रविवार, 28 अप्रैल 2019

एक ऐतिहासिक शोध-

एक ही मूल से निकला है देश भर में फैला और विविध नामों से पुकारे जाने वाला सम्पूर्ण सैनी समाज

- जगदीश यायावर (सैनी)
आज देश भर में फैले सैनी, माली, कुशवाहा, शाक्य, मौर्य आदि विभिन्न नामों से पुकारे जाने वाले समुदाय के लोग अपने अलग-अलग नामों के पीछे की कहानी को अलग-अलग प्रकार से बताते हैं और वे इस असमंजस में रहते हैं कि हम सब एक ही हैं अथवा अलग-अलग हैं। ऐसे सवाल अनेक बार काफी जगहों पर सामने आते हैं। मेरे समक्ष भी ऐसे प्रश्न किये गये, इसी कारण मैंने इसका समाधान खोजने का प्रयास इतिहास में झांक कर किया है। देश-काल और परिस्थितियों और बताये गये इतिहास के कारण ही इस पूरे समाज के एक होने या नहीं होने के भ्रम फैल गये हैं। इतिहास में खोजने पर इसका कुछ समाधान अवश्य मिलता है। इस मार्शल कौम में अन्य कई नामों से पुकारे जाने वाले समुदाय भी इसी का अभिन्न हिस्सा है और इनमें एकता के लिये आजकल शुरू किये गये परस्पर विवाह-सम्बंधों को अधिक बढावा देने की जरूरत है।
सबका मूल है एक
सैनी कुल में आने वाले भागीरथी सैनी अपने आपकोे धरती पर गंगा का अवतरण करवाने वाले महाराज भागीरथ से जोड़ते हैं। माली कहे जाने वाला समुदाय अपने काम-धंधे के कारण माली कहलाया, क्योंकि इस जाति के लोग फलों और फूलों के बगीचे लगाने में माहिर थे और इसी कारण इन्हें माली, बागवान, फूलमाली आदि नामों से पुकारा जाने लगा। कुशवाहा कहे जाने वाला समुदाय अपने आपको भगवान श्रीराम के पुत्र कुश के वंशज मानते हैं। शूरसैनी या सैनी कहे जाने वाले सभी बंधुओं का मानना है कि वे भगवान श्रीराम के भाई शत्रुघ्न के पु़त्र शूरसेन हुये और शूरसेन के पुत्र महाराज सैनी थे और ये महाराजा सैनी ही सैनी वंश के प्रवर्तक माने जाते हैं। इसी प्रकार सैनी समाज के ही वंश में उत्पन्न महात्मा बुद्ध के वंशज शाक्य और सम्राट चन्द्रगुप्त के वंशज मौर्य कहलाये। इस सभी वंशों के अतीत में इनके एक ही मूल से निकलना सिद्ध होता है।
इक्ष्वाकु वंश से होता गया विस्तार
सबके आदि पुरूष माने जाने वाले विवस्वत मनु से सूर्यवंश एवं चन्द्र वंश स्थापित किये गये और उनका प्रसार हुआ। सूर्य वंश में कालान्तर में इक्ष्वांकु वंश, सगर वंश, रघुवंश, भागीरथी वंश, शूरसेन वंश आदि अनेक कुलों और वंशों की उत्पति हुई। वैवस्वत मनु के एक कन्या और 8 पुत्र माने गये हैं। इनमें सबसे बड़ा पुत्र इक्ष्वांकु थे, जिनकी राजधानी अयोध्या थी। इक्ष्वाकु की 19वीं पीढी बाद महान चक्रवर्ती सम्राट मान्धाता हुये। मान्धाता की 12 पीढी पश्चात राजा त्रिशंकु के पुत्र सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र हुये। हरिश्चन्द्र की 8वीं पीढी में राजा सगर हुये। राजा सगर के पौत्र अंशुमान और उसके पुत्र राजा दिलीप हुये। उनके बाद भागीरथी वंश के प्रवर्तक राजा भागीरथ हुये, जो महान तपस्या के बाद गंगा नदी को धरती पर लाये थे। भागीरथ के बाद 17वें वंश में रघुकुल या रघुवंश के संस्थापक राजा रघु हुये। राजा रघु के अज हुये और अज के राजा दशरथ हुये। दशरथ के 4 पुत्र थे- राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न। इनमें से सबसे बड़े भगवान राम थे, जिनके पुत्र कुश से कुशवाहा वंश चला। इनके छोटे पुत्र शत्रुघ्न के पुत्र शूरसेन हुये और शूरसेन के पु़त्र महाराजा सैनी हुये थे। इन्ही महाराजा सैनी को सैनी वंश का प्रवर्तक माना जाता है। आगे चलकर भगवान बुद्ध भी इसी वंश में हुए। उनसे शाक्य वंश प्रारम्भ हुआ। मौर्य वंश सूर्यवंश के महाराज मान्धाता के छोटे भाई मंधात्री के वंशज है। महाराजा चंद्रगुप्त मौर्य से मौर्य वंश प्रारम्भ हुआ। मौर्य के असली वंशज परमार हैं। भगवान बुद्ध, चन्द्रगुप्त मौर्य, सम्राट अशोक आदि सभी के पूर्व इसी वंश से हैं। माहुर या महावर कहलाने वाले माली और मुरार वंश भी इसी वंश से हैं। माहुर का अर्थ होता है पहले के। और मथुरा से उठे हुये ये माहुर प्रारम्भ के माली समाज के बंधु हैं।
क्या सैनी चन्द्रवंशी भी हैं
जहां भागीरथी सैनी अपने आपको सूर्यवंशी और इक्ष्वाकु वंशी मानते हैं, वहीं पंजाब के काफी सैनी अपने को चन्द्रवंशी और यदुवंशी भी मानते हैं। महाराजा सैनी को भी सूर्यवंश और चन्द्रवंश में माना जाता है। सूर्यवंश वाले जहां शत्रुघ्न के वंशजों को सैनी मानते हैं, वहां चन्द्रवंशी मानने वालों का मत दूसरा हैं। सैनी वंश के सम्बंध में दूसरा मत यह है कि सैनी यदुवंशी और चन्द्रवंशी थे और उनके वंश में भगवान कृष्ण का जन्म हुआ था। कहा जाता है कि इन सैनी राजाओं की वंशावली राजा धर्मपाल से शुरू होती है। इसमें 77वीं पीढी में कृष्ण मथुरा के राजा बने। यह कमान (कादम्ब वन) के चौसठ खंभा शिलालेख में है, जिसे किसी इतिहासकार ने आज तक चुनौती नहीं दी है। राजस्थान के करौली का राजघराना इन्हीं सैनी राजाओं का वंशज है। चौधरीलाल सैनी की ‘‘तारीख कुआम शूरसैनी’’ का मत है कि चंद्रवंशी राजा यदु की संतान को यादव कहा जाने लगा। इसी वंश में 42 पीढ़ियों के बाद क्षेत्र के आसपास एक शासक का जन्म हुआ, जिसका नाम राजा शूरसेन था। राजा शूरसेन ने मथुरा और आसपास के क्षेत्रों को नियंत्रित किया। इनके वंशजों को बाद में शूरसैनी या सैनी समुदाय कहा जाने लगा। लेकिन इनका मूल भी वैवस्वत मनु से ही प्रारम्भ होता है, जिनके पुत्र सूर्य और चन्द्र भाई थे। चन्द्र के पुत्र बुद्ध से चन्द्रवंश का प्रारम्भ हुआ और उसी से यदुवंश निकला था।
तोमर-जादों वंश के कहलाये सैनी
11वीं शताब्दी में भारत पर गजनी के मुसलमानों के आक्रमण शुरू हो गए और लाहौर की कबुलशाही राजा ने भारत के अन्य राजपूतों से सहायता मांगी। इसी दौरान दिल्ली और मथुरा के तोमर-जादों (सैनी) राजाओं ने राजपूत लश्कर पंजाब में किलेबन्दी और कबुलशाहियों की सुरक्षा के लिए भेजे। इन्होने पंजाब में बहुत बड़ा इलाका तुर्क मुसलमानांे से दुबारा जीत लिया और जालंधर में राज्य बनाया जिसकी राजधानी धमेड़ी (वर्तमान नूरपुर) थी। धमेड़ी का नाम  कृष्णवंशी राजा धर्मपाल के नाम से सम्बन्ध होना पूर्ण रूप से संभावित है और सैनी और पठानिआ राजपूतों की धमड़ैत खांप का सम्बन्ध इन दोनों से है। धमेड़ी का किला अभी भी मौजूद है और यहाँ पर तोमर-जादों राजपूतों का तुर्क मुसलमानो के साथ घमासान युद्ध हुआ। तोमर-जादों राजपूतों और गजनी के मुसलमानों का युद्ध क्षेत्र लाहौर और जालंधर (जिसमे वर्तमान हिमाचल भी आता है) से मथुरा तक फैला हुआ था। यह युद्ध लगभग 200 साल तक चले। इस दौरान मथुरा और दिल्ली से तोमर-जादों राजपूतों का पलायन युद्ध के लिए पंजाब की ओर होता रहा। तोमर और जादों राजपूतों की खांपे एक दूसरे में घी और खिचड़ी की तरह समाहित हैं और बहुत से इतिहासकार इनको एक ही मूल का मानते हैं (उदाहरण- टॉड और कन्निंघम)। इन राजवंशों के पूर्व मध्यकालीन संस्थापक दिल्ली के राजा अनंगपाल और मथुरा के राजा धर्मपाल थे। पंजाब, जम्मू और उत्तरी हरयाणा के नीम पहाड़ी क्षेत्रों के सैनी इन्ही तोमर-जादों राजपूतों के वंशज हैं, जो सामूहिक रूप से शूरसैनी/सैनी कहलाते थे। पहाड़ों पर बसने वाले डोगरा राजपूतों में भी इनकी कई खांपें मिली हुई हैं। तोमर राजवंश को कर्नल टॉड और कन्निंघम जैसे इतिहासकारों ने यदुवंशी माना है। दिल्ली और इंद्रप्रस्थ जहाँ तोमरों का शासन था, शूरसेन गणराज्य के मध्य में था, इसलिए इन तोमरों का सैनी कहलाये जाना स्वाभाविक था। पौराणिक कथा के अनुसार- महाभारत युद्ध के उपरान्त युधिष्ठिर ने श्री कृष्ण के पड़पौत्र वज्रनाभ को इंद्रप्रस्थ का राजा बनाया था और सात्यकि के पौत्र युगांधर को सरस्वती नदी के पूर्व का राजा बनाया, जो कि आज कल का हरयाणा प्रांत है। यह दोनों राजा यादव थे और शूरसैनी कहलाते थे ।
मालवे में बसने से बने माली
यह सबको ज्ञात है कि सैनी वंश की राजधानी मथुरा थी और यहां से ही सैनी पंजाब, हरियाणा होते हुये पूरे देश में फैले थे। सैनियों ने अफगानिस्तान तक का इलाका जीत लिया था। गजनी शहर सैनी/शूरसैनी राजा गज महाराज ने बसाया था। इतिहासकार राजा पोरस को भी शूरसैनी (अर्थात सैनी ) माना जाता है। शूरसैनियों के मालवे (मध्य प्रदेश) में जाकर मालव अर्थात माली के नाम से पहचाने जाने लगे। कालांतर में इन्हीं मालवों में से चक्रवर्ती सम्राट वीर विक्रमादित्य हुये थे, जिनके नाम से विक्रम सम्वत् का प्रारम्भ हुआ। यह विक्रम सम्वत छठी शताब्दी से पहले माली सम्वत के नाम से प्रसिद्ध होना भी बताया जा रहा है। इस प्रकार सूर्यवंश से उत्पन्न सैनी-कुल में भागीरथी, सैनी, शूरसैनी, कुशवाह, शाक्य, मौर्य, माली, माहुर, मुरार, काम्बोज आदि समाहित हैं।
सैनियों का था शूरसैन महाजनपद साम्राज्य
सैनी समाज की प्राचीनता और अतीत के महत्व को लेकर विभिन्न धार्मिक एवं पौराणिक ग्रंथों, यात्रा-वृतांत तथा ऐतिहासिक गं्रथों में काफी विवरण अंकित है। प्राचीन ग्रीक यात्री और भारत में राजदूत, मेगास्थनीज के अनुसार सैनियों की राजधानी मथुरा हुआ करती थी। एक अकादमिक राय यह भी बताई गई है कि सिकंदर महान के शानदार प्रतिद्वंद्वी प्राचीन राजा पोरस, कभी सबसे प्रभावी रहे, वे भी सैनी समाज से ही थे। मेगास्थनीज ने इस जाति को ‘‘सौरसेनोई’’ के रूप में वर्णित किया है, जिसे शूरसैनी का अपभ्रंश कहा जा सकता है। प्राचीन भारत के राजनीतिक मानचित्र में ऐतिहासिक ‘‘सूरसेन महाजनपद’’ अंकित किया गया है, जो सैनी समाज के गौरवशाली अतीत का द्योतक है। सैनियों ने इस सूरसेन महाजनपद साम्राज्य पर 11 ई. तक (मुस्लिम आक्रमण के प्रारम्भ तक) राज किया। अफगानिस्तार के गजनी शहर तक सैनियों का साम्राज्य था। गजनी शहर सैनी महाराजा गज का बसाया हुआ है।
प्रारम्भ से ही सैनी रही है यौद्धा कौम
सैनियों का पूर्व ब्रिटिश रियासतों, ब्रिटिश भारत और स्वतंत्र भारत की सेनाओं में सैनिकों के रूप में एक प्रतिष्ठित रिकॉर्ड है। सैनियों ने दोनों विश्व युद्धों में लड़ाइयां लड़ी और ‘‘विशिष्ट बहादुरी’’ के लिए कई सर्वोच्च वीरता पुरस्कार जीते। सूबेदार जोगिंदर सिंह, जिन्हें 1962 भारत-चीन युद्ध में भारतीय-सेना का सर्वोच्च वीरता पुरस्कार, परमवीर चक्र प्राप्त हुआ था, वे भी सहनान उप जाति के एक सैनी थे। ब्रिटिश युग के दौरान, कई प्रभावशाली सैनी जमींदारों को पंजाब और आधुनिक हरियाणा के कई जिलों में जेलदार, या राजस्व संग्राहक नियुक्त किया गया था। सैनियों ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में भी हिस्सा लिया और सैनी समुदाय के कई विद्रोहियों को ब्रिटिश राज के दौरान कारावास में डाल दिया गया या फांसी चढ़ा दिया गया या औपनिवेशिक पुलिस के साथ मुठभेड़ में मार दिया गया था। राजस्थान के मारवाड़ राज्य में सैनी समाज को राजपूत समाज के समकक्ष माना जाकर उन्हें तत्कालीन समय में अपने नाम के साथ ‘‘सिंह’’ लगाने का अधिकार दिया था तथा राजपूतों व सैनी समाज के श्मशान शामिल ही थे। प्रसिद्ध इतिहासकार जगदीश सिंह गहलोत जोधपुर दरबार में मंत्री के रूप में सम्मानित थे।
- जगदीश यायावर, संयोजक,
महाराजा सैनी संस्थान, लाडनूं। मो. 9571181221

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