मृत्यु भोज, एक सामाजिक कलंक
इंसान स्वार्थ व खाने के लालच में कितना गिरता है उसका नमूना होती है सामाजिक कुरीतियां। ऐसी ही एक पीड़ा देने वाली कुरीति वर्षों पहले भोले-भाल हिन्दुओ में फैलाई गई थी वो है -मृत्युभोज!!! मानव विकास के रास्ते में यह गंदगी कैसे पनप गयी, समझ से परे है। जानवर भी अपने किसी साथी के मरने पर मिलकर दुःख प्रकट करते हैं, इंसानी बेईमान दिमाग की करतूतें देखो कि यहाँ किसी व्यक्ति के मरने पर उसके साथी, सगे-सम्बन्धी भोज करते हैं। मिठाईयाँ खाते हैं। किसी घर में खुशी का मौका हो, तो समझ आता है कि मिठाई बनाकर, खिलाकर खुशी का इजहार करें, खुशी जाहिर करें। लेकिन किसी व्यक्ति के मरने पर मिठाईयाँ परोसी जायें, खाई जायें, इस शर्मनाक परम्परा को मानवता की किस श्रेणी में रखें? इंसान की गिरावट को मापने का पैमाना कहाँ खोजे? इस भोज के भी अलग-अलग तरीके हैं। कहीं पर यह एक ही दिन में किया जाता है। कहीं तीसरे दिन से शुरू होकर बारहवें-तेहरवें दिन तक चलता है। कई लोग श्मशान घाट से ही सीधे मृत्युभोज का सामान लाने निकल पड़ते हैं। मैंने तो ऐसे लोगों को सलाह भी दी कि क्यों न वे श्मशान घाट पर ही टेंट लगाकर जीम लें ताकि अन्य जानवर आपको गिद्ध से अलग समझने की भूल न कर बैठे !
रिश्तेदारों को तो छोड़ो, पूरा गांव का गाँव व आसपास का पूरा क्षेत्र टूट पड़ता है खाने को! तब यह हैसियत दिखाने का अवसर बन जाता है। आस-पास के कई गाँवों से ट्रेक्टर-ट्रोलियों में गिद्धों की भांति जनता इस घृणित भोज पर टूट पड़ती है।
जब मैंने समाज के बुजुर्गों से बात की व इस कुरीति के चलन के बारे में पूछा, तो उन्होंने बताया कि उनके जमाने में ऐसा नहीं था। रिश्तेदार ही घर पर मिलने आते थे। उन्हें पड़ोसी भोजन के लिए ले जाया करते थे। सादा भोजन करवा देते थे। मृत व्यक्ति के घर बारह दिन तक कोई भोजन नहीं बनता था। 13 वें दिन कुछ सादे क्रियाकर्म होते थे। परिजन बिछुड़ने के गम को भूलने के लिए मानसिक सहारा दिया जाता था। लेकिन हम कहाँ पहुंच गए! परिजन के बिछुड़ने के बाद उनके परिवार वालों को जिंदगीभर के लिए एक और जख्म दे देते है।जीते जी चाहे इलाज के लिए 2,00 रुपये उधार न दिए हो लेकिन मृत्युभोज के लिए 2-3 लाख का कर्जा ओढ़ा देते है। ऐसा नहीं करो तो समाज में इज्जत नहीं बचेगी! क्या गजब पैमाने बनाये हैं हमने इज्जत के? इंसानियत को शर्मसार करके, परिवार को बर्बाद करके इज्जत पाने का पैमाना! कहीं-कहीं पर तो इस अवसर पर अफीम की मनुहार भी करनी पड़ती है। इसका खर्च मृत्युभोज के बराबर ही पड़ता है। जिनके कंधों पर इस कुरीति को रोकने का जिम्मा है वो नेता-अफसर खुद अफीम का जश्न मनाते नजर आते है। कपड़ों का लेन-देन भी ऐसे अवसरों पर जमकर होता है। कपड़े, केवल दिखाने के, पहनने लायक नहीं। बाप एक का मरा पगड़ी पुरै परीवार ने पहन ली बरबादी का ऐसा नंगा नाच, जिस समाज में चल रहा हो, वहाँ पर पूँजी कहाँ बचेगी? बच्चे कैसे पढ़ेगे?बीमारों का इलाज कैसे होगा?
घिन्न आती है जब यह देखते हैं कि जवान मौतों पर भी समाज के लोग जानवर बनकर मिठाईयाँ उड़ा रहे होते हैं। गिद्ध भी गिद्ध को नहीं खाता! पंजे वाले जानवर पंजे वाले जानवर को खाने से बचते है। लेकिन इंसानी चोला पहनकर घूम रहे ये दोपाया जानवरों को शर्म भी नहीं आती जब जवान बाप या माँ के मरने पर उनके बच्चे अनाथ होकर, सिर मुंडाये आस-पास घूम रहे होते हैं। और समाज के प्रतिष्ठित लोग उस परिवार की मदद करने के स्थान पर भोज कर रहे होते हैं।
जब भी बात करते है कि इस घिनौने कृत्य को बंद करो तो समाज के ऐसे-ऐसे कुतर्क शास्त्री खड़े हो जाते है .
A) माँ-बाप जीवन भर तुम्हारे लिए कमाकर गये हैं, तो उनके लिए तुम कुछ नहीं करोगे ??
इमोशनल अत्याचार शुरू कर देते है! चाहे अपना बाप घर के कोने में भूखा पड़ा हो लेकिन यहां ज्ञान बांटने जरूर आ जाता है! हकीकत तो यह है कि आजकल अधिकांश माँ-बाप कर्ज ही छोड़ कर जा रहे हैं। उनकी जीवन भर की कमाई भी तो कुरीतियों और दिखावे की भेंट चढ़ गयी। फिर अगर कुछ पैसा उन्होंने हमारे लिए रखा भी है, तो यह उनका फर्ज था। हम यही कर सकते हैं कि जीते जी उनकी सेवा कर लें। लेकिन जीते जी तो हम उनसे ठीक से बात नहीं करते। वे खोंसते रहते हैं, हम उठकर दवाई नहीं दे पाते हैं। अचरज होता है कि वही लोग बड़ा मृत्युभोज या दिखावा करते हैं, जिनके माँ-बाप जीवन भर तिरस्कृत रहे। खैर! चलिए, अगर माँ-बाप ने हमारे लिए कमाया है, तो उनकी याद में हम कई जनहित के कार्य कर सकते हैं, पुण्य कर सकते हैं। जरूरतमंदो की मदद कर दें, अस्पताल-स्कूल के कमरे बना दें, पेड़ लगा दें।परन्तु हट्टे-कट्टे लोगों को भोजन करवाने से कैसा पुण्य होगा? कुछ बुजुर्ग तो दो साल पहले इस चिंता के कारण मर जाते है कि मेरी मौत पर मेरा समाज ही मेरे बच्चों को नोंच डालेगा! मरने वाले को भी शांति से नहीं मरने देते हो! कैसा फर्ज व कैसा धर्म है तुम्हारा ??
B) आये मेहमानों को भूखा ही भेज दें क्या ??
पहली बात को शोक प्रकट करने आने वाले रिश्तेदार और मित्र, मेहमान नहीं होते हैं। उनको भी सोचना चाहिये कि शोक संतृप्त परिवार को और दुखी क्यों करें ?? अब तो साधन भी बहुत हैं। सुबह से शाम तक वापिस अपने घर पहुँचा जा सकता है। इस घिसे-पिटे तर्क को किनारे रख दें। मेहमाननवाजी खुशी के मौकों पर की जाती है, मौत पर नहीं!! बेहतर यही होगा कि हम जब शोक प्रकट करने जायें, तो खुद ही भोजन या अन्य मनुहार को नकार दें। समस्या ही खत्म हो जायेगी।
C) तुमने भी तो खाया था तो खिलाना भी पड़ेगा !!
यह मुर्ग़ी पहले आई या अंडा पहले आया वाला नाटक बंद करो। यह समस्या कभी नहीं सुलझेगी! अब आप बुला लो, फिर वे बुलायेंगे। फिर कुछ और लोग जोड़ दो। इनसानियत पहले से ही इस कृत्य पर शर्मिंदा है, अब और मत करो। किसी व्यक्ति के मरने पर उसके घर पर जाकर भोजन करना ही इंसानी बेईमानी की पराकाष्ठा है और अब इतनी पढ़ाई-लिखाई के बाद तो यह चीज प्रत्येक समझदार व्यक्ति को मान लेनी चाहिए। गाँव और क़स्बों में गिद्धों की तरह मृत व्यक्तियों के घरों में मिठाईयों पर टूट पड़ते लोगों की तस्वीरें अब दिखाई नहीं देनी चाहिए।
इस कुरीति को मिटाने का एक ही उपाय है कि
आओ आप और हम ये शपथ ले की हम इस प्रकार के आयोजनों में भोजन नही करेंगे
धन्यवाद
.सोच बदले .....समाज बदले ... ..
हम सुधरेंगे ....समाज सुधरेगा
समाज सेवी
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