मंगलवार, 29 दिसंबर 2015

सावित्री बाई फुले की जीवनी

सावित्री बाई फुले (1831-97) को सामान्यतः महात्मा जोतिबा फुले की पत्नी और उनके मिशन में उनकी सहयोगी भूमिका के लिए ही याद किया जाता है जो निश्चित ही महत्व की बात है परन्तु इसमें एक बड़ी कमी यह है कि इस प्रयास में सावित्री बाई फुले के कार्य और उनके नेतृत्व कि प्रायः अनदेखी हो जाती है. इसमे कोई शक नहीं कि सावित्री बाई ने अपने पति जोतिबा फुले से शिक्षा और प्रेरणा ग्रहण की पर इसमे उनकी स्वयं की रूचि, उत्साह और लगन की भूमिका थी पर साथ ही यह भी उतनी ही बड़ी सच्चाई है की उनके कार्य के पीछे स्वयं की भी लगन, मेहनत और समर्पण था.
सावित्री जब छोटी थी और पढ़ना-लिखना नहीं जानती थी तब एक बार वह अपने घर में अंग्रेजी की एक किताब के पन्ने पलट रही थी, तभी उनपर अचानक उनके पिताजी की नज़र पड़ी जो अपनी बेटी के पढने के प्रयास से एकदम चिढ गए. उन्होंने गुस्से में तुरंत उस किताब को छीनकर खिड़की से बाहर फेंकते हुए सावित्री को यह धमकी दी कि यदि उसने भविष्य में पढने का प्रयास किया तो यह उसके लिए अच्छा नहीं होगा! सावित्री के पिताजी का यह कहना हिन्दू धर्म के नियमों के अनुसार एकदम सही था क्योंकि तत्कालीन हिन्दू धर्म में महिलाओं का जन्म सिर्फ और सिर्फ पुरुष वर्ग की सेवा के लिए ही समझा जाता था, इसलिए यहाँ तक कि पति द्वारा उसकी पत्नी को मारना-पीटना और दुर्व्यवहार करना तक धर्म सम्मत समझा जाता था. जाहिर है सावित्री बचपन में उनके पिता का प्रतिरोध नहीं कर सकती थी इसलिए वह चुप रही. पर ऐसा नहीं कि वह सबकुछ बर्दाश्त कर गयी बल्कि वह चुपके से बाहर गयी और उस किताब को छिपाकर वापस ले आई और उसने यह निश्चय किया कि वह एक न एक दिन पढ़ना ज़रूर सीखेगी और तब वह इस किताब को भी पढ़ेंगी. सावित्री का विश्वास आखिर उस दिन रंग लाया जब उनकी शादी महान सामाजिक क्रांतिकारी महात्मा जोतिबा फुले से हुई. जोतिबा चूँकि शिक्षा के प्रबल समर्थक थे एवं वह महिलाओं की आत्मनिर्भरता और मुक्ति के लिए शिक्षा को अनिवार्य अस्त्र मानते थे, इसलिए उन्होंने सावित्री बाई फुले को स्वयं शिक्षित किया. सावित्री बाई ने शिक्षा अर्जित करने के बाद इस विधा का उपयोग समाज के लिए करना आरम्भ किया और उन्होंने अन्य महिलाओं को पढ़ाने की ज़िम्मेदार स्वयं अपने कंधों पर ली. यह एक बहुत बड़ी चुनौती थी क्योंकि उस समय जब स्वयं सावित्री बाई के पिता ही उनकी पढाई के विरोधी थे तो जाहिर है कि बाकी समाज भी लडकियों को शिक्षित करने के खिलाफ था, क्योंकि उसका मानना था की लडकियों को शादी के बाद ससुराल ही जाना होता है जहाँ उनकी जिम्मेदारी चूल्हा-चौका ही होती है ऐसे में वे पढ़ लिखकर भला क्या हासिल कर लेंगी. ऐसे समय सावित्री बाई का महिलाओं को पढाई के लिए प्रेरित करना कितना कठिन काम रहा होगा इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता हैं. अब सावित्री बाई ने उस किताब को भी पढ़ डाला जिसे उन्होंने बचपन से अपनी पिता की नज़रों से बचा कर अपने पास रखा था. स्त्रियों में शिक्षा प्रचारित करने के लिए सावित्री फुले ने जहाँ स्वयं शिक्षिका बनकर पहल तो कि वहीँ उन्होंने महिला शिक्षकों की एक टीम भी तैयार की इसमें उन्हें फातिमा शेख नाम की एक महिला का भरपूर सहयोग मिला. १८४८ में उन्होंने पूना में पहला स्कूल स्थापित किया जिसमें कुल नौ लडकियो ने दाखिला लिया उनके स्कूल के लिए पुस्तकों का प्रबंध सदाशिव गोवंदे ने किया. सावित्री बाई इतना अच्छी तरह पढ़ाती थी कि कुछ ही दिनों में उनका स्कूल प्रतिष्ठित सरकारी स्कूल से भी अच्छा परिणाम देने लगा, हालाँकि उन्हें बीच में कुछ समय के लिए अपना स्कूल बंद करना पड़ा था पर उनके अदम्य उत्साह और जज्बे से उन्होंने तुरंत ही दुबारा अपना स्कूल एक नयी जगह आरम्भ कर दिया. उस काल में स्त्री शिक्षा एक विद्रोही कदम था और यह मानव समाज खासकर भारतीय परिप्रेक्ष्य में एक विशेषता रही है कि सामाजिक व्यवस्था में पीड़ित होने के बावज़ूद स्त्री इसका विरोध करना तो दूर बल्कि इस व्यवस्था का विरोध करने वालो पर ही दोषारोपण करने लगती है. इसलिए सावित्री बाई का सर्वाधिक विरोध महिलाओं द्वारा ही हुआ, जो न सिर्फ उन्हें तरह-तरह के ताने मार के प्रताड़ित किया करती थी, बल्कि उनमें से कई महिलाएं तो सावित्री बाई फुले के स्कूल आते-जाते वक़्त उनपर गोबर और पत्थर तक फेंका करती थी. ऐसे में उनके कपडे और चेहरा गन्दा हो जाया करता था. स्पष्ट है कि सावित्री बाई फुले को इन विरोध से कितना गहरा मानसिक कष्ट होता होगा पर सावित्री ने बिल्कुल भी हिम्मत नहीं हारी और उल्टा इन सबको मुंह तोड़ जवाब देते हुए अपने साथ एक और साड़ी ले जाने लगी जिसे वह स्कूल जाकर पहन लिया करती थी तथा वापिस आते समय फिर वही गन्दी साड़ी बदल लिया करती थी.
इसी समय जब सावित्री-जोतिबा फुले ने अपने घर के कुए को जब दलितों के खोला तो इसने उनके ससुर, जो पहले ही महिलाओं को शिक्षित करने के प्रयासों से चिढ़े बैठे थे को यह आग में घी डालने का काम लगा. उन्होंने ने इसे हिन्दू धार्मिक मान्यतों के विरुद्ध माना और अब कठोरता की सारी हदे लांघकर महात्मा फुले को अपने घर से निष्कासित कर दिया. सावित्री इस समय बड़ी मजबूती से महात्मा फुले के साथ खड़ी हुई और उन्होंने अपने पति का साथ देते हुए घर छोड़ना मंज़ूर किया. वह दृढ़ता के साथ समाज को जागरूक करने के अपने मिशन से जुडी रही, उनका यह प्रयास जल्द ही सभी को नज़र आने लगा १६ नवम्बर १८५२ शिक्षा विभाग ने उन्हें शाल देकर जनता के समक्ष सम्मानित किया. सावित्री बाई का शिक्षिका के रूप में प्रभावी होने का असर उनके विद्यार्थियों पर भी खूब हुआ १८५५ में उनकी एक ग्यारह वर्षीय छात्रा मुक्ताबाई ने द्यानोदय में एक प्रभावशाली निबंध लिखा जिसमे उन्होंने दलित समाज की व्यथा और ब्राह्मणी धरम पाखंड को प्रस्तुत किया. सावित्री न सिर्फ भारत की पहली महिला शिक्षिका थी बल्कि उनकी लेखनी भी बेहद प्रभावी थी उन्होंने १८५४ में उनका पहला संग्रह ‘काव्य फुले’ प्रकाशित हुआ जो अपने किस्म का पहला ऐतिहासिक साहित्य सिद्ध हुआ क्योंकि इसमे उन्होंने मराठी के प्रचिलित अभंगो की ही शैली में अपने काव्य को प्रस्तुत किया जिसमे उनकी भाषा सरल और प्रभावी थी इसमे कुछ कविताये जहाँ प्रकृति पर थी वन्ही अधिकांश कविताओं में शिक्षा, जाति व्यवस्था और गुलामी की समस्याओं को उठाया गया था. इस संग्रह को आज मराठी साहित्य का आधार माना जाता है. उनका एक महत्वपूर्ण काव्य संग्रह महात्मा फुले की जीवनी पर था, जो बावन कशी सुबोध रत्नाकर नाम से १८९१ में प्रकशित हुआ. इन रचनाओं के अलावा सावित्री बाई फुले ने कुछ किताबों का संपादन भी किया इनमे चार पुस्तकें जोतिबा फुले के भारतीय इतिहास पर व्याख्यान विषय पर थी, १८९२ में उन्होंने खुद के भाषणों का भी सम्पादन किया. अपने एक निबंध ‘क़र्ज़’ में सावित्री बाई लिखती हैं की त्योहारों और कर्मकाण्डो को मनाने के लिए क़र्ज़ लेना सबसे बड़ी बेवकूफी हैं क्योंकि इससे तथाकथित परलोक तो नहीं सुधरने वाला बल्कि क़र्ज़ में डूबने से ज़िन्दगी ही बर्बाद होगी. वे कहा करती थी “कड़ी मेहनत करो, अच्छे से पढाई करो और अच्छा काम करो”.उन्होंने उस समय ही यह जान लिया था कि दलित-बहुजनो की प्रगति का सबसे बड़ा आधार अंग्रेजी भाषा ही हो सकती है, इसलिए उन्होंने को मुक्ति-दायिनी माता कहा और अंग्रेजी का महत्व उजागर करते हुए उन्होंने ‘माँ अंग्रेजी’ शीर्षक से एक कविता भी लिखी जिसमें उन्होंने बताया कि पेशवा राज की समाप्ति और ब्रिटिशों का भारत में आगमन दलित-बहुजनों (अनुसूचित जाति/जनजाति और ओबीसी) के लिए कितना लाभदायक रहा. गौरतलब है कि हिन्दू राज्य में जहाँ दलितों को सार्वजनिक स्थानों पर चलने तक का अधिकार नहीं था वहीँ भारत में अंग्रेजी राज स्थापित होने के बाद दलितों को शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार के नए अवसर मिलने लगे थे. सावित्री बाई की महिलाओं की स्थिति सुधरने में बहुत बड़ी भूमिका रही उन्होंने महात्मा फुले के प्रत्येक स्त्री समर्थक कार्यो को स्वयं कार्यरूप देकर व्यावहारिकता के अंजाम तक पहुँचाया. जातीय हिन्दू विधवाएं जब उनके घर से लांछित होकर बेघर कर दी जाती थी तब उन्हें सहारा देने के उद्देश्य से सावित्री-जोतिबा फुले ने विधवा आश्रम की स्थापना की जहाँ सावित्री अपने सहयोगियों के साथ इन विधवाओं के प्रसव और देखभाल की जिम्मेदारी स्वयं ही उठाया करती थी और सबसे बड़ी बात की जब उन्होंने देखा की जातीय हिन्दू तबका अपनी विधवाओं को जबरन सर मुंडवाया करता हैं हो उन्होंने इसके खिलाफ स्वयं मोर्चा खोला और १८६० में नाइयों से विधवाओं के सर मुंडवाने का विरोध करते हुए सफल हड़ताल करवाई. सावित्री बाई फुले ने विधवा पुनर्विवाह में भी महत्वपूर्ण भूमिका निबाही २५ दिसम्बर १८७३ को उन्होंने पहला विधवा विवाह करवाया जिसका आम हिन्दू जनो द्वारा कड़ा विरोध किया गया पर फुले ने पहले ही पुलिस की व्यवस्था कर ली गयी थी इसलिए उन्हें विशेष परेशानी का सामना नहीं करना पड़ा. यह विवाह इस रूप में भी क्रान्तिकारी थे कि इनमें ब्रह्मण पुरोहित को शामिल नहीं किया गया था. जोतिबा फुले ने अपने सत्यशोधक समाज के माध्यम से खुद विवाह विधि तैयार की थी जिसमें उन्होंने विवाह के लिए प्रयुक्त मंगल आष्टक में स्त्री-पुरुष को एक समान और मित्रवत मानने की प्रतिज्ञा करवाई जाती थी, उस समय इस तरह की विधि का पालन करवाया जाना एक बहुत बड़ा विद्रोही कदम था. नवंबर २८, १८९० को जब महात्मा फुले की रोगियों की सेवा करते हुए स्वयं रोगग्रस्त हो जाने से मृत्यु हुई तो उनके अंतिम संस्कार के लिए उनके भतीजो ने संस्कार अपने हाथ में लेना चाहा लेकिन इस वक़्त उनके बेटे यशवंत और सावित्री दोनों ने ही विरोध करते हुए महात्मा फुले का अंतिम संस्कार अपने हाथ से किया. सावित्री भारत के इतिहास में पहली महिला थी जिसने अपने पति की चिता को अग्नि देकर पुरुषवादी वर्चस्व को चुनौती देते हुए समता की नींव रखी थी. इतना ही नहीं महात्मा फुले के बाद सावित्री बाई फुले ने खुद सत्यशोधक समाज की ज़िम्मेदारी भी अपने कंधो पर ली १८९३ में उन्होंने ससवाद में सत्यशोधक समाज की मीटिंग में अध्यक्षता भी की. १८९६ के अकाल में सावित्री पीडितो के सहयोग के अत्यधिक संघर्ष करती रही और उन्होंने सरकार के सामने कल्याणकारी कदम उठाने के लिए दबाव बनाने में सफल हुई. १८९७ में पूना प्लेग की चपेट में आ गया तब भी सावित्री बाई ने बिना अपने जीवन की परवाह करते हुए स्वयं को रोगियों की सेवा में झोंक दिया प्लेग के दिनों में सावित्री बाई प्रतिदिन दो हज़ार बच्चो को खाना खिलाया करती थी पर एक दिन एक बीमार बच्चे की देखभाल करते वक़्त वह खुद भी इस बिमारी का शिकार हो गयी और अंततः उन्होंने १० मार्च १८९७ को दम तोड़ दिया. वन्ही उनका बेटा भी अपने माता-पिता की तरह ही जीवन के अंतिम क्षण तक रोगियों की सेवा करते हुए शहीद हुआ.सावित्री बाई का स्त्री होना उनके लिए कभी भी कमजोरी या कोई बहाना नहीं रहा, बल्कि यह उनके लिए लाभदायक रहा. स्वयं स्त्री होने के नाते बड़ी ही आसानी से वे महात्मा फुले के मिशन को कार्यरूप दे पायी. आज भले ही अधिकांश लोग सावित्री बाई फुले को महात्मा फुले की पत्नी और सहयोगी के रूप में जानते हो पर सच्चाई यह है की महात्मा फुले का सम्पूर्ण मिशन को स्थापित करने और संचालित करने में सावित्री बाई फुले की सबसे बड़ी भूमिका हैं. इसमें कुछ भी शक नहीं की सावित्री बाई फुले ने ही महात्मा फुले के सपने को मूर्तरूप दिया. उनका त्याग, समर्पण, सेवा-भाव जज़्बा और हिम्मत आज भी हम सभी के लिए प्रेरणास्रोत है जो भारत क्या विश्व के इतिहास में अतुलनीय है. ~~~
सेवंती पटेल द्वारा प्रस्तुत सावित्री बाई फुले की यह जीवनी मुख्यतः फुलवन्ताबाई झोडगे, एम् जी माली द्वारा लिखित सावित्री बाई फुले की जीवनियों और ब्रजरंजन मणि और पामेल सरदार द्वारा संपादित ‘ए फोर्गोटन लिबरेटर: दी लाइफ एंड स्ट्रगल ऑफ सावित्रीबाई फुले’ के आधार पर लिखी गयी है.

महात्मा जोतिबा फुले (1827-1890)


~ रत्नेश कातुलकर
आधुनिक भारत में सामाजिक क्रांति के अग्रदूत के रूप में यूँ तो सभी बंगाल के भद्रलोक जैसे राजा राम मोहन रॉय, केशव चंद्रसेन, इश्वर चंद विद्यासागर आदि के बारे में स्कूलों और अन्य पाठ्यक्रमो में पढ़ते रहे हैं जिनकी बंगाल प्रान्त में उच्च वर्णीय महिलाओ को दयनीय स्थिति से निकालने में प्रभावी भूमिका थी पर देश के मध्यप्रांत में जन्मे महात्मा जोतीराव फुले इन तमाम उच्च वर्णीय समाज सुधारको से अलग समाज के निम्न समझे जाने वाले अन्य पिछड़े वर्ग की माली जाति से थे जिन्होंने न सिर्फ महिलाओ की दशा सुधारने के अप्रतिम प्रयास किये बल्कि देश में व्याप्त जातिप्रथा और हिन्दू धर्म के तमाम पाखंडो और कुरीतियों के खिलाफ संघर्ष का आगाज़ करते हुए दलित और अन्य पिछड़े समाज के स्त्री-पुरुषो में जाग्रति और शिक्षा का प्रसार करते हुए उन्हें आत्म सम्मान और अधिकारों के लिए आंदोलित किया. महात्मा फुले का कार्य निश्चित ही अधिक चुनौतीपूर्ण था क्योंकि स्वयं शूद्र होने के नाते उन्हें न सिर्फ स्वयं सामाजिक व्यवस्था के भार का शिकार भी होना पद रहा था बल्कि वे इन भद्र्लोको से सभी मायने में काफी आगे थे.एक बार की बात है कि वे अपने एक करीबी ब्राह्मण मित्र की शादी में बरात में गए तभी जैसे ही ब्राह्मणों को इस बात कि भनक पड़ी कि उनके बरात में कोई शूद्र भी शामिल है तो उन्होंने तुरंत बरात रोककर फुले को गली-गलौच देकर अपमानित करना शुरू कर दिया अंततः उन्हें बरात छोड़ कर आना पड़ा. यह बात उन्हें इतनी घर कर गई कि उन्होंने इसके बाद का सारा जीवन ब्राह्मणवादी व्यवस्था और पाखंडो को नष्ट करने के लिए ही कुर्बान कर दिया.गौरतलब है कि महात्मा फुले ने वर्तमान गतिशील शूद्र जातियों की तरह स्वयं अपनी जाति को ब्राह्मणी व्यवस्था में स्थान दिलवाने की कोई चेष्टा नहीं कि अपितु उन्होंने इस ऊँच-नीच की पूरी व्यवस्था को ही जड़ से नष्ट करने का अभियान छेड़ दिया. बात १८६८ की है जब उन्होंने एक क्रांतिकारी कदम उठाते हुए अपने घर के कुएं को दलितों के लिए खोल दिया. यह बात अपने आप में बहुत अनोखी थी क्योंकि आज भी भारत के अधिकांश गाँव और बहुत से कस्बों में दलितों को शूद्रो के घरो में बिना प्रतिबन्ध के प्रवेश लेने कि इजाज़त नहीं है.  आज से लगभग डेढ़ सौ साल पहले किसी शूद्र द्वारा दलितों को उसके घर में प्रवेश आरम्भ करना कितना बड़ा कदम होगा. जाहिर है उन्हें इसका उतना ही कठोर प्रतिरोध भी झेलना पड़ा और उन्हें उनके पिताजी द्वारा घर से बेदखल कर दिया गया. चूँकि इस मुहीम में उनके साथ उनकी पत्नी सावित्री बाई भी थी अतः उन्हें भी इस गुस्से का शिकार होना पड़ा. इस तरह दोनों ही घर से निकाल दिए गए. पर उन्होंने थोड़ी भी हिम्मत नहीं हारी बल्कि दुगने उत्साह के साथ समाज परिवर्तन की मुहीम में जुट गए. सावित्री बाई फुले ने हर स्तर पर न सिर्फ महात्मा फुले का साथ दिया बल्कि एक कदम आगे बढ़कर स्वयं कई जिम्मेदारिया संभाली. उनका अपना काम इतना अधिक है कि उसे बताने के लिए एक अलग अध्याय की जरुरत है.वैसे ऐसा नहीं की जोतिबा फुले के पिताजी द्वारा पहली  बार कोई  दकियानूसी कदम उठाया गया था पर वह तो इससे पहले भी वे जोतीराव के स्कूल के दिनों में एक ब्राह्मण की सलाह पर बीच में बंद करवा चुके थे वह तो बीच में एक मुस्लिम मित्र की नेक सलाह पर पिताजी ने जोतिबा फुले की पढाई पूरी करवाई. पर ऐसा नहीं की फुले का परिवार आरम्भ से ही दकियानूसी रहा हो उल्टा उनके परदादा तो पहले ही अपने गाँव लाल्गुन में ब्राह्मणों के दमन का विरोध कर चुके थे जब उस गाँव में पेशावाकाल में ब्रह्मण राजस्व अधिकारी दलित ओर किसानो पर तरह-तरह के ज़ुल्म ढाया करते थे. इस समय जोतीराव के परदादा ने जब देखा की इस अन्याय से अन्य किसी विधि से निपटाना असंभव है तो उन्होंने शोषण का अंत करने के लिए उन राजस्व अधिकारियों की ही हत्या कर दी पर उन्हें स्वयं की जान बचाने के लिए अपना गाँव छोड़ने पर मजबूर होकर  पूना शहर के नज़दीक अपना निवास ब बनाना पड़ा. यहाँ पर उन्होंने अपना फूलों का व्यवसाय आरम्भ किया ओर तभी से इस परिवार के साथ ‘फुले’ उपनाम जुड़ गया.ठीक अपने परदादा के ही तरह पैत्रक घर छोड़ने पर जोतीराव को भी कालान्तर में एक नया विशेषण ‘महात्मा’ मिला. यहाँ यह जानना जरुरी है की फुले स्कूल के दिनों से ही एकदम मेधावी रहे थे ओर उन्होंने ने तब से अंग्रेजी की उपलब्ध कितबे पढ़ना शुरू कर दिया था थोमस पैने की ‘राइट्स ऑफ़ मेन’ ओर एज ऑफ़ रिसन ने उन्हें बहुत प्रभावित किया था. गौरतलब है की अपने घर से बेघर होने से कुछ पहले ही वे सावित्री बाई के साथ  दलित लडकियों के लिए स्कूल खोल चुके थे. १८५१ में उन्होंने एक ओर स्कूल खोला जो सभी जाति की लड़कियों के लिए था. आज के दौर में भले ही हमें महिलाओं की शिक्षा कोई नयी बात नहीं लगे लेकिन उस वक़्त समाज में स्पष्ट मान्यता थी की शिक्षा सिर्फ पुरुष के लिए ही होती है क्योंकि महिलाओं का काम सिर्फ चुल्हा-चौका ओर परिवार की देखभाल का है तथा उस काल की मान्यता के अनुसार लड़की को पराया धन समझा जाता था क्योंकि कम उम्र में ही लडकियों की शादी कर दी जाती थी. ऐसे समय जोतिबा फुले का महिलाओं को शिक्षा के लिए प्रवृत्त करना कितना चुनौती भर होगा इसे साफ़ समझा जा सकता हैं.गौरतलब है की जोतिबा फुले ने जिस तरह अपने घर का कुआ दलितों के लिए उपलब्ध करा कर स्वयं जातिवाद के खिलाफ एक उदाहरण पेश किया था उसी तरह महिलाओं की शिक्षा के कार्य को हाथ में लेने से पहले उन्होंने इसकी शुरुआत भी अपने घर से अपनी पत्नी सावित्री बाई फुले को शिक्षित कराने के माध्यम से की. महात्मा फुले इन इस तरह अपने जीवन में कभी दो मापदंड नहीं रखे उन्होंने जो भी चीज़ समाज के लिए हितकर पाई उसका उपदेश देने के बजाय पहले स्वयं ही अमल किया ओर उसके बाद उसे समाज में लागु करवाने की कोशिश की.जोतिबा फुले के ये सभी कार्य पूरी तरह हिन्दू मान्यताओं के खिलाफ थे इसलिए उनका हर स्तर पर विरोध होता रहा पर बात छिटपुट विरोध तक ही नहीं रुकी बल्कि ब्राह्मणों ने जोतिबा फुले की हत्या करवाने के लिए गुंडे भेज दिए जो एक रात  जोतिबा फुले के घर रात के अँधेरे में लाठी लेकर चुपचाप दाखिल हुए पर वे फुले की नज़र से बच नहीं पाए. जोतिबा फुले ने कड़कती हुई आवाज़ में उनसे पुछा की वे कौन है तो उन लठेतो ने कहा की वे उन्हें मारने आये है. इस पर भी जोतिब फुले ने बिना घबराए उनसे कहा की ‘मेरी तुम लोगो से कोई दुश्मनी नहीं है फिर तुम मुझे क्यों मारना चाह रहे हो ‘. इस पर उन लठेतो ने बताया की वे पैसो की खातिर उन्हें मारने आये हैं तब फुले ने शांतचित्त से उनसे कहा की यदि ‘मुझे मारने से तुम्हे पैसे मिलने वाले है तो ठीक है तुम लोग मुझे मार डालो’. यह बात सुनकर दोनों लठेतो को बहुत आश्चर्य हुआ की आखिर यह कैसा व्यक्ति है जो मौत को सामने देखकर भी नहीं घबराता ओर उन्होंने तुरंत अपने हथियार डाल दिए. तब महात्मा फुले ने उन्हें पास बैठाकर ब्राह्मणवाद की पूरी व्याख्या की ओर उन्हें बताया की जिस तरह वे स्वयं शूद्र होने के बावजूद भी एक एनी शूद्र की जान सिर्फ कुछ पैसो के खातिर लेना चाह रहे थे उसी तरह सारा भारतीय समाज चंद स्वार्थ के खातिर दूसरी जाति को अपने से नीच समझ कर उनसे अमानवीय व्यवहार करने लगता है. जोइबा फुले से इतना बड़ा  सच सुनकर वे दोनों बहुत प्रभावित हुए उनमे से एक धोंदिराव तो महात्मा फुले के इतने करीबी शिष्य बने ओर उन्होंने फुले के मिशन को आगे बढ़ने में बड़ी भूमिका अदा की. गौरतलब है की महात्मा फुले की प्रसिद्ध पुस्तक ‘गुलामगिरी’ धोंदिराव द्वारा महात्मा फुले से पूछे गए प्रश्नों पर ही आधारित हैं.यह किताब भारत के प्राचीन इतिहास का वैज्ञानिक पद्धति से विश्लेषण हैं जिसमे महात्मा फुले ने हिन्दू धर्म के मिथक के आधार पर इतिहास की पुनर्रचना की. जैसा की इसके नाम से इंगित होता है इस किताब में महात्मा फुले ने सबसे पहला जोर इस बात पर दिया की किसी भी समाज में शोषित वर्ग स्वयं मानसिक गुलामी से ग्रस्त रहता है इसलिए वह कभी भी इसके खिलाफ संघर्ष करने का प्रयास नहीं करता. आगे वे पुराणों में वर्णित विष्णु के विभिन्न दस अवतारों का विश्लेषण करते हुए कहते हैं की  इन प्रत्येक अवतारों ने छल-कपट से मूल निवासियों को पराजित करते हुए धीरे-धीरे शासन पर कब्ज़ा कर लिया ओर यहाँ के मूल निवासियों को शूद्र ओर अस्पृश्य घोषित कर दिया.इसकी शुरुआत में उन्होंने तर्क रखा कि हिन्दू लोग वर्ण व्यवस्था को सनातन मानते हुए कहते हैं कि चारो वर्णों का जन्म ब्रह्मा के शरीर से हुआ तब उन्हें यह बताना चाहिए कि क्या ब्रह्मा ने यह करतूत भारत में ही क्यों कि देश के बाहर के अन्य समुदाय जैसे अँगरेज़, फ्रांसीसी आदि तो वर्ण व्यवस्था को बिलकुल भी नहीं मानते अर्थात यह तथाकथित सनातन नियम कोई सार्वजनीन सच्चाई नहीं बल्कि भारत के मूल निवासियों को गुलामी में रखने की एक चल मात्र है.आगे वे कहते हैं कि यदि ब्राह्मणों का जन्म ब्रह्मा के मुख से हुआ तो क्या ब्रह्मा के मुखे से मासिक स्राव भी हुआ करता था क्या और उसे इस दौरान कपडे या नेपकिन का इस्तेमाल किया करता था? आश्चर्य कि बात है कि जिस ब्रह्मा के वंशज होने का दावा ब्रह्मण करते हैं वे ब्रह्मा एक कामांध व्यक्ति था जिसने उसकी स्वयं की बेटी सरस्वती के साथ बलात्कार किया और उसे पत्नी बना लिया!!!सच्चाई यह है कि ब्रह्मण कभी भी भारत के मूल निवासी नहीं रहे हैं बल्कि उनका मात्र स्थान इरान रहा है जहा से वह समुद्र और ज़मीन दोनों ही माध्यम से आकर यहाँ के मूल निवासियों को धोखे से बंदी बनाकर शुद्र घोषित कर डाला. विष्णु का मत्स्य अवतार हमें ब्राह्मणों के समुद्र मार्ग से आक्रमण का संकेत देता है वहीँ उसका सूअर अवतार हमें ज़मीन से उनके आक्रमण की गंध देता है. महात्मा फुले आगे कहते हैं कि एक समय इस देश में आज के दलितों और शुद्रो का राज हुआ करता था और यहाँ पर उनका एक विशाल साम्राज्य था जिसका राजा बलि था जो बहुत न्यायप्रिय और सिद्धांतवादी राजा था वह कभी भी भागते हुए दुश्मन पर वार नहीं करता था इसलिए उसे मार-टोंड (मुंह पर वार करने वाला ) कहा जाता था जिसे युद्ध में हराना मुश्किल था इसलिए ब्रह्मण ने छल से उसकी हत्या कर दी.महात्मा फुले ने ब्राह्मणवाद से आमजनों को मुक्त कराने के व्यावहारिक प्रयास के लिए १८७३ में सत्यशोधक समाज की स्थापना की जिसके माध्यम से वे आमजनो को हिन्दू धर्म के संस्कारो का विकल्प उपलब्ध कराते हुए उनमे वैज्ञानिक मानववाद का प्रसार करने का कार्य आरम्भ किया और इस दिशा में उन्होंने सबसे पहले पंडितो और हिन्दू कर्मकांडो को सभी आवश्यक संस्कार जैसे विवाह, जन्म और  मृत्यु से हटाने के लिए  कुछ स्त्री-पुरुषो की टीम तैयार की जो बिना मंत्र पठन और देवी -देवताओं का पूजा-पाठ किये तथा बिना किसी दान-दक्षिणा के सरलता से इसे पूरा कर दिया करते थे.  शिक्षा को मानव मुक्ति का माध्यम जानते हुए उन्होंने अंग्रेजी हुकुमुत से प्राथमिक स्तर की शिक्षा की और भी ध्यान देने की वकालत की उनका कहना था कि ब्रिटिशो द्वारा सिर्फ उच्च शिक्षा पर ही खर्च किया जा रहा रहा है जिसका लाभ केवल उच्च वर्णों को ही मिलता है पर यदि सरकार प्राथमिक स्तर पर भी ध्यान देने लगे तभी समाज के कमज़ोर वर्ग तक शिक्ष पहुच पायेगी . १८८२ में उन्होंने हंटर कमीशन के समक्ष पिटीशन दायर करके उसका ध्यान इस ओर आकृष्ट कराया कि उच्च वर्गों को यह सोच कर शिक्षित करना कि वह इस ज्ञान का उपयोग कमज़ोर वर्गों को शिक्षित करने में लगायेंगे भारतीय सन्दर्भ में नामुमकिन है इसलिए सरकार को अब दलित ओर पिछड़े वर्ग की ओर ध्यान देना ज़रूरी है.समाज में पूरी तरह समता स्थापित करना उनके जीवन का लक्ष्य था इसलिए उन्होंने जब भी कोई शोषित वर्ग देखा वे उसके उत्थान के लिए अपने को रोक नहीं पाए उन्होंने जब ब्राह्मण विधवाओ की दुर्दशा देखी को वे उन्हें अपनी दुश्मन कौम मानकर आँख मूंदे नहीं बैठे रहे बल्कि वे पूरी शिद्दत के साथ ब्राह्मण विधवाओं के उत्थान के लिए जुट गए १९६० में उन्होंने विधवा पुर्नर्विवाह के लिए अभियान आरम्भ किया क्योंकि उन्होंने देखा कि ब्राहमण उनकी विधवाओं पे तमाम प्रतिबन्ध जैसे उनके सर मुंडवाना, सफ़ेद साडी पहनने की अनिवार्यता और उनके सामान्य जीवन पर प्रतिबन्ध लगाया करते थे पर ब्रह्मण-पुरुष खुद अपने घर की ही विधवा के साथ शारीरिक सम्बन्ध बनाकर गर्भवती कर दिया करते थे और बाद में राज खुलने पर उन विधवाओं को दुश्चरित्र होने का लांछन लगाया करते थे  और उन्हें मारपीट कर बेघर कर दिया करते थे या ज़बरदस्ती गर्भपात कराया करते थे.इस अमानवीय प्रथा को देखकर महात्मा फुले ने सावित्री बाई के साथ मिलकर विधवा आश्रम की स्थापना की जहाँ न सिर्फ विधवाओं के रहने और खाने की व्यवस्था थी बल्कि वहां पर प्रसव सुविधा भी थी.गौरतलब है कि भद्रलोक सुधारवादी जहाँ ब्रह्मण महिलाओं की स्थिति में सुधार को ही परम लक्ष्य बनाए बैठे थे वन्ही जोतिबा फुले की द्रष्टि में सभी पीड़ित वर्ग का उत्त्थान  एक समान ही आवश्यक था.महात्मा फुले ने खुलकर सुधारवादी ब्राह्मण महिलाओं की मुहीम का भी समर्थन किया. पंडिता रमा बाई जो कि एक प्रगतिशील महिला थी ने जब हिन्दू धर्म के पाखंडो को उजागर कटे हुए धर्मान्तरण की घोषणा की तो समाज के तथाकथित आधुनिक विचारक जैसे विवेकानंद भी विरोध में उतर आये पर जोतिबा फुले ने पूरी शिद्दत के साथ पंडिता रमा बाई का  साथ दिया, इसी तरह तारा बाई शिंदे के अभियान का भी फुले समर्थन किया जबकि उनके कुछ करीबी सहयोगी भी ताराबाई का विरोध करने लगे थे.जाहिर है कि महात्मा फुले किसी भी रूप में स्त्री को पुरुष से कम नही मानते थे इसलिए जब उनकी शादी के वर्षो बाद भी उन्हें कोई संतान नहीं हुई और लोग उनपर इसके लिए दूसरी शादी करने का दबाव बनाने लगे तो फुले ने बड़ी दृढ़ता के साथ उन्हें जवाब देते हुए कहा कि संतान नहीं होने पर स्त्री को दोषी मानना बिकुल भी विज्ञानसम्मत नहीं है बल्कि यह पुरुषवादी मानसिकता है जो दूसरी शादी करने की वकालत करती हैं इसलिए बेहतर है हम दोषारोपण करने के बजाय कोई बच्चा गोद ले ले और उन्होंने अपने विधवा आश्रम से ब्राह्मणी विधवा का बेटा गोद ले लिया जिसका नाम यशवंत रखा जो आगे चलकर डोक्टर बन और जोतिबा फुले के मिशन को कार्यरूप देता रहा.महात्मा फुले निर्बलो की सेवा अपनी जान जोखिम में डाल कर किया करते थे १८९० में जब उनका गाँव प्लेग की चपेट में आया तो उन्होंने बिना परवाह के रोगियों की सेवा में समर्पित कर दिया अंततः उन्हें स्वयं भी प्लेग का शिकार हो गए. फुले कि मृत्यु के बाद सारा काम सावित्री बाई फुले ने अपने हाथ में लिया, वे ओर उनका बेटा भी प्लेग रोगियों की सेवा करते हुए मानवता के लिए शहीद हो गए. उनकी इस कर्ताव्यपरायणता से अभिभूत होकर ब्रजरंजन मणि कहते हैं कि विश्व में शायद ही ऐसा कोई उदहारण होगा जहाँ पूरा परिवार मानवता की सेवा के लिए एक एक कर के शहीद हुआ हो.उल्लेखनीय है कि महात्मा फुले की मृत्यु के बाद भी उनका कारवा जारी रहा. डॉ बाबासाहेब आंबेडकर को बडौदा नरेश से मिलवाकर उनके लिए विदेश में पढाई के लिए स्कालरशिप उपलब्ध करवाने में मदद करने वाले तथा बाबासाहब को उनके युवा दिनों में बुद्ध के धम्म से अवगत करवाने वाले केलुस्कर गुरूजी सत्यशोधक समाज के ही सदस्य थे. बाबासाहब भी स्वयं महात्मा फुले के कार्यो ओर विचारो से इतने अधिक प्रभावित थे कि उन्होंने बुद्ध ओर कबीर के साथ महात्मा फुले को अपना गुरु माना.

फुले दम्पती हैं भारत रत्न के हकदार- यायावर



सावित्रीबाई फुले जागृति सप्ताह के तहत विचार संगोष्ठी आयोजित

लाडनूं। सैनी वल्र्ड इकोनामिक फोरम के तत्वावधान में मनाये जा रहे जिला स्तरीय सावित्री बाई फुले जागृति सप्ताह के तहत मंगलपुरा स्थित सक्सेस क्लासेज के हॉल में आयेाजित सावित्री बाई फुले का शिक्षा जगत को अवदान विषयक विचार संगोष्ठी को सम्बोधित करते हुये मुख्य वक्ता जगदीश यायावर ने कहा कि विषम परिस्थितियों के बावजूद सामाजिक वर्गभेद, अशिक्षा, महिला शिक्षा, विधवाओं की स्थिति, बाल-हत्या आदि के लिये महात्मा ज्योतिबा फुले और उनकी जीवन संगिनी सावित्री बाई फुले ने सामाजिक क्रांति की जो अलख जगाई, वह अपने आप में अद्वितीय थी। विविध तरह की सामाजिक प्रताडऩाओंं को सहते हुये उन्होंने अपने अटल संघर्ष को कायम रखकर सबका मुकाबला किया। उन्होंने देश की प्रथम महिला शिक्षिका सावित्री बाई और महिला हकों के प्रथम उद्घोषक ज्येातिबा फुले के सामूहिक प्रयासों व कार्यों के लिये इस फुले दम्पती को भारत रत्न दिये जाने की मांग की। उन्होंने सावित्री बाई फुले के कार्यों का उल्लेख करते हुये कहा कि वे विद्या की देवी सरस्वती का साक्षात स्वरूप थी। कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथि महालचंद टाक ने भी सावित्री बाई फुले को प्रेरणादायी बताया तथा उनके आदर्शों को अपनाने व उनके माग्र पर चलने के लिये प्रेरित किया। फोरम के जिलाध्यक्ष राजेन्द्र कुमार टाक ने ज्योतिबा फुले दम्पती के समय की तात्कालिक सामाजिक स्थितियो ंव आज की विषम परिस्थितियों की तुलना करते हुये कहा कि हमें आज भी संघर्ष करने की आवश्यकता है। फोरम के प्रदेश उपाध्यक्ष श्रीचंद तुनवाल ने संगोष्ठी की अध्यक्षता करते हुये अपने सम्बोधन में शिक्षा के महत्व पर जोर दिया तथा उच्च शिक्षा प्राप्त करके आगे बढने के लिये प्रेरित किया।
विचार संगोष्ठी के मुख्य वक्ता सैनी वल्र्ड इकोनोमिक फोरम के जिला मागदर्शक जगदीश यायावर को इस अवसर पर शॉल ओढा कर व माल्यापर्ण द्वारा सम्मानित किया गया। कार्यक्रम के संयोजक डा. वीरेन्द्र भाटी मंगल ने उनकी 40 सालों की विविध क्षेत्रों एवं सामाजिक उत्थान के लिये दी गई सेवाओं का उल्लेख किया तथा कहा कि वे पूरे क्षेत्र के लिये स्वयं प्रेरणादायी व्यक्तित्व है। फोरम के प्रदेश उपाध्यक्ष डा. श्रीचंद तुनवान ने उन्हें शॉल ओढाया तथा माली समाज संस्थान मंगलपुरा के अध्यक्ष्ज्ञ महालचंद टाक ने माल्यार्पण किया। कार्यक्रम में युवा विंग अध्यक्ष सुरेश मारोठिया डीडवाना, शंकरलाल टाक डीडवाना, पंकज टाक डीडवाना, शंकर लाल टाक, तहसील अध्यक्ष प्रेमप्रकाश आर्य, डा. लक्ष्मण माली दुजार, तोलाराम मारोठिया मंगलपुरा, डूंगरमल टाक, भैराराम सांखला, जीतमल भाटी, गोपाल राम सांखला आदि उपस्थित थे। कार्यक्रम का प्रारम्भ सरस्वती व साविऋी फुले के चित्रों पर माल्यार्पण द्वारा किया गया। सरस्वती वंदना व स्वागत गीत सक्सेज क्लासेस की छात्राओं ने प्रस्तुत किया। अंत में शिवलाल टाक ने आभार ज्ञापित किया गया।


मुख्य वक्ता का सम्मान

फुले दम्पती हैं भारत रत्न के हकदार- यायावर
सावित्रीबाई फुले जागृति सप्ताह के तहत विचार संगोष्ठी आयोजित
लाडनूं। सैनी वल्र्ड इकोनामिक फोरम के तत्वावधान में मनाये जा रहे जिला स्तरीय सावित्री बाई फुले जागृति सप्ताह के तहत मंगलपुरा स्थित सक्सेस क्लासेज के हॉल में आयेाजित सावित्री बाई फुले का शिक्षा जगत को अवदान विषयक विचार संगोष्ठी को सम्बोधित करते हुये मुख्य वक्ता जगदीश यायावर ने कहा कि विषम परिस्थितियों के बावजूद सामाजिक वर्गभेद, अशिक्षा, महिला शिक्षा, विधवाओं की स्थिति, बाल-हत्या आदि के लिये महात्मा ज्योतिबा फुले और उनकी जीवन संगिनी सावित्री बाई फुले ने सामाजिक क्रांति की जो अलख जगाई, वह अपने आप में अद्वितीय थी। विविध तरह की सामाजिक प्रताडऩाओंं को सहते हुये उन्होंने अपने अटल संघर्ष को कायम रखकर सबका मुकाबला किया। उन्होंने देश की प्रथम महिला शिक्षिका सावित्री बाई और महिला हकों के प्रथम उद्घोषक ज्येातिबा फुले के सामूहिक प्रयासों व कार्यों के लिये इस फुले दम्पती को भारत रत्न दिये जाने की मांग की। उन्होंने सावित्री बाई फुले के कार्यों का उल्लेख करते हुये कहा कि वे विद्या की देवी सरस्वती का साक्षात स्वरूप थी। कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथि महालचंद टाक ने भी सावित्री बाई फुले को प्रेरणादायी बताया तथा उनके आदर्शों को अपनाने व उनके माग्र पर चलने के लिये प्रेरित किया। फोरम के जिलाध्यक्ष राजेन्द्र कुमार टाक ने ज्योतिबा फुले दम्पती के समय की तात्कालिक सामाजिक स्थितियो ंव आज की विषम परिस्थितियों की तुलना करते हुये कहा कि हमें आज भी संघर्ष करने की आवश्यकता है। फोरम के प्रदेश उपाध्यक्ष श्रीचंद तुनवाल ने संगोष्ठी की अध्यक्षता करते हुये अपने सम्बोधन में शिक्षा के महत्व पर जोर दिया तथा उच्च शिक्षा प्राप्त करके आगे बढने के लिये प्रेरित किया।
मुख्य वक्ता का सम्मान
विचार संगोष्ठी के मुख्य वक्ता सैनी वल्र्ड इकोनोमिक फोरम के जिला मागदर्शक जगदीश यायावर को इस अवसर पर शॉल ओढा कर व माल्यापर्ण द्वारा सम्मानित किया गया। कार्यक्रम के संयोजक डा. वीरेन्द्र भाटी मंगल ने उनकी 40 सालों की विविध क्षेत्रों एवं सामाजिक उत्थान के लिये दी गई सेवाओं का उल्लेख किया तथा कहा कि वे पूरे क्षेत्र के लिये स्वयं प्रेरणादायी व्यक्तित्व है। फोरम के प्रदेश उपाध्यक्ष डा. श्रीचंद तुनवान ने उन्हें शॉल ओढाया तथा माली समाज संस्थान मंगलपुरा के अध्यक्ष्ज्ञ महालचंद टाक ने माल्यार्पण किया। कार्यक्रम में युवा विंग अध्यक्ष सुरेश मारोठिया डीडवाना, शंकरलाल टाक डीडवाना, पंकज टाक डीडवाना, शंकर लाल टाक, तहसील अध्यक्ष प्रेमप्रकाश आर्य, डा. लक्ष्मण माली दुजार, तोलाराम मारोठिया मंगलपुरा, डूंगरमल टाक, भैराराम सांखला, जीतमल भाटी, गोपाल राम सांखला आदि उपस्थित थे। कार्यक्रम का प्रारम्भ सरस्वती व साविऋी फुले के चित्रों पर माल्यार्पण द्वारा किया गया। सरस्वती वंदना व स्वागत गीत सक्सेज क्लासेस की छात्राओं ने प्रस्तुत किया। अंत में शिवलाल टाक ने आभार ज्ञापित किया गया।




आर्य बने सैनी वल्र्ड फोरम के तहसील अध्यक्ष व सांखला मंत्री
लाडनूं तहसील स्तरीय कार्यकारिणी की घोषणा
लाडनूं। सैनी वल्र्ड इकोनामिक फोरम के प्रदेशाध्यक्ष सुभाष सैनी की सहमति से प्रदेश उपाध्यक्ष डा. श्रीचंद तुनवाल एवं प्रदेश सचिव डा. वीरेन्द्र भाटी मंगल ने फोरम की लाडनूं तहसील ईकाई की घोषणा की। यहां मंगलपुरा में आयेाजित फोरम की एक बैठक में प्रदेश सचिव भाटी ने यह घोषणा करते हुये बताया कि इकोनोमिक फोरम की लाडनूं तहसील ईकाई के अध्यक्ष पद पर प्रेमप्रकाश आर्य, मंत्री बाबूलाल सांखला, कोषाध्यक्ष गुलाबचंद खडोलिया को नियुक्ति दी गई तथा इसके अलावा उपाध्यक्ष बजरंगलाल यादव, भंवरलाल महावर, महेन्द्र सिंह सांखला व भंवरलाल पंवार दुजार को, उपमंत्री अनिल माली मंगलपुरा, राधाकिशन चौहान, गुलाबचंद सांखला व महेश प्रकाश सांखला को बनाया गया है। इनके अलावा कार्यकारिणी में सदस्य के रूप में यशपाल आर्य, रामचन्द्र माली दुजार, भंवरलाल मारोठिया डाबड़ी, तोलाराम मारोठिया मंगलपुरा, रणवीर सिंह सांखला, अनोपचंद सांखला, छगनलाल पडि़हार, बसंत सांखला, दीनदयाल गौड़, दीनदयाल हलवाई, रामेश्वर लाल पंवार दुजार व अरविन्द सांखला को नियुक्त किया गया है। फोरम के मार्गदर्शक मंडल में तनसुखराम टाक मंगलपुरा, गुलाबचंद टाक मंगलपुरा, महालचंद टाक मंगलपुरा, श्रीचंद आर्य दुजार, नेमीचंद मारेाठिया डाबड़ी, जगदीश प्रकाश आर्य, भवंरलाल खडोलिया, नेमीचंद सांखला, हिम्मताराम टाक, गणपतलाल टाक व ीैराराम सांखला को शामिल किया गया है।
आर्य बने सैनी वल्र्ड फोरम के तहसील अध्यक्ष व सांखला मंत्री
लाडनूं तहसील स्तरीय कार्यकारिणी की घोषणा
लाडनूं। सैनी वल्र्ड इकोनामिक फोरम के प्रदेशाध्यक्ष सुभाष सैनी की सहमति से प्रदेश उपाध्यक्ष डा. श्रीचंद तुनवाल एवं प्रदेश सचिव डा. वीरेन्द्र भाटी मंगल ने फोरम की लाडनूं तहसील ईकाई की घोषणा की। यहां मंगलपुरा में आयेाजित फोरम की एक बैठक में प्रदेश सचिव भाटी ने यह घोषणा करते हुये बताया कि इकोनोमिक फोरम की लाडनूं तहसील ईकाई के अध्यक्ष पद पर प्रेमप्रकाश आर्य, मंत्री बाबूलाल सांखला, कोषाध्यक्ष गुलाबचंद खडोलिया को नियुक्ति दी गई तथा इसके अलावा उपाध्यक्ष बजरंगलाल यादव, भंवरलाल महावर, महेन्द्र सिंह सांखला व भंवरलाल पंवार दुजार को, उपमंत्री अनिल माली मंगलपुरा, राधाकिशन चौहान, गुलाबचंद सांखला व महेश प्रकाश सांखला को बनाया गया है। इनके अलावा कार्यकारिणी में सदस्य के रूप में यशपाल आर्य, रामचन्द्र माली दुजार, भंवरलाल मारोठिया डाबड़ी, तोलाराम मारोठिया मंगलपुरा, रणवीर सिंह सांखला, अनोपचंद सांखला, छगनलाल पडि़हार, बसंत सांखला, दीनदयाल गौड़, दीनदयाल हलवाई, रामेश्वर लाल पंवार दुजार व अरविन्द सांखला को नियुक्त किया गया है। फोरम के मार्गदर्शक मंडल में तनसुखराम टाक मंगलपुरा, गुलाबचंद टाक मंगलपुरा, महालचंद टाक मंगलपुरा, श्रीचंद आर्य दुजार, नेमीचंद मारेाठिया डाबड़ी, जगदीश प्रकाश आर्य, भवंरलाल खडोलिया, नेमीचंद सांखला, हिम्मताराम टाक, गणपतलाल टाक व ीैराराम सांखला को शामिल किया गया है।