मंगलवार, 29 दिसंबर 2015

सावित्री बाई फुले की जीवनी

सावित्री बाई फुले (1831-97) को सामान्यतः महात्मा जोतिबा फुले की पत्नी और उनके मिशन में उनकी सहयोगी भूमिका के लिए ही याद किया जाता है जो निश्चित ही महत्व की बात है परन्तु इसमें एक बड़ी कमी यह है कि इस प्रयास में सावित्री बाई फुले के कार्य और उनके नेतृत्व कि प्रायः अनदेखी हो जाती है. इसमे कोई शक नहीं कि सावित्री बाई ने अपने पति जोतिबा फुले से शिक्षा और प्रेरणा ग्रहण की पर इसमे उनकी स्वयं की रूचि, उत्साह और लगन की भूमिका थी पर साथ ही यह भी उतनी ही बड़ी सच्चाई है की उनके कार्य के पीछे स्वयं की भी लगन, मेहनत और समर्पण था.
सावित्री जब छोटी थी और पढ़ना-लिखना नहीं जानती थी तब एक बार वह अपने घर में अंग्रेजी की एक किताब के पन्ने पलट रही थी, तभी उनपर अचानक उनके पिताजी की नज़र पड़ी जो अपनी बेटी के पढने के प्रयास से एकदम चिढ गए. उन्होंने गुस्से में तुरंत उस किताब को छीनकर खिड़की से बाहर फेंकते हुए सावित्री को यह धमकी दी कि यदि उसने भविष्य में पढने का प्रयास किया तो यह उसके लिए अच्छा नहीं होगा! सावित्री के पिताजी का यह कहना हिन्दू धर्म के नियमों के अनुसार एकदम सही था क्योंकि तत्कालीन हिन्दू धर्म में महिलाओं का जन्म सिर्फ और सिर्फ पुरुष वर्ग की सेवा के लिए ही समझा जाता था, इसलिए यहाँ तक कि पति द्वारा उसकी पत्नी को मारना-पीटना और दुर्व्यवहार करना तक धर्म सम्मत समझा जाता था. जाहिर है सावित्री बचपन में उनके पिता का प्रतिरोध नहीं कर सकती थी इसलिए वह चुप रही. पर ऐसा नहीं कि वह सबकुछ बर्दाश्त कर गयी बल्कि वह चुपके से बाहर गयी और उस किताब को छिपाकर वापस ले आई और उसने यह निश्चय किया कि वह एक न एक दिन पढ़ना ज़रूर सीखेगी और तब वह इस किताब को भी पढ़ेंगी. सावित्री का विश्वास आखिर उस दिन रंग लाया जब उनकी शादी महान सामाजिक क्रांतिकारी महात्मा जोतिबा फुले से हुई. जोतिबा चूँकि शिक्षा के प्रबल समर्थक थे एवं वह महिलाओं की आत्मनिर्भरता और मुक्ति के लिए शिक्षा को अनिवार्य अस्त्र मानते थे, इसलिए उन्होंने सावित्री बाई फुले को स्वयं शिक्षित किया. सावित्री बाई ने शिक्षा अर्जित करने के बाद इस विधा का उपयोग समाज के लिए करना आरम्भ किया और उन्होंने अन्य महिलाओं को पढ़ाने की ज़िम्मेदार स्वयं अपने कंधों पर ली. यह एक बहुत बड़ी चुनौती थी क्योंकि उस समय जब स्वयं सावित्री बाई के पिता ही उनकी पढाई के विरोधी थे तो जाहिर है कि बाकी समाज भी लडकियों को शिक्षित करने के खिलाफ था, क्योंकि उसका मानना था की लडकियों को शादी के बाद ससुराल ही जाना होता है जहाँ उनकी जिम्मेदारी चूल्हा-चौका ही होती है ऐसे में वे पढ़ लिखकर भला क्या हासिल कर लेंगी. ऐसे समय सावित्री बाई का महिलाओं को पढाई के लिए प्रेरित करना कितना कठिन काम रहा होगा इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता हैं. अब सावित्री बाई ने उस किताब को भी पढ़ डाला जिसे उन्होंने बचपन से अपनी पिता की नज़रों से बचा कर अपने पास रखा था. स्त्रियों में शिक्षा प्रचारित करने के लिए सावित्री फुले ने जहाँ स्वयं शिक्षिका बनकर पहल तो कि वहीँ उन्होंने महिला शिक्षकों की एक टीम भी तैयार की इसमें उन्हें फातिमा शेख नाम की एक महिला का भरपूर सहयोग मिला. १८४८ में उन्होंने पूना में पहला स्कूल स्थापित किया जिसमें कुल नौ लडकियो ने दाखिला लिया उनके स्कूल के लिए पुस्तकों का प्रबंध सदाशिव गोवंदे ने किया. सावित्री बाई इतना अच्छी तरह पढ़ाती थी कि कुछ ही दिनों में उनका स्कूल प्रतिष्ठित सरकारी स्कूल से भी अच्छा परिणाम देने लगा, हालाँकि उन्हें बीच में कुछ समय के लिए अपना स्कूल बंद करना पड़ा था पर उनके अदम्य उत्साह और जज्बे से उन्होंने तुरंत ही दुबारा अपना स्कूल एक नयी जगह आरम्भ कर दिया. उस काल में स्त्री शिक्षा एक विद्रोही कदम था और यह मानव समाज खासकर भारतीय परिप्रेक्ष्य में एक विशेषता रही है कि सामाजिक व्यवस्था में पीड़ित होने के बावज़ूद स्त्री इसका विरोध करना तो दूर बल्कि इस व्यवस्था का विरोध करने वालो पर ही दोषारोपण करने लगती है. इसलिए सावित्री बाई का सर्वाधिक विरोध महिलाओं द्वारा ही हुआ, जो न सिर्फ उन्हें तरह-तरह के ताने मार के प्रताड़ित किया करती थी, बल्कि उनमें से कई महिलाएं तो सावित्री बाई फुले के स्कूल आते-जाते वक़्त उनपर गोबर और पत्थर तक फेंका करती थी. ऐसे में उनके कपडे और चेहरा गन्दा हो जाया करता था. स्पष्ट है कि सावित्री बाई फुले को इन विरोध से कितना गहरा मानसिक कष्ट होता होगा पर सावित्री ने बिल्कुल भी हिम्मत नहीं हारी और उल्टा इन सबको मुंह तोड़ जवाब देते हुए अपने साथ एक और साड़ी ले जाने लगी जिसे वह स्कूल जाकर पहन लिया करती थी तथा वापिस आते समय फिर वही गन्दी साड़ी बदल लिया करती थी.
इसी समय जब सावित्री-जोतिबा फुले ने अपने घर के कुए को जब दलितों के खोला तो इसने उनके ससुर, जो पहले ही महिलाओं को शिक्षित करने के प्रयासों से चिढ़े बैठे थे को यह आग में घी डालने का काम लगा. उन्होंने ने इसे हिन्दू धार्मिक मान्यतों के विरुद्ध माना और अब कठोरता की सारी हदे लांघकर महात्मा फुले को अपने घर से निष्कासित कर दिया. सावित्री इस समय बड़ी मजबूती से महात्मा फुले के साथ खड़ी हुई और उन्होंने अपने पति का साथ देते हुए घर छोड़ना मंज़ूर किया. वह दृढ़ता के साथ समाज को जागरूक करने के अपने मिशन से जुडी रही, उनका यह प्रयास जल्द ही सभी को नज़र आने लगा १६ नवम्बर १८५२ शिक्षा विभाग ने उन्हें शाल देकर जनता के समक्ष सम्मानित किया. सावित्री बाई का शिक्षिका के रूप में प्रभावी होने का असर उनके विद्यार्थियों पर भी खूब हुआ १८५५ में उनकी एक ग्यारह वर्षीय छात्रा मुक्ताबाई ने द्यानोदय में एक प्रभावशाली निबंध लिखा जिसमे उन्होंने दलित समाज की व्यथा और ब्राह्मणी धरम पाखंड को प्रस्तुत किया. सावित्री न सिर्फ भारत की पहली महिला शिक्षिका थी बल्कि उनकी लेखनी भी बेहद प्रभावी थी उन्होंने १८५४ में उनका पहला संग्रह ‘काव्य फुले’ प्रकाशित हुआ जो अपने किस्म का पहला ऐतिहासिक साहित्य सिद्ध हुआ क्योंकि इसमे उन्होंने मराठी के प्रचिलित अभंगो की ही शैली में अपने काव्य को प्रस्तुत किया जिसमे उनकी भाषा सरल और प्रभावी थी इसमे कुछ कविताये जहाँ प्रकृति पर थी वन्ही अधिकांश कविताओं में शिक्षा, जाति व्यवस्था और गुलामी की समस्याओं को उठाया गया था. इस संग्रह को आज मराठी साहित्य का आधार माना जाता है. उनका एक महत्वपूर्ण काव्य संग्रह महात्मा फुले की जीवनी पर था, जो बावन कशी सुबोध रत्नाकर नाम से १८९१ में प्रकशित हुआ. इन रचनाओं के अलावा सावित्री बाई फुले ने कुछ किताबों का संपादन भी किया इनमे चार पुस्तकें जोतिबा फुले के भारतीय इतिहास पर व्याख्यान विषय पर थी, १८९२ में उन्होंने खुद के भाषणों का भी सम्पादन किया. अपने एक निबंध ‘क़र्ज़’ में सावित्री बाई लिखती हैं की त्योहारों और कर्मकाण्डो को मनाने के लिए क़र्ज़ लेना सबसे बड़ी बेवकूफी हैं क्योंकि इससे तथाकथित परलोक तो नहीं सुधरने वाला बल्कि क़र्ज़ में डूबने से ज़िन्दगी ही बर्बाद होगी. वे कहा करती थी “कड़ी मेहनत करो, अच्छे से पढाई करो और अच्छा काम करो”.उन्होंने उस समय ही यह जान लिया था कि दलित-बहुजनो की प्रगति का सबसे बड़ा आधार अंग्रेजी भाषा ही हो सकती है, इसलिए उन्होंने को मुक्ति-दायिनी माता कहा और अंग्रेजी का महत्व उजागर करते हुए उन्होंने ‘माँ अंग्रेजी’ शीर्षक से एक कविता भी लिखी जिसमें उन्होंने बताया कि पेशवा राज की समाप्ति और ब्रिटिशों का भारत में आगमन दलित-बहुजनों (अनुसूचित जाति/जनजाति और ओबीसी) के लिए कितना लाभदायक रहा. गौरतलब है कि हिन्दू राज्य में जहाँ दलितों को सार्वजनिक स्थानों पर चलने तक का अधिकार नहीं था वहीँ भारत में अंग्रेजी राज स्थापित होने के बाद दलितों को शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार के नए अवसर मिलने लगे थे. सावित्री बाई की महिलाओं की स्थिति सुधरने में बहुत बड़ी भूमिका रही उन्होंने महात्मा फुले के प्रत्येक स्त्री समर्थक कार्यो को स्वयं कार्यरूप देकर व्यावहारिकता के अंजाम तक पहुँचाया. जातीय हिन्दू विधवाएं जब उनके घर से लांछित होकर बेघर कर दी जाती थी तब उन्हें सहारा देने के उद्देश्य से सावित्री-जोतिबा फुले ने विधवा आश्रम की स्थापना की जहाँ सावित्री अपने सहयोगियों के साथ इन विधवाओं के प्रसव और देखभाल की जिम्मेदारी स्वयं ही उठाया करती थी और सबसे बड़ी बात की जब उन्होंने देखा की जातीय हिन्दू तबका अपनी विधवाओं को जबरन सर मुंडवाया करता हैं हो उन्होंने इसके खिलाफ स्वयं मोर्चा खोला और १८६० में नाइयों से विधवाओं के सर मुंडवाने का विरोध करते हुए सफल हड़ताल करवाई. सावित्री बाई फुले ने विधवा पुनर्विवाह में भी महत्वपूर्ण भूमिका निबाही २५ दिसम्बर १८७३ को उन्होंने पहला विधवा विवाह करवाया जिसका आम हिन्दू जनो द्वारा कड़ा विरोध किया गया पर फुले ने पहले ही पुलिस की व्यवस्था कर ली गयी थी इसलिए उन्हें विशेष परेशानी का सामना नहीं करना पड़ा. यह विवाह इस रूप में भी क्रान्तिकारी थे कि इनमें ब्रह्मण पुरोहित को शामिल नहीं किया गया था. जोतिबा फुले ने अपने सत्यशोधक समाज के माध्यम से खुद विवाह विधि तैयार की थी जिसमें उन्होंने विवाह के लिए प्रयुक्त मंगल आष्टक में स्त्री-पुरुष को एक समान और मित्रवत मानने की प्रतिज्ञा करवाई जाती थी, उस समय इस तरह की विधि का पालन करवाया जाना एक बहुत बड़ा विद्रोही कदम था. नवंबर २८, १८९० को जब महात्मा फुले की रोगियों की सेवा करते हुए स्वयं रोगग्रस्त हो जाने से मृत्यु हुई तो उनके अंतिम संस्कार के लिए उनके भतीजो ने संस्कार अपने हाथ में लेना चाहा लेकिन इस वक़्त उनके बेटे यशवंत और सावित्री दोनों ने ही विरोध करते हुए महात्मा फुले का अंतिम संस्कार अपने हाथ से किया. सावित्री भारत के इतिहास में पहली महिला थी जिसने अपने पति की चिता को अग्नि देकर पुरुषवादी वर्चस्व को चुनौती देते हुए समता की नींव रखी थी. इतना ही नहीं महात्मा फुले के बाद सावित्री बाई फुले ने खुद सत्यशोधक समाज की ज़िम्मेदारी भी अपने कंधो पर ली १८९३ में उन्होंने ससवाद में सत्यशोधक समाज की मीटिंग में अध्यक्षता भी की. १८९६ के अकाल में सावित्री पीडितो के सहयोग के अत्यधिक संघर्ष करती रही और उन्होंने सरकार के सामने कल्याणकारी कदम उठाने के लिए दबाव बनाने में सफल हुई. १८९७ में पूना प्लेग की चपेट में आ गया तब भी सावित्री बाई ने बिना अपने जीवन की परवाह करते हुए स्वयं को रोगियों की सेवा में झोंक दिया प्लेग के दिनों में सावित्री बाई प्रतिदिन दो हज़ार बच्चो को खाना खिलाया करती थी पर एक दिन एक बीमार बच्चे की देखभाल करते वक़्त वह खुद भी इस बिमारी का शिकार हो गयी और अंततः उन्होंने १० मार्च १८९७ को दम तोड़ दिया. वन्ही उनका बेटा भी अपने माता-पिता की तरह ही जीवन के अंतिम क्षण तक रोगियों की सेवा करते हुए शहीद हुआ.सावित्री बाई का स्त्री होना उनके लिए कभी भी कमजोरी या कोई बहाना नहीं रहा, बल्कि यह उनके लिए लाभदायक रहा. स्वयं स्त्री होने के नाते बड़ी ही आसानी से वे महात्मा फुले के मिशन को कार्यरूप दे पायी. आज भले ही अधिकांश लोग सावित्री बाई फुले को महात्मा फुले की पत्नी और सहयोगी के रूप में जानते हो पर सच्चाई यह है की महात्मा फुले का सम्पूर्ण मिशन को स्थापित करने और संचालित करने में सावित्री बाई फुले की सबसे बड़ी भूमिका हैं. इसमें कुछ भी शक नहीं की सावित्री बाई फुले ने ही महात्मा फुले के सपने को मूर्तरूप दिया. उनका त्याग, समर्पण, सेवा-भाव जज़्बा और हिम्मत आज भी हम सभी के लिए प्रेरणास्रोत है जो भारत क्या विश्व के इतिहास में अतुलनीय है. ~~~
सेवंती पटेल द्वारा प्रस्तुत सावित्री बाई फुले की यह जीवनी मुख्यतः फुलवन्ताबाई झोडगे, एम् जी माली द्वारा लिखित सावित्री बाई फुले की जीवनियों और ब्रजरंजन मणि और पामेल सरदार द्वारा संपादित ‘ए फोर्गोटन लिबरेटर: दी लाइफ एंड स्ट्रगल ऑफ सावित्रीबाई फुले’ के आधार पर लिखी गयी है.

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