सोमवार, 1 जनवरी 2018


प्रेम, स्त्रीवाद और सामाजिक क्रान्ति की कवि सावित्रीबाई फुले
      सावित्रीबाई की जीवनगाथा उनके असाधारण साहस और सत्यनिष्ठा को प्रतिबिम्बित करती है। ललिता धारा बता रही हैं कि 19वीं सदी के महाराष्ट्र में सावित्रीबाई को जाति, वर्ग और लिंग की दीवारें उनके संकल्पों को पूरा करने से रोक न सकीं

19वीं सदी के महाराष्ट्र का शायद ही कोई ऐसा सार्वजनिक व्यक्तित्व होगा, जिसे इतना कम जाना-समझा गया है, जितना कि सावित्रीबाई फुले को। उनके गृह प्रदेश महाराष्ट्र में भी उन्हें मुख्यतः महात्मा फुले की पत्नी या अधिक से अधिक लड़कियों को पढ़ाने वाली पहली भारतीय महिला के रूप में जाना जाता है। परंतु सावित्रीबाई का व्यक्तित्व बहुआयामी था। उन्होंने कई ऐसे काम किए, जिनके बारे में उनसे पहले किसी ने सोचा भी न था। वे एक ऐसी सामाजिक कार्यकर्ता थीं, जो जाति और लिंग से जुड़े मुद्दों को न केवल अपनी लेखनी और अपने भाषणों द्वारा उठाती थीं वरन वे मैदानी स्तर पर काम करने से भी पीछे नहीं हटती थीं। सावित्रीबाई, पहली आधुनिक क्रांतिकारी मराठी कवियत्री मानी जाती हैं। उनका पहला काव्य संग्रह ‘काव्य फुले’, सन 1854 में प्रकाशित हुआ था। उस समय तक महात्मा फुले की कोई कृति प्रकाशित नहीं हुई थी। यह उस दौर की बात है जब महिलाओं का सार्वजनिक जीवन में प्रवेश पूरी तरह निषिद्ध था और उनकी रचनाओं के प्रकाशन की बात तो कोई सोच ही नहीं सकता था।

सावित्रीबाई कौन थीं और उन्होंने क्या किया, इसे समझने के लिए हमें उनके व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं को समझना होगा। हमें सावित्रीबाई के जीवन और उनके कार्यों को 19वीं सदी के महाराष्ट्र के सामाजिक तानेबाने के परिप्रेक्ष्य में देखना होगा।

जनता की सावित्री

सावित्रीबाई का जन्म पुणे के निकट नाईगांव नामक गांव में 3 जनवरी, 1831 को हुआ था। वे शूद्र समुदाय के खांडोजी नेवशे पाटील की सबसे बड़ी संतान थीं। उस काल में लड़कियों को-चाहे वे किसी भी जाति की हों-शिक्षित नहीं किया जाता था। सावित्रीबाई भी इसका अपवाद नहीं थीं। वे घर के कामकाज निपटाती थीं और खेती के काम में अपने पिता की मदद करती थीं।

जब सावित्रीबाई नौ साल की थीं, तब उनका विवाह पुणे निवासी 13 वर्षीय जोतिराव फुले से कर दिया गया। जोतिराव, माली जाति के थे जो शूद्र वर्ण का हिस्सा थी। शूद्र, पारंपरिक रूप से या तो खेती अथवा बागवानी करते थे या बुनकर, कुम्हार इत्यादि थे। उन्हें नीची जाति का माना जाता था। इस समुदाय से शिक्षा प्राप्त करने की अपेक्षा नहीं की जाती थी। उन्हें तो बस अपने से ऊपर के तीनों वर्णों, अर्थात ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों, की सेवा करनी होती थी। इन सब सामाजिक वर्जनाओं के बावजूद, अगर जोतिराव अंग्रेज़ी शिक्षा पा सके तो इसका कारण था उनकी बाल विधवा मौसी सगुनबाई, जिन्होंने उनकी माँ की मृत्यु के बाद जोतिराव का पालन-पोषण किया।

सगुनबाई ने जोतिराव को न केवल पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया वरन उन्हें एक मिशनरी स्कूल में दाखिला भी दिलवाया। जोतिराव एक प्रतिभाशाली और संवेदनशील विद्यार्थी थे। वे न केवल पढ़ाई-लिखाई में अच्छे थे वरन थोड़ा बड़े होते ही वे ग्रामीण इलाकों के रहवासियों, जिनमें वे भी शामिल थे, की बदहाली के कारणों और उन्हें दूर करने के उपायों पर विचार करने लगे। मिशनरी स्कूलों में शिक्षा प्राप्त करने के कारण उन्हें पश्चिमी साहित्य का अध्ययन करने का अवसर मिला और इससे उनकी सोच समतावादी बनी। उन्होंने अमरीकी प्रजातंत्र और फ्रांस की राज्य क्रांति का अध्ययन किया। वे थामस पेन की पुस्तक ‘राईट्स आफ मेन’ से बहुत प्रभावित थे, विशेषकर पेन के तर्कसंगत विचारों से।

19वीं सदी में महाराष्ट्र की सांस्कृतिक राजधानी पुणे, परिवर्तन के दौर से गुज़र रही थी। पेशवाओं का शासन सन 1818 में समाप्त हो चुका था और औपनिवेशिक शासक धीरे-धीरे पुणे और आस-पास के क्षेत्र में मज़बूत हो रहे थे। इससे इस इलाके में स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के पश्चिमी मूल्यों का प्रसार हुआ और नतीजे में हुए पुनर्जागरण से साहित्य, संगीत, कला, रंगकर्म सहित कोई क्षेत्र अछूता न रह सका। अन्य शहरी शिक्षित युवा पुरूषों की तरह, फुले भी महाराष्ट्र में चल रही आधुनिकता की आंधी से प्रभावित हुए बिना न रह सके। इसी दौर में वह समाज सुधार आंदोलन भी शुरू हुआ, जिसने अगली एक सदी में समाज को अधिक मानवीय बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

आधुनिक विचारों से प्रेरित होकर जोतिबा ने अपनी पत्नी सावित्री और मौसी सगुनबाई को स्वयं पढ़ना-लिखना सिखाना शुरू किया। अपने पति से प्रारंभिक शिक्षा ग्रहण करने के बाद, सावित्री ने अहमदनगर में औपचारिक शिक्षा पाई और उसके बाद पुणे से शिक्षक प्रशिक्षण प्रमाणपत्र हासिल किया। शिक्षक प्रशिक्षण विद्यालय में उनके साथ पढ़ती थीं फातिमा शेख, जो उनकी गहरी मित्र बन गईं।

जल्दी ही फुले दम्पत्ति ने लड़कियों के लिए अपना पहला स्कूल खोला। यह स्कूल पुणे के भिड़ीवाड़ा इलाके में 15 मई, 1848 को खोला गया। सावित्रीबाई इस स्कूल की प्रधानाध्यापिका थीं और सगुनबाई व फातिमा शेख, शिक्षक। इस स्कूल में सभी जातियों की लड़कियां एक साथ पढ़ती थीं। स्कूल में पहले ही साल 25 लड़कियों ने दाखिला लिया। इसी साल, फुले दंपत्ति ने अछूत लड़कियों के लिए भी एक स्कूल शुरू किया। ज़ाहिर है, ऐसा करके वे ज्ञान पर ब्राह्मण पुरूषों के एकाधिकार को चुनौती दे रहे थे, जिन्होंने सदियों से अछूतों और स्त्रियों को शिक्षा से वंचित कर रखा था। सन 1848 व 1852 के बीच, फुले दंपत्ति ने 18 स्कूल शुरू किए।

सावित्रीबाई, सगुनबाई और फातिमा देश की पहली भारतीय महिला शिक्षक थीं। इससे भी महत्वपूर्ण यह था कि वे तीनों ही हाशिए पर पड़े समुदायों से थीं। सावित्री और सगुनबाई शूद्र थीं और फातिमा मुसलमान। फातिमा जोतिबा फुले के निकट मित्र उस्मान शेख की बहन थीं।

ज्ञान के द्वार महिलाओं और उनमें भी नीची जातियों की महिलाओं के लिए खोलना, ऊँची जातियों के रूढ़िवादी वर्ग को अस्वीकार्य था। उन्होंने जोतिराव के पिता गोविंदराव को उनके खिलाफ भड़काना शुरू कर दिया। गोविंदराव पर इतना अधिक दबाव बनाया गया कि एक दिन उन्होंने अपने पुत्र से कह दिया कि या तो वे स्कूल चलाएं या उनके घर में रहें। सावित्री और जोतिराव, दोनों को इससे बहुत धक्का लगा परंतु भारी मन से उन्होंने जोतिराव के पिता का घर छोड़ने का निर्णय लिया। जब वे अपना घर छोड़कर निकले, तब वे खाली हाथ थे। उन्होंने अपने व्यक्तिगत सुख की जगह समाज की भलाई को प्राथमिकता दी। उस्मान शेख ने उन्हें अपने घर पर पनाह दी और उन्हें ज़िंदगी फिर से शुरू करने के लिए आवश्यक साधन उपलब्ध करवाए।

जब सावित्री अपने स्कूल जाने के लिए निकलती थीं तब गांववाले उन पर पत्थर और गोबर फेंकते थे। जब भी ऐसा होता, वे रूक कर विनम्रतापूर्वक उनसे कहतीं, ‘‘मेरे भाईयों, मैं आपकी बहनों को पढ़ाने का काम कर रही हूं। जो पत्थर और गोबर आप मुझ पर फेक रहे हैं, वे मुझे रोकेंगे नहीं बल्कि वे तो मेरे लिए प्रेरणा का स्त्रोत हैं। मुझे तो ऐसा लगता है कि मानो आप मुझ पर फूलों की पंखुड़ियों की वर्षा कर रहे हों। मैं मेरी बहनों की सेवा करने के अपने प्रण पर कायम रहूंगी और ईश्वर से यह प्रार्थना करूंगी कि वो आपको आशीर्वाद दे’’। एक दिन जब वे स्कूल से लौट रही थीं तब भारी भरकम शरीर वाले एक गुंडे ने उनका रास्ता रोक लिया और उन्हें यह धमकी दी कि अगर उन्होंने मांगों और महारों को पढ़ाना बंद नहीं किया तो उन्हें इसकी भारी कीमत चुकानी होगी। तमाशा देखने वहां बहुत लोग इकट्ठा हो गए परंतु किसी ने सावित्रीबाई की मदद करने की कोशिश नहीं की। सावित्रीबाई तनिक भी विचलित नहीं हुईं और उन्होंने उस आदमी को एक ज़ोरदार तमाचा जड़ दिया। वह गुंडा भौचक्का रह गया और तुरंत वहां से भाग निकला। तमाशबीन भी तितर-बितर हो गए। यह खबर पुणे में जंगल की आग की तरह फैल गई और उसके बाद किसी ने सावित्रीबाई को रोकने की हिम्मत नहीं की।

फुले दंपत्ति की क्रांतिकारी शैक्षणिक गतिविधियों का कड़ा विरोध शुरू हो गया। अंग्रेज़ी बोलने वाले ऊँची जातियों के समाज सुधारक भी महिलाओं को शिक्षित करने के हामी थे परंतु वे उन्हें केवल इतनी शिक्षा देना चाहते थे, जिससे वे पढ़े-लिखे पुरूषों की उपयुक्त संगिनी बन सकें और अपने बच्चों को बेहतर ढंग से पालपोस सकें। इसके विपरीत, फुले, महिलाओं को इसलिए शिक्षित करना चाहते थे ताकि वे सशक्त बन सकें, अपने दमन और शोषण के खिलाफ खड़ी हो सकें और अपनी क्षमताओं को पहचान सकें।

जोतिराव फुले के इस मिशन में उनकी पहली और सबसे महत्वपूर्ण सहयोगी बनीं उनकी पत्नी सावित्रीबाई।

स्कूल खोलने के बाद, फुले दंपत्ति ने अपना ध्यान अन्य सामाजिक बुराईयों पर केन्द्रित किया। उस समय बाल विवाह आम थे और इनका प्रचलन ऊँची जातियों में अधिक था। अक्सर कम उम्र की लड़कियों की शादी उनसे आयु में बहुत बड़े पुरूषों से कर दी जाती थी और नतीजे में वे बचपन में ही विधवा हो जाती थीं। विधवाओं के लिए समाज में कोई जगह नहीं थी। उन्हें अपवित्र और अपशकुनी समझा जाता था और उनसे यह अपेक्षा की जाती थी कि वे चुपचाप, बिना कोई शिकायत किए अपना जीवन काटें। बाल विधवाएं, जिनमें से कई कुंवारी होती थीं, को रंगीन साड़ियां और गहने पहनना मना था। वे अपने बालों में फूल तक नहीं लगा सकती थीं। उन्हें सफेद या भगवा रंग की साड़ियां पहननी होती थीं और उनके सिर मूंड दिए जाते थे। इस सब का उद्देश्य यह था कि इन महिलाओं में यौन संबंध बनाने की इच्छा खत्म हो जाए और उनकी वेशभूषा ऐसी हो कि कोई पुरूष उनकी ओर आकर्षित न हो। विधवा होने का अर्थ था सामाजिक और सेक्स जीवन का अंत। परंतु विडंबना यह थी कि विधवाएं अपने ही परिवारों के पुरूषों की हवस का शिकार बनती थीं। चूंकि वे अशिक्षित होती थीं और आर्थिक रूप से परिवार पर निर्भर रहती थीं, इसलिए वे इस शोषण का विरोध नहीं कर पाती थीं। कई बार जब वे गर्भवती हो जाती थीं तब उनके पास इसके सिवा कोई रास्ता न बचता था कि वे या तो अपनी जान ले लें या अपने बच्चे की या फिर दोनों की।

पुणे में एक ब्राह्मण विधवा काशीबाई के साथ यही हुआ। उनका यौन शोषण किया गया और वे गर्भवती हो गईं। हताशा में उन्होंने अपने नवजात शिशु को कुएं में फेक दिया। उन पर हत्या का मुकदमा चला और उन्हें आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई गई।

इस घटना ने फुले दंपत्ति को बहुत व्यथित किया और ब्राह्मण बाल विधवाओं के घोर यंत्रणापूर्ण जीवन की ओर उनका ध्यान आकर्षित किया। सन 1863 में उन्होंने अपने घर के दरवाजे गर्भवती बाल विधवाओं के लिए खोल दिए। उन्होंने ब्राह्मणवाड़ा (ब्राह्मणों का मोहल्ला) में दीवारों पर पोस्टर चिपकाए, जिसमें गर्भवती बाल विधवाओं को उन्होंने अपने घर आने का निमंत्रण दिया। उन्होंने कहा कि विधवाएं उनके घर पर रहकर अपने बच्चे को जन्म दे सकती हैं। इसके बाद वे चाहें तो अपने बच्चे सहित वहीं रह सकती हैं या बच्चे को छोड़कर या उसे साथ लेकर जा सकती हैं। गर्भवती बाल विधवाओं के सामने अब बहुत से विकल्प उपलब्ध थे, जबकि इसके पहले तक उनके सामने केवल एक ही रास्ता था-अपनी जान लेना। सावित्रीबाई, गर्भवती बाल विधवाओं और उनके बच्चों की स्वयं देखभाल करती थीं। बाल विधवाओं के कष्टों ने उन्हें इतना व्यथित किया कि उन्होंने पुणे के नाइयों को इस बात के लिए राज़ी कर लिया कि वे बाल विधवाओं का मुंडन करने से इंकार कर दें।

सावित्रीबाई और जोतिराव की कोई संतान नहीं थी। जोतिराव पर यह दबाव था कि वे किसी और स़्त्री से विवाह कर लें ताकि वे अपने वारिस को जन्म दे सकें। जोतिराव ने ऐसा करने से इंकार कर दिया। उनका तर्क था कि ऐसा भी हो सकता है कि संतान न होने का कारण वे स्वयं हों तो क्या ऐसे स्थिति में सावित्रीबाई को दूसरे पुरूष से विवाह करने की इजाज़त दी जाएगी। फुले दपंत्ति ने एक बच्चा गोद लेने का निर्णय लिया। सन 1874 में एक रात मूठा नदी के किनारे टहलते समय जोतिराव की नज़र एक महिला पर पड़ी, जो अपना जीवन समाप्त करने के लिए नदी में कूदने को तैयार थी। जोतिराव ने दौड़कर उसे पकड़ लिया। उस स्त्री ने उन्हें बताया कि वह विधवा है और उसके साथ बलात्कार हुआ था। उसे छह माह का गर्भ था। जोतिराव ने उसे सांत्वना दी और अपने घर ले गए। सावित्रीबाई ने खुले दिल से उस स्त्री का अपने घर में स्वागत किया। उस स्त्री ने एक बच्चे को जन्म दिया, जिसका नाम यशवंत रखा गया। फुले दंपत्ति ने यशवंत को गोद ले लिया और उसे अपना कानूनी उत्तराधिकारी घोषित किया। उन्होंने यशवंत को शिक्षित किया और वो आगे चलकर डाक्टर बना। दूसरे स्रोतों के अनुसार यशवंत की माता जोतिराव फुले के परिचित ब्राह्मण की विधवा बहन थी, जो अपने किसी रिश्तेदार के द्वारा गर्भ धारण कर चुकी थी और घर के लोगों द्वारा इसके लिए प्रताड़ित हो रही थी। जोतिबा और सावित्रीबाई ने न सिर्फ उसकी जचगी करवाई बल्कि उसके बेटे यशवंत को गोद भी लिया।यह तथ्य कि फुले दंपत्ति ने स्वयं संतान को जन्म देने की जगह एक अनजान स्त्री के बच्चे को गोद लेने का निर्णय किया, अपने सिद्धांतों और विचारों के प्रति उनकी गहरी प्रतिबद्धता को प्रदर्शित करता है। यह कर उन्होंने जाति, वंश, मातृत्व, पितृत्व इत्यादि के संबंध में प्रचलित रूढ़िवादी धारणाओं को खुलकर चुनौती दी।

ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक व्यवस्था, जहां महिलाओं को जंजीरों में कैद रखना चाहती थी, वहीं वह कथित अछूतों को भी समाज के हाशिए पर धकेलती थी और उन्हें पशुवत जीवन जीने पर मजबूर करती थी। वे ऊँची जातियों के लोगों के सामने से नहीं गुज़र सकते थे और ना ही सार्वजनिक कुओं और तालाबों से पानी भर सकते थे। फुले दंपत्ति ने सन 1868 में यह घोषणा की कि उनके घर के प्रांगण में बने कुंए से कोई भी अछूत पानी भर सकता है। यह एक अत्यंत साहसिक कदम था, जिसने जातिगत यथास्थितिवादियों को हिला दिया।

सावित्रीबाई ज़मीनी स्तर पर काम करने में विश्वास रखती थीं। वे लगातार पुणे के आसपास के गांवों की यात्राएं करती रहती थीं, जहां वे महिलाओं और पुरूषों को सामाजिक बुराईयों का त्याग करने और अपने जीवन को बेहतर बनाने के लिए शिक्षा हासिल करने की प्रेरणा देती थीं। कर्ज, शराबखोरी और शिक्षा जैसे विषयों पर उनके भाषण प्रकाशित हैं और वे यह सिद्ध करते हैं कि सावित्रीबाई को आमजनों से कितना प्रेम था और वे उनकी भलाई के बारे में कितनी चिंतित थीं।

फुले दंपत्ति यह मानता था कि अंतरजातीय विवाह, जाति प्रथा के उन्मूलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। वे ऐसे लोगों की व्यक्तिगत रूप से सहायता करते थे जो अंतरजातीय विवाह करने के इच्छुक थे। इसके लिए उन्होंने कई मौकों पर पुलिस की मदद भी ली। उन्होंने कड़े विरोध का सामना करते हुए कई विधवाओं के पुनर्विवाह करवाए।

जोतिराव फुले का स्वप्न था, लोगों को ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मकता और जाति की दासता से मुक्त करवाना। इसके लिए उन्होंने एक साथ कई मोर्चों पर काम करना शुरू किया। उन्होंने ब्राह्मणवादी हिन्दू धर्म की समालोचना करते हुए एक पुस्तक लिखी, जो इस विषय पर प्रकाशित पहली पुस्तक थी। उन्होंने महिलाओं और दमित जातियों को शिक्षित करने का अभियान चलाया और इस सबसे आगे बढ़कर, उन्होंने भारत के दमित लोगों – स्त्री, शूद्र और अतिशूद्र – की एकता पर बल दिया। उनका मानना था कि अगर ये तीनो वर्ग एकजुट हो सके तो वे स्वयं को दासता से मुक्त कर सकेंगे और अपने अधिकार हासिल कर पायेंगे। इसी उद्देश्य से उन्होंने 24 सितंबर, 1873 को सत्यशोधक समाज नामक संस्था की स्थापना की, जो एक नए सामाजिक-आध्यात्मिक आंदोलन की जनक बनी।

सावित्री, सत्यशोधक समाज की महिला इकाई की प्रमुख थीं। इस समाज की बैठक हर सप्ताह पुणे में आयोजित होती थी, जिसमें महिलाओं की शिक्षा और विधवा पुनर्विवाह जैसे मुद्दों पर चर्चा होती थी। अक्सर पूरे परिवार इस संस्था के सदस्य बनते थे। सत्यशोधक समाज ने आमजनों को पुरोहितों के चंगुल से निकालने के लिए बिना ब्राह्मण पंडितों और धार्मिक कर्मकांडों के विवाह करवाने शुरू किए। इन विवाहों में वर और वधु केवल यह शपथ लेते थे कि वे एक-दूसरे के प्रति समर्पित रहेंगे और समाज की भलाई के लिए काम करेंगे। इन विवाहों से भारत में अंतर्जातीय और अंतरधार्मिक सिविल विवाहों की नींव पड़ी।

सत्यशोधक समाज ने जाति और लिंग से जुड़े मुद्दों पर बहस और चर्चा के लिए मंच उपलब्ध करवाया। फुले ने सतीप्रथा – जिसके अंतर्गत महिलाएं अपने पति की चिता पर स्वयं को भस्म कर लेती थीं – की कड़ी निंदा की। उन्होंने पूछा कि क्या किसी महिला की मृत्यु पर उसका पति, उसकी चिता पर बैठकर अपना जीवन समाप्त करने के लिए तैयार है।

सन 1870 के दशक में फुले दंपत्ति ने अकाल पीड़ितों की मदद के लिए बहुत काम किया। उन्होंने अकाल के कारण अनाथ हो गए बच्चों के लिए 52 रहवासी स्कूल स्थापित करने में मदद की।

महात्मा फुले की मृत्यु 28 नवंबर, 1890 को हो गई। उनके अंतिम संस्कार में भी सावित्रीबाई ने अनूठे साहस का प्रदर्शन किया। शमशान घाट में जब यह बहस शुरू हुई कि अंतिम संस्कार गोद लिए हुए पुत्र द्वारा किया जाना चाहिए या किसी रिश्तेदार द्वारा, तो सावित्रीबाई ने आगे बढ़कर यह कहा कि वे स्वयं अपने पति को मुखाग्नि देंगी और उन्होंने ऐसा किया भी। आज भी किसी हिन्दू पत्नी द्वारा अपने पति की चिता को अग्नि देना बहुत हिम्मत का काम माना जाता है। आज से सवा सौ साल पहले सावित्रीबाई ने यह कर दिखाया था। इस घटना से समाज में माने भूचाल सा आ गया। इससे यह पता चलता है कि सावित्रीबाई की सोच कितनी स्वतंत्र और मौलिक थीं और वे अपने विचारों और सिद्धांतों को अपने व्यक्तिगत जीवन में भी लागू करती थीं।

अपने पति की मृत्यु के बाद, सावित्रीबाई ने सत्यशोधक समाज का नेतृत्व संभाल लिया। उन्होंने सासवाण में 1893 में आयोजित समाज की बैठक की अध्यक्षता की। सन 1896 के अकाल में सावित्रीबाई ने अनवरत लोगों की सहायता की और सरकार पर यह दबाव बनाया कि वह राहत कार्य शुरू करे। सन 1897 में पुणे में प्लेग की महामारी फैली। हमेशा की तरह, सावित्रीबाई एक बार फिर पीड़ितों की सेवा में जुट गईं। प्लेग ने उन्हें भी नहीं छोड़ा और 10 मार्च, 1897 को इस बीमारी के कारण उनका निधन हो गया।

सावित्रीबाई एक व्यक्ति के रूप में

सावित्रीबाई एक सार्वजनिक व्यक्तित्व तो थीं हीं, उनका एक नितांत निजी व्यक्तित्व भी था, जिसके कई रंग थे। मैंने सावित्रीबाई के रचनात्मक लेखन के आधार पर उनके मोहक व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं को प्रस्तुत करने की कोशिश की है।

सावित्रीबाई की कविताओं का पहला संग्रह, ‘काव्य फुले’ 1854 में प्रकाशित हुआ था। तब वे महज़ 23 वर्ष की थीं। यह मानने में कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए कि उन्होंने इन कविताओं को कम से कम दो-तीन साल पहले लिखना शुरू किया होगा, अर्थात जब उनकी उम्र 20 वर्ष के आसपास रही होगी। उनकी कविताओं में गंभीर विचार थे तो श्रृंगार रस भी। उनकी कविताओं में चंचलता थी तो अभिलाषाएं और स्वप्न भी। उनकी रचनाओं से वे एक ऐसी महिला के रूप में उभरती हैं जो विवेकशील, आधुनिक, प्रगतिशील, प्रतिबद्ध, आत्मविश्वास से परिपूर्ण और जीवंत है। मैंने उनकी कविताओं को अलग-अलग शीर्षकों के अंतर्गत वर्गीकृत कर उनके व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं को उजागर करने का प्रयास किया है।

क्रांतिकारीः उनकी कविताओं के निम्न छंद, सावित्री की तत्कालीन सामाजिक यथार्थ की समझ को प्रतिबिम्बित करते हैं। वे व्यवस्था में अंतर्निहित शोषण की कड़े शब्दों में निंदा करती हैं। उनकी भाषा सीधी और तीखी है और जाति व लिंग के मुद्दों पर वे अपनी बात बिना किसी लागलपेट के कहती हैं:

मनु कहते हैं
रीतिरिवाजों का आधार है भेदभाव,
धूर्त और कुटिल लोगों की यह नीति कितनी अमानवीय है।
क्या उन्हें मनुष्य कहा जाए?
पौ फटने से गोधुली तक, महिला करती है श्रम,
पुरूष उसकी मेहनत पर जीता है, मुफ्तखोर,
पक्षी और जानवर भी एक साथ मिलकर काम करते हैं,
क्या इन निकम्मों को मनुष्य कहा जाए?

तितली और कली
वह उसके सुंदर रूप को मसल डालता है,
वह तूफान के मानिन्द उस पर टूट पड़ता है,
वह उसके मधु को सोख लेता है,
और फिर उस निष्प्राण क्लांत, शरीर को ठुकरा देता है…
…कौनसी कली?
वह पूछता है, पुराने को भूलना और नए को ढूंढना उसका काम है,
धोखे और स्वच्छंदता की यह दुनिया,
मैं भौचक्की हूं इसे देखकर, सवित्री कहती हैं।

स्वतंत्र सोचः सावित्री आज के मानकों के हिसाब से भी बहुत आधुनिक थीं। वे परंपरा, अंधश्रद्धा और अंधविश्वासों पर प्रश्न उठाती थीं और मनुष्यों से उनकी अपेक्षा यह थी कि वे एक-दूसरे और प्रकृति के साथ समन्वय से रहें।
अंग्रेज़ी, माँ (एक)
रस्मों-रिवाजों का जुआ उतार फेंको,
परंपरा के द्वार को बलपूर्वक खोल दो।
संकल्प
एक चिकना गोल पत्थर, उस पर तेल और कुमकुम का लेप,
और देखो, वह कैसे बन जाता है देवगणों का हिस्सा।
भैंसे और न जाने क्या-क्या, कितने डरावने हैं ये भगवान,
फिर भी लोग मानते हैं उन्हें अपना तारणहार…
…अगर पत्थर सुन सकते प्रार्थना और उन्हें दे सकते बच्चे,
तो फिर पुरूषों और महिलाओं की शादी की ज़रूरत ही क्या है?
मनुष्य और प्रकृति
आओ हम मनुष्यों की इस दुनिया को संवारें और बढ़ें आगे,
सभी भयों और तनावों से मुक्त हों, जियें और जीने दें ,
मनुष्य और सारी सृष्टि एक ही सिक्के के दो पहलू हैं,
इस अमूल्य संपदा की रक्षा के लिए हम हाथ मिलाएं।

रूमानीः सावित्रीबाई के व्यक्तित्व का एक रूमानी पक्ष भी था, जो सदियों के अनुकूलन और समाज द्वारा महिलाओं पर थोपी गई वर्जनाओं के बावजूद, उनकी कविताओं में खुलकर सामने आता है। उनकी निम्न पंक्तिओं में कामोन्माद का प्रचंड प्रवाह देखें।
बावली कविता और बावला कवि
(वह फरिश्ता) शर्मीली सी है उसकी मुस्कुराहट,
मधुर हैं उसकी बातें, वह उसे उसकी ओर खींचता है,
और आवेग में चूम लेता है।
सुनहरी चंपा
जैसे मदन करता है आकर्षित अपनी प्रियतमा रति को,
वैसे ही चंपा जगाती है कवि की संवेदनाएं,
…वह देती है आनंद और ऐन्द्रिक सुख,
पारखी को करती है प्रसन्न और फिर नष्ट हो जाती है।
जाई फूल
…एकदम शुभ्र, नशीली खुशबू से लबरेज़,
वह अपनी कोमल चमक से करता है मुझे प्रफुल्लित।
उसकी मीठी मुस्कुराहट और शर्मीली नज़र,
मेरे दिमाग को ले जाती है किसी दूसरी दुनिया में।

स्वप्नदृष्टाः ‘काव्य फुले’ (1854) में सावित्रीबाई की कविताएं, उन्हीं विचारों को प्रगट करती हैं जो जोतिबा फुले द्वारा लिखित ‘गुलामगिरी’ (1873) में उपस्थित हैं। इसे दर्शाने के लिए मैंने ‘गुलामगिरी’ के कुछ अंशों की तुलना ‘काव्य फुले’ की कविताओं से की है।
हमारी भूमि के मूलनिवासियों के बारे में

‘काव्य फुले’ से

अंग्रेज़ी, माँ (एक)
भारत किसी का नहीं है,
ना ईरानियों का, ना यूरोपीयों का, ना तातारों का और ना हूणों का,
उसकी नसों में बहता है यहां के मूलनिवासियों का रूधिर।
‘शूद्र’ शब्द का अर्थ
‘शूद्र’ का असली अर्थ था मूलनिवासी,
परंतु शक्तिशाली विजेताओं ने ‘शूद्र’ को बना दिया एक गाली।
ईरानियों और ब्राह्मणों, ब्राह्मणों और अंग्रेज़ों,
सब पर अंतिम विजय प्राप्त की शूद्रों ने, क्रांतिकारी थे वे।
मूलनिवासी थे समृद्ध,
वे ‘भारतीय’ के नाम से जाने जाते थे।
ऐसे वीर थे हमारे पूर्वज,
और हम इन लोगों के वंशज हैं।
गुलामगिरी से

…ब्राह्मण इस देश के मूलनिवासी नहीं थे। सुदूर अतीत में, शायद आज से तीन हज़ार साल पहले, आज के ब्राह्मणों के पुरखे, हिन्दुकुश के मैदानी इलाके और उससे जुड़े क्षेत्र में दाखिल हुए।

…वे उस विशाल भारतीय/यूरोपीय नस्ल की प्रशाखा थे, जिससे एशिया में ईरानी, मीड्स और एशिया के अन्य ईरानी देशों के नागरिक और यूरोप के मुख्य देशों के रहवासी उत्पन्न हुए (पृष्ठ 27)।

…जो आर्य भारत आए वे सामान्य प्रवासी नहीं थे और ना ही उनका इरादा शांतिपूर्ण तरीके से यहां अपने उपनिवेश का निर्माण करना था। वे विजेता के रूप में आए…

…जिन मूलनिवासियों को आर्यों ने अपना गुलाम बनाया या विस्थापित किया, उनके द्वारा आर्यों का जिस दृढ़ता से मुकाबला किया गया, उससे ऐसा प्रतीत होता है कि वे साहसी और निडर थे। उनके लिए आर्यों द्वारा शूद्र (तुच्छ), महारी (बड़ा शत्रु), अथयंज, चांडाल इत्यादि जैसे तिरस्कारपूर्ण शब्दों का उपयोग किए जाने से ऐसा लगता है कि इन लोगों ने आर्यों के इस देश में स्वयं को स्थापित करने के प्रयास का सबसे कड़ा विरोध किया था और इसलिए आर्य उनसे द्वेष रखते थे और घृणा करते थे…(पृष्ठ 27)।
बाली के राज्य की समृद्धि पर

काव्य फुले से

राजा बाली की स्तुति
बाली राज्य का शासक था पुण्यात्मा दानव-राज,
बाली उदार था और उसके प्रजाजन थे प्रसन्न, उन्हें किसी चीज़ की कमी न थी,
उसके राज में सभी थे संतुष्ट, तीनों लोक उसके गुण गाते थे,
उसके स्वतंत्र देश में वैज्ञानिक विमर्श होते थे,
पवित्र यज्ञ की ज्वाला हमेशा रहती थी प्रकाशित, दान में दिया जाता था सोना,
रत्न जड़ित मुकुट पहनकर शाही युगल, करता था दान पुण्य,
उनकी पत्नी विन्ध्यावली हमेशा उनके साथ रहती थीं,
आईए, हम उस शासक युगल को याद करें और मिलकर उसकी प्रशंसा के गीत गाएं…
हे पावन नेक आत्मा, राजा बाली,
लोग प्रतिदिन करते हैं आपकी स्तुति।
मधुर स्मृतियां
हर किसान हो महान राजा बाली की तरह सदाशय,
और मेरा गांव हो बाली के काश्यापुर जैसा समृद्ध।

गुलामगिरी से
…परंतु आगे चलकर, पददलितों का महान हिमायती, पवित्रों में पवित्रतम, महान मनीषी और सत्य का शोधक बाली राजा इस दुनिया में आया… (पृष्ठ 73)।
…उसने (बाली राजा) अपने दरिद्र, दमित बंधुओं को गुलामी की जंजीरों से मुक्त किया… और धरती पर ईश्वर का राज स्थापित करने का उद्यम किया…(पृष्ठ 74)।
जातिच्युतों पर

‘काव्य फुले’ से
जातिच्युतों की व्याधि
दो हज़ार साल से जातिच्युत इस व्याधि से पीड़ित हैं,
यह व्याधि है बंधुआ मज़दूरी की, ज़मींदार धकेलते रहे हैं उन्हें गुलामी में।
खेती ईश्वरीय है
…जो खेतों में करते हैं मशक्कत, वे जातिच्युत हैं,
वे पैदा करते हैं उस भोजन को जिसे ऊँची जातियां उड़ाती हैं…
शूद्रों की निर्भरता
जातिच्युत और अछूत हैं पीड़ित हैं अज्ञानता से,
भगवान, धर्म, रस्मोरिवाज़ और निर्धनता से।

गुलामगिरी से

सैंकड़ों सालों से शूद्रों और अतिशूद्रों ने ब्राह्मणों के शासन में अनेकानेक कष्ट भुगते और अत्यंत निम्न परिस्थितियों में जीवनयापन किया है…(पृष्ठ 36)।
…ब्राह्मणों ने उन्हें ज्ञान से वंचित कर जहालत की दयनीय अवस्था में धकेल दिया है…
…वे गरीब, अज्ञानी लोगों को यह समझाने में सफल रहे हैं कि ईश्वर की दृष्टि में भी उनकी गुलामी औचित्यपूर्ण है…(पृष्ठ 37)।

…लोगों को अपने चंगुल में फंसाए रखने के लिए उन्होंने पौराणिकता का अलौकिक जाल बुना, जाति का विधान बनाया और क्रूर व अमानवीय कानूनों की संहिताओं का निर्माण किया…

…इन झूठों को गढ़ने के पीछे उनका मुख्य लक्ष्य था अज्ञानियों को मूर्ख बनाना और उन्हें गुलामी की जंज़ीरों में हमेशा के लिए बांध देना…(पृष्ठ 30)।
मनु, मनुवाद और ब्राह्मण वर्चस्व पर
काव्य फुले से

 मनु कहते हैं
जो लोग खेतों में करते हैं काम और पकड़ते हैं हल का मूठ,
वे जड़बुद्धि हैं, कहते हैं मनु।
और ब्राह्मणों के लिए क्या है उनकी आज्ञा?
मनुस्मृति कहती है ‘‘खेत में श्रम न करो’’…
अंग्रेज़ी माँ (एक)
…असंख्य चालों से ब्राह्मणवादी धर्म,
‘शूद्रों’ का करता है शोषण और उन पर अपशब्दों की वर्षा…
शूद्रों की निर्भरता
बिना कोई काम किए ब्राह्मण सन्यासी घूमते हैं एक जगह से दूसरी जगह और मांगते हैं भिक्षा,
और शूद्रों से कहते हैं कि निशुल्क सेवा है पवित्र।
गुलामगिरी से

सबसे ज्यादा अधिकार, सबसे ज्यादा सुविधाएं और सबसे बड़े उपहार, जो ब्राह्मणों के जीवन को आसान और प्रसन्न बना सकें वे (जाति की संस्था में) विशेष रूप से शामिल किए गए, जबकि शूद्रों और अतिशूद्रों को यह संस्था घोर घृणा और तिरस्कार की दृष्टि से देखती थी और उन्हें सामान्य मानवीय अधिकार भी उपलब्ध नहीं थे… उन्हें केवल संपत्ति समझा जाता था…(पृष्ठ 29)।

…पिछली अनेक पीढ़ियों से वे (शूद्र व अतिशूद्र) गुलामी और दासता की बेड़ियों में जकड़े हुए हैं… प्रभुत्वशाली ब्राह्मण केवल उनके पसीने पर जीते थे और उन्हें उनकी भलाई की कोई चिंता नहीं थी… (पृष्ठ 31)।

अंग्रेज़ तारक
काव्य फुले से
अंग्रेज़ी, माँ (एक)
अंग्रेज़ी शासन साथ लाया है जाति के आतंक से मुक्ति,
अंग्रेज हमारे तारक हैं।
अंग्रेजी, माँ (दो)
अंग्रेज़ी माँ उन्हें दिलाती है उनकी पशुवत जिंदगी से मुक्ति,
उसके मार्गदर्शन में शूद्रों को मिलती है मानवीय गरिमा।
‘गुलामगिरी‘ से

अंग्रेज़ों ने उन्हें (शूद्र और अतिशूद्र) ब्राह्मणों की कैद से मुक्त किया और उन्हें व उनकी संतति को सुख के दिन दिखाए। अगर अंग्रेज़ नहीं होते तो ब्राह्मण उन्हें पीस डालते (पृष्ठ 44)।

सावित्री फुले के ‘काव्य फुले’ (1854) और जोतिबा फुले की ‘गुलामगिरी’ (1873) की इस तुलना से हम निम्न निष्कर्षों पर पहुंच सकते हैं:

सावित्रीबाई इन विचारों की मूल स्त्रोत थीं और जोतिबा ने आगे चलकर उनके विचारों को विकसित किया और उन्हीं के आधार पर अपनी प्रसिद्ध व अभिनव कृति ‘गुलामगिरी’ लिखी।
जोतिबा के मन में इन विचारों ने 1850 के दशक में ही जन्म ले लिया था और उन्होंने सावित्री से अपने विचार सांझा किए। सावित्री ने इन विचारों को आत्मसात किया और ये विचार उनके रचनाकर्म में झलके।
अगर हम यह भी मान लें कि दूसरा निष्कर्ष सही है, अर्थात सावित्री को यह विचार उनके पति जोतिराव से मिले, तब भी हमें यह स्वीकार करना होगा कि वे एक बहुत अच्छी शिष्या थीं और जो उन्हें सिखाया गया, उन्होंने उसे आत्मसात किया। उनकी कविताओं से यह जाहिर है कि उन्हें अपने विचारों पर पक्का विश्वास था और वे अपने पाठकों को भी अपने विचारों से सहमत करने में सक्षम थीं। हमें जोतिबा की भी प्रशंसा करनी होगी कि उन्होंने अपनी युवा पत्नी से अपने विचार सांझा किए। आने वाले समय में जोतिबा शोषितों की मुक्ति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले हैं, यह सावित्री ने बहुत पहले ही समझ लिया था। वे अपनी कविताओं में स्पष्ट शब्दों में यह भविष्यवाणी करती हैं।

भोर का आलाप
जोतिबा हैं अछूतों के क्षितिज का सूरज,
जिसकी चमक अतुलनीय है।

वे जोतिबा को पददलितों के मसीहा के रूप में देखती हैं और यह तब, जब जोतिबा ने मानवता की भलाई के लिए काम करना शुरू ही किया था। इस अर्थ में वे एक भविष्यदृष्टा थीं। अगले 30 वर्षों में जो घटा उससे यह साबित हुआ कि वे सही थीं।

साहित्यकार सावित्री
सावित्री की कविताओं का एक और संग्रह ‘‘बावन काशी सुबोध रत्नाकर’’ (असली मोतियों का सागर) सन 1891 में प्रकाशित हुआ। यह छंद में महात्मा फुले – जिस नाम से जोतिराव अपने जीवन के अंतिम काल में जाने जाते थे – की जीवनी है। जोतिबा ने प्राचीन और मध्यकाल में मराठाओं के इतिहास की ब्राह्मणवादी व्याख्या के परखच्चे उड़ा दिए थे। सावित्रीबाई का यह कविता संग्रह उनके महान पति के बारे में तो है ही, वह मराठा इतिहास के बारे में भी है। सावित्री ने भारतीय इतिहास पर जोतिबा के चार भाषणों को संपादित कर उन्हें प्रकाशित भी करवाया था। सावित्री के कुछ भाषण 1892 में प्रकाशित हुए थे।

जोवित्री: सावित्री और जोतिबा के परस्पर रिश्ते
जोतिबा और सावित्री के रिश्ते इस अर्थ में असाधारण थे कि वे पति-पत्नी से ज्यादा एक-दूसरे के मित्र थे। वे एक-दूसरे के प्रति और अपने सामाजिक सरोकारों के प्रति पूरी तरह प्रतिबद्ध थे। उनके बीच पूर्ण सामांजस्य था और उनके रिश्ते प्रसन्नता से परिपूर्ण थे। यह उनकी निम्नांकित कविताओं से स्पष्ट है। सबसे बड़ी बात यह है कि वे एक-दूसरे को बराबरी का दर्जा देते थे। ध्यान दीजिए कि सावित्री अपने पति का नाम लेती हैं। यह उस दौर में क्रांतिकारी ही कहा जा सकता है।

 पारिवारिक सुख का पथ
जोतिबा मेरे जीवन को आनंद से भरते हैं,
जैसे मधु भरती है, फूल को,
मैं सौभाग्यशाली हूं, इतने विख्यात व्यक्ति का साथ पा,
मेरी खुशी की कोई सीमा नहीं है…

जोतिबा उनके शिक्षक थे और उन्होंने ही सावित्री के व्यक्तित्व को गढ़ा। उन्होंने न केवल सावित्रीबाई को साक्षर बनाया बल्कि उनके मन में ज्ञान पिपासा और समाज का भला करने की उत्कट इच्छा भी उत्पन्न की। यह उनकी कविताओं में झलकता है।

जोतिबा को सलाम
मैं जोतिबा को करती हूं सलाम, अपने ह्दय की गहराईयों से,
वे देते हैं हमें ज्ञान का अमृत और आशा, जीने का एक नया तरीका,
महान जोति कमजोर, अछूतों और जातिच्युतों का आव्हान करते हैं,
हमें देते हैं ज्ञान का उपहार और हमारे अतीत को करते हैं पुनर्जीवित,

जोतिबा की शिक्षाएं
मैं जोतिबा, मेरे प्रिय सरताज, का करती हूं अभिवादन,  ,
उनके मधुर शब्द गूंजते हैं मेरे कानों में,
मैं जातिच्युत महार-मांग की करती हूं सेवा,
मेरे सरताज की यादें मेरे दिल में बसी हुई हैं…
…मैं जोतिबा के शब्दों पर करती हूं विचार, उन्हें मेरे मन में गुनती हूं,
जो परोपकार के लिए करते हैं काम, वे महान मानव कहलाते हैं।
जोतिबा की शिक्षाएं हैं अनुभव से उपजीं,
मैं, सावित्री, उन्हें अपने दिल के सबसे अंदरूनी कोने में रखती हूं संभालकर

सावित्रीबाई द्वारा जोतिबा को लिखे गए तीन पत्र, साहित्य की अमूल्य निधि हैं। ये पत्र उन्होंने तब लिखे थे जब वे अपने माता-पिता के घर पर थीं। उस दौर में महिलाएं पत्र नहीं लिखा करती थीं और अपने पति को पत्र लिखने का तो प्रश्न ही नहीं था। इन पत्रों में वे अपने पति को उनके नाम से संबोधित करती हैं और सामाजिक विषयों पर अपने विचार प्रकट करती हैं। ऐसा लगता है मानो दो मित्र या अभिन्न साथी अपनी सार्वजनिक और निजी जिंदगी के बारे में एक-दूसरे से संवाद कर रहे हों। इन पत्रों से उनके बीच का परस्पर प्रेम और विश्वास जाहिर होता है।

मैं यहां इनमें से एक मार्मिक पत्र को उद्धृत कर रही हूं।

29 अगस्त, 1867
नायगांव, पेटा खंडाला,
सतारा
सत्य के मूर्त रूप, मेरे सरताज, जोतिबा,
सावित्रीबाई आपको नमस्कार करती है।
मुझे आपका पत्र मिला। हम लोग यहां ठीक हैं। मैं अगले माह की पांच तारीख तक आऊंगी। आप मेरी चिंता न करें। इस बीच यहां एक अजीब घटना घटी। पूरी कहानी इस प्रकार है। गणेश नाम का एक ब्राहमण गांव-गांव घूमकर पूजा-पाठ करवाता था और लोगों को उनका भविष्य बतलाता था। यही उसके जीवनयापन का जरिया था। गणेश और शरजा नाम की एक किशोरी, जो महार (अछूत) समुदाय से थी, में प्रेम हो गया। जब लोगों ने उन्हें पकड़ा तब उसे छःह माह का गर्भ था। उन्हें जुलूस में गांव में घुमाया गया और लोगों ने यह धमकी दी कि उन दोनों को मार डाला जाएगा।
मुझे हत्या की इस योजना के बारे में पता लगा। मैं उस जगह गई और मैंने लोगों को डराया कि अंग्रेजी कानून में प्रेमी युगल की जान लेने के कितने गंभीर परिणाम हो सकते हैं। मेरी बात सुनने के बाद उन्होंने अपना इरादा त्याग दिया।
साधुभाऊ ने गुस्से में कहा कि इस कुटिल ब्राहमण और अछूत लड़की को गांव छोड़ देना चाहिए। दोनों इसके लिए राजी हो गए। मेरे हस्तक्षेप से इस युगल की जान बच गई। वे मेरे पैरों पर गिरकर रोने लगे। मैंने किसी तरह उन्हें सांत्वना दी और चुप कराया। अब मैं उन दोनों को आपके पास भेज रही हूं।
और क्या लिखूं?
आपकी
सावित्री
निःसंदेह ‘जोवित्री‘ 21वीं सदी के प्रतिमानों से भी सच्चे अर्थों में एक आधुनिक दंपत्ति थे।
विरासत
फुले दंपत्ति एक-दूसरे के बहुत नजदीक थे और प्रेम के अटूट बंधन में बंधे हुए थे। वे एक-दूसरे से प्रेम करते थे, एक-दूसरे का सम्मान करते थे और एक-दूसरे के प्रति पूरी तरह वफादार थे। वे एक-दूसरे के और अपने सामाजिक कार्यों के प्रति प्रतिबद्ध थे।
सावित्री शायद आधुनिक भारत की पहली ऐसी महिला थीं, जिसकी रचनाएं प्रकाशित हुईं। जिस दौर में सभी वर्गों की महिलाओं को दबाया और कुचला जाता था, उस समय उन्होंने अपनी आवाज बुलंद की। इस कार्य में उनके पति और गुरू जोतिबा ने उनके साथ सक्रिय सहयोग किया और उन्हें लगातार प्रोत्साहन दिया।
सावित्री अपने समय का महान व्यक्तित्व थीं। वे अपने पति की योग्य और प्रतिबद्ध जीवनसाथी तो थीं हीं, वे अपने आप में भी एक क्रांतिकारी नेता थीं। ढेर सारी बाधाओं के बावजूद वे एक प्रेरणास्पद और निपुण शिक्षक, नेता, चिंतक और लेखक बनीं।
सावित्रीबाई की जीवनगाथा उनके असाधारण साहस और सत्यनिष्ठा को प्रतिबिम्बित करती है। 19वीं सदी के महाराष्ट्र में सावित्रीबाई को जाति, वर्ग और लिंग की दीवारें उनके संकल्पों को पूरा करने से रोक न सकीं।
संदर्भः
ब्रजरंजन मणि, पमेला सरदार, संपादित, ए फोरगोटन लिबरेटरः द लाईफ एंड स्ट्रगल ऑफ़ सावित्रीबाई फुले, माउंटेन पीक, नई दिल्ली, 2008
देशपांडे जी.पी., सिलेक्टिड राईटिंग्स ऑफ़ जोतिराव फुले, लेफ्ट वर्ड, 2002
हरि नारके, दन्यनज्योति सावित्रीबाई फुले, सावित्री फुले मेमोरियल लेक्चर, एनसीईआरटी, 2010
हरि नारके, संपादित, साहित्य अणि चलवल, मराठी, महाराष्ट्र सरकार, 2006
ललिता धारा, संपादित, फुलेस एंड वीमेन्स क्वेश्चन, डा. अंबेडकर कालेज ऑफ़ कामर्स एंड इकोनोमिक्स, मुंबई, 2011
ललिता धारा, संपादित, काव्य फुले (अंग्रेज़ी अनुवादः उज्जवला माथरे), डा. अंबेडकर कॉलेज ऑफ़ कामर्स एंड इकोनोमिक्स, मुंबई, 2012
एम.जी. माली, क्रांतिज्योति सावित्रीबाई जोतिराव फुले, आशा प्रकाशन, गरगोटी, 1980
डा. एम.जी. माली, सावित्रीबाई फुले-समग्र वांग्मय, महाराष्ट्र राज्य साहित्य संस्कृति मंडल, मुंबई, 2006 (प्रथम संस्करणः 1988)
डा. के.पी. देशपांडे, अग्निफुलेः सावित्रीबाई फुले यांची कविताः स्वरूप अणि समीक्षा, नूतन प्रकाशन, पुणे, 1982

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें