चंद्रवंश
चंद्रवंश क्षत्रियों के दो प्रधान वंशों में से एक है। ब्राह्मणों-क्षत्रियों के कई गोत्र होते हैं उनमें चंद्र से जुड़े कुछ गोत्र के नाम हैं जैसे- चंद्रवंशी। पौराणिक संदर्भों के अनुसार चंद्रमा को तपस्वी अत्रिऔर अनुसूया की संतान बताया गया है जिसका नाम 'सोम' है। दक्ष प्रजापति की सत्ताईस पुत्रियाँ थीं जिनके नाम पर सत्ताईस नक्षत्रों के नाम पड़े हैं। ये सब चन्द्रमा को ब्याही गईं। चन्द्रमा का इनमें से रोहिणी के प्रति विशेष अनुराग था। चन्द्रमा के इस व्यवहार से अन्य पत्नियाँ दुखी हुईं तो दक्ष ने उसे शाप दिया कि वह क्षयग्रस्त हो जाए जिसकी वजह से पृथ्वी की वनस्पतियाँ भी क्षीण हो गईं। विष्णु के बीच में पड़ने पर समुद्र मंथन से चन्द्रमा का उद्धार हुआ और क्षय की अवधि पाक्षिक हो गई।
- एक अन्य कथा के अनुसार चन्द्रमा ने बृहस्पति की पत्नी तारा का अपहरण किया था जिससे उसे बुध नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ जो बाद में क्षत्रियों के चंद्रवंश का प्रवर्तक हुआ। इस वंश के राजा ख़ुद को चंद्रवंशी कहते थे। पुराने ज़माने में राजपूतों के दो ख़ानदान बहुत प्रसिद्ध थे। एक चन्द्रवंश, दूसरा सूर्यवंश।
- एक अन्य कथा के अनुसार चन्द्रमा ने बृहस्पति की पत्नी तारा का अपहरण किया था जिससे उसे बुध नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ जो बाद में क्षत्रियों के चंद्रवंश का प्रवर्तक हुआ। चद्रवंश में उत्पन्न क्षत्रिय चंद्रवंशी कहलाए।
- चन्द्रवंश बहुत बढ़ा और उत्तर तथा मध्य भारत के विभिन्न प्रदेशों में इसकी शाखाएँ स्थापित हुई।
चंद्रवंश का वर्णन
श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित! अब मैं तुम्हें चन्द्रमा के पावन वंश का वर्णन सुनाता हूँ। इस वंश में पुरूरवा आदि बड़े-बड़े पवित्रकीर्ति राजाओं का कीर्तन किया जाता है। सहस्त्रों सिरवाले विराट पुरुष नारायण के नाभि-सरोवर के कमल से ब्रह्माजी की उत्पत्ति हुई। ब्रह्मा जी के पुत्र हुए अत्रि। वे अपने गुणों के कारण ब्रह्मा जी के समान ही थे। उन्हीं अत्रि के नेत्रों से अमृतमय चन्द्रमा का जन्म हुआ। ब्रह्माजी ने चन्द्रमा को ब्राह्मण, ओषधि और नक्षत्रों का अधिपति बना दिया। उन्होंने तीनों लोकों पर विजय प्राप्त की और राजसूय यज्ञ किया। इससे उनका घमंड बढ़ गया और उन्होंने बलपूर्वक बृहस्पति की पत्नी तारा को हर लिया। देवगुरु बृहस्पति ने अपनी पत्नी को लौटा देने के लिये उनसे बार-बार याचना की, परन्तु वे इतने मतवाले हो गये थे कि उन्होंने किसी प्रकार उनकी पत्नी को नहीं लौटाया। ऐसी परिस्थिति में उसके लिये देवता और दानव में घोर संग्राम छिड़ गया। शुक्राचार्य जी ने बृहस्पति जी के द्वेष से असुरों के साथ चन्द्रमा का पक्ष ले लिया और महादेव जी ने स्त्रेहवश समस्त भूतगणों के साथ अपने विद्यागुरु अंगिरा जी के पुत्र बृहस्पति का पक्ष लिया। देवराज इन्द्र ने भी समस्त देवताओं के साथ अपने गुरु बृहस्पति जी का ही पक्ष लिया। इस प्रकार तारा के निमित्त से देवता और असुरों का संहार करने वाला घोर संग्राम हुआ।
तदनन्तर अंगिरा ऋषि ने ब्रह्मा जी के पास जाकर यह युद्ध बंद कराने की प्रार्थना की। इस पर ब्रह्मा जी ने चन्द्रमा को बहुत डाँटा-फटकारा और तारा को उसके पति बृहस्पति जी के हवाले कर दिया। जब बृहस्पति जी को यह मालूम हुआ कि तारा तो गर्भवती है, तब उन्होंने कहा- 'दुष्टे! मेरे क्षेत्र में यह तो किसी दूसरे का गर्भ है। इसे तू अभी त्याग दे, तुरन्त त्याग दे। डर मत, मैं तुझे जलाऊँगा नहीं। क्योंकि एक तो तू स्त्री है और दूसरे मुझे भी सन्तान की कामना है। देवी होने के कारण तू निर्दोष भी है ही' अपने पति की बात सुनकर तारा अत्यन्त लज्जित हुई। उसने सोने के समान चमकता हुआ एक बालक अपने गर्भ से अलग कर दिया। उस बालक को देखकर बृहस्पति और चन्द्रमा दोनों ही मोहित हो गये और चाहने लगे कि यह हमें मिल जाय। अब वे एक-दूसरे से इस प्रकार ज़ोर-ज़ोर से झगड़ा करने लगे कि 'यह तुम्हारा नहीं, मेरा है।' ऋषियों और देवताओं ने तारा से पूछा कि 'यह किसका लड़का है।' परन्तु तारा ने लज्जावश कोई उत्तर न दिया। बालक ने अपनी माता की झूठी लज्जा से क्रोधित होकर कहा 'दुष्टे! तू बतलाती क्यों नहीं? तू अपना कुकर्म मुझे शीघ्र-से-शीघ्र बतला दे'। उसी समय ब्रह्मा जी ने तारा को एकान्त में बुलाकर बहुत कुछ समझा-बुझाकर पूछा। तब तारा ने धीरे से कहा कि 'चन्द्रमा का।' इसलिये चन्द्रमा ने उस बालक को ले लिया। परीक्षित! ब्रह्माजी ने उस बालक का नाम रखा 'बुध' क्योंकि उसकी बुद्धि बड़ी गम्भीर थी। ऐसा पुत्र प्राप्त करके चन्द्रमा को बहुत आनन्द हुआ।
परीक्षित! बुध के द्वारा इला के गर्भ से पुरूरवा का जन्म हुआ। इसका वर्णन मैं पहले ही कर चुका हूँ। एक दिन इन्द्र की सभा में देवर्षि नारद जी पुरूरवा के रूप, गुण, उदारता, शील-स्वभाव, धन-सम्पत्ति और पराक्रम का गान कर रहे थे। उन्हें सुनकर उर्वशी के हृदय में कामभाव का उदय हो आया और उससे पीड़ित होकर वह देवांगना पुरूरवा के पास चली आयी। यद्यपि उर्वशी को मित्रावरुण के शाप से ही मृत्युलोक में आना पड़ा था। फिर भी पुरुषशिरोमणि पुरूरवा मूर्तिमान कामदेव के समान सुन्दर हैं- यह सुनकर सुर-सुन्दरी उर्वशी ने धैर्य धारण किया और वह उनके पास चली आयी। देवांगना उर्वशी को देखकर राजा पुरूरवा के नेत्र हर्ष से खिल उठे। उनके शरीर में रोमांच हो आया। राजा पुरूरवा ने कहा- सुन्दरी! तुम्हारा स्वागत है। बैठो, मैं तुम्हारी क्या सेवा करूँ? तुम मेरे साथ विहार करो और हम दोनों का यह विहार अनन्त काल तक चलता रहे।
उर्वशी ने कहा- 'राजन! आप सौन्दर्य के मूर्तिमान स्वरूप हैं। भला, ऐसी कौन कामिनी है जिसकी दृष्टि और मन आप में आसक्त न हो जाय? क्योंकि आपके समीप आकर मेरा मन रमण की इच्छा से अपना धैर्य खो बैठा है। राजन! जो पुरुष रूप-गुण आदि के कारण प्रशंसनीय होता है, वही स्त्रियों को अभीष्ट होता है। अत: मैं आपके साथ अवश्य विहार करूँगी। परन्तु मेरे प्रेमी महाराज! मेरी एक शर्त है। मैं आपको धरोहर के रूप में भेड़ के दो बच्चे सौंपती हूँ। आप इनकी रक्षा करना। वीरशिरोमणे! मैं केवल घी खाऊँगी और मैथुन के अतिरिक्त और किसी भी समय आपको वस्त्रहीन न देख सकूँगी।' परम मनस्वी पुरूरवा ने ठीक है- ऐसा कहकर उसकी शर्त स्वीकार कर ली। और फिर उर्वशी से कहा- 'तुम्हारा यह सौन्दर्य अद्भुत है। तुम्हारा भाव अलौकिक है। यह तो सारी मनुष्यसृष्टि को मोहित करने वाला हे। और देवि! कृपा करके तुम स्वयं यहाँ आयी हो। फिर कौन ऐसा मनुष्य है जो तुम्हारा सेवन न करेगा?
परीक्षित! तब उर्वशी कामशास्त्रोक्त पद्धति से पुरुषश्रेष्ठ पुरूरवा के साथ विहार करने लगी। वे भी देवताओं की विहारस्थली चैत्ररथ, नन्दनवन आदि उपवनों में उसके साथ स्वच्छन्द विहार करने लगे। देवी उर्वशी के शरीर से कमल केसर की सी सुगन्ध निकला करती थी। उसके साथ राजा पुरूरवा ने बहुत वर्षों तक आनन्द-विहार किया। वे उसके मुख की सुरभि से अपनी सुध-बुध खो बैठते थे। इधर जब इन्द्र ने उर्वशी को नहीं देखा, तब उन्होंने गन्धर्वों को उसे लाने के लिये भेजा और कहा- 'उर्वशली के बिना मुझे यह स्वर्ग फीका जान पड़ता है' वे गन्धर्व आधी रात के समय घोर अन्धकार में वहाँ गये और उर्वशी के दोनों भेड़ों को, जिन्हें उसने राजा के पास धरोहर रखा था, चुराकर चलते बने। उर्वशी ने जब गन्धर्वों के द्वारा ले जाये जाते हुए अपने पुत्र के समान प्यारे भेड़ों की 'बें-बें' सुनी, तब वह कह उठी कि 'अरे, इस कायर को अपना स्वामी बनाकर मैं तो मारी गयी। यह नंपुसक अपने को बड़ा वीर मानता है। यह मेरे भेड़ों को भी न बचा सका। इसी पर विश्वास करने के कारण लुटेरे मेरे बच्चों को लूटकर लिये जा रहे हैं। मैं तो मर गयी। देखो तो सही, यह दिन में तो मर्द बनता है और रात में स्त्रियों की तरह डरकर सोया रहता है' परीक्षित! जैसे कोई हाथी को अंकुश से बेध डाले, वैसे ही उर्वशी ने अपने वचन-बाणों से राजा को बींध दिया। राजा पुरूरवा को बड़ा क्रोध आया और हाथ में तलवार लेकर वस्त्रहीन अवस्था में ही वे उस ओर दौड़ पड़े। गन्धर्वों ने उनके झपटते ही भेड़ों को तो वहीं छोड़ दिया और स्वयं बिजली की तरह चमकने लगे। जब राजा पुरूरवा भेड़ों को लेकर लौटे, तब उर्वशी ने उस प्रकाश में उन्हें वस्त्रहीन अवस्था में देख लिया। (बस, वह उसी समय उन्हें छोड़कर चली गयी)।
परीक्षित! राजा पुरूरवा ने जब अपने शयनागार में अपनी प्रियतमा उर्वशी को नहीं देखा तो वे अनमने हो गये। उनका चित्त उर्वशी में ही बसा हुआ था। वे उसके लिये शोक से विह्वल हो गये और उन्मत्त की भाँति पृथ्वी में इधर-उधर भटकने लगे। एक दिन कुरुक्षेत्र में सरस्वती नदी के तटपर उन्होंने उर्वशी और उसकी पाँच प्रसन्नमुखी सखियों को देखा और बड़ी मीठी वाणी से कहा- 'प्रिये! तनिक ठहर जाओ। एक बार मेरी बात मान लो। निष्ठुरे! अब आज तो मुझे सुखी किये बिना मत जाओ। क्षणभर ठहरो; आओ हम दोनों कुछ बातें तो कर लें। देवि! अब इस शरीर पर तुम्हारा कृपा-प्रसाद नहीं रहा, इसी से तुमने इसे दूर फेंक दिया है। अत: मेरा यह सुन्दर शरीर अभी ढेर हुआ जाता है और तुम्हारे देखते-देखते इसे भेड़िये और गीध खा जायँगे'।
उर्वशी ने कहा- राजन! तुम पुरुष हो। इस प्रकार मत मरो। देखो, सचमुच ये भेड़िये तुम्हें खा न जायँ। स्त्रियों की किसी के साथ मित्रता नहीं हुआ करती। स्त्रियों का हृदय और भेड़ियों का हृदय बिलकुल एक-जैसा होता है। स्त्रियाँ निर्दय होती हैं। क्रूरता तो उनमें स्वाभाविक ही रहती है। तनिक-सी बात में चिढ़ जाती हैं और अपने सुख के लिये बड़े-बड़े साहस के काम कर बैठती हैं, थोड़े-से स्वार्थ के लिये विश्वास दिलाकर अपने पति और भाई तक को मार डालती हैं। इनके हृदय में सौहार्द तो है ही नहीं। भोले-भाले लोगों को झूठ-मूठ का विश्वास दिलाकर फाँस लेती हैं और नये-नये पुरुष की चाट से कुलटा और स्वच्छन्दचारिणी बन जाती हैं। तो फिर तुम धीरज धरो। तुम राजराजेश्वर हो। घबराओ मत। प्रति एक वर्ष के बाद एक राज तुम मेरे साथ रहोगे। तब तुम्हारे और भी सन्तानें होंगी।
राजा पुरूरवा ने देखा कि उर्वशी गर्भवती है, इसलिये वे अपनी राजधानी में लौट आये। एक वर्ष के बाद फिर वहाँ गये। तब तक उर्वशी एक वीर पुत्र की माता हो चुकी थी। उर्वशी के मिलने से पुरूरवा को बड़ा सुख मिला और वे एक रात उसी के साथ रहे। प्रात:काल जब वे विदा होने लगे, तब विरह के दु:ख से वे अत्यन्त दीन हो गये। उर्वशी ने उनसे कहा- 'तुम इन गन्धर्वों की स्तुति करो, ये चाहें तो तुम्हें मुझे दे सकते हैं। तब राजा पुरूरवा ने गन्धर्वों की स्तुति की। परीक्षित! राजा पुरूरवा की स्तुति से प्रसन्न होकर गन्धर्वों ने उन्हें एक अग्निस्थाली (अग्निस्थापन करने का पात्र) दी। राजा ने समझा यही उर्वशी है, इसलिये उसको हृदय से लगाकर वे एक वन में दूसरे वन में घूमते रहे।
जब उन्हें होश हुआ, तब वे स्थाली को वन में छोड़कर अपने महल में लौट आये एवं रात के समय उर्वशी का ध्यान करते रहे। इस प्रकार जब त्रेता युग का प्रारम्भ हुआ, तब उनके हृदय में तीनों वेद प्रकट हुए। फिर वे उस स्थान पर गये, जहाँ उन्होंने वह अग्निस्थली छोड़ी थी। जब उस स्थान पर शमीवृक्ष के गर्भ में एक पीपल का वृक्ष उग आया था, उसे देखकर उन्होंने उससे दो अरणियाँ (मन्थनकाष्ठ) बनायीं। फिर उन्होंने उर्वशीलोक की कामना से नीचे की अरणिको उर्वशी, ऊपर की अरणिको पुरूरवा और बीच के काष्ठ को पुत्ररूप से चिन्तन करते हुए अग्नि प्रज्वलित करने वाले मन्त्रों से मन्थन किया। उनके मन्थन से 'जातवेदा' नामक अग्नि प्रकट हुआ। राजा पुरूरवा ने अग्निदेवता को त्रयीविद्या के द्वारा आहवनीय, गार्हपत्य और दक्षिणाग्नि- इन तीन भागों में विभक्त करके पुत्ररूप से स्वीकार कर लिया। फिर उर्वशीलोक की इच्छा से पुरूरवा ने उन तीनों अग्नियों द्वारा सर्वदेवस्वरूप इन्द्रियातीत यज्ञपति भगवान श्रीहरि का यजन किया।
परीक्षित! त्रेता के पूर्व सत्ययुग में एकमात्र प्रणव (ॐकार) ही वेद था। सारे वेद-शास्त्र उसी के अन्तर्भूत थे। देवता थे एकमात्र नारायण; और कोई न था। अग्नि भी तीन नहीं, केवल एक था और वर्ण भी केवल एक 'हंस' ही था। परीक्षित! त्रेता के प्रारम्भ में पुरूरवा से ही वेदत्रयी और अग्नित्रयी का आविर्भाव हुआ। राजा पुरूरवा ने अग्नि को सन्तानरूप से स्वीकार करके गन्धर्व लोग की प्राप्ति की।
तदनन्तर अंगिरा ऋषि ने ब्रह्मा जी के पास जाकर यह युद्ध बंद कराने की प्रार्थना की। इस पर ब्रह्मा जी ने चन्द्रमा को बहुत डाँटा-फटकारा और तारा को उसके पति बृहस्पति जी के हवाले कर दिया। जब बृहस्पति जी को यह मालूम हुआ कि तारा तो गर्भवती है, तब उन्होंने कहा- 'दुष्टे! मेरे क्षेत्र में यह तो किसी दूसरे का गर्भ है। इसे तू अभी त्याग दे, तुरन्त त्याग दे। डर मत, मैं तुझे जलाऊँगा नहीं। क्योंकि एक तो तू स्त्री है और दूसरे मुझे भी सन्तान की कामना है। देवी होने के कारण तू निर्दोष भी है ही' अपने पति की बात सुनकर तारा अत्यन्त लज्जित हुई। उसने सोने के समान चमकता हुआ एक बालक अपने गर्भ से अलग कर दिया। उस बालक को देखकर बृहस्पति और चन्द्रमा दोनों ही मोहित हो गये और चाहने लगे कि यह हमें मिल जाय। अब वे एक-दूसरे से इस प्रकार ज़ोर-ज़ोर से झगड़ा करने लगे कि 'यह तुम्हारा नहीं, मेरा है।' ऋषियों और देवताओं ने तारा से पूछा कि 'यह किसका लड़का है।' परन्तु तारा ने लज्जावश कोई उत्तर न दिया। बालक ने अपनी माता की झूठी लज्जा से क्रोधित होकर कहा 'दुष्टे! तू बतलाती क्यों नहीं? तू अपना कुकर्म मुझे शीघ्र-से-शीघ्र बतला दे'। उसी समय ब्रह्मा जी ने तारा को एकान्त में बुलाकर बहुत कुछ समझा-बुझाकर पूछा। तब तारा ने धीरे से कहा कि 'चन्द्रमा का।' इसलिये चन्द्रमा ने उस बालक को ले लिया। परीक्षित! ब्रह्माजी ने उस बालक का नाम रखा 'बुध' क्योंकि उसकी बुद्धि बड़ी गम्भीर थी। ऐसा पुत्र प्राप्त करके चन्द्रमा को बहुत आनन्द हुआ।
परीक्षित! बुध के द्वारा इला के गर्भ से पुरूरवा का जन्म हुआ। इसका वर्णन मैं पहले ही कर चुका हूँ। एक दिन इन्द्र की सभा में देवर्षि नारद जी पुरूरवा के रूप, गुण, उदारता, शील-स्वभाव, धन-सम्पत्ति और पराक्रम का गान कर रहे थे। उन्हें सुनकर उर्वशी के हृदय में कामभाव का उदय हो आया और उससे पीड़ित होकर वह देवांगना पुरूरवा के पास चली आयी। यद्यपि उर्वशी को मित्रावरुण के शाप से ही मृत्युलोक में आना पड़ा था। फिर भी पुरुषशिरोमणि पुरूरवा मूर्तिमान कामदेव के समान सुन्दर हैं- यह सुनकर सुर-सुन्दरी उर्वशी ने धैर्य धारण किया और वह उनके पास चली आयी। देवांगना उर्वशी को देखकर राजा पुरूरवा के नेत्र हर्ष से खिल उठे। उनके शरीर में रोमांच हो आया। राजा पुरूरवा ने कहा- सुन्दरी! तुम्हारा स्वागत है। बैठो, मैं तुम्हारी क्या सेवा करूँ? तुम मेरे साथ विहार करो और हम दोनों का यह विहार अनन्त काल तक चलता रहे।
उर्वशी ने कहा- 'राजन! आप सौन्दर्य के मूर्तिमान स्वरूप हैं। भला, ऐसी कौन कामिनी है जिसकी दृष्टि और मन आप में आसक्त न हो जाय? क्योंकि आपके समीप आकर मेरा मन रमण की इच्छा से अपना धैर्य खो बैठा है। राजन! जो पुरुष रूप-गुण आदि के कारण प्रशंसनीय होता है, वही स्त्रियों को अभीष्ट होता है। अत: मैं आपके साथ अवश्य विहार करूँगी। परन्तु मेरे प्रेमी महाराज! मेरी एक शर्त है। मैं आपको धरोहर के रूप में भेड़ के दो बच्चे सौंपती हूँ। आप इनकी रक्षा करना। वीरशिरोमणे! मैं केवल घी खाऊँगी और मैथुन के अतिरिक्त और किसी भी समय आपको वस्त्रहीन न देख सकूँगी।' परम मनस्वी पुरूरवा ने ठीक है- ऐसा कहकर उसकी शर्त स्वीकार कर ली। और फिर उर्वशी से कहा- 'तुम्हारा यह सौन्दर्य अद्भुत है। तुम्हारा भाव अलौकिक है। यह तो सारी मनुष्यसृष्टि को मोहित करने वाला हे। और देवि! कृपा करके तुम स्वयं यहाँ आयी हो। फिर कौन ऐसा मनुष्य है जो तुम्हारा सेवन न करेगा?
परीक्षित! तब उर्वशी कामशास्त्रोक्त पद्धति से पुरुषश्रेष्ठ पुरूरवा के साथ विहार करने लगी। वे भी देवताओं की विहारस्थली चैत्ररथ, नन्दनवन आदि उपवनों में उसके साथ स्वच्छन्द विहार करने लगे। देवी उर्वशी के शरीर से कमल केसर की सी सुगन्ध निकला करती थी। उसके साथ राजा पुरूरवा ने बहुत वर्षों तक आनन्द-विहार किया। वे उसके मुख की सुरभि से अपनी सुध-बुध खो बैठते थे। इधर जब इन्द्र ने उर्वशी को नहीं देखा, तब उन्होंने गन्धर्वों को उसे लाने के लिये भेजा और कहा- 'उर्वशली के बिना मुझे यह स्वर्ग फीका जान पड़ता है' वे गन्धर्व आधी रात के समय घोर अन्धकार में वहाँ गये और उर्वशी के दोनों भेड़ों को, जिन्हें उसने राजा के पास धरोहर रखा था, चुराकर चलते बने। उर्वशी ने जब गन्धर्वों के द्वारा ले जाये जाते हुए अपने पुत्र के समान प्यारे भेड़ों की 'बें-बें' सुनी, तब वह कह उठी कि 'अरे, इस कायर को अपना स्वामी बनाकर मैं तो मारी गयी। यह नंपुसक अपने को बड़ा वीर मानता है। यह मेरे भेड़ों को भी न बचा सका। इसी पर विश्वास करने के कारण लुटेरे मेरे बच्चों को लूटकर लिये जा रहे हैं। मैं तो मर गयी। देखो तो सही, यह दिन में तो मर्द बनता है और रात में स्त्रियों की तरह डरकर सोया रहता है' परीक्षित! जैसे कोई हाथी को अंकुश से बेध डाले, वैसे ही उर्वशी ने अपने वचन-बाणों से राजा को बींध दिया। राजा पुरूरवा को बड़ा क्रोध आया और हाथ में तलवार लेकर वस्त्रहीन अवस्था में ही वे उस ओर दौड़ पड़े। गन्धर्वों ने उनके झपटते ही भेड़ों को तो वहीं छोड़ दिया और स्वयं बिजली की तरह चमकने लगे। जब राजा पुरूरवा भेड़ों को लेकर लौटे, तब उर्वशी ने उस प्रकाश में उन्हें वस्त्रहीन अवस्था में देख लिया। (बस, वह उसी समय उन्हें छोड़कर चली गयी)।
परीक्षित! राजा पुरूरवा ने जब अपने शयनागार में अपनी प्रियतमा उर्वशी को नहीं देखा तो वे अनमने हो गये। उनका चित्त उर्वशी में ही बसा हुआ था। वे उसके लिये शोक से विह्वल हो गये और उन्मत्त की भाँति पृथ्वी में इधर-उधर भटकने लगे। एक दिन कुरुक्षेत्र में सरस्वती नदी के तटपर उन्होंने उर्वशी और उसकी पाँच प्रसन्नमुखी सखियों को देखा और बड़ी मीठी वाणी से कहा- 'प्रिये! तनिक ठहर जाओ। एक बार मेरी बात मान लो। निष्ठुरे! अब आज तो मुझे सुखी किये बिना मत जाओ। क्षणभर ठहरो; आओ हम दोनों कुछ बातें तो कर लें। देवि! अब इस शरीर पर तुम्हारा कृपा-प्रसाद नहीं रहा, इसी से तुमने इसे दूर फेंक दिया है। अत: मेरा यह सुन्दर शरीर अभी ढेर हुआ जाता है और तुम्हारे देखते-देखते इसे भेड़िये और गीध खा जायँगे'।
उर्वशी ने कहा- राजन! तुम पुरुष हो। इस प्रकार मत मरो। देखो, सचमुच ये भेड़िये तुम्हें खा न जायँ। स्त्रियों की किसी के साथ मित्रता नहीं हुआ करती। स्त्रियों का हृदय और भेड़ियों का हृदय बिलकुल एक-जैसा होता है। स्त्रियाँ निर्दय होती हैं। क्रूरता तो उनमें स्वाभाविक ही रहती है। तनिक-सी बात में चिढ़ जाती हैं और अपने सुख के लिये बड़े-बड़े साहस के काम कर बैठती हैं, थोड़े-से स्वार्थ के लिये विश्वास दिलाकर अपने पति और भाई तक को मार डालती हैं। इनके हृदय में सौहार्द तो है ही नहीं। भोले-भाले लोगों को झूठ-मूठ का विश्वास दिलाकर फाँस लेती हैं और नये-नये पुरुष की चाट से कुलटा और स्वच्छन्दचारिणी बन जाती हैं। तो फिर तुम धीरज धरो। तुम राजराजेश्वर हो। घबराओ मत। प्रति एक वर्ष के बाद एक राज तुम मेरे साथ रहोगे। तब तुम्हारे और भी सन्तानें होंगी।
राजा पुरूरवा ने देखा कि उर्वशी गर्भवती है, इसलिये वे अपनी राजधानी में लौट आये। एक वर्ष के बाद फिर वहाँ गये। तब तक उर्वशी एक वीर पुत्र की माता हो चुकी थी। उर्वशी के मिलने से पुरूरवा को बड़ा सुख मिला और वे एक रात उसी के साथ रहे। प्रात:काल जब वे विदा होने लगे, तब विरह के दु:ख से वे अत्यन्त दीन हो गये। उर्वशी ने उनसे कहा- 'तुम इन गन्धर्वों की स्तुति करो, ये चाहें तो तुम्हें मुझे दे सकते हैं। तब राजा पुरूरवा ने गन्धर्वों की स्तुति की। परीक्षित! राजा पुरूरवा की स्तुति से प्रसन्न होकर गन्धर्वों ने उन्हें एक अग्निस्थाली (अग्निस्थापन करने का पात्र) दी। राजा ने समझा यही उर्वशी है, इसलिये उसको हृदय से लगाकर वे एक वन में दूसरे वन में घूमते रहे।
जब उन्हें होश हुआ, तब वे स्थाली को वन में छोड़कर अपने महल में लौट आये एवं रात के समय उर्वशी का ध्यान करते रहे। इस प्रकार जब त्रेता युग का प्रारम्भ हुआ, तब उनके हृदय में तीनों वेद प्रकट हुए। फिर वे उस स्थान पर गये, जहाँ उन्होंने वह अग्निस्थली छोड़ी थी। जब उस स्थान पर शमीवृक्ष के गर्भ में एक पीपल का वृक्ष उग आया था, उसे देखकर उन्होंने उससे दो अरणियाँ (मन्थनकाष्ठ) बनायीं। फिर उन्होंने उर्वशीलोक की कामना से नीचे की अरणिको उर्वशी, ऊपर की अरणिको पुरूरवा और बीच के काष्ठ को पुत्ररूप से चिन्तन करते हुए अग्नि प्रज्वलित करने वाले मन्त्रों से मन्थन किया। उनके मन्थन से 'जातवेदा' नामक अग्नि प्रकट हुआ। राजा पुरूरवा ने अग्निदेवता को त्रयीविद्या के द्वारा आहवनीय, गार्हपत्य और दक्षिणाग्नि- इन तीन भागों में विभक्त करके पुत्ररूप से स्वीकार कर लिया। फिर उर्वशीलोक की इच्छा से पुरूरवा ने उन तीनों अग्नियों द्वारा सर्वदेवस्वरूप इन्द्रियातीत यज्ञपति भगवान श्रीहरि का यजन किया।
परीक्षित! त्रेता के पूर्व सत्ययुग में एकमात्र प्रणव (ॐकार) ही वेद था। सारे वेद-शास्त्र उसी के अन्तर्भूत थे। देवता थे एकमात्र नारायण; और कोई न था। अग्नि भी तीन नहीं, केवल एक था और वर्ण भी केवल एक 'हंस' ही था। परीक्षित! त्रेता के प्रारम्भ में पुरूरवा से ही वेदत्रयी और अग्नित्रयी का आविर्भाव हुआ। राजा पुरूरवा ने अग्नि को सन्तानरूप से स्वीकार करके गन्धर्व लोग की प्राप्ति की।
चन्द्रवंश की शाखायें तथा उपशाखायें
अत्रि के पुत्र चन्द्र देव थे। चन्द्र देव के पुत्र बुध थे। महाराजा बुध का विवाह महाराजा तनु की पुत्री इला से हुआ था। इनसे महाराजा पुरूरवा का जन्म हुआ। पुरूरवा ने ही अपने दादा चन्द्र देव के नाम पर चन्द्रवंशी की नींव डाली जिसकी आज अनेक शाखायें और उपशाखायें हो गई हैं। चन्द्र वंश को ही सोमवंशी भी कहते हैं।
सोमवंशी क्षत्रिय
- गोत्र- अत्रि। प्रवर - तीन - अत्रि, आत्रेय, शाताआतप। वेद - यजुर्वेद। देवी - तहालक्ष्मी। नदी - त्रिवेणी।
यादव क्षत्रिय
- गोत्र- कौन्डिय। प्रवर - तीन - कौन्डिन्य, कौत्स, स्तिमिक। देवी - जोगेश्वरी। वेद - यजुर्वेद। नदी - यमुना।
- महाराजा ययाति के ज्येष्ठ पुत्र यदु के नाम से यदु वंश या यादव वंश का नामकरण हुआ। इसी काल में भगवान कृष्ण और बलराम का जन्म हुआ था।
भाटी या जरदम क्षत्रिय
- ये लोग अपने को कृष्ण का वंशज मानते हैं।
- इस शाखा में कभी भाटी नाम के प्रतापी राजा हुए थे। इन्हीं के नाम पर भाटी वंश चल पडा।
- जैसलमेर का दुर्ग इसी वंश के राजाओं ने बनवाया है।
जाडेजा क्षत्रिय
- इस शाखा के लोग अपने को कृष्ण के पुत्र साम्ब का वंशज मानते हैं।
तोमर क्षत्रिय
- गोत्र- गार्ग्य। प्रवर - तीन - गार्ग्य, कौस्तुभ, माण्डव्य। वेद यजुर्वेद। देवी - योगेश्वरी, चिकलाई माता।
- इन्हें तुर या तंवर भी कहते हैं।
- तोमर वंश के लोग अपने को पाण्डु का वंशज मानते हैं।
- जन्मेजय ने नागवंश को समूल नष्ट करने का व्रत लिया था। उनके इस आचरण से नागवंश के महर्षि आस्तिक बहुत अप्रसन्न हुए। जन्मेजय ने महर्षि आस्तिक से क्षमा याचना की और प्रायश्चित के लिए यज्ञ सम्पन्न हुआ। जिसके अधिष्ठाता महर्षि तुर थे। इन्ही महर्षि तुर के प्रति सम्मान प्रदर्शित करने के लिए जन्मेजय के वंशज अपने को तुर क्षत्रिय कहने लगे।
- डॉ. देव सिंह निर्वाण ने एक आलेख में तोमर क्षत्रियों की 25 शाखाओं का उल्लेख किया है।
हैहय क्षत्रिय
- गोत्र- कृष्णात्रेय, कश्यप, शांडिल्यय, नारायण। प्रवर - तीन - कृष्णात्रेय, आत्रेय, व्यास। वेद - यजुर्वेद। देवी - दुर्गा।
- हैयय क्षत्रिय अपने को प्रतापी राजा कार्तवीर्य का वंशज मानते हैं। कुछ लोग उन्हे राजा हय का भी वंशज मानते हैं।
करचुलिया क्षत्रिय
- गोत्र- कश्यप। प्रवर - तीन - कश्यप, वत्सार, नैध्रुव। वेद - सामवेद। देवी - विन्ध्यवासिनी।
- संभवतः यह हैयय वंश की उपशाखा है।
कौशिक क्षत्रिय
सेंगर क्षत्रिय
- गोत्र- गौतम। प्रवर - तीन - गौतम, वशिष्ठ, बृहष्पति। वेद - यजुर्वेद। देवी - विन्ध्यवासिनी।
चंदेल क्षत्रिय
- गोत्र- चंद्रायण। प्रवर - तीन - चंद्रात्रेय, आत्रेय, संतातप। वेद-यजुर्वेद। देवी- मनिया देवी।
- राजा चन्द्र वर्मा की संतानों ने अपने को चंदेल क्षत्रिय उदघोषित किया।
- इस वंश का प्रधान स्थान ग्वालियर के पास का चंदेरी था जो आज भी अपनी साड़ियों के लिये प्रसिद्ध है।
- खजुराहो का मंदिर चंदेल राजाओं का ही बनवाया गया है।
गहरवार क्षत्रिय
- गोत्र- - कश्यप। प्रवर - तीन - कश्यप, वत्सार, नैध्रुव। वेद - सामवेद। देवी - अन्नपूर्णा।
बेरुवार क्षत्रिय
- गोत्र- कश्यप। प्रवर - तीन - कश्यप, वत्सार, नैध्रुव। वेद - सामवेद। देवी - चण्डिका।
सिरमौर क्षत्रिय
- गोत्र- कश्यप। प्रवर - तीन - कश्यप, वत्सार, नैध्रुव। वेद - सामवेद।
जनवार क्षत्रिय
- गोत्र- कौशिक। प्रवर - तीन - कौशिक, जमदग्नि, अत्रि। देवी - चण्डिका। वेद - यजुर्वेद।
भाला क्षत्रिय
- गोत्र- कश्यप। प्रवर - तीन - कश्यप, वत्सार, नैध्रुव। वेद - सामवेद। देवी - महाकाली।
पलिवार क्षत्रिय
- गोत्र- वेयाध्र। प्रवर - दो - वैयाध्र, सांकृति। वेद - सामवेद। फ़ाइजाबाद जिले में इनके नाम से एक पलिवारी क्षेत्र ही है।
गंगा वंशी क्षत्रिय
- गोत्र- अत्रि। प्रवर - तीन - अत्रि, आत्रेय, शातातप। वेद - यजुर्वेद। देवी - योगेश्वरी।
पुरुवंशी क्षत्रिय
- गोत्र- वृहस्पति। प्रवर - तीन - वृहस्पति, अंगीसर, भारद्वाज। वेद - यजुर्वेद। देवी - दुर्गा।
खाति क्षत्रिय
- गोत्र-अत्रि। प्रवर - तीन - अत्रि, आत्रेय, शातातप। वेद - यजुर्वेद। देवी - दुर्गा।
बुंदेला क्षत्रिय
- यह गहरवार वंश की एक उपशाखा है और गोत्रादि उसी के अनुसार है।
कान्हवंशी क्षत्रिय
रकसेल क्षत्रिय
- गोत्र- कौन्डिय। प्रवर - तीन - कौन्डिन्य, कौत्स, स्तिमिक। वेद - यजुर्वेद।
तिलोता क्षत्रिय
बनाफ़र क्षत्रिय
- गोत्र- कश्यप। प्रवर - तीन - कौन्डिन्य, कौत्स, स्तिमिक। वेद - यजुर्वेद। देवी - शारदा।
भारद्वाज क्षत्रिय
- गोत्र- कौन्डिअन्य। प्रवर - तीन - भारद्वाज, वृहस्पति, अंगीरस। वेद - सामवेद। देवी - श्रदा।
सरनिहा क्षत्रिय
- गोत्र- भारद्वाज। प्रवर - तीन - भारद्वाज, वृहस्पति, अंगीरस। वेद -सामवेद। देवी - दुर्गा।
हरद्वार क्षत्रिय
- गोत्र- भार्गव। प्रहर - तीन - भार्गव, नीलोहीत, रोहित।
चौपट खम्भ क्षत्रिय
- गोत्र- कश्यप। प्रवर - तीन - कश्यप, वत्सार, नैध्रुव। वेद - सामवेद।
कर्मवार क्षत्रिय
- गोत्र- भारद्वाज। प्रवर - तीन - भारद्वाज, वृहस्पति, अंगीरस। वेद - यजुर्वेद।
भृगु वंशी क्षत्रिय
- गोत्र- भार्गव। प्रवर- तीन - भार्गव, नीलोहित, रोहित। वेद - यजुर्वेद।
- चंद्र वंश की शाखा जो अग्नि वंश के रूप में प्रचारित हुई है। [1]
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