी शिक्षा प्रदान करने के हामी थे जिससे वे बेहतर पत्नी और मां बन सकें। जोतिराव के लिए शिक्षा, महिलाओं के मानवाधिकारों का अविभाज्य भाग था। एक अन्य स्थान पर वे लिखते हैं…”अगर पुरूष, महिलाओं को उनके मूल मानवाधिकार मिलने की राह में रोड़ा न बनें तो एक स्वतंत्र विश्व अस्तित्व में आएगा जिसमें सभी महिलाएं और पुरूष संतुष्ट व प्रसन्न रहेंगे’’।
कई स्कूल खोलने के बाद फुले दंपत्ति ने अपना ध्यान अन्य सामाजिक बुराईयों पर केंद्रित किया। उस समय बाल विवाह आम था, विशेषकर ”ऊँची जातियों’’ में। कम उम्र की लड़कियों की उनसे काफी बड़े पुरूषों से शादी कर दी जाती थी और वे किशोरावस्था में ही विधवा हो जाती थीं। विधवा होने के बाद उनका सामाजिक और यौन जीवन समाप्त हो जाता था, परंतु विडंबना यह थी कि वे परिवार के अन्य पुरूषों के हाथों शारीरिक शोषण का आसान शिकार बन जाती थीं। अगर वे इस शारीरिक शोषण के कारण गर्भवती हो जाती थीं तो उन्हें और बदनामी झेलनी पड़ती थी। उनके पास इसके सिवा कोई रास्ता नहीं बचता था कि या तो वे स्वयं की जान ले लें या अपने बच्चे की या दोनों की।
इस स्थिति से द्रवित होकर फुले दंपत्ति ने सन् 1863 में अपने घर के दरवाजे गर्भवती बाल विधवाओं के लिए खोल दिए। उन्होंने ब्राह्मणवाड़ा में बड़े-बड़े पोस्टर लगाए, जिसमें उन्होंने बाल विधवाओं से सीधे अपील की कि यदि वे गर्भवती हो जाएं तो हिम्मत न हारें। उन्हें यह निमंत्रण दिया गया कि वे फुले दपंत्ति के घर आकर रहें और वहीं अपने बच्चे को जन्म दें। उसके बाद वे चाहें तो वहीं रहें और चाहें तो कहीं और चली जाएं। फुले दपंत्ति का यह सहानुभूतिपूर्ण रूख और किसी के चरित्र पर उंगली न उठाने की उनकी नीति ने उन्हें अपने साथी समाजसुधारकों से एकदम अलग और ऊँचा दर्जा दिया और वे ब्राह्मणवादी पुरातनपंथियों के निशाने पर आ गए। सावित्रीबाई ने व्यक्तिगत तौर पर 35 से अधिक ब्राह्मण बाल विधवाओं की प्रसूति में उनकी मदद की। फुले दंपत्ति ने बाल विवाह की सामाजिक बुराई के खिलाफ व्यापक लेखन भी किया।
फुले ने ब्राह्मण विधवाओं के साथ हो रहे क्रूर व्यवहार की कटु निंदा की। उनका कहना था जहां विधुर पुनर्विवाह कर सकते हैं, वहीं विधवाओं को फिर से विवाह करने से रोका जाता है। इस पितृसत्तात्मक भेदभाव की जड़ें, उनके अनुसार, हिंदू धार्मिक ग्रंथों में थीं। ब्राह्मण समाजसुधारक भी बाल विधवा समस्या पर चर्चा और बहस करते थे परंतु एकदम अलग दृष्टिकोण से। वे इस प्रथा के खिलाफ जो तर्क देते थे, उनमें पीडितों के दु:ख के प्रति संवदेनशीलता कहीं नहीं झलकती थी। वे विधवाओं की कामेच्छा को दबाने के कारण समाज की नैतिकता पर पडऩे वाले ”भयावह’’ प्रभावों के प्रति चिंतित थे। वे यह भी कहते थे कि बाल विधवाओं को महिलाओं के अस्तित्व के मूल उद्देश्य-मातृत्व-से वंचित रखा जा रहा है। उनका यह भी कहना था कि बाल विधवाएं ”पवित्र’’ बनी रहें, इसके लिए उनके माता-पिता और सास-ससुर बहुत परेशान और चिंतित रहते हैं। कुल मिलाकर ज्यादा से ज्यादा वे बाल विधवाओं के दु:खों पर चिंता व्यक्त करते थे। केवल गैर-ब्राह्मण सुधारक यह देख पा रहे थे कि यह लैंगिक व जातिगत भेदभाव से ग्रस्त समाज में मानवाधिकारों का घोर उल्लंघन है। शायद इसका कारण यह था कि वे भारतीय सामाजिक पदक्रम को नीचे से ऊपर की ओर देख रहे थे।
जोतिराव ने लैंगिक अत्याचारों, विशेषकर सतीप्रथा के खिलाफ कड़ा रूख अपनाया। उनका कहना था कि ”जब किसी महिला का पति मर जाता है तो उसे बहुत कष्ट और दु:ख भोगने पड़ते हैं। उसे अपनी मृत्यु तक विधवा के रूप में रहना पड़ता है। अक्सर वह अपने पति की चिता पर बैठकर स्वयं भी जल मरती है। परंतु क्या आपने कभी किसी पुरूष को अपनी पत्नी की मृत्यु पर दु:ख के कारण ऐसा करते देखा है? महिलाएं अपने पति की पूजा करती हैं, उसके बावजूद पुरूष दो तीन महिलाओं से शादी कर लेते हैं। परंतु एक बार किसी पुरूष से शादी हो जाने के बाद, कोई महिला दूसरे पुरूष से शादी नहीं कर सकती और ना उसे अपने घर ला सकती है।’’ यहां भी जोतिराव बिना लागलपेट के पितृसत्तात्मक व्यवस्था पर हल्ला बोलते हैं-ऐसी व्यवस्था पर जो पुरूषों को महिलाओं से कहीं ऊँचा दर्जा देती है और उन्हें अनेक विशेषाधिकार उपलब्ध करवाती है।
कथनी और करनी में कोई फर्क नहीं
सावित्रीबाई व जोतिराव संतानहीन थे। जोतिराव पर यह जबरदस्त दबाव था कि वे पुनर्विवाह करें परंतु उन्होंने ऐसा करने से साफ इंकार कर दिया। उनका तर्क यह था कि अगर संतान न होने का कारण वे होते तो क्या सावित्री को पुनर्विवाह करने की इजाज़त मिलती? उनके इस निर्णय ने जोतिराव को उन चंद समाजसुधारकों की पंक्ति में खड़ा कर दिया, जिन्होंने अपने व्यक्तिगत जीवन में लैंगिक समानता को जगह दी। फुले दंपत्ति ने उनके घर पर रहने वाली एक ब्राह्मण विधवा द्वारा त्याग दिए गए लड़के को गोद लिया। उन्होंने उसका नाम यशवंत रखा और उसे डाक्टरी की शिक्षा दिलाई। अपने इस असाधारण और साहसिक कदम से फुले दंपत्ति ने जाति, मातृत्व, पितृत्व व वंशावली से संबंधित कई परंपरागत विचारों को खुलकर चुनौती दी।
सन 1873 में जोतिराव ने सत्यशोधक समाज की स्थापना की जो कि एक गैर-ब्राह्मणवादी सामाजिक-आध्यात्मिक आंदोलन था। इस आंदोलन ने जाति और लिंग से जुड़े मुद्दों को उठाया। सत्यशोधकों ने मुंबई के महिला श्रमिकों के महिला व श्रमिक के तौर पर दमन के विरूद्ध संघर्ष को समर्थन दिया। सन् 1893 के 25 मार्च को जेकब मिल की 400 महिला श्रमिकों ने अपने पुरूष अधिकारियों के खिलाफ आंदोलन शुरू किया। यह शायद अपने अधिकारों के लिए भारतीय महिला श्रमिकों का पहला स्वप्रेरित आंदोलन था। सत्यशोधकों ने समाज को पुरोहित वर्ग के चंगुल से मुक्त कराने के लिए बिना ब्राह्मण पंडितों और धार्मिक रीतिरिवाजों के विवाह करवाने शुरू किए। इन विवाहों में दंपत्ति केवल प्रतिज्ञाओं का आदान-प्रदान करते थे। इन प्रतिज्ञाओं को जोतिराव ने 1887 में लिखा था और इन्होंने पारंपरिक हिंदू विवाहों के समय पढ़े जाने वाले मंत्रों का स्थान लिया। इन प्रतिज्ञाओं में वधु यह मांग करती थी कि उसके साथ सम्मानपूर्ण व्यवहार हो और वर यह आश्वासन देता था कि वधु की इस मांग को वह पूरा करेगा। इसके बाद दोनों मिलकर यह शपथ लेते थे कि वे ज़रूरतमंदों और दमितों की भलाई के लिए अपनी जिंदगियां समर्पित करेंगे।
पहला सत्यशोधक विवाह 25 दिसंबर 1873 को सीताराम जाबाजी अलहत व मंजूबाई ज्ञानोबा निम्बारकर के बीच हुआ और इसमें कोई पंडित मौजूद नहीं था। ब्राह्मण पंडितों ने सत्यशोधक विवाह को अदालत में यह कहते हुए चुनौती दी कि इससे उनका रोजग़ार प्रभावित हो रहा है और इस तरह के विवाह, उनके धार्मिक अधिकारों का अतिक्रमण हैं। हर शादी के बाद एक नया मुकदमा दायर किया जाता था परंतु जोतिराव ने हिम्मत नहीं हारी। उन्होंने दृढ़ता से सभी मुकदमे लड़े। यद्यपि स्थानीय और जिला न्यायालयों ने उनके खिलाफ फैसले दिए परंतु वे उच्च न्यायालय से मुकदमा जीत गए।
फुले के नेतृत्व में सत्यशोधकों की यह दृढ़ मान्यता थी कि अंतरजातीय विवाह, जातिप्रथा को तोडऩे का बेहतरीन जरिया हैं। उन्होंने अंतर्जातीय विवाह करने वालों को अपना पूरा सहयोग और समर्थन दिया। कड़े विरोध के बावजूद उन्होंने कई विधवाओं का पुनर्विवाह भी करवाया।
जोतिराव ने 1885 में ”सतसार’’ नामक एक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया। यह पत्रिका सत्यशोधक समाज के सदस्यों के बीच बहस और चर्चा का मंच बन गई। इस पत्रिका में सदस्यों के जाति व लैंगिक मुद्दों पर विचार प्रकाशित किए जाते थे।
सतसार के दूसरे अंक में जोतिराव ने पंडिता रमाबाई द्वारा ईसाई धर्म स्वीकार करने का समर्थन किया। उन्होंने ऐसा दो कारणों से किया। पहला, वे इस कदम को दमनकारी धर्म से मुक्ति के रास्ते के रूप में देखते थे और दूसरा, वे इसे एक महिला के विद्रोह और अपनी बात को दृढ़ता से कहने की क्षमता का प्रतीक मानते थे। इसी अंक में उन्होंने ताराबाई शिन्दे की 1882 में प्रकाशित पुस्तक ”स्त्री-पुरूष तुलना’’ पर हुई उन्मादी प्रतिक्रिया की कड़ी आलोचना की। इस पुस्तक में पुरूषों को यौन संबंधों में उनके दोहरे मापदंडों और पाखंड के लिए आड़े हाथों लिया गया था। जोतिराव फुले यहीं रूके नहीं। उन्होंने ताराबाई का बचाव किया और उनके विचारों का खुलकर समर्थन किया। जोतिराव ने पितृसत्तात्मक व्यवस्था में पुरूषों को प्राप्त विशेषाधिकारों और छूटों की निंदा करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी।
जोतिराव ने सत्यशोधक समाज को दार्शनिक आधार देने के लिए और हिंदू धर्मग्रंथों के विकल्प के तौर पर ”सार्वजनिक सत्य धर्म’’ पुस्तक लिखी। उन्होंने लिखा कि जो लोग सत्य के पथ पर चलना चाहते हैं उन्हें महिलाओं और पुरूषों की समानता में विश्वास रखना होगा।
जोतिराव ने कभी ”मानुस’’ (मनुष्य) शब्द का इस्तेमाल नहीं किया। वे हमेशा ”स्त्री-पुरूष’’ शब्द का इस्तेमाल करते थे। भारत में ऐसा करने वाले वे पहले व्यक्ति थे। ”सर्व एकांदर स्त्री पुरूष’’-सभी पुरूष व महिलाएं-इस वाक्यांश का उनका प्रयोग, उनकी लैंगिक जागरूकता और संवेदनशीलता को चिन्हित करता है। वे ‘महिलाओं’ को ‘पुरूषों’ में शामिल नहीं करते थे। वे भारत में महिलाओं के दमन की वैचारिक जड़ें हिंदू धर्म में और पूरी दुनिया में महिलाओं के निचले दर्जे के लिए संगठित धर्मों को जिम्मेदार ठहराते थे।
भारत में पत्नी का धर्म वही मान लिया जाता है, जो उसके पति का धर्म होता है। जोतिराव ने ”सार्वजनिक सत्यधर्म पुस्तक” में लिखा कि महिलाओं और लड़कियों को अपना धर्म चुनने का अधिकार है। वे महिलाओं को किसी व्यक्ति की पुत्री/पत्नी/मां की बजाए एक स्वतंत्र व्यक्ति मानते थे। बल्कि उन्होंने तो यह साबित करने का भी प्रयास किया कि महिलाएं, मानसिक और नैतिक दृष्टि से पुरूषों से श्रेष्ठ होती हैं।
जोतिराव का मानना था कि अगर भारत की महिलाएं शिक्षा, मानवाधिकारों और मानवीय गरिमा से वंचित हैं, तो उसका कारण हिन्दू धर्मग्रंथ हैं जो जातिगत व लैंगिक ऊँच-नीच की वकालत करते हैं और शूद्रों, अतिशूद्रों और महिलाओं को हमेशा पिछड़ा बनाए रखना चाहते हैं।
आदर्श दंपत्ति थे फुले
जोतिराव की लैंगिक चेतना का एक उदाहरण यह है कि उन्होंने न केवल सावित्रीबाई को साक्षर बनाया वरन् उन्हें कवियत्री बनने के लिए प्रोत्साहित भी किया। सावित्रीबाई की कविताओं का पहला संग्रह ”काव्य फुले’’ 1854 में प्रकाशित हुआ। जोतिराव की पहली पुस्तक इसके काफी बाद प्रकाशित हुई। उनकी कविताएं नवशिक्षित महिलाओं की चिंताओं को प्रतिबिंबित करती हैं, जिनकी आधुनिक सोच और महत्वाकांक्षाएं, तत्कालीन परिस्थितियों से मेल नहीं खातीं थीं। सावित्रीबाई पहली आधुनिक क्रांतिकारी मराठी कवि मानी जाती हैं। जोतिबा की सबसे प्रसिद्ध पुस्तकों ‘गुलामगिरी’ (1873) व ‘शेतकर्याचा आसुड़’ (1883) में व्यक्त कई विचार, ‘काव्य फुले’ (1854) में पहले से ही मौजूद थे। इससे यह स्पष्ट है कि जोतिराव अपने विचारों को व्यक्त करने के पहले उन पर अपनी पत्नी के साथ विस्तृत विचार-विमर्श करते थे। उनकी पत्नी इन बौद्धिक तर्कों को समझतीं थीं और जोतिराव की मेधा को पहचानने वाली वे पहली व्यक्ति थीं। एक कविता में वे जोतिराव को ‘अछूतों के क्षितिज पर ऊगता हुआ सूरज’ निरूपित करती हैं और वह भी दुनिया के यह स्वीकार करने के 20 वर्ष पूर्व।
महात्मा फुले की मृत्यु 28 नवंबर, 1890 को हुई। वे अपने पीछे महिलाओं की मुक्ति और उनके सशक्तिकरण से संबंधित विचारों और कार्यों की समृद्ध विरासत छोड़ गए। जोतिराव की मृत्यु के बाद, सावित्रीबाई ने 1897 में उनकी मृत्यु तक अपने पति के सामाजिक व राजनैतिक कार्यों को आगे बढ़ाया। फुले दंपत्ति की कथनी और करनी, सिद्धांत और व्यवहार में कोई फर्क नहीं था। उनके मन में एक-दूसरे के प्रति बहुत प्रेम और सम्मान था।
फुले के स्त्रीवादी विचार उनके समय से बहुत आगे थे। उन्होंने समालोचना भी की और रचनात्मक कार्य भी। उन्होंनें केवल कहा नहीं, किया भी। इसलिए यह न्यायोचित होगा कि हम उन्हें भारत की लैंगिक क्रांति के पितामह के रूप में स्वीकार करें।
महिलाओं की मुक्ति की दिशा में जोतिबा का पहला कदम था अपनी पत्नी सावित्रीबाई को पढऩा-लिखना सिखाना। जब वे इस संघर्ष को अपने घर से बाहर ले गए तब उन्हें यह अहसास हुआ कि ”महिलाओं को शिक्षा देना, उनकी मेधा को जगाना, उन्हें वह सम्मान देना जिसकी वो अधिकारी हैं …, हिंदुओं की धार्मिक आस्थाओं के विरूद्ध है…।’’
लेखक- ललिता धारा
महात्मा फुले (1827-1890) को भारत की सामाजिक क्रांति के पितामह के रूप में याद किया जाता है परंतु बहुत कम लोग जानते हैं कि वे भारत की लैंगिक क्रांति के जनक भी थे। बचपन और किशोरावस्था में ही स्त्रियों के प्रति संवेदनशीलता के बीज उनके मन में पड़ गए थे। उन्होंने सावित्रीबाई के साथ लगभग 50 वर्षों तक 19वीं सदी के महाराष्ट्र में महिला सुधार आंदोलन में काम किया। फुले दंपत्ति सच्चे अर्थों में एक-दूसरे के साथी थे। जोतिराव की कथनी और करनी में कोई फर्क नहीं था और ना ही उनके कार्य को सावित्रीबाई से अलग करके देखा जा सकता है। फुले दंपत्ति ने अपने सिद्धांतों और मूल्यों को अपने जीवन में उतारा।
प्रांरभिक प्रभाव
जोतिराव गोविंदराव फुले माली जाति के थे, जिसके सदस्य पारपंरिक रूप से बगीचों की देखभाल करते थे और ब्राह्मणवादी (हिंदू) जाति पदक्रम में उन्हें ”नीची जाति’’ का या शूद्र माना जाता था। इस समुदाय के सदस्यों से यह अपेक्षा नहीं की जाती थी कि वे शिक्षा प्राप्त करें। उनकी नियति तो केवल ”उच्च जातियों’’ के अधीन रहकर काम करना थी। इन सामाजिक अवरोधों के बावजूद, जोतिराव को उनकी बाल विधवा मौसी सगुनाबाई के कारण अंग्रेज़ी शिक्षा प्राप्त करने का अवसर मिला। जोतिराव की मां की मृत्यु तभी हो गई थी जब वे बहुत छोटे थे और सगुनाबाई, जो उस समय के हिसाब से अत्यंत प्रबुद्ध स्त्री थीं, उनकी देखभाल के लिए पुणे आकर रहने लगीं।
अपनी रोज़ी-रोटी कमाने के लिए उन्होंने एक समर्पित मिशनरी जॉन के घर में घरेलू काम और बच्चों की देखभाल करना शुरू कर दिया। जॉन एक यतीमखाना चलाते थे। जोतिराव अपनी मौसी के साथ रोज़ जॉन के घर जाते थे। वहां काम करते हुए सगुनाबाई ने अंग्रेज़ी के कुछ शब्द सीख लिए। वहीं उन्होंने समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के ईसाई मूल्यों को भी जाना, जिन पर उनके कार्यस्थल में अक्सर चर्चा होती रहती थी। उन्होंने जोतिराव को भी इन्हीं मूल्यों की शिक्षा दी। उनके ज़ोर देने पर जोतिराव को एक स्कॉटिश मिशन स्कूल में भर्ती कराया गया। इससे जोतिराव का परिचय पश्चिमी सुधारवादी साहित्य से हुआ। फ्रांस में पुनर्जागरण के बाद, संस्थागत धर्म की आलोचना और फ्रांस व इंग्लैण्ड में उत्तर-क्रांति काल के राजनैतिक विचारों ने भी उन पर गहरा असर डाला। थोमस पेन की पुस्तकें ”राईट्स ऑफ मैन’’ व ”एज ऑफ रीजऩ’’ से भी वे गहरे तक प्रभावित हुए। इन पुस्तकों में मनुष्यों के प्राकृतिक अधिकारों और धर्म सहित सभी पारंपरिक संस्थाओं पर खुलकर विचार और उनकी समालोचना करने पर ज़ोर दिया गया था।
यह महत्वपूर्ण है कि सगुनाबाई ने 1846 में ”अछूतों’’ के लिए एक स्कूल प्रारंभ किया था परंतु कोई मदद न मिलने के कारण, उन्हें छ: महीने के अंदर वह स्कूल बंद करना पड़ा। इस तरह, सगुनाबाई और उनके कार्यों के रूप में फुले दंपत्ति को एक रोल मॉडल उपलब्ध था।
युवा जोतिराव पर कई तरह के प्रभाव पड़े, जिनका वर्णन उन्होंने स्वयं अपने मौलिक लेख ”शेतकर्याचा आसुड’’ में किया है।
मैं अपने बचपन के मुसलमान पड़ोसियों और मेरे साथ खेलने वाले मुस्लिम बच्चों का बहुत एहसानमंद हूं, जिनके कारण मुझे स्वार्थी हिंदू धर्म के मिथ्या वचनों का सच समझ में आया और मैं यह जान सका कि जातिभेद किस तरह की गलत सोच पर आधारित है। मैं पुणे के स्कॉटिश मिशन और सरकारी संस्था का भी आभारी हूं, जिनके ज़रिए मैं कुछ शिक्षा प्राप्त कर सका और मुझे यह पता चला कि हर मनुष्य के क्या अधिकार हैं…मैं ब्रिटिश सरकार के स्वतंत्र शासन का भी धन्यवाद करता हूं, जिसके कारण मैं बिना डर के अपने विचार व्यक्त कर सका…(देशपांडे, 2002, पृष्ठ 183)।
इसके साथ-साथ, गौतम बुद्ध, कबीर, अश्वघोष (”वज्रसूची” पुस्तक के लेखक) के विचारों और लेखन व ईसा मसीह और पैगंबर मोहम्मद की शिक्षाओं का भी उन पर गहरा प्रभाव पड़ा।
ऐतिहासिक संदर्भ
19वीं सदी में भारत में अनेक समाजसुधार आंदोलनों की शुरूआत हुई। ये आंदोलन सबसे पहले बंगाल में उभरे और धीरे-धीरे महाराष्ट्र सहित देश के अन्य भागों में फैल गए। अंग्रेज़ों ने 1818 में पुणे पर अपना शासन कायम किया और इसके साथ ही, ब्राह्मणों के पेशवा राज का अंत हो गया। इन समाजसुधार आंदोलनों का एक महत्वपूर्ण पक्ष था महिलाओं की स्थिति में बेहतरी पर उनका ज़ोर। भारतीय समाज में महिलाओं का दर्जा अत्यंत निम्न था और सतीप्रथा, बाल विधवाओं पर लादे जाने वाले क्रूर प्रतिबंध, बहुत छोटी उम्र में शादी व पर्दा प्रथा जैसी बुराईयों की ओर भी समाजसुधारकों की निगाहें गईं।
जिस समय जोतिराव युवा हो रहे थे, लगभग उसी समय समाजसुधार आंदोलन धीरे-धीरे गति पकड़ रहे थे। परंतु ये सुधार आंदोलन मुख्यत: ऊँची जातियों से उपजे थे और महिलाओं के प्रति उनकी चिंता, ऊँची जातियों की महिलाओं तक सीमित थी। परंतु ये आंदोलन वर्गीय-जातीय हितों से ऊपर उठने की क्षमता भी रखते थे और ऐसा हुआ भी, जिसके नतीजे में जोतिराव फुले के नेतृत्व में गैर-ब्राह्मण समाजसुधारकों को इस आंदोलन में प्रवेश मिला।
जोतिराव ने जाति व लिंग भेद पर आधारित हिंदू ब्राह्मणवादी सामाजिक व्यवस्था को मानवाधिकार विमर्श के सिद्धांतों की कसौटी पर कसना शुरू कर दिया। उन्हें यह एहसास हुआ कि शूद्रों, अतिशूद्रों व महिलाओं की मुक्ति की कुंजी शिक्षा में है क्योंकि इन वर्गों को ब्राह्मणवादी जाति व्यवस्था ने जानबूझकर और जबरदस्ती शिक्षा से दूर रखा था।
फुले के लैंगिक सुधार
जोतिराव का पहला स्त्रीवादी कदम था अपनी युवा पत्नी सावित्रीबाई को पढऩा-लिखना सीखने के लिए प्रोत्साहित करना। जब वे मिशनरी स्कूल में पढ़ रहे थे, तभी से उन्होंने सावित्रीबाई और अपनी मौसी सगुनाबाई को पढ़ाना शुरू कर दिया था। सावित्रीबाई एक मेधावी और ज्ञानपिपासु विद्यार्थी थीं और आगे चलकर उन्होंने शिक्षक प्रशिक्षण प्रमाणपत्र हासिल किया।
फुले दंपत्ति ने लड़कियों के लिए अपना पहला स्कूल 15 मई, 1848 को पुणे के भिड़ेवाड़ा इलाके में शुरू किया। सावित्रीबाई इस स्कूल की प्रधानाचार्या थीं। इस स्कूल में सभी जातियों की लड़कियां एक छत के नीचे पढ़ती थीं। पहले साल स्कूल में 25 लड़कियों ने दाखिला लिया। उसी वर्ष, उन्होंने अछूत लड़कियों के लिए भी एक स्कूल शुरू किया। सावित्रीबाई, सगुनाबाई, फातिमा शेख और उनके कुछ पुरूष सहकर्मी इन स्कूलों में पढ़ाते थे। अगले चार सालों में फुले दंपत्ति ने महिलाओं के लिए 18 स्कूल शुरू किए।
अपने स्कूलों की एक वार्षिक परीक्षा के मौके पर जोतिराव ने लिखा, ”महिलाओं को शिक्षा देना, उनकी मेधा को जगाना, उन्हें वह सम्मान देना जिसकी वो अधिकारी हैं और उनके कल्याण की जिम्मेदारी लेना, हिंदुओं की धार्मिक आस्थाओं के विरूद्ध है…’’। यहां वे शिक्षा को सम्मान और गरिमा से जोड़ते हैं और बिना किसी लागलपेट के महिलाओं के शिक्षा पाने के अधिकार के दमन के लिए हिंदू धर्म को दोषी ठहराते हैं।
बंबई के गवर्नर को 5 फरवरी, 1852 को लिखे पत्र में उन्होंने कहा, ”मेरा यह विश्वास है कि स्थानीय निवासियों की बेहतरी के लिए यह आवश्यक और महत्वपूर्ण है कि महिलाओं को शिक्षा प्रदान की जाए और इसी विश्वास के चलते, हमने एक पाठशाला की स्थापना की है ताकि ये लक्ष्य पूरा हो सके।’’ जोतिराव की मान्यता थी कि समाज की बेहतरी के लिए महिला शिक्षा बहुत महत्वपूर्ण है। इसके विपरीत, उनके दौर के अन्य समाजसुधारक, महिलाओं को केवल इतनी शिक्षा प्रदान करने के हामी थे जिससे वे बेहतर पत्नी और मां बन सकें। जोतिराव के लिए शिक्षा, महिलाओं के मानवाधिकारों का अविभाज्य भाग था। एक अन्य स्थान पर वे लिखते हैं…”अगर पुरूष, महिलाओं को उनके मूल मानवाधिकार मिलने की राह में रोड़ा न बनें तो एक स्वतंत्र विश्व अस्तित्व में आएगा जिसमें सभी महिलाएं और पुरूष संतुष्ट व प्रसन्न रहेंगे’’।
कई स्कूल खोलने के बाद फुले दंपत्ति ने अपना ध्यान अन्य सामाजिक बुराईयों पर केंद्रित किया। उस समय बाल विवाह आम था, विशेषकर ”ऊँची जातियों’’ में। कम उम्र की लड़कियों की उनसे काफी बड़े पुरूषों से शादी कर दी जाती थी और वे किशोरावस्था में ही विधवा हो जाती थीं। विधवा होने के बाद उनका सामाजिक और यौन जीवन समाप्त हो जाता था, परंतु विडंबना यह थी कि वे परिवार के अन्य पुरूषों के हाथों शारीरिक शोषण का आसान शिकार बन जाती थीं। अगर वे इस शारीरिक शोषण के कारण गर्भवती हो जाती थीं तो उन्हें और बदनामी झेलनी पड़ती थी। उनके पास इसके सिवा कोई रास्ता नहीं बचता था कि या तो वे स्वयं की जान ले लें या अपने बच्चे की या दोनों की।
इस स्थिति से द्रवित होकर फुले दंपत्ति ने सन् 1863 में अपने घर के दरवाजे गर्भवती बाल विधवाओं के लिए खोल दिए। उन्होंने ब्राह्मणवाड़ा में बड़े-बड़े पोस्टर लगाए, जिसमें उन्होंने बाल विधवाओं से सीधे अपील की कि यदि वे गर्भवती हो जाएं तो हिम्मत न हारें। उन्हें यह निमंत्रण दिया गया कि वे फुले दपंत्ति के घर आकर रहें और वहीं अपने बच्चे को जन्म दें। उसके बाद वे चाहें तो वहीं रहें और चाहें तो कहीं और चली जाएं। फुले दपंत्ति का यह सहानुभूतिपूर्ण रूख और किसी के चरित्र पर उंगली न उठाने की उनकी नीति ने उन्हें अपने साथी समाजसुधारकों से एकदम अलग और ऊँचा दर्जा दिया और वे ब्राह्मणवादी पुरातनपंथियों के निशाने पर आ गए। सावित्रीबाई ने व्यक्तिगत तौर पर 35 से अधिक ब्राह्मण बाल विधवाओं की प्रसूति में उनकी मदद की। फुले दंपत्ति ने बाल विवाह की सामाजिक बुराई के खिलाफ व्यापक लेखन भी किया।
फुले ने ब्राह्मण विधवाओं के साथ हो रहे क्रूर व्यवहार की कटु निंदा की। उनका कहना था जहां विधुर पुनर्विवाह कर सकते हैं, वहीं विधवाओं को फिर से विवाह करने से रोका जाता है। इस पितृसत्तात्मक भेदभाव की जड़ें, उनके अनुसार, हिंदू धार्मिक ग्रंथों में थीं। ब्राह्मण समाजसुधारक भी बाल विधवा समस्या पर चर्चा और बहस करते थे परंतु एकदम अलग दृष्टिकोण से। वे इस प्रथा के खिलाफ जो तर्क देते थे, उनमें पीडितों के दु:ख के प्रति संवदेनशीलता कहीं नहीं झलकती थी। वे विधवाओं की कामेच्छा को दबाने के कारण समाज की नैतिकता पर पडऩे वाले ”भयावह’’ प्रभावों के प्रति चिंतित थे। वे यह भी कहते थे कि बाल विधवाओं को महिलाओं के अस्तित्व के मूल उद्देश्य-मातृत्व-से वंचित रखा जा रहा है। उनका यह भी कहना था कि बाल विधवाएं ”पवित्र’’ बनी रहें, इसके लिए उनके माता-पिता और सास-ससुर बहुत परेशान और चिंतित रहते हैं। कुल मिलाकर ज्यादा से ज्यादा वे बाल विधवाओं के दु:खों पर चिंता व्यक्त करते थे। केवल गैर-ब्राह्मण सुधारक यह देख पा रहे थे कि यह लैंगिक व जातिगत भेदभाव से ग्रस्त समाज में मानवाधिकारों का घोर उल्लंघन है। शायद इसका कारण यह था कि वे भारतीय सामाजिक पदक्रम को नीचे से ऊपर की ओर देख रहे थे।
जोतिराव ने लैंगिक अत्याचारों, विशेषकर सतीप्रथा के खिलाफ कड़ा रूख अपनाया। उनका कहना था कि ”जब किसी महिला का पति मर जाता है तो उसे बहुत कष्ट और दु:ख भोगने पड़ते हैं। उसे अपनी मृत्यु तक विधवा के रूप में रहना पड़ता है। अक्सर वह अपने पति की चिता पर बैठकर स्वयं भी जल मरती है। परंतु क्या आपने कभी किसी पुरूष को अपनी पत्नी की मृत्यु पर दु:ख के कारण ऐसा करते देखा है? महिलाएं अपने पति की पूजा करती हैं, उसके बावजूद पुरूष दो तीन महिलाओं से शादी कर लेते हैं। परंतु एक बार किसी पुरूष से शादी हो जाने के बाद, कोई महिला दूसरे पुरूष से शादी नहीं कर सकती और ना उसे अपने घर ला सकती है।’’ यहां भी जोतिराव बिना लागलपेट के पितृसत्तात्मक व्यवस्था पर हल्ला बोलते हैं-ऐसी व्यवस्था पर जो पुरूषों को महिलाओं से कहीं ऊँचा दर्जा देती है और उन्हें अनेक विशेषाधिकार उपलब्ध करवाती है।
कथनी और करनी में कोई फर्क नहीं
सावित्रीबाई व जोतिराव संतानहीन थे। जोतिराव पर यह जबरदस्त दबाव था कि वे पुनर्विवाह करें परंतु उन्होंने ऐसा करने से साफ इंकार कर दिया। उनका तर्क यह था कि अगर संतान न होने का कारण वे होते तो क्या सावित्री को पुनर्विवाह करने की इजाज़त मिलती? उनके इस निर्णय ने जोतिराव को उन चंद समाजसुधारकों की पंक्ति में खड़ा कर दिया, जिन्होंने अपने व्यक्तिगत जीवन में लैंगिक समानता को जगह दी। फुले दंपत्ति ने उनके घर पर रहने वाली एक ब्राह्मण विधवा द्वारा त्याग दिए गए लड़के को गोद लिया। उन्होंने उसका नाम यशवंत रखा और उसे डाक्टरी की शिक्षा दिलाई। अपने इस असाधारण और साहसिक कदम से फुले दंपत्ति ने जाति, मातृत्व, पितृत्व व वंशावली से संबंधित कई परंपरागत विचारों को खुलकर चुनौती दी।
सन 1873 में जोतिराव ने सत्यशोधक समाज की स्थापना की जो कि एक गैर-ब्राह्मणवादी सामाजिक-आध्यात्मिक आंदोलन था। इस आंदोलन ने जाति और लिंग से जुड़े मुद्दों को उठाया। सत्यशोधकों ने मुंबई के महिला श्रमिकों के महिला व श्रमिक के तौर पर दमन के विरूद्ध संघर्ष को समर्थन दिया। सन् 1893 के 25 मार्च को जेकब मिल की 400 महिला श्रमिकों ने अपने पुरूष अधिकारियों के खिलाफ आंदोलन शुरू किया। यह शायद अपने अधिकारों के लिए भारतीय महिला श्रमिकों का पहला स्वप्रेरित आंदोलन था। सत्यशोधकों ने समाज को पुरोहित वर्ग के चंगुल से मुक्त कराने के लिए बिना ब्राह्मण पंडितों और धार्मिक रीतिरिवाजों के विवाह करवाने शुरू किए। इन विवाहों में दंपत्ति केवल प्रतिज्ञाओं का आदान-प्रदान करते थे। इन प्रतिज्ञाओं को जोतिराव ने 1887 में लिखा था और इन्होंने पारंपरिक हिंदू विवाहों के समय पढ़े जाने वाले मंत्रों का स्थान लिया। इन प्रतिज्ञाओं में वधु यह मांग करती थी कि उसके साथ सम्मानपूर्ण व्यवहार हो और वर यह आश्वासन देता था कि वधु की इस मांग को वह पूरा करेगा। इसके बाद दोनों मिलकर यह शपथ लेते थे कि वे ज़रूरतमंदों और दमितों की भलाई के लिए अपनी जिंदगियां समर्पित करेंगे।
पहला सत्यशोधक विवाह 25 दिसंबर 1873 को सीताराम जाबाजी अलहत व मंजूबाई ज्ञानोबा निम्बारकर के बीच हुआ और इसमें कोई पंडित मौजूद नहीं था। ब्राह्मण पंडितों ने सत्यशोधक विवाह को अदालत में यह कहते हुए चुनौती दी कि इससे उनका रोजग़ार प्रभावित हो रहा है और इस तरह के विवाह, उनके धार्मिक अधिकारों का अतिक्रमण हैं। हर शादी के बाद एक नया मुकदमा दायर किया जाता था परंतु जोतिराव ने हिम्मत नहीं हारी। उन्होंने दृढ़ता से सभी मुकदमे लड़े। यद्यपि स्थानीय और जिला न्यायालयों ने उनके खिलाफ फैसले दिए परंतु वे उच्च न्यायालय से मुकदमा जीत गए।
फुले के नेतृत्व में सत्यशोधकों की यह दृढ़ मान्यता थी कि अंतरजातीय विवाह, जातिप्रथा को तोडऩे का बेहतरीन जरिया हैं। उन्होंने अंतर्जातीय विवाह करने वालों को अपना पूरा सहयोग और समर्थन दिया। कड़े विरोध के बावजूद उन्होंने कई विधवाओं का पुनर्विवाह भी करवाया।
जोतिराव ने 1885 में ”सतसार’’ नामक एक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया। यह पत्रिका सत्यशोधक समाज के सदस्यों के बीच बहस और चर्चा का मंच बन गई। इस पत्रिका में सदस्यों के जाति व लैंगिक मुद्दों पर विचार प्रकाशित किए जाते थे।
सतसार के दूसरे अंक में जोतिराव ने पंडिता रमाबाई द्वारा ईसाई धर्म स्वीकार करने का समर्थन किया। उन्होंने ऐसा दो कारणों से किया। पहला, वे इस कदम को दमनकारी धर्म से मुक्ति के रास्ते के रूप में देखते थे और दूसरा, वे इसे एक महिला के विद्रोह और अपनी बात को दृढ़ता से कहने की क्षमता का प्रतीक मानते थे। इसी अंक में उन्होंने ताराबाई शिन्दे की 1882 में प्रकाशित पुस्तक ”स्त्री-पुरूष तुलना’’ पर हुई उन्मादी प्रतिक्रिया की कड़ी आलोचना की। इस पुस्तक में पुरूषों को यौन संबंधों में उनके दोहरे मापदंडों और पाखंड के लिए आड़े हाथों लिया गया था। जोतिराव फुले यहीं रूके नहीं। उन्होंने ताराबाई का बचाव किया और उनके विचारों का खुलकर समर्थन किया। जोतिराव ने पितृसत्तात्मक व्यवस्था में पुरूषों को प्राप्त विशेषाधिकारों और छूटों की निंदा करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी।
जोतिराव ने सत्यशोधक समाज को दार्शनिक आधार देने के लिए और हिंदू धर्मग्रंथों के विकल्प के तौर पर ”सार्वजनिक सत्य धर्म’’ पुस्तक लिखी। उन्होंने लिखा कि जो लोग सत्य के पथ पर चलना चाहते हैं उन्हें महिलाओं और पुरूषों की समानता में विश्वास रखना होगा।
जोतिराव ने कभी ”मानुस’’ (मनुष्य) शब्द का इस्तेमाल नहीं किया। वे हमेशा ”स्त्री-पुरूष’’ शब्द का इस्तेमाल करते थे। भारत में ऐसा करने वाले वे पहले व्यक्ति थे। ”सर्व एकांदर स्त्री पुरूष’’-सभी पुरूष व महिलाएं-इस वाक्यांश का उनका प्रयोग, उनकी लैंगिक जागरूकता और संवेदनशीलता को चिन्हित करता है। वे ‘महिलाओं’ को ‘पुरूषों’ में शामिल नहीं करते थे। वे भारत में महिलाओं के दमन की वैचारिक जड़ें हिंदू धर्म में और पूरी दुनिया में महिलाओं के निचले दर्जे के लिए संगठित धर्मों को जिम्मेदार ठहराते थे।
भारत में पत्नी का धर्म वही मान लिया जाता है, जो उसके पति का धर्म होता है। जोतिराव ने ”सार्वजनिक सत्यधर्म पुस्तक” में लिखा कि महिलाओं और लड़कियों को अपना धर्म चुनने का अधिकार है। वे महिलाओं को किसी व्यक्ति की पुत्री/पत्नी/मां की बजाए एक स्वतंत्र व्यक्ति मानते थे। बल्कि उन्होंने तो यह साबित करने का भी प्रयास किया कि महिलाएं, मानसिक और नैतिक दृष्टि से पुरूषों से श्रेष्ठ होती हैं।
जोतिराव का मानना था कि अगर भारत की महिलाएं शिक्षा, मानवाधिकारों और मानवीय गरिमा से वंचित हैं, तो उसका कारण हिन्दू धर्मग्रंथ हैं जो जातिगत व लैंगिक ऊँच-नीच की वकालत करते हैं और शूद्रों, अतिशूद्रों और महिलाओं को हमेशा पिछड़ा बनाए रखना चाहते हैं।
आदर्श दंपत्ति थे फुले
जोतिराव की लैंगिक चेतना का एक उदाहरण यह है कि उन्होंने न केवल सावित्रीबाई को साक्षर बनाया वरन् उन्हें कवियत्री बनने के लिए प्रोत्साहित भी किया। सावित्रीबाई की कविताओं का पहला संग्रह ”काव्य फुले’’ 1854 में प्रकाशित हुआ। जोतिराव की पहली पुस्तक इसके काफी बाद प्रकाशित हुई। उनकी कविताएं नवशिक्षित महिलाओं की चिंताओं को प्रतिबिंबित करती हैं, जिनकी आधुनिक सोच और महत्वाकांक्षाएं, तत्कालीन परिस्थितियों से मेल नहीं खातीं थीं। सावित्रीबाई पहली आधुनिक क्रांतिकारी मराठी कवि मानी जाती हैं। जोतिबा की सबसे प्रसिद्ध पुस्तकों ‘गुलामगिरी’ (1873) व ‘शेतकर्याचा आसुड़’ (1883) में व्यक्त कई विचार, ‘काव्य फुले’ (1854) में पहले से ही मौजूद थे। इससे यह स्पष्ट है कि जोतिराव अपने विचारों को व्यक्त करने के पहले उन पर अपनी पत्नी के साथ विस्तृत विचार-विमर्श करते थे। उनकी पत्नी इन बौद्धिक तर्कों को समझतीं थीं और जोतिराव की मेधा को पहचानने वाली वे पहली व्यक्ति थीं। एक कविता में वे जोतिराव को ‘अछूतों के क्षितिज पर ऊगता हुआ सूरज’ निरूपित करती हैं और वह भी दुनिया के यह स्वीकार करने के 20 वर्ष पूर्व।
महात्मा फुले की मृत्यु 28 नवंबर, 1890 को हुई। वे अपने पीछे महिलाओं की मुक्ति और उनके सशक्तिकरण से संबंधित विचारों और कार्यों की समृद्ध विरासत छोड़ गए। जोतिराव की मृत्यु के बाद, सावित्रीबाई ने 1897 में उनकी मृत्यु तक अपने पति के सामाजिक व राजनैतिक कार्यों को आगे बढ़ाया। फुले दंपत्ति की कथनी और करनी, सिद्धांत और व्यवहार में कोई फर्क नहीं था। उनके मन में एक-दूसरे के प्रति बहुत प्रेम और सम्मान था।
फुले के स्त्रीवादी विचार उनके समय से बहुत आगे थे। उन्होंने समालोचना भी की और रचनात्मक कार्य भी। उन्होंनें केवल कहा नहीं, किया भी। इसलिए यह न्यायोचित होगा कि हम उन्हें भारत की लैंगिक क्रांति के पितामह के रूप में स्वीकार करें।
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