मंगलवार, 4 अक्टूबर 2016

परमारों के राज्य १. मालवा के वीर विक्रमादित्य और राजा भोज जिन्होंने अपना डंका पूरी प्रथ्वी पर बजाय

Posted by surendar singh bhati tejmalta 
१.मालवा :-  मालवा के परमारों के शासकों के पूर्वजों में सबसे पहला नाम उपेन्द्र मिलता हे | परमारों का शिलालेखीय आधार पर सबसे प्रथम व्यक्ति धूमराज था | मालूम होता हे वह व्यक्ति मालवा व् आबू के परमारों का पूर्व पुरुष था सही वंशक्रम कृष्णराज (उपेन्द्र ) से प्रारंभ होता हे जिसका दूसरा नाम कृष्णाराज भी था | उदयपुर प्रश्ति से ज्ञात होता हे की उसने राजा होने के सम्मान प्राप्त किया उसने कई यग्य किये यह प्रश्ति ११५८-१२५७ के मध्य की है | इसके बाद क्रमशः बैरसी ,सीयक ,व् वाक्पति गद्धी पर बेठे | उसके विषय में उदयपुर ग्वालियर राज्य के शिलालेख में लिखा हे | की उसके घोड़े गंगा समुन्द्र में पानी पीते थे | संभवत वाक्पति राष्ट्रकूटो का सामंत था | उनके द्वारा गंगा तक किये गए आक्रमणों में वह भी साथ था | इसका पुत्र बैरसी 11 भी वीर हुआ | उसके वि. सं. १००५ माघ बदी अमावस्या के दानपत्र से विदित होता हे की वह राष्ट्रकूटों का सामंत था | परन्तु वि.सं. १०२९ ई.सं,. ९७२ में उसने राष्ट्रकूट शासक खोट्टीग्देव पर चढ़ाई की और उसेहरा कर पराधीनता का जुआ फेंक दिया पाईललछी नाम माला -धनपाल इसने हूणों को भी हराया | इसके दो पुत्र मुंज व् सिन्धुराज थे | मेरुतंग की प्रबंध चिंतामणि से ज्ञात होता हे की मुंज सीयक का और सपुत्र नहीं था | वह उसे मुंज घास पर पड़ा मिला था | मुंज घास पर पड़ा मिलने के कारन उसका नाम मुंज रखा | बाद में उसके भी पुत्र हो गया जिसका नाम सिन्धुराज रखा था | सीयक का मुंज पर अधिक प्रेम था | इस कारन उसे हि अपना उतराधिकारी चुना और निश्चय किया गया की मुंज के बाद उसका भाई सिन्धुराज उतराधिकारी बनेगा | मुंज घास पर बालक के मिलने की कहानी कल्पित मालूम देती हे | वास्तव में मुंज व् सिन्धुराज दोनों हि सीयक के भाई थे |
मुंज सीयक सेकंड का उतराधिकारी हुआ | मुंज की वाक्पति उल्पलराज ,अमोध्वर्ष ,प्रथ्वीवल्लभ आदी उपाधिया थी | अतः मुंज की शिलालेख में वाक्पति,उत्पल आदी नमो से भी अंकित किया गया है | मुंज का समय १०३० से १०५१ वि.तक था | इस समय में उसने चेदी नरेश युवराज को पराष्त कर उसकी राजधानी त्रिपुरी पर अधिकार कर लिया | मेवाड़ के शासक शक्तिकुमार वि.१०३४ को परास्त किया तथा किराडू प्रदेश बलिराज से जीतकर कोथेम दानपत्र और नवसाहसांक धस्ती से इस विजय की पुष्टि होती होती है | अपने पुत्र अरण्यराज को आबू दे दिया | जालोर आपने पुत्र चन्दन को तथा भीनमाल आपने भतीजे दूसाल को दे दिया | इस शासक ने मूलराज सोलंकी को भी हराया था तब धवल हस्तीकुंडी का राष्ट्रकूट से रक्षा से प्राथना की | धवल ने उसकी सहायता की | मुंज ने वाक्पति तैलप को कई बार हराया | अतः तैलप चालुक्य ने उसे केद कर लिया | जेल में हि मुंज का तैलप की पुत्री मृणालवती से प्रेम हो गया | मुलम होने पर तैलप ने मुंज को मरवा दिया |
मुंज स्वयं ऐक अच्छा विद्वान् था तथा विद्वानों का सम्मान करने वाला भी आदमी था | उसके दरबार में नवसाह सांक का करता पदमगुप्त,दशरूपक का करता धनज्जय ,धनज्जय का भाई धनिक ,'पिगलछन्दसूत्र 'की टीका करने वाला हलायुद्ध ,सुभाषितरत्नसन्दोह का करता अमितगती ,धनपाल आदी प्रसिद्द विद्वान् रहते थे | मंजू के बाद उसका भाई सिन्धुराज गद्धी पर बैठा | इस शासक ने हूँण ,कौशल ,बागड़ लाट और नागों के राज्य बैरगढ म.प्र. को विजय किया | इस नविन साहस के कारन इसे नवसाहसांक कागा गया | नागों ने सिन्धुराज से मैत्री बढ़ाने के लिए अपनी पुत्री शशिप्रभा का विवाह सिन्धुराज से कर दिया | सिन्धुराज वि.सं.१०६६ से कुछ पूर्व गुजरात के सोलंकी चामुंडाराज के साथ हुयी लड़ाई में मारा गया |
सिन्धुराज के बाद उसका पुत्र भोज गद्धी पर बैठा | यह मालवा के परमारों में अत्यधिक ख्याति प्राप्त शासक हुआ | उदयपुर के शिलालेख में मलय पर्वत से दक्षिण तक राज्य करना लिखा है | इस राजा ने इंद्ररथ तोग्ग्ल ,भीम आदी को पराजीत किया तथा कर्नाट ,गुर्जर (गुजरात ) और तुरुश्कों (मुसुल्मानो ) को जीता | कलचुरी गांगेयदेव को जीता | उसने तैलप के वंशज जय सिंह चालुक्य को जीतकर मुंज की म्रत्यु का बदला लिया | प्रथ्विराज विजय से ज्ञात होता हे की भोज ने चौहान वीर्यराज को भी मारा | भोज का चंद्रेल शासक विद्याधर चंदेल व् ग्वालियर के कच्छपघात (कछवाह ) कीर्तिराज व् नाडोल ने अणहिल से भी संघर्ष हुआ पर इन तीनो संघर्षों में भोज का पराजय का मुंह देखना पड़ा कलचुरी व् गुजरात के सोलंकी दोनों हि भोज के शत्रु थे | भोज के अंतिम समय में भीम सोलंकी व्  गांगेय का पुत्र कर्ण ने मिलकर भोज पर आक्रमण किया | इसी समय भोज का देहांत हो गया | राजा भोज स्वयं विधारसिक एवं विद्वान् थे | उसने स्वयं सरस्वती कंठाभरण (अलंकार शास्त्र ) राजमार्तण्ड (योग शास्त्र ) राज्म्रगांक ,विद्व्जन्न मंडन (ज्योतिष शास्त्र ) समरांगण (शिल्प शास्त्र ) आदी ग्रन्थ लिखे| धारा नगरी में सरस्वती कंडाभरण नामक शिक्षा संसथान बनवाई जिसमे कूर्मशतक ,भ्रतहरिकारिका आदी ग्रंथो को शिलाओं पर खुदवाया | उसके दरबार में अनेक विद्वान् रहते थे |

उन विद्वानों में भोज प्रबंध का करता पंडित बल्लाल ,प्रबंध चिंतामणि का कर्ता ,मेरुतुन्ग्लिक मंजरी हका करता कर्ता धनपाल ,यजुर्वेद का वाजसनेयी संहिता का कर्ता बजट का पुत्र उवट आदी का विशेष स्थान है |
यह राजा कला और धर्म में पूर्ण आस्था रखने वाला राजा था | इसने कई भव्य मंदिरों व् झीलों का निर्माण करवाया ,जिनमे चितोड़ स्थ्ति त्रिभुवन नारायण का विशाल शिव मंदिर ,अम्बाजी का मंदिर तथा भोपाल की विशाल शिव मंदिर ,अम्बाजी का मंदिर तथा भोपाल की विशाल झील (भूपाल ताल के नाम से प्रसिद्ध ) आदी प्रमुख है | भोज का सबसे पहला ताम्रपत्र वि.सं. १०९९ ई. १०४२ तथा उसके उतराधिकारी जय सिंह का ताम्रपात्र वि.सं.१११२ ई.१०५५ का है | इससे मालूम पड़ता है की भोज की म्रत्यु वि १०९९ से वि. १११२ के मध्य किसी समय हुयी |
भोज का उतराधिकारी जयसिंह हुआ | इस समय कलचुरियों एव गुजरात के सोलंकियों ने धार नगरी को घेर रखा था | जयसिंह ने इनके विरुद्ध अपने शत्र कर्णट के शोमेश्वर से सहायता मांगी | सोमेश्वर ने भी राजनेतिक स्थ्ति को देखते हुए जयसिंह को पराजय का मुंह देखना पड़ा परन्तु आगे चलकर करणाट के चालुक्य सोमेश्वर से जयसिंह का फिर संघर्ष हुआ | जयसिंह इस संघर्ष में मारा गया | इस घटना की पुष्टि नागपुर प्रशस्ति वे बेलिगामी शिलालेख से होती हे |

जयसिंह के बाद उदादित्य गद्धी बेठा| इसने शाकम्भरी शासक दुर्लभराज चौहान से सहायता प्राप्त कर कर्णाट के चालुक्यो को हराया और मालवा को अपने अधिकार में किया | ग्वालियर के पास उदयपुर इसी उदादित्य का बसाया हुआ माना जाता है | जहाँ से कई शिलालेख प्राप्त हुए | उदादित्य के दो पुत्र लक्ष्मीदेव और नर्वरमा , नर्वरमा का ऐक भाई भी था जो जनमानस में जंगदेव पंवार के नाम से प्रसिद्द हुआ | चेदिराज जसकर्ण ने जब मालवा के शासक लक्ष्मीदेव( जगदेव का भाई ) पर आक्रमण किया तब जगदेव ने जस्कर्ण को पराजय किया | वि.सं.११५१ ई.१०९४ में लक्ष्मीदेव की म्रत्यु होने पर उसका छोटा भाई नर्वरमा गद्धी पर बेठा तब जसदेव गुर्जर देश के राजा सिद्धराज जयसिंह सोलंकी के पास आ रहा | उस राजा के पास रहकर इसने अद्भुत पराक्रम का परिचय दिया | सिद्धराज सोलंकी ने जब मालवा पर आक्रमण किया तब जगदेव से यह सहन नहीं हुआ और कुंतल के शासक पर्मर्दी के पास चला गया | इस राजा ने जगदेव को जागीरी दी | जगदेव के डोगरा गाँव के शिलालेख वि.सं.११६९ ई.१११२ का मिला है | पर्मर्दी ने जब आंध्र पर चढ़ाई की तब जगदेव ने सेनापति के रूप में अपने स्वामी के रक्षार्थ शत्रु से लड़ा और शत्रु को पराजीत कर परमारों की कीर्ति पताका फहरायी |

वि.सं.११३३ ई.१०७६ में परमर्दीदेव की तरफ से बस्तर के नागों को पराजीत किया तथा शत्रु के अनेक हाथियों का हरण कर लिया | जगदेव जितना वीर था उतना हि दानी था | उसने ऐक उपाध्याय के काव्य पर प्रसन्न होकर आधी लाख मुद्राएँ दान में दी | उसकी दानवीरता के बारे में डोगर गाँव के शिलालेख में लिखा है | न वह देश था न वन ग्राम ,न वह सभा ,न वह दिन ,जहाँ जगदेव के यश का गान न हो | वीरता ,दान व् धर्मपाल में वह सबसे आगे था | अतः use त्रिविधवीर कहा गया है | तथा ऐक पुत्री श्यामलदेवी का नाम उदयपुर शिलालेखों में मिलते हे | श्यामलदेवी का विवाह मेवाड़ के राजा विजय सिंह गुहिल से हुआ | उदादित्य के समय के शिलालेख वि.सं. ११३७ उदयपुर ग्वालियर के पास का व् दूसरा झालरा पाटन राजस्थान का वि.सं. ११४३ के मिले हे |

उदादित्य के बाद उसका पुत्र लक्ष्मीदेव गद्धी पर बैठा | लक्ष्मीदेव ने त्रिपुरी के कलचुरियों अडंग व् कार्लिंग की सेना को धरासायी किया | कर्णोट के राजा विक्रमादित्य की सेना में रहकर अनेक युद्ध अभियानों में भाग लिया | उसके समय में मुस्लिम सेना मालवा तक बढ़ गयी थी | उसने मुस्लिम सेना को मालवा से बहार किया |
लक्ष्मिवर्मा के बाद उसका छोटा भाई नर्वरमा उसका उतराधिकारी हुआ |इसके समय में चंदेलों ने मालवा के लक्ष्मी को अपह्रत कर लिया था | इस राजा को चालुक्य नरेश सिद्धराज जयसिंह से भी पराजीत होना पड़ा | नर्वरमा का देहांत वि.सं. ११९० ई.११३३ में हुआ |

नर्वरमा के बाद इसका पुत्र यशोवर्मा गद्धी पर बेठा | इसके समय में सिद्धराज जयसिंह सोलंकी ने मेवाड़ का वह भाग जो मुंज के समय मालवों के परमारों के अधीन चला आ रहा था |अपने अधिकार में कर लिया तथा उसने मालवा को जीत लिया | यशोवर्मा का ऐक दानपत्र वि.सं.११९२ का है | यशोवर्मा के बाद क्रमशः जयमवर्मा ,अजयवर्मा ,विन्ध्यवर्मा,सुभटवर्मा ,अर्जुनवर्मा,देवपाल,जयतुगिदेव ,जयवर्मा सेकेंड , जयसिंह थर्ड ,अर्जुनवर्मा सेकेंड ,भोज सेकेंड और जयसिंह फिफ्थ ने मालवा पर शासन किया | जयसिंह का ऐक शिलालेख वि.स. १३९९ श्रावण बदी १२ का है | जलालुधिन फिरोहशाह खिलजी ने वि.सं.१३४८ में उज्जेन के मंदिरों को तोडा | अलाउधिन ने मालवा का पूर्वी हिस्सा छीन लिया और संभतः मुहम्मद तुगलक के हाथो मालवा से परमार राज्य का अंत हुआ |


यहाँ पर में जिक्र में महापुरुष विक्रमादित्य का करना चाहूँगा पहले भी उत्पत्ति के समय कर चूका हूँ फिर भी दुबारा कर रहा हूँ | गंधर्वसेन के पुत्र वीर विक्रमादित्य मालवा का शासक बना | तब इसने अपनी वीरता से अरब तक का क्षेत्र जीतकर अपने राज्य में मिला लिया | काबा जो आज मुसलमानों का पवित्र स्थान हे ,कहते हे की वहां शिवलिंग की स्थापना विक्रमादित्य ने की थी | इस्लाम के उदय होने से पूर्व काबा में ३६० मूर्तियाँ होने के शक्त ग्रंथो में भी प्रमाण मिलते हे | हजरत मोहम्मद ने इस्लाम धर्म में इन्ही मूर्तियों की पूजा का खंडन किया था | हज के लिए जाने वाले आज भी काबे की सात परिक्रम करते हे और वह केवल सफ़ेद चादर में हि जाते हे | यह हिन्दू पद्धति है | सम्राट विक्रमादित्य का प्रभुत्व उस समय सारा विश्व मानता था | काल गणना विक्रमी संवत से हि की जाती थी | जो इसी की दें है | समय निर्धारित करने का जो गौरव आज ग्रीनविच (इंग्लेंड ) को मिला है ,वह गौरव कभी इस सम्राट की राजधानी उज्जेन को मिला था | पर्थम मध्यान्ह की गणना यही से की जाती थी | इसी के ग्रामोतर व्रत (मेरिडियन ) से देशांतर सूचक रेखाओं की गणना की जाती थी | इनके दरबार में प्रसिद्ध ज्योतिषी एव खगोलविद वराह मिहिर ने यहाँ वेधशाला चला रखी थी | जहाँ ऋतू विज्ञानं के अध्धयन की व्यवस्था थी | महाराजा विक्रमादित्य के दरबार में नो रतन रहते थे | १.कालिदास (प्रधानमन्त्री ) २.शंकु ३.वररूचि ४.घटस्क्पर्र ५.क्षपणक ६.अमरसिंह (अमरकोश के निर्माता ) ७.बैताल भट्ट ८.वराह मिहिर 9.धन्वन्तरी | विक्रमादित्य के पोत्र ने शकों को पराजीत कर सन 78 में शक संवत की नींव डाली थी |

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें