सोमवार, 9 जनवरी 2017

माली समाज की उत्पत्ति 

         माली समाज की उत्पत्ति के बारे में यूं तो कभी एक राय नहीं निकली फिर भी विभिन्न ग्रंथो अथवा लेखा
- जोगा रखने वाले राव, भाट, जग्गा, बडवा, कवी भट्ट, ब्रम्ह भट्ट व कंजर आदि से प्राप्त जानकारी के अनुसार तमाम माली बन्धु भगवान् शंकर माँ पार्वती के मानस पुत्र है !            
   एक कथा के अनुसार दुनिया की उत्पत्ति के समय ही एक बार माँ पार्वती ने भगवान् शंकर से एक सुन्दर
बाग़ बनाने की हट कर ली तब अनंत चौदस के दिन भगवान् शंकर ने अपने शरीर के मेल से पुतला बनाकर
उसमे प्राण फूंके ! यही माली समाज का आदि पुरुष मनन्दा कहलाया ! इसी तरह माँ पार्वती ने एक सुन्दर कन्या
को रूप प्रदान किया जो आदि कन्या सेजा कहलायी ! तत्पश्चात इन्हें स्वर्ण और रजत से निर्मित औजार कस्सी,
कुदाली आदि देकर एक सुन्दर बाग़ के निर्माण का कार्य सोंपा! मनन्दा और सेजा ने दिन रात मेहनत कर निश्चित
समय में एक खुबसूरत बाग़ बना दिया जो भगवान् शंकर और पार्वती की कल्पना से भी बेहतर बना था! भगवान्
शंकर और पार्वती इस खुबसूरत बाग़ को देख कर बहुत प्रसन्न हुये ! तब भगवान् शंकर ने कहा आज से तुम्हे
माली के रूप में पहचाना जायेगा ! इस तरह दोनों का आपस में विवाह कराकर इस पृथ्वी लोक में अपना काम
संभालने को कहा !
             आगे चलकर उनके एक पुत्री और ग्यारह पुत्र हुये ! जो कुल बारह तरह के माली जाति में विभक्त हो गए! अत: माली समाज को इस उपलक्ष पर अनंत चौदस के दिन माली जयंती अर्थात मानन्दा जयंती मनानी है !
प्रसाद- फल, खीर, सामूहिक भोज(बजट के अनुसार ) !
स्थान- समाज का मंदिर, धर्मशाला, नोहरा, समाज की स्कूल !
[नोट : मनन्दा जयंती पर्तिवर्ष अनंत चौदस( रक्षाबंधन के एक महीने बाद ) मनाई जाएगी !]

माली समाज की उत्पत्ति
         माली समाज की उत्पत्ति के बारे में यूं तो कभी एक राय नहीं निकली फिर भी विभिन्न ग्रंथो अथवा लेखा
- जोगा रखने वाले राव, भाट, जग्गा, बडवा, कवी भट्ट, ब्रम्ह भट्ट व कंजर आदि से प्राप्त जानकारी के अनुसार तमाम
माली बन्धु भगवान् शंकर माँ पार्वती के मानस पुत्र है !
               एक कथा के अनुसार दुनिया की उत्पत्ति के समय ही एक बार माँ पार्वती ने भगवान् शंकर से एक सुन्दर
बाग़ बनाने की हट कर ली तब अनंत चौदस के दिन भगवान् शंकर ने अपने शरीर के मेल से पुतला बनाकर
उसमे प्राण फूंके ! यही माली समाज का आदि पुरुष मनन्दा कहलाया ! इसी तरह माँ पार्वती ने एक सुन्दर कन्या
को रूप प्रदान किया जो आदि कन्या सेजा कहलायी ! तत्पश्चात इन्हें स्वर्ण और रजत से निर्मित औजार कस्सी,
कुदाली आदि देकर एक सुन्दर बाग़ के निर्माण का कार्य सोंपा! मनन्दा और सेजा ने दिन रात मेहनत कर निश्चित
समय में एक खुबसूरत बाग़ बना दिया जो भगवान् शंकर और पार्वती की कल्पना से भी बेहतर बना था! भगवान्
शंकर और पार्वती इस खुबसूरत बाग़ को देख कर बहुत प्रसन्न हुये ! तब भगवान् शंकर ने कहा आज से तुम्हे
माली के रूप में पहचाना जायेगा 
! इस तरह दोनों का आपस में विवाह कराकर इस पृथ्वी लोक में अपना काम
संभालने को कहा !             आगे चलकर उनके एक पुत्री और ग्यारह पुत्र हुये ! जो कुल बारह तरह के माली जाति में विभक्त हो गए!
अत: माली समाज को इस उपलक्ष पर अनंत चौदस के दिन माली जयंती अर्थात मानन्दा जयंती मनानी है !
प्रसाद फल, खीर, सामूहिक भोज(बजट के अनुसार ) !
स्थान समाज का मंदिर, धर्मशाला, नोहरा, समाज की स्कूल !
[नोट : मनन्दा जयंती पर्तिवर्ष अनंत चौदस( रक्षाबंधन के एक महीने बाद ) मनाई जाएगी !]
 



गुरुवार, 5 जनवरी 2017


संत सावता माली

संत सावता माली संत ज्ञानदेव के समय के एक प्रसिद्ध संत थे । उनका जन्म इ. स. १२५० का है तथा उन्होंने इ. स. १२९५ में देह त्यागी । अरण-भेंड यह सावतोबा का गांव है । सावता माली के दादाजी का नाम देवु माली था, वे पंढरपुर के वारकरी थे। उनके पिता पूरसोबा तथा माता धार्मिक वृत्ति के थे, पूरसोबा खेती के व्यवसाय के साथ ही भजन-पूजन करते । पंढरपुर की वारी करते

कर्म करते रहना यही खरी ईश्वर सेवा है एसी सीख सावता माली ने दी । वारकरी संप्रदाय के एक ज्येष्ठ संतके रूप में उनकी कीर्ति है । वे विट्ठल के परम भक्त थे । वे कभी भी पंढरपुर नहीं गए । ऐसा कहा जाता है कि स्वयं विट्ठल ही उनसे मिलने उनके घर जाते थे । प्रत्यक्ष पांडूरंग ही उनसे मिलने आए । वे कर्ममार्गी संत थे ।

उन्होंने अध्यात्म तथा भक्ति, आत्मबोध तथा लोकसंग्रह, कर्तव्य तथा सदाचारका हूबहू संबंध जोडा । उनका ऐसा विचार था कि ईश्वरको प्रसन्न करना हो तो जप, तपकी आवश्यकता नहीं तथा कहीं भी दूर तीर्थयात्राके लिए जानेकी आवश्यकता नहीं; केवल अंत:करणसे ईश्वरका चिंतन करने तथा श्रद्धा हो तो ईश्वर प्रसन्न होते हैं एवं दर्शन देते हैं ।

सावता मालीने ईश्वरके नामजपपर अधिक बल दिया । ईश्वरप्राप्तिके लिए संन्यास लेने अथवा सर्वसंगपरित्याग करनेकी आवश्यकता नहीं है । प्रपंच करते समय भी ईश्वर प्राप्ति हो सकती है ऐसा कहनेवाले सावता महाराजजीने अपने बागमें ही ईश्वरको देखा ।

कांदा मुळा भाजी । अवघी विठाबाई माझी ।।
लसूण मिरची कोथिंबिरी । अवघा झाला माझा हरी ।।

सावता महाराज जी ने पांडूरंग को छुपाने के लिए खुरपी से अपनी छाती फाडकर बालमूर्ति ईश्वर को हृदय में छुपाकर ऊपर उपरने से बांध कर भजन करते रहे । आगे संत ज्ञानेश्वर एवं नामदेव पांडूरंग को ढूंढते सावता महाराज जी के पास आए, तब उनकी प्रार्थना के कारण पांडूरंग सावतोबा की छाती से निकले । ज्ञानेश्वर एवं नामदेव पांडूरंग के दर्शनसे धन्य हो गए । सावता महाराज कहते हैं – भक्ति में ही खरा सुख तथा आनंद है । वहीं विश्रांति है ।

सांवता म्हणे ऐसा भक्तिमार्ग धरा ।
जेणे मुक्ती द्वारा ओळंगती ।

संत षिरोमणि श्री लिखमीदास जी महाराज का जीवन परिचय

राजस्थान की पवित्र धरा शक्ति भक्ति और आस्था का त्रिवेणी संगम है। यहां समय पर ऐसे संत-महात्माओं ने जन्म लिया है जो अपने तपोबल से प्राणीमात्र का कल्याण करने के साथ-साथ दूसरों के लिये प्रेरणा स्त्रोत भी बने। ऐसे ही बिरले सन्तों में से एक थे-स्वनामधन्य संत षिरोमणि श्री लिखमीदासजी महाराज । आपका जन्म नागौर जिला मुख्यालय से नजदीक चैनार गांव में विक्रम संवत 1807 की आशाढ़ मास की प्रभात वेला में माली श्री रामूरामजी सोलंकी के घर हुआ। आप बाल्यकाल से र्इष्वर की भक्ति, पूजा-अर्चना , गुणगान तथा संत समागम में लगे रहते थे। अपनी अनन्य र्इष्वर भक्ति के बल पर ही आपने अपने जीवन काल में बाबा रामदेव के साक्षात दर्षन किये। द्वारकाधीष के अवतार बाबा रामदेव के प्रति आपकी अगाध श्रद्धा एवं भक्ति भावना थी। आप अपने पैतृक कृशि कर्म को करते हुए ही श्री हरि का गुणगान किया करते, रात्रि जागरण में जाया करते तथा साधु-संतो के साथ बैठकर भजन-कीर्तन करते थे। ऐसा कहा जाता है कि महाराज श्री जब भी भजन- कीर्तन के लिए कहीं जाया करते थे तो उनकी अनुपसिथति में भगवान द्वारकाधीष स्वयं आकर उनके स्थान पर फसल की सिंचार्इ (पाणत) किया करते थे।

मनुश्य जीवन को प्राप्त कर 'मानवता नहीं रखी जाय तो मनुश्य जन्म कैसा? महाराज श्री ने जीव मात्र के प्रति दया अपने ह्रदय में धारण कर, मनुश्यों का सदैव हित साधन कर अपना मानव जीवन सार्थक किया। संत षिरोमणि ने सदा निर्विकार भाव से सादगीपूर्ण जीवन जीया। आप मिथ्या अभिमान, निंदा, आत्मष्लाघा, पाप कर्म एवं अनैतिकता से सदा दूर रहे। ऐसे महापुरुश कभी किसी जाति, धर्म या सम्प्रदाय के नहीं होते अपितु सबके होते हैं। षुद्ध सातिवक भाव से कर्तव्य कर्म करते रहना और अन्त में श्री भगवान का गुणगान करते हुए उसी में लीन हो जाना। षायद इसी महामन्त्र को महाराज श्री ने अपने जीवन में अपनाया और अन्त में परमात्मा तत्व में विलीन हो गये। आइये! नमन करें ऐसी दिव्य विभूति को, प्रेरणा लेते हैं ऐसे अनन्य स्वरूप् से-जिन्होंने अपना भौतिक स्वरूप (देह) माली-सैनी समाज में प्राप्त कर इसे गौरवानिवत किया। दान-दया-धर्म-अहिंसा-मानवता की प्रतिमूर्ति बनकर युगों-युगों के लिए हमारी प्रेरणा के स्रोत बन गये। हमें भी महाराज श्री लिखमीदासजी के जीवन-आदेर्षों को अपना कर मनुश्य धन्य करना चाहिए।


लिखमीदास जी महाराज महाराज के समाधि स्थल: र्इष्वर भक्ति कि साक्षात प्रतिमूर्ति महाराज श्री लिखमीदासजी की समाधि नागौर जिला मुख्यालय से 8 किमी दूरी पर सिथत अमरपुरा ग्राम में है। यहां आपके वंष के ही परिवार आज भी पिवास करते हैं। महाराज श्री की समाधि के अतिरिक्त यहां 2-3 अन्य वंषों के संतों की समाधियां भरी हैं। र्इष्वर के अनन्य भक्त श्री लिखमीदासजी महाराज का समाधि स्थल होने के कारण यह स्थल करोडों लोगों की आस्था का केन्द्र है। देष-प्रदेष-विदेष से यहां आने वाले दर्षनार्थियों का सदैव तांता लगा रहता है। माली समाज के अलावा अन्य जाति, धर्म एवं समुदाय के श्रद्वालु भक्त भी यहां आकर कथा-कीर्तन सत्संग भजन रात्रि जागरण आदि का आयोजन भी करते हैं। जिला मुख्यालय नागौर सडक मार्ग से जुडा होने के कारण यहां यातायात के साधनों की कोर्इ कमी नहीं है। निकटतम रेलवे स्टेषन नागौर ही है। नागौर से बस टैक्सी टैम्पो आदि यात्रियों के लिए सदैव सुलभ हैं। यातायात साधनों की सुलभता से यहां श्रद्वालुओ का आना-जाना बना रहता है किन्तु धार्मिक आयोजनों (कथा-कीर्तन-सत्संग-जागरण के लिए पर्याप्त स्थान एवं सुविधाओं का सर्वथा अभाव है। धर्मप्रेमी यात्रियों के ठहरने धार्मिक सभा-समारोह आदि के आयोजन के लिए भी भवन नहीं है। अत: यहां ठहरने के इच्छुक श्रद्धालुओं को काफी असुविधा का सामना करना पडता है। धार्मिक भावनाओं से जुडे आध्यातिमक स्थल पर स्थायी गृहस्थावास भी समुचित प्रतीत नहीं होता। संत षिरोमणि श्री लिखमीदासजी महाराज ने भä किे जिस चरमोत्कर्श की प्रापित की उस उपलबिध के अनुसार उनका समाधि स्थल तदनुरूप् आकर्शक प्रतीत नहीं होता है। समाधि स्थल के महत्व को बढाने के लिए यह अत्यन्त आवष्यक है कि समाधि स्थल को संत श्री की महिमा के अनुरूप आकर्शक रूप में निर्मित किया जाय। श्रेश्ठ निर्माण तथा पर्यावरण की दृशिट से समाधि स्थल को प्राकृतिक स्वरूप प्रदान करना भी आज की प्रमुख आवष्यकता है। समाधि स्थल ऐतिहासिक स्मारक के रूप में प्रसिद्ध एवं प्रतिशिठत होना चाहिए। संत श्री के स्मृति स्थल को समय की मांग के अनुरूप बनाना हम सबका कर्तव्य है।

Savata Mali

quote

"आमुची माळियाची जात शेत लाऊ बागायती " असे अभिमानाने सांगणारे श्री.संत सावता माळी यांची जीवन दृष्टी पुरोगामी होती. महाराजांचे वैशिष्ट म्हणजे त्यांनी जीवनात कधीही पंढरीची वारी केली नव्हती.याद्वारे ते संदेश देऊ इच्छिता की "जीवन निर्वाहाची कामे करता करता ईश्वर भक्ती पण केली जाऊ शकते" jay savata

Abhang

कांदा,मुळा,भाजी | अवघी विठाबाई माझी || लसून,मिरची,कोथबिरी | अवघी झाला माझा हरी || मोठ,नाड,विहीर,दोरी | अवघी व्यापली पंढरी || सावताने केला मळा | विठ्ठल पायी गोविला मळा || आमुची माळियाची जात | शेत लाऊ बागाईत || आम्हा हाती मोठ नाडा | पाणी जाते फुल झाडा || शांती शेवंती फुलली | प्रेम जाई-जुई व्याली || सावताने केला मळा | विठ्ठल देखियेला मळा ||

Savata Mali
संत सावता माळी

Born 1250
Aranbhendi, near Pandarpur
Maharashtra, India
Died 1295
Denomination Varkari-Vaishnavism of Hinduism
Known for Abhanga devotional poetry,
Marathi poet-sant of Bhakti movement
Quotation कांदा,मुळा,भाजी

Savata Mali (born in the 12th century) Tradition Gardening was a Hindu saint. He was a contemporary of Namdev, and a devotee of Vithoba.

For financial reasons, his grandfather, Devu Mali, moved to the Arangaon/Aran-behndi, which is near the Modnimb, Solapur district. Devu Mali had two sons, namely, Parasu (Savata's father) and Dongre. Parasu married Nangitabai; they lived in poverty, but remained devoted Bhagwat followers. Dongre died at young age. In 1250, Parasu and Nangitabai had a son, whom they named Savata Mali.

Having grown up in a religious family, Savata married a very religious and devoted Hindu from a nearby village named Janabai. While working in his fields in the village of Aran, Savata Mali used to sing about the glory of Vithoba. They believed that Vithoba came to him since Savata Mali was unable to make a pilgrimage to the temple of Vithoba. He angered his wife once when he ignored his visiting in-laws because he was so busy in his bhakti, but Janabai's anger was swiftly cooled down because of Savata's kind and peaceful words.

A temple dedicated to him exists in Aran.

मंगलवार, 3 जनवरी 2017

सावित्रीबाई फुले: भारत की पहली महिला शिक्षिका की 186वीं जयंती आज....

NEW DELHI: देश की पहली महिला शिक्षिका सावित्री फुले का आज 186 वां जन्मदिन है। सावित्रीबाई फुले को आधुनिक भारत की पहली महिला शिक्षिका, सामाजिक कार्यकर्ता, कवि के रुप में जाना जाता है।

  सावित्रीबाई फुले ने रुढिवादी विचाधारा से ग्रस्त समाज से लड़कर महिलाओं के लिए शिक्षा का प्रचार-प्रसार किया था। सावित्रीबाई फुले ने ही देश का पहला महिला विद्यालय खोला था। इसकें अलावा समाज में महिलाओं के खिलाफ प्रचलित कुप्रथाओं को खत्म कराने में सावित्रीबाई फुले की अहम भूमिका रही।
जानिए सावित्रीबाई फुले के बारे में महत्वपूर्ण 10 बातें-
1- सावित्रीबाई फुले ने अपने समाजसेवी पति ज्योतिराव फुले के साथ मिलकर महिलाओं के लिए 18 स्कूल खोले. सावित्रीबाई फुले ने पहला और आखिरी यानि 18वां स्कूल पुणे में  खोला।
2- सावित्रीबाई को देश की पहली भारतीय स्त्री-अध्यापिका ऐतिहासिक गौरव हासिल है. उस समय के धर्म के ठेकेदारों ने उन्हें काफी भला बुरा कहा लेकिन वो अपने मार्ग से नहीं डिगीं.।सावित्रीबाई फुले देश की पहली महिला शिक्षिका होने के साथ साथ महिलाओं के हक के लिए लड़ने वाली पहली नेता थीं।
3- सावित्रीबाई ने उस समय में छुआ-छूत, सतीप्रथा, बाल-विवाह और विधवा विवाह निषेध जैसी कुप्रथाओं के विरुद्ध मुहिम चलाई.।

4- सावित्रीबाई ने 28 जनवरी 1853 को बलात्‍कार पीडि़त गर्भवतियों के लिए बाल हत्‍या प्रतिबंधक गृह की स्‍थापना की।
5- सावित्रीबाई ने पति ज्योतिबा फुले के साथ मिलकर जीवन भर समाज में अछूत समझे जाने वाले तबके खासकर महिलाओं और दलितों के अधिकारों के लिए संघर्ष किया।
6- उस समय में विधवा महिलाओं के बाल काट दिए जाते थे. लेकिन सावित्रीबाई ने अपने पति के साथ मिलकर उसके खिलाफ आंदोलन किया. बाल काटने वाले नाईयों को समझाया, जिसके बाद इस कुप्रथा का अंत हुआ।
7- उनकी कोई अपनी संतान नहीं थी, सावित्रीबाई ने ब्राह्मण यशवंत राव को गोद लिया. उन्होंने दत्तक पुत्र यशवंत राव को पढ़ा-लिखाकर डॉक्टर बनाया।
8- यशवंत राव के बारे में बताया जाता है कि वो एक विधवा ब्राह्मण महिला काशीबाई से पैदा हुए थे. इसलिए उनकी मां उन्हें मारने जा रही थी. लेकिन सावित्रीबाई ने उनको गोद लेकर जीवनदान दिया।

9- सावित्रीबाई ने समाज में व्यापत कुरीतियों को जड़ से खत्म करने के लिए 1875 में ‘सत्यशोधक समाज‘ की स्थापना की।
10- 10 मार्च 1897 को प्लेग के मरीजोंकी देखभाल करते हुए प्लेग के कारण ही उनकी मृत्यु हुई।

Birth Anniversary- देश की पहली महिला शिक्षिका सावित्रीबाई फुले (Birth Anniversary: Savitribai 

Phule India’s First Lady Teacher)

भारत की पहली महिला शिक्षिका, समाज सुधारक और मराठी कवयित्री सावित्रीबाई फुले को उनके
 186वें जन्मदिन पर गूगल ने डूडल के ज़रिए श्रद्धांजलि दी है.
savitribai phule
* सावित्रीबाई फुले का जन्म 3 जनवरी 1831 को महाराष्ट्र के सतारा जिले के नायगांव में हुआ था.
* उस समय महिलाओं को पढ़ने की आजादी नहीं थी, लेकिन फुले ने हिम्मत दिखाते हुए न स़िर्फ अपनी पढ़ाई पूरी की, 
बल्कि 1848 में पहला महिला  स्कूल पुणे में खोला था.
* कहा जाता है कि जब वह स्कूल जाती थीं तो महिला शिक्षा के विरोधी लोग पत्थर मारते थे, उन पर गंदगी फेंक देते थे. महिलाओं का पढ़ना उस  समय पाप माना जाता था. सावित्रीबाई एक साड़ी अपने थैले में लेकर जाती थीं ताकि
 स्कूल पहुंचकर अपनी गंदी साड़ी बदल सके.
* 9 साल की छोटी उम्र में ही उनकी शादी ज्योतिबा फुले से हो गई.
* उन्होंने अपने पति क्रांतिकारी नेता ज्योतिबा फुले के साथ मिलकर लड़कियों के लिए 18 स्कूल खोले.
* उन्होंने 28 जनवरी 1853 को गर्भवती बलात्कार पीड़ितों के लिए बाल हत्या प्रतिबंधक गृह की स्थापना की.
* सावित्रीबाई ने उन्नीसवीं सदी में छुआ-छूत, सतीप्रथा, बाल-विवाह और विधवा विवाह निषेध जैसी कुरीतियां के विरुद्ध 
अपने पति के साथ मिलकर    काम किया.
* 10 मार्च 1897 को प्लेग के मरीज़ों की देखभाल करने के दौरान उनकी मृत्यु हो गई.
गूगल ने डूडल बनाकर दी भारत की पहली महिला शिक्षिका सावित्री बाई फुले को श्रद्धांजलि

नई दिल्ली:  आधुनिक भारत की पहली महिला शिक्षिका सावित्री बाई फुले का 3 जनवरी को जन्मदिन होता है। महिलाओं को शिक्षित करने में इनका भारी योगदान रहा। आज गूगल भी फुले के 186वें जन्मदिन पर डूडल बनाकर उन्हें श्रद्धांजलि दी है। डूडल ने सावित्रीबाई को अपने आंचल में महिलाओं को समेटते दिखाया है
एक भारत जहां महिलाओं को शिक्षा देना जरुरी नहीं माना जाता था। उस जमाने में सावित्री बाई ने महिलाओं के आधुनिक स्कूल खोला था और उसमे शिक्षिका के रूप में काम करने लगी। पहली बार 1848 में पुणे में देश का पहला आधुनिक महिला स्कूल खोला गया था। जिसमें 9 लड़कियों ने दाखिला लिया था।
सन् 1831 में महाराष्ट के सतारा जिले के नायगांव में जन्मी सावित्री की 9 साल में ही पूना के ज्योतिबा फुले के साथ हो गई। ज्योतिबा फुले ने ही सावित्री को पढ़ना लिखना सिखाया था। जब वह 17 साल की हुईं इस दंपति ने लड़कियों और महिलाओं के लिए पुणे के भीडेवाड़ा में पहला स्कूल खोला। रूढ़िवादी भारतीय समाज में इस कदम को ऐतिहासिक माना गया।
भारत में ब्रिटिश शासन काल के दौरान सावित्रीबाई फुले और ज्योतिबा फुले ने बाल विवाह, सती प्रथा, सामाजिक भेदभाव जैसी कुप्रथाओं के खिलाफ उन्होनें आवाज उठाई। महिलाओं को समान अधिकार दिलाने के लिए संघर्ष किया। 1 जनवरी 1848 से लेकर 15 मार्च 1852 के दौरान सावित्रीबाई फुले और ज्योतिबा फुले ने बिना किसी आर्थिक मदद और सहारे के लड़कियों के लिए 18 विद्यालय खोले।
प्लेग के मरीजों की सेवा करते हुए सावित्री बाई खुद इस बीमारी का शिकार हो गई और 10 मार्च 1897 में उनका निधन हो गया था। लगभग 18 दशक बाद महाराष्ट्र सरकार ने सावित्रीबाई फुले के सम्मान में पुणे विश्वविद्यालय का नाम सावित्रीबाई फुले विश्वविद्यालय कर दिया।
भारत की प्रथम महिला शिक्षिका – सावित्रीबाई फुले

सावित्रीबाई फुले (3 जनवरी 1831 – 10 मार्च 1897) भारत की एक समाजसुधारिका एवं मराठी कवयित्री थीं। उन्होने अपने पति ज्योतिराव गोविंदराव फुले के साथ मिलकर स्त्रियों के अधिकारों एवं शिक्षा के लिए बहुत से कार्य किए। सावित्रीबाई भारत के प्रथम कन्या विद्यालय में प्रथम महिला शिक्षिका थीं। उन्हें आधुनिक मराठी काव्य की अग्रदूत माना जाता है। १८५२ में उन्होने अछूत बालिकाओं के लिए एक विद्यालय की स्थापना की।

परिचय
सावित्रीबाई फुले का जन्म 3 जनवरी 1831 को हुआ था। इनके पिता का नाम खन्दोजी नेवसे और माता का नाम लक्ष्मी था। सावित्रीबाई फुले का विवाह 1840 में ज्योतिबा फुले से हुआ था।

सावित्रीबाई फुले भारत के पहले बालिका विद्यालय की पहली प्रिंसिपल और पहले किसान स्कूल की संस्थापक थीं। महात्मा ज्योतिबा को महाराष्ट्र और भारत में सामाजिक सुधार आंदोलन में एक सबसे महत्त्वपूर्ण व्यक्ति के रूप में माना जाता है। उनको महिलाओं और दलित जातियों को शिक्षित करने के प्रयासों के लिए जाना जाता है। ज्योतिराव, जो बाद में में ज्योतिबा के नाम से जाने गए सावित्रीबाई के संरक्षक, गुरु और समर्थक थे। सावित्रीबाई ने अपने जीवन को एक मिशन की तरह से जीया जिसका उद्देश्य था विधवा विवाह करवाना, छुआछात मिटाना, महिलाओं की मुक्ति और दलित महिलाओं को शिक्षित बनाना। वे एक कवियत्री भी थीं उन्हें मराठी की आदिकवियत्री के रूप में भी जाना जाता था।

‘सामाजिक मुश्किलें

वे स्कूल जाती थीं, तो लोग पत्थर मारते थे। उन पर गंदगी फेंक देते थे। आज से 160 साल पहले बालिकाओं के लिये जब स्कूल खोलना पाप का काम माना जाता था कितनी सामाजिक मुश्किलों से खोला गया होगा देश में एक अकेला बालिका विद्यालय।

महानायिका

सावित्रीबाई पूरे देश की महानायिका हैं। हर बिरादरी और धर्म के लिये उन्होंने काम किया। जब सावित्रीबाई कन्याओं को पढ़ाने के लिए जाती थीं तो रास्ते में लोग उन पर गंदगी, कीचड़, गोबर, विष्ठा तक फैंका करते थे। सावित्रीबाई एक साड़ी अपने थैले में लेकर चलती थीं और स्कूल पहुँच कर गंदी कर दी गई साड़ी बदल लेती थीं। अपने पथ पर चलते रहने की प्रेरणा बहुत अच्छे से देती हैं।

विद्यालय की स्थापना
1848 में पुणे में अपने पति के साथ मिलकर विभिन्न जातियों की नौ छात्राओं के साथ उन्होंने एक विद्यालय की स्थापना की। एक वर्ष में सावित्रीबाई और महात्मा फुले पाँच नये विद्यालय खोलने में सफल हुए। तत्कालीन सरकार ने इन्हे सम्मानित भी किया। एक महिला प्रिंसिपल के लिये सन् 1848 में बालिका विद्यालय चलाना कितना मुश्किल रहा होगा, इसकी कल्पना शायद आज भी नहीं की जा सकती। लड़कियों की शिक्षा पर उस समय सामाजिक पाबंदी थी। सावित्रीबाई फुले उस दौर में न सिर्फ खुद पढ़ीं, बल्कि दूसरी लड़कियों के पढ़ने का भी बंदोबस्त किया, वह भी पुणे जैसे शहर में।

निधन
10 मार्च 1897 को प्लेग के कारण सावित्रीबाई फुले का निधन हो गया। प्लेग महामारी में सावित्रीबाई प्लेग के मरीज़ों की सेवा करती थीं। एक प्लेग के छूत से प्रभावित बच्चे की सेवा करने के कारण इनको भी छूत लग गया। और इसी कारण से उनकी मृत्यु हुई।
सावित्रीबाई फुले: आधुनिक भारत की पहली महिला शिक्षिका
सावित्रीबाई ने 100 साल पहले ही महिलाओं के लिए 18 महिला स्कूल खोल दिए थे

देश में किसी को शिक्षा ग्रहण करने से रोका नहीं जा सकता क्योंकि ये हर व्यक्ति का मौलिक अधिकार है. लेकिन एक भारत ऐसा भी था. जो महिलाओं को शिक्षा देने के विरुद्ध था. समाज के ऐसे नजरिए के खिलाफ खड़ा होना आसान बात नहीं थी. सावित्रीबाई फुले ने लोगों के नजरिए को बदलने का काम किया. उन्होंने 100 साल पहले ही महिलाओं के लिए 18 महिला स्कूल खोल दिए थे.
सावित्रीबाई का जन्म 3 जनवरी 1831 को महाराष्ट्र के सतारा जिले के नायगांव नामक छोटे से गांव में हुआ था. 9 साल की उम्र में उनकी शादी पूना के ज्योतिबा फुले के साथ हो गई. विवाह के समय सावित्री बाई फुले की कोई स्कूली शिक्षा नहीं हुई थी.
सावित्री जब छोटी थी तब एक बार अंग्रेजी की एक किताब के पन्ने पलट रही थी, तभी उनके पिताजी ने यह देख लिया और तुरंत किताब को छीनकर खिड़की से बाहर फेंक दिया, क्योंकि उस समय शिक्षा का हक केवल उच्च जाति के पुरुषों को ही था, दलित और महिलाओं को शिक्षा ग्रहण करना पाप था.
पढ़ें: सावित्रीबाई फुले ने क्यों किया अंग्रेजी शासन और शिक्षा का समर्थन?
सावित्रीबाई फुले एक दलित परिवार से थी, जब ज्योतिबा फुले ने उनसे शादी की तो ऊंची जाति के लोगों ने विवाह संस्कार के समय उनका अपमान किया तब ज्योतिबा फुले ने दलित वर्ग को गरिमा दिलाने का प्रण लिया.
वह मानते थे कि दलित और महिलाओं की आत्मनिर्भरता, शोषण से मुक्ति और विकास के लिए सबसे जरूरी है शिक्षा और इसकी शुरुआत उन्होंने सावित्रीबाई फुले को शिक्षित करने से की. ज्योतिबा को खाना देने जब सावित्रीबाई खेत में आती थीं, उस दौरान वे सावित्रीबाई को पढ़ाते थे लेकिन इसकी भनक उनके पिता को लग गई और उन्होंने रूढ़िवादिता और समाज के डर से ज्योतिबा को घर से निकाल दिया. फिर भी ज्योतिबा ने सावित्रीबाई को पढ़ाना जारी रखा और उनका दाखिला एक प्रशिक्षण विद्यालय में कराया.
समाज द्वारा इसका बहुत विरोध होने के बावजूद सावित्रीबाई ने अपना अध्ययन पूरा किया. पढ़ाई पूरी होने के बाद सावित्री बाई ने सोचा कि शिक्षा का उपयोग अन्य महिलाओं को शिक्षित करने में किया जाना चाहिए. उन्होंने ज्योतिबा के साथ मिलकर 1848 में पुणे में बालिका विद्यालय की स्थापना की. जिसमें 9 लड़कियों ने दाखिला लिया.
1 जनवरी 1848 से लेकर 15 मार्च 1852 के दौरान सावित्रीबाई फुले और ज्योतिबा फुले ने बिना किसी आर्थिक मदद और सहारे के लड़कियों के लिए 18 विद्यालय खोले. उस दौर में ऐसा सामाजिक क्रांतिकारी की पहल पहले किसी ने नहीं की थी.
गूगल डूडल: भारत की पहली महिला शिक्षिका सावित्रीबाई फूले
1848 में उन्होंने सबसे पहला महिला स्कूल पुणे बालिका विद्यालय खोला.
Tulika Kushwaha | Published On: Jan 03, 2017 08:20 AM IST |

3 जनवरी को गूगल डूडल भारत की पहली महिला शिक्षिका सावित्रीबाई फूले को उनके 186वें जन्मोत्सव पर याद कर रहा है.
डूडल में सावित्रीबाई फूले को कई महिलाओं को अपने आंचल में समेटते हुए दिखाया गया है. सावित्रीबाई ने अपना पूरा जीवन यही किया भी. उन्होंने ब्रिटिश इंडिया में भी औरतों के उत्थान और शिक्षा के बारे में सोचा, जो उस वक्त के लिए बहुत नई बात थी.

उनका जन्म 3 जनवरी, 1831 महाराष्ट्र के सतारा के छोटे से गांव नायगांव में हुआ था. उन्होंने सामाजिक भेदभाव और रूकावटों के बावजूद अपनी शिक्षा पूरी की और इसे बाकी महिलाओं तक पहुंचाने का संकल्प भी लिया.
पढ़ें: सावित्रीबाई फुले-आधुनिक भारत की पहली महिला शिक्षिका
1848 में उन्होंने सबसे पहला महिला स्कूल पुणे बालिका विद्यालय खोला. इसके बाद उन्होंने अपने मेहनत और साहस के बल पर 18 महिला स्कूल खोले और अपना पूरा जीवन महिलाओं की स्थिति को बेहतर बनाने में लगाया.
पढ़ें: सावित्रीबाई फुले ने क्यों किया अंग्रेजी शासन और शिक्षा का समर्थन?
सावित्रीबाई फूले ने उस जमाने में जो दृढ़ संकल्प लिया और इस दिशा में काम किया, उसने भारतीय महिलाओं के आने वाले भविष्य की एक बेहतर रूपरेखा तैयार कर दी.







सावित्री बाई फुले की कवितायें

( आज 3 जनवरी को भारत की आदि शिक्षिका सावित्री बाई फुले की जयंती है . उन्होंने 1848 में लडकियों के लिए प्रथम स्कूल खोला था. उनकी जयंती को कुछ लोग शिक्षक दिवस के रूप में मनाने की बात करते हैं तो एक जमात इस दिन को भारतीय महिला दिवस के रूप में मनाता है . उनकी कविताओं को स्त्रीकाल के लिए प्रस्तुत कर रही हैं  प्रसिद्द लेखिका , आलोचक और दलित स्त्रीवादी सामाजिक कार्यकर्ता अनिता भारती . उनकी जयंती अवसर पर स्त्रीकाल ने सुप्रसिद्ध स्त्रीवादी चिन्तक शर्मिला रेगे को ' सावित्री बाई फुले वैचारिकी सम्मान' ( पूरी खबर के लिए लिंक पर क्लिक करें ) देने  की घोषणा की है.  )

अनिता भारती के द्वारा प्रस्तुति नोट :
यह बहुत कम लोग जानते है कि भारत की पहली अध्यापिका तथा सामाजिक क्रांति की अग्रदूत सावित्रीबाई फुले एक प्रसिद्ध कवयित्री भी थी। इस ब्राह्मणवादी जाति-  समाज ने महान क्रांति सूर्या सावित्रीबाई फुले के अमूल्य योगदान का आंकलन कभी ठीक से किया ही नहीं, पर अब वह दिन दूर नही जब उनके सम्पूर्ण योगदान के पन्नों को एक एक करके खोल लिया जायेगा। उनका पूरा जीवन समाज में वंचित तबके,  खासकर स्त्री और दलितों,  के अधिकारों के लिए संघर्ष में बीता। उन्होंने लड़कियों के लिए स्कूल खोले तथा समाज में व्याप्त सामाजिक और धार्मिक रूढ़ियों के खिलाफ जंग लड़ी. उनकी एक बहुत ही प्रसिद्ध कविता है,  जिसमें वह सबको पढ़ने लिखने की प्रेरणा देकर जाति तोड़ने और ब्राह्मण ग्रंथों को फेंकने की बात करती हैं.
सावित्रीबाई फुले के दो काव्य संग्रह है- काव्यफुले( 1854) और दूसरा बावनकशी सुबोधरत्नाकर.
यहां उनके योगदान का एक पन्ना कविताओं के रुप में आपके सामने प्रस्तुत है:

नोट : कवर पेज साभार एम जी माली की किताब क्रांतिज्योति सावित्रीबाई फुले के पेज नंबर 44 से लिया गया है. प्रकाशक- प्रकाशन विभाग, सूचना और प्रसारण मंत्रालय , भारत सरकार


सावित्री बाई फुले की किताब का कवर


1.
जाओ जाकर पढ़ो-लिखो
 बनो आत्मनिर्भर, बनो मेहनती
काम करो-ज्ञान और धन इकट्ठा करो
ज्ञान के बिना सब खो जाता है
ज्ञान के बिना हम जानवर बन जाते है
इसलिए, खाली ना बैठो,जाओ, जाकर शिक्षा लो
दमितों और त्याग दिए गयों के दुखों का अंत करो
 तुम्हारे पास सीखने का सुनहरा मौका है
 इसलिए सीखो और जाति के बंधन तोड़ दो
 ब्राह्मणों के ग्रंथ जल्दी से जल्दी फेंक दो

2,
जो वाणी से उच्चार करे
वैसा ही बर्ताव करे
वे ही नर नारी पूजनीय
सेवा परमार्थ
पालन करे व्रत यथार्थ
और होवे कृतार्थ
वे सब वंदनीय।
सुख हो दुख
कुछ स्वार्थ नही
जो जतन से कर अन्यो का हित
वे ही ऊँचे,
मानवता का रिश्ता जो जानते है वे सब
सावित्री कहे सच्चे संत ।

3.
ज्ञान नही विद्या नही उसे अर्जित करने की जिज्ञासा नही
बुद्धि होकर भी उस पर जो चले नही उसे इंसान कहे क्या ?

दे दो ईश्वर बिना काम किए बैठे बिठाए खाट पर
ढोर ड़गर भी ऐसा कभी करता नही
जिसका कोई विचार - अस्वार नही, उसे इंसान कहे क्या ?

पत्नी बिचारी काम करती रहे और पति फोकट में मौज उड़ाए
पशु पंछी में यह बात होती नही ऐसो को इंसान कहे क्या ?

दूसरों की मदद ना करे सेवा त्याग दया माया ममता आदि
जिसके पास यह सदगुण नही उसे इंसान कहे क्या ?

पशु पंछी, बंदर आदमी जन्म मृत्यु सब को ही
इस बात का ज्ञान जिसे नही उसे इंसान कहे क्या ?
4.
स्वाबलंबन का उद्योग, ज्ञान धन का संचय करो निरंतर
विद्या के बिना व्यर्थ जीवन पशु जैसा,
आलसी बन चुप ना बैठो।

विद्या प्राप्त करे शूद्रों-अतिशूद्रों के दुःख  निवारण हेतु
अंग्रेजी का ज्ञान हासिल करने का शुभ अवसर हाथ आया

अंग्रेजी पढ़ लिखकर जात-पात की दीवारों को ढहा दो।
भट ब्राम्हणों के षडयंत्रों के पिटारों को दूर फेंक दो।

5.
काम करना है जो आज, उसे अब कर तत्काल ।
जो करना है दोपहर में, उसे कर अब आकर ।

कुछ क्षणों के बाद का कार्य, इसी वक्त करो पूरा जोर लगाकर।
हो गया समाप्त कार्य या नहीं, मौत नही पूछती आकर।
( सावित्रीबाई फुले की यह कविताएं मराठी भाषा के प्रसिद्ध कवि शेखर पवार द्वारा मराठी से हिन्दी में अनुदित है)





6.
Rise to learn and Act
Savitribai Phule

Weak and oppressed! Rise my brother
Come out of living in slavery.
Manu-follower Peshwas are dead and gone
Manu’s the one who barred us from education.
Givers of knowledge– the English have come
Learn, you’ve had no chance in a millennium.
We’ll teach our children and ourselves to learn
Receive knowledge, become wise to discern.
An upsurge of jealousy in my soul
Crying out for knowledge to be whole.
This festering wound, mark of caste
I’ll blot out from my life at last.
In Baliraja’s kingdom, let’s beware
Our glorious mast, unfurl and flare.
Let all say, “Misery go and kingdom come!”
Awake, arise and educate
Smash traditions-liberate!
We’ll come together and learn
Policy-righteousness-religion.
Slumber not but blow the trumpet
O Brahman, dare not you upset.
Give a war cry, rise fast
Rise, to learn and act.

(  Sunil Sardar and Victor Paul have translated this poem)

विद्रोह की मशाल है सावित्रीबाई फुले की कविताएं

 देश को कृतज्ञ होना चाहिए स्त्रियों की पहली शिक्षिका सावित्री बाई फुले का. यूं तो हम सावित्री बाई फुले की जयंती, 3 जनवरी, को शिक्षक दिवस मनाते हैं, बहुत कम लोग जानते हैं कि सावित्रीबाई फुले एक अच्छी कवयित्री भी हैं-सरोकार -समृद्ध उत्कृष्ट कवयित्री.  मराठी की उनकी कविताओं का हिंदी में सम्पादन किया है अनिता जी ने,
 
यह जानकर गहरा आश्चर्य होता है कि 18 वीं शताब्दी में भारत की पहली अध्यापिका तथा सामाजिक क्रांति की अग्रदूत सावित्रीबाई फुले एक प्रखर, निर्भीक, चेतना सम्पन्न, तर्कशील, दार्शनिक, स्त्रीवादी ख्याति प्राप्त लोकप्रिय कवयित्री अपनी पूरी प्रतिभा और ताकत के साथ उपस्थित होती है और किसी की उन पर निगाह भी नहीं जाती या फिर दूसरे शब्दों में कहूं तो उनके योगदान पर मौन धारण कर लिया जाता है। सवाल है इस मौन धारण का, अवहेलना और  उपेक्षा करने का क्या कारण है?  क्या इसका एकमात्र कारण उनका शूद्र तबके में जन्म लेना और दूसरे स्त्री होना माना जाए ? सावित्रीबाई फुले का पूरा जीवन समाज के वंचित तबकों खासकर स्त्री और दलितों के अधिकारों के लिए संघर्ष और सहयोग में बीता । ज्योतिबा संग सावित्रीबाई फुले ने जब क्रूर ब्राह्मणी पेशवाराज का विरोध करते हुए, लड़कियों के लिए स्कूल खोलने से लेकर तात्कालीन समाज में व्याप्त तमाम दलित-शूद्र-स्त्री विरोधी सामाजिक, नैतिक और धार्मिक रूढ़ियों-आडंबरों अंधविश्वास के खिलाफ मजबूती से बढ-चढकर डंके की चोट पर जंग लडने की ठानी तब इस जंग में दुश्मन के खिलाफ लडाई का एक मजबूत हथियार बना उनका स्वयं रचित साहित्य जिसका उन्होंने प्रतिक्रियावादी ताकतों को कड़ा जबाब देने के लिए बहुत खूबसूरती से इस्तेमाल किया। सावित्रीबाई फुले के साहित्य में उनकी कविताएं, पत्र, भाषण, लेख, पुस्तकें आदि शामिल है।

कवयित्री सावित्रीबाई बाई फुले ने अपने जीवन काल में दो काव्य पुस्तकों की रचना की जिनमें उनका पहला काव्य-फुले 1854 में तब छपा जब वे मात्र तेईस वर्ष की ही थीं। दूसरा उनका काव्य-संग्रह बावनकशी सुबोधरत्नाकर 1891 में आया, जिसको सावित्रीबाई फुले ने अपने जीवनसाथी ज्योतिबा फुले की परिनिर्वाण प्राप्ति के बाद उनकी जीवनी रूप में लिखा था।
 
अठारहवीं और उन्नीसवीं शताब्दी में ब्राह्मणवाद का कट्टरतम रूप अपने चरमोत्कर्ष पर था।  उस समय सवर्ण हिन्दू समाज और उसके ठेकेदारों द्वारा शूद्र, दलितों और स्त्रियों पर किए जा रहे अत्याचार-उत्पीडन-शोषण की कोई सीमा नहीं थी। बाबा साहेब ने उस समय की हालत का वर्णन अपनी पुस्तक 'एनिहिलेशन ऑफ कास्ट' में करते हुए कहा है- 'पेशेवाओं के शासनकाल में, महाराष्ट्र में, इन अछूतों को उस सड़क पर चलने की आज्ञा नही थी जिस पर कोई सवर्ण हिन्दू चल रहा हो। इनके लिए आदेश था कि अपनी कलाई में या गले में काला धागा बांधे, ताकि हिन्दू इन्हें भूल से ना छू लें। पेशवाओं की राजधानी पूना में तो इन अछूतों के लिए यह आदेश था कि ये कमर में झाडू बाँधकर चलें, ताकि इनके पैरों के चिन्ह झाडू से मिट जाएं और कोई हिन्दू इनके पद चिन्हों पर पैर रखकर अपवित्र न हो जाएं, अछूत अपने गले में हांडी बाँधकर चले और जब थूकना हो तो उसी में थूकें, भूमि पर पड़ें हुए अछूत के थूक पर किसी हिन्दू का पैर पड़ जाने से वह अपवित्र हो जाएगा'।

ऐसी विपरित परिस्थितियों में सावित्री बाई फुले का जन्म 3 जनवरी 1931 को महाराष्ट्र के सतारा जिला के एक छोटे से ग्राम नायगांव में हुआ। मात्र नौ साल की उम्र में ग्यारह साल के ज्योतिबा संग ब्याह दी गई। केवल सत्रह वर्ष की उम्र में ही सावित्रीबाई ने बच्चियों के एक स्कूल की अध्यापिका और प्रधानाचार्या दोनों की भूमिका को सवर्ण समाज के द्वारा उत्पन्न अड़चनों से लड़ते हुए बडी ही लगन, विश्वास और सहजता से निभाया। समता, बंधुता, मैत्री और न्याय पूर्ण समाज की ल़डाई के लिए, समाजिक क्रांति को आगे बढाने के लिए सावित्राबाई फुले ने साहित्य की रचना की। आज भी यह बात बहुत कम लोग जानते है कि वे एक सजग, तर्कशील, भावप्राण, जुझारू क्रांतिकारी कवयित्री थी। मात्र 23 साल की उम्र में उनका पहला काव्य संग्रह काव्य फुले आ गया था, जिसमें उन्होंने धर्म, धर्मशास्त्र, धार्मिक पाखंड़ो और  कुरीतियों के खिलाफ जम कर लिखा। औरतों का सामाजिक स्थिति पर कविताएँ लिखी। और उनकी बुरी स्थिति के लिए जिम्मेदार धर्म, जाति, ब्राह्मणवाद और पितृसत्ता पर कड़ा पर प्रहार किया। सावित्रीबाई फुले अपनी एक कविता में वे दलितों औऱ बहुजनों को समाज में बैठी-अज्ञानता को पहचान कर उसे पकड़कर कुचल- कुचल कर मारने के लिए कहती है क्योंकि यह अज्ञानता यानी अशिक्षा ही दलित बहुजन और स्त्री समाज की दुश्मन है जिसे जानबूझकर सोची समझी साजिश के तहत वंचित समूह को उसे दूर रखा गया है ।

 उसका नाम है अज्ञान
उसे धर दबोचो, मजबूत पकड़कर पीटो
और उसे जीवन से भगा दो  

इस अशिक्षा रूपी अज्ञानता के कारण ही पूरा बहुजन समाज सवर्ण हिन्दुओं का गुलाम बना है। इनके पाखंड और कूटनीति के हथियार ज्योतिष, पंचाग, हस्तरेखा आदि पर व्यंग्य करती हुई सावित्री बाई फुले कहती है -

ज्योतिष पंचाग हस्तरेखा में पड़े मूर्ख
स्वर्ग नरक की कल्पना में रूचि
पशु जीवन में भी
ऐसे भ्रम के लिए कोई स्थान नहीं
पत्नी बेचारी काम करती रहे
मुफ्तखोर बेशर्म खाता रहे
पशुओं में भी ऐसा अजूबा नहीं
उसे कैसे इन्सान कहे?         (पेज-2)



सावित्रीबाई फुले जानती है कि शूद्र और दलितों की गरीबी का कारण क्या है। लोग समझते है कि ब्राह्मणवाद केवल मन की एक मानसिकता ही नही बरन एक पूरी व्यवस्था है जिससे धर्म और ब्राह्मणवाद के पोषक तत्व देव-देवता, रीति-रिवाज, पूजा-अर्चना आदि गरीब दलित दमित जनता को अपने में नियंत्रण में रखकर उनकी उन्नति के सारे रास्ते बंद कर उन्हें गरीबी, तंगी, बदहाली भरे जीवन में धकेलते आए हैं।

शूद्र और अति शूद्र
अज्ञान की वजह से पिछड़े
देव धर्म, रीति रिवाज़, अर्चना के कारण
अभावों से गिरकर में कंगाल हुए-
                                     (पेज- 6)


वे शूद्रों के दुख को, जाति के आधार पर प्रताड़ना के दुख को दो हजार साल से भी पुराना बताती है। सावित्रीबाई फुले इसका कारण मानती है कि इस धरती पर ब्राम्हणों ने अपने आप को स्वयं घोषित देवता बना लिया है और उसके माध्यम से यह स्वयं घोषित ब्राह्मण देवता अपनी मक्कारी और झूठ फरेब का जाल बिछाकर, उन्हें डरा-धमका कर रात-दिन अपनी सेवा करवाते है।

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दो हजार साल पुराना
शूद्रों से जुड़ा है एक दुख
ब्राह्मणों की सेवा की आज्ञा देकर
झूठे मक्कार स्वयं घोषित
भू देवताओं ने पछाड़ा है। -   पेज 14

सावित्रीबाई फुले ब्राह्मणों के ग्रंथ 'मनुस्मृति' को दलित, शूद्र और स्त्री की दुर्दशा की जिम्मेदार है इसलिए वे मनुस्मृति के रचयिता मनु को इस बात के आड़े हाथ लेती है जिसमें यह कहा गया है कि जो हल चलाता है, जो खेती करता है वह मूर्ख है। दरअसल सावित्रीबाई फुले इस बात के पीछे छिपे षडयंत्र को जानती है. वे जानती है कि यदि शुद्र और दलित खेती करेगे तो सम्पन्न होंगे। यदि वे सम्पन्न होंगे तो खुशहाली भरा जीवन जीयेगे जिससे वे ब्राह्मणों की धर्मज्ञा मानना बंद कर देंगे। इसलिए मनुस्मृति रचयिता को खरी खरी सुनाते हुए वे कहती हैं -

हल जो चलावे, खेती जी करे
वे मूर्ख होते है, कहे मनु ।
मत करो खेती कहे मनुस्मृति
धर्माज्ञा की करे घोषणा, ब्राह्मणों की।

शूद्र और दलित यहाँ के मूलनिवासी यानी 'नेटिव' है। आक्रामक आर्य बाहर से आए थे और उन्होने अपनी चलाकी और धूर्तता से, अन्य सत्ताधारी शासकों से मिलकर यहां के भोले -भाले मूलनिवासियों को पद दलित कर दिया। लेकिन यहाँ के नेटिव मूलनिवासी अपने शौर्य दयालुता और प्रेम आदि जीवन मूल्यों में विश्वास रखते आए है। इन शूरवीर जननायकों में छत्रपति शिवाजी, महारानी ताराबाई, अंबाबाई आदि जिन्होने समतामूलक समाज बनाने के लिए अन्याय और अत्याचार के खिलाफ लडाई लडी सावित्रीबाई फुले इन शूरवीरों के समक्ष अपना सिर झुकाती है। महान शूरवीर यौद्धा बलिराजा के प्रति अपना सम्मान प्रकट करते हुए और अपने तथा अपने वंचित समाज को उनका वंशज मानतीं है और कहती है -

शूद्र शब्द का
सही अर्थ है-नेटिव
आक्रामक शासकों ने
शुद्र का ढप्पा लगाया।

पराजित शूद्र हुए गुलाम
इरानी  ब्राह्मणों के
और ब्राह्मण अंग्रेजों के
बने उग्र शूद्र ।

असल में शूद्र ही
स्वामी इंडिया के
नाम उनका था इंडियन

थे शूर पराक्रमी हमारे पुरखे
उन्ही प्रतापी यौद्धाओं के
हम सब वंशज हैं।
                     
शूद्र राजा बलिराजा के राज में समृद्धि है, जनता के पास काम है। वह मेहनती है। खुश है। सुखी है और खुशहाल है। एक वंचित वर्ग के शासक बलिराजा को सिर पर ताज की उपाधि देते हुए सावित्री बाई फुले कहती है-

बलिराज में जनता सुखी-संतोषी

दान में पाएं याचक स्वर्ण घन कंचन
सिर पर ताज रत्नों का बलिराज
और जनता के विशाल मन

छत्रपति शिवाजी बडे शूरवीर योद्धा और जननायक है। वंचित तबके की शूद्र अतिशूद्र जनता उन्हें अपना हमदर्द मानकर सुबह सवेरे रोज याद करती है और उनके शौर्य गान गाती है-

छत्र पति शिवाजी को
सुबह- सवेरे याद करना चाहिए
शूद्र- अतिशुद्र के हमदर्द
उनका गुणगान करे पूरी भावना से।


आगे वे इसी कविता में कहती है कि राजा नल द्रौपदी युधिष्ठिर आदि का गान तो केवल शास्त्र पुराणों तक ही सीमित है जबकि शिवाजी की शौर्य गाथाएं इतिहास में दर्ज हो गई है और हमेशा रहेगी।

नल राजा युधिष्ठिर, द्रोपदी
आदि
नामी गिरामी शास्त्र-पुराणों के
पन्नों तक ही सीमित
किन्तु छत्रपति शिवाजी की शौर्य गाथा
है इतिहास में दर्ज।                

शूद्र अतिशूद्र और आदिवासी समाज में स्त्रियाँ बहुत बहादुर और जुझारू होती है। वह किसी भी कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी हार नही मानती हैं। मुसीबत आने पर भी किसी भी मोर्चे अपने समाज के साथ खडी होकर अपने बच्चों को साथ ले, बराबरी से डटकर मुकाबला करती है।. महारानी छत्रपति ताराबाई ऐसी ही एक बहादुर योद्धा थी। उनकी लडाकू वीरांगना की पदवी देते हुए सावित्रीबाई फुले उन्हें शत्रु मर्दिनी, शेर की तरह दड़ाडने वाली, बिजली से भी अधिक फुर्तीली बताती है और उनको अपना प्रेरणास्त्रोत मानते है।

महारानी ताराबाई लड़ाकू वीरागंना
रणभूमि में रण चंडिका तूफानी
युद्ध भूमि में युद्ध की प्रेरणास्त्रोत
आदर से सिर झुक जाता
उसे प्रणाम करना मुझे सुहाता      

सावित्रीबाई फुले अपनी तमाम उम्र दलित वंचित शूद्र व स्त्री तबके के लिए जिस अधिकार के लिए लडती रही वह अधिकार था शिक्षा का। इस पूरे वर्ग को जानबूझकर शिक्षा रहित करके उसी ताकत योग्यता और उसके श्रम का शोषण किया गया। उसके वो तमाम रास्ते जो उसे आगे ले जा सकते थे, जो उसे अन्याय के खिलाफ प्रतिकार करने की ताकत देते थे, जो उसे शोषण और अत्याचार से लडना सिखाते थे, सब के सब शिक्षा के अधिकार के बिना अधूरे रह गए। सावित्रीबाई फुले ने सवर्णों के इस कुचाल को समझा कि यह सवर्ण समाज कभी दलितों वंचितों और शूद्रों को पढने लिखने नही देगा इसलिए सावित्रीबाई ने सबसे ज्यादा अपनी कविताओं के माध्यम से शिक्षा प्राप्त करने की अलख जगाई। उन्हें अपने सामाजिक कार्यों द्वारा अनुभव हो चुका था कि शिक्षा के बिना, खासकर अंग्रेजी शिक्षा के बिना शूद्र अतिशूद्र तथाकथित मुख्यधारा के विकास में शामिल नहीं हो सकते अत: वह शूद्र अति शूद्रों को अंग्रेजी पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करती है और अपनी कविता अंग्रेजी भैया मे कहती है-




"अंग्रेजी मैय्या, अंग्रेजी वाणई
शूद्रों को उत्कर्ष करने वाली
पूरे स्नेह से।

अंग्रेजी मैया, अब नहीं है मुगलाई
और नहीं बची है अब
पेशवाई, मूर्खशाही।

अंग्रेजी मैया, देती सच्चा ज्ञान
शूद्रों को देती है जीवन
वह तो प्रेम से।

अंग्रेजी मैया, शूद्रों को पिलाती है दूध
पालती पोसती है
माँ की ममता से।


अंग्रेजी मैया, तूने तोड़ डाली
जंजीर पशुता की
और दी है मानवता की भेंट
सारे शूद्र लोक को।

इसी तरह अपनी दूसरी कविता 'अंग्रेजी पढ़ों' में शूद्रो अतिशूद्रों को अपनी जीवन शिक्षा से सुधारने के लिए कहती है-

  स्वाबलंबन का हो उद्यम, प्रवृत्ति
  ज्ञान-धन का संचय करो
  मेहनत करके।

  बिना विद्या जीवन व्यर्थ पशु जैसा
  निठल्ले ना बैठे रहो
   करो विद्या ग्रहण।

   शूद्र-अतिशूद्रों के दुख दूर करने के लिए
   मिला है कीमती अवसर
   अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त करने का।

   अंग्रेजी पढ़कर जातिभेद की
   दीवारें तोड़ डालो
    फेक दो भट-ब्राह्मणों के
    षड्यंत्री शास्त्र-पुराणों को।

धार्मिक रूढियों, अँधविश्वास और आडंबर की पोल खोलकर उनका मजाक बनाते हुए, उसपर व्यंग्य करती हुई सावित्रीबाई अपनी मन्नत कविता में कहती है-

पत्थर को सिंदूर लगाकर
और तेल में डुबोकर
जिसे समझा जाता है देवता
वह असल में होता है पत्थर।

आगे वह इसी कविता में पत्थर से मन्नत माँगकर पुत्र प्राप्त करने की अवैज्ञानिकता का मखौल उड़ाते हुए कहती है-

यदि पत्थर पूजने से होते बच्चे
तो फिर नाहक
नर-नारी शादी क्यों रचाते?  

अपनी राय बताएँ - क्या सावित्रीबाई फुले को 2016 में भारत रत्न घोषित किया जाना चाहिए?  ( क्लिक करें)

जिस समय सावित्रीबाई का प्रथम कविता संग्रह काव्य फुले आया उस समय सावित्रीबाई फुले शूद्र-अतिशूद्र लड़कियों को पढा रही थीं। ज्योतिबा सावित्री ने पहला स्कूल 13 मई 1848 में पहला स्कूल खोला था और काव्यफुले 1852 में आया। जब वे पहले पहल स्कूल में पढ़ाने के लिए निकली तो वे खुद उस समय बच्ची ही थी। उनके कंधे पर ज्यादा से ज्यादा बच्चों को स्कूल तक लाना तथा उन्हें स्कूल में बना बनाए रखने की भी बात होगी। सावित्रीबाई फुले ने बहुत ही सुंदर बालगीत भी लिखे है जिसमें उन्होने खेल खेल में गाते गाते बच्चों को साफ सुथरा रहना, विद्यालय आकर पढाई करने के लिए प्रेरित करना व पढाई का महत्व बताना आदि है।    बच्चों के विद्यालय आने पर वे जिस तरह स्वागत करती है वह उनकी शिक्षा देने की लगन को दर्शाता है -

सुनहरे दिन का उदय हुआ
आओ प्यारे बच्चो
आज हर्ष उल्लास से
तुम्हारा स्वागत करती हूँ आज      

वह विद्या को श्रेष्ठ धन बताते हुए कहती है -

विद्या ही सच्चा धन है
सभी धन-दौलत से बढ़कर
जिसके पास है ज्ञान का भंडार
है वह सच्चा ज्ञानी लोगों की नज़रो में

अपने एक अन्य बालगीत में बच्चों को समय का सदुपयोग करने की प्रेरणा देते हुए कहती है-

 करना है जो काम आज
 उसे करो तुम तत्काल

 जो करना है दोपहर में
उसे कर लो तुम अभी

पलभर के बाद का काम
 पूरा कर लो इसी वक़्त

 काम पूरा हुआ कि नहीं ?
  न कभी भी पूछती मृत्यु कारण।


सावित्रीबाई फुले का  एक बालगीत 'समूह' एक लघुनाटिका के समान लगता है। इस कविता में वे पांच समझदार पाठशाला जाकर पढने वाली शिक्षित बच्चियों से पाठशाला न जाने वाली अशिक्षित बच्चियों की आपस में बातचीत व तर्क द्वारा उन्हें पाठशाला आकर पढ़ने के लिए कहती हैं तो निरक्षर बच्चियाँ जवाब देती है-

  अरे, क्या धरा है पाठशाला में
  क्या हमारा सिर फिर गया है ?
  पाठशाला जाने से तो अच्छा है खेलना
   चलो चलो, जाकर खेलें।.....


उन्हीं में से कुछ बच्चियां कहती है -

    रूको जरा, जाकर माँ से पूछते हैं
     खेल-कूद, घरकाम या पाठशाला ?
     चलो, सारी सखियाँ,
     उसकी सलाह लेते हैं।.....


लेकिन सभी अशिक्षित बच्चियाँ जब अपनी- अपनी माँ के पास पहुंची और उन्हें पढाई के लिए हुए सारे वाद-विवाद बताएँ तब उन अशिक्षित बच्चियों की माँ भी इन बच्चियों को शिक्षा का महत्व समझाते हुए कहती है-
        स्वाभिमान से जीने के लिए
        पढ़ाई करो पाठशाला की
        इन्सानों का सच्चा गहना शिक्षा है
        चलो, पाठशाला जाओ।.....

सावित्रीबाई फुले जिन स्वतंत्र विचारों की थी, उसकी झलक उनकी कविताओं में स्पष्ट रूप से मिलती है। वे लड़कियों के घर में काम करने, चौका बर्तन करने की अपेक्षा उनकी पढाई-लिखाई  को बेहद जरूरी मानती थी। कविताओं की इन पंक्तियों से पता चल जाता है कि सावित्रीबाई फुले स्त्री अधिकार चेतना सम्पन्न स्त्रीवादी कवयित्री थी.

        पहला कार्य पढ़ाई, फिर वक्त मिले तो खेल-कूद
        पढ़ाई से फुर्सत मिले तभी करो घर की साफ-सफाई
        चलो, अब पाठशाला जाओ।.....

इस लघु नाटिका जैसे गीत के अंत में पाँचों बच्चियों को शिक्षा का महत्व समझ में आ जाता है और वे पढने के लिए उत्सुक होते हुए कहती है-

        चलो, चलें पाठशाला हमें है पढ़ना, नहीं अब वक्त गँवाना
        ज्ञान-विद्या प्राप्त करें, चलो हम संकल्प करें
        अज्ञानता और गरीबी की गुलामीगिरी चलो, तोड़ डालें
        सदियों का लाचारी भरा जीवन चलो, फेंक दें।

        हमें ना हो इच्छा कभी आराम की
        ध्येय साध्य करें पढ़कर शिक्षा का
        अच्छे अवसर का आज ही सदुपयोग करें
        समय की सहयोग हमें प्राप्त हुआ हैं।

सावित्रीबाई फुले बेहद प्रकृति प्रेमी थी। काव्यफुले में उनकी कई सारी कविताएं प्रकृति, प्रकृति के उपहार पुष्प और प्रकृति का मनुष्य को दान आदि विषयों पर लिखी गई है। तरह-तरह के फूल, तितलियाँ, भँवरे, आदि का जिक्र वे जीवन दर्शन के साथ जोड़कर करती है। प्रकृति के अनोखे उपहार हमारे चारों ओर खिल रहे तरह-तरह के पुष्प जिनका कवयित्री सावित्रीबाई फुले अपनी कल्पना के सहारे उनकी सुंदरता, मादकता और मोहकता का वर्णन करती है वह सच में बहुत प्रभावित करने वाला है। पीली चम्पा (चाफा) पुष्प के बारे में लिखते हुए वह कहती है-


पीला चम्पा
हल्दी रंगा का
बाग में खिला,
ह्रदय के भीतर तक बस गया


ऐसे ही एक अन्य कविता है 'गुलाब का फूल'। इस कविता में सावित्रीबाई फुले गुलाब और करेन के फूल की तुलना आम आदमी और राजकुमार से करके अपनी कल्पना के जरिए सबको विस्मित कर देती है -

गुलाब का फूल और फूल करेन का
रंग- रूप दोनो का एक- सा
एक आम आदमी, दूसरा राजकुमार
गुलाब की रौनक, देसी फूलो से उसकी उपमा कैसी?

तितली और फूलों की कलियाँ कविता में सावित्री बाई फुले की दार्शनिक दृष्टि को विस्तार दिखता है। जिस तरह से समाज के सारे रिश्ते नाते स्वार्थ की दहलीज पर खडे होकर अपना स्वार्थ साधते है इस भाव को अभी तक अन्य कवियों ने अपनी कविताओं में फूल और भँवरे के माध्यम से बताया है पर सावित्रीबाई फुले ने इस स्वार्थपरता की भावना को तितली के जरिए स्पष्ट किया है  -

        तितलियाँ रंग-बिरंगी
        बहुत ही सुंदर
        उनकी आँखे चमकदार, सतरंगी
        उनकी हंसी बातुनी
        पंख रेशमी उनकी देह पर
        छोटे-बड़े, पीले रंग के
        पंख मुड़े हुए, किन्तु भरे उड़ान आकाश में
        उनका रूप-रंग मनोहर।

        तितलियाँ देख-देख मैं खो गयी
        बिसर गई अपने आप को

        फूलों की कलियाँ
        कोमल, अति सुन्दर
        आतुर होकर तितलियों को
        पास बुलाती
        राह देखती उनकी
        आ जाओ दौड़-दौड़ कर तितली
        कहती मन ही मन फूलों की कलियाँ।

        उड़कर आ पहुँची तितलियाँ
        फूलों के पास
        इकट्ठा कर शहद पी लिया
        मुरझा गयी सारी कलियाँ।

        फूलों की कलियों का रस चखकर
        ढूँढा कहीं और ठिकाना।

        रीत है यही दुनियाँ की
        स्वार्थ और पलभर के हैं रिश्ते
        देख दुनियाँ की रीत
        हो जाती हूँ मैं चकित।

प्रकृति का सार्वभौमिक सत्य है जीओ और जीने दो । इन्सान और प्रकृति कविता में वह इसी तथ्य को प्रतिपादित करते हुए कहती हैं

        मानव जीवन को करे समृद्ध
        भय चिंता सभी छोड़कर आओ,
        खुद जीएं और औरों को जीने दें।

        मानव-प्राणी, निसर्ग-सृष्टि
        एक ही सिक्के के दो पहलू
        एक जानकर सारी जीवसृष्टि को
        प्रकृति के अमूल्य निधि मानव की
        चलो, कद्र करें।

 सावित्रीबाई फुले अपने दाम्पत्य जीवन में, अपनी आजादी में, अपने आनंद में और अपने सामाजिक काम में ज्योतिबा फुले के प्यार, स्नेह और सहयोग को हमेशा दिल में जगाएं रखती थी। पचास साल के अपने दाम्पत्य जीवन में वे ज्योतिबा के साथ हर पल, हर समय उनके साथ कदम से कदम मिलाकर चलती रही तथा ज्योतिबा को अपने मन के भीतर संजोकर रखा। ज्योतिबा और सावित्रीबाई फुले जैसा प्यार, आपसी समझदारी सामाजिक कार्यकर्ताओं के लिए प्रेरणा और समाज के लिए मिसाल है। सामाजिक काम की प्रेरणा के साथ वे अपने काव्य सृजन की प्रेरणा भी ज्योतिबा फुले को ही मानती। ज्योतिबा से मिले ज्ञान के बोध को वे मन की पोटली में बांधकर रखती है-

"ऐसा बोध प्राप्त होता है
ज्योतिबा के सम्पर्क में
मन के भीतर सहेजकर रखती हूं,
मैं सावित्री ज्योतिबा की।

'संसार का रास्ता' कविता में संसार के रास्ते से अलग चलते हुए वे कहती है-

मेरे जीवन में ज्योतिबा स्वांनद समग्र आंनद
जिस तरह होता है शहद
फूलों, कलियों में।

X  X   X  X   X   X   X   X   X
ज्योतिबा को सलाम
ह्रदय से करते हैं
ज्ञान का अमृत हमें वे देते हैं,
और जैसे हम
पुनर्जीवित होत जाते हैं

महान ज्योतिबा,
दीन दलित, शूद्र- अतिशुद्र
तुम्हें पुकारते हें

ज्योतिबा सावित्री संवाद कविता सावित्रीबाई फुले ने अपने और ज्योतिबा फुले के बीच के प्रातकालीन भ्रमण के समय सुबह की प्राकृतिक सुषमा का वर्णन किया है। सावित्रीबाई फुले इस कविता में सुबह की प्राकृतिक सुषमा के मनोहारी दृश्य के वर्णन के बीच सामाजिक मुददों पर बहस छिड जाती है, इसका बेहद खूबसूरत से चित्रमय संवाद दिखाया है। ज्योतिबा सावित्रीबाई से  सुबह होने पर रात के दुखी होने की बात करते है। इस बात का सावित्रीबाई फुले जवाब देते हुए कहती है कि क्या रात यदि यह इच्छा करती है कि प्रकृति सूर्य बिन रहे तो उसकी इच्छा उल्लू के सामान है जो सूरज को गाली गलौज और श्राप देने की कामना करता है.

बातें ज्योतिबा की सुन कहे सावित्री
करे इच्छा रात-रजनी
रहे प्रकृति सूरज बिन
रहे अंधियारे में हमेशा-हमेशा
उल्लुओं की इच्छा होती है ऐसी
करे सूरज को, गाली गलौच और दे शाप

सावित्री का तर्क सम्मत जवाब सुन ज्योतिबा कहते है तुम ठीक कहती हो सावित्री शिक्षा के कारण अंधकार छट गया है और शूद्र, महार जाग गये है। उल्लूओं की हमेशा इच्छा होती है कि शूद्र और महार दीन दलित अज्ञानियों की तरह जीवन जिए। मुर्गा को टोकरी से ढकने पर भी वह बांग देना नही छोडता। अत कोई कितना कोशिश करे एक दिन शूद्र महार जनता अपना शिक्षा का अधिकार पाकर ही रहेगी -

सच कहती हो तुम, छट गया अंधकार
शूद्रादि महार जाग गए हैं।

दीन दलित अज्ञानी रहकर दुख सहे
पशु भांति जीते रहे
यह थी उल्लुओं की इच्छा ।

टोकरी से ढका रखने पर भी
मुर्गा देता है बांग
और लोगों को देता है, सुबह होने की खबर।

कविता के अन्त में सावित्री घोषणा करती है-

शूद्र लोगों के क्षितिज के पर,
ज्योतिबा है सूरज
तेज से पूर्ण, अपूर्व, उदय हुआ है।

XXXXXXXXXXX   XXXXXXXXXXXXXXXX

सावित्रीबाई फुले का दूसरा काव्य संग्रह 'बाबन्नकशी सुबोधरत्नाकर' ज्योतिबा फुले की याद में लिखा गया है। यह काव्य संग्रह ज्योतिबा फुले की प्रमाणिक जीवनी के रूप में उनके परिनिर्वाण के एक साल बाद 1891 में उनको सादर समर्पण के रूप में प्रकाशित हुआ। बाबनकशी या बावन तोले यानी बावन पद, जिसमें प्रत्येक पद पाँच- छह पंक्तियों का है। इन बाबन पदों में सावित्रीबाई फुले ने ज्योतिबा के जीवन संघर्ष, जीवन दर्शन, और उनके सामाजिक कार्यों द्वारा उस समय शूद्रों महारो स्त्रियों की स्थिति में आए क्रांतिकारी बदलावों का बहुत सच्चाई, प्रेम और सम्मान के साथ वर्णन हुआ है। एक एक पद में सावित्रीबाई फुले ने ज्योतिबा के प्रति अपने ह्रदय के सच्चे उद्गार प्रस्तुत किए है । बाबनकशी सुबोधरत्नाकर सावित्रीबाई फुले के पहले काव्य संग्रह काव्यफुले के पूरे उन्तालीस साल के अंतराल के बाद आया था, जिसमें कुल मिलाकर बाबन पदों को छह भागों में क्रमश: उपोद्घात, सिद्धांत, पेशवाई, आंग्लाई, ज्योतिबा और अंत में उपसंहार शीर्षक से बांटा गया है। बावनकशी सुबोधरत्नाकर में कवयित्री सावित्रीबाई फुले ने अपनी कविताओं के माध्यम से उस समय के इतिहास, स्थिति, परिस्थिति, और उसमें ज्योतिबा फुले के योगदान को स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है। बाबनकशी सुबोधरत्नाकर के आरंभ में ही कवयित्री सावित्री बाई फुले अपना काव्य संग्रह अपने जीवन साथी ज्योतिबा फुले को समर्पित करते हुए कहती है कि अब वह इस दुनिया में ही है पर मेरे चिंतन और मन में बसे हुए है-

        सहज काव्य रचना करती हूँ
        भुजंग प्रयात छंद में
        मन के भीतर रचती हूँ पंक्तियाँ
        फिर उतारती हूँ कागज़ पर गीत
        पति जोतिबा को
        वो सारे गीत अर्पण करती हूँ
        आदर के साथ
        अब वे यहाँ नहीं हैं इस जगत में
        किन्तु हमेशा रहते हैं मेरे चिंतन में॥2॥

सावित्री ज्योतिबा फुले के बारे में सोचती हुई कहती है ज्योतिबा उनके जीवन साथी तो है ही लेकिन वे इससे ज्यादा बढकर दलित और शूद्र समाज के अंधकारों को दूर करने वाले क्रांतिसूर्य भी है। वे अपनी कविता लिखने का उद्देश्य बताती है कि वे हमेशा वंचित शोषित समाज के लिए कविता लिखना चाहती है.  "प्रणाम करती हूं मैं सभी शूद्रों को मैं सावित्री मनोभाव से, हमेशा सृजन करूं मैं कविताएं उनकी उन्नति के लिए।" कहना न होगा की क्रांतिकारी सामाजिक नेत्री कवयित्री सावित्री बाई फुले के लेखकीय सरोकार बहुत बड़े है। इस समाजिक सरोकार में लिखना भी शामिल है। सावित्रीबाई फुले अपने लेखन से सामजिक कार्य और उस सामाजिक कार्य से शुद्र दलितों की पीड़ा उजागर करते हुए उनके खिलाफ खड़े होने की प्रेरणा देती है।

प्रसिद्ध लेखक एम. जी. माली के अनुसार 'बावनकशी सुबोध रत्नाकर ज्योतिबा फुले की सबसे पहली प्रमाणिक, उपलब्ध जीवनी है, जिसे सावित्रीबाई फुले ने बावन पदों में काव्यात्मक शैली मं लिखा है'। दूसरे शब्दों में कहे तो बावनकशी सुबोध रत्नाकर ज्योतिबा फुले पर लिखा गया सक्षिप्त महाकाव्य है जो देखने में छोटा पर अपने उद्देश्य में अत्यन्त विशाल और अति महत्वपूर्ण है। बावन कशी में सावित्री बाई फुले उस समय के धार्मिक पाखंड से पूर्ण समाज और उसके ठेकेदारों चेले चेलिओं का वर्णन करते हुए कहती है-

        परिक्रमा करे चेलियाँ मेले में शंकराचार्य की
        प्रचार करे रूढ़ियों का मूर्खता से
        रीति-रिवाज का करो सब अनुशासन से पालन॥9॥




सावित्रीबाई फुले के अनुसार मनुस्मृति को शूद्र समाज की दुर्दशा का कारण है। इस मनुस्मति के कारण ही चार वर्णों का जहरीला निर्माण हुआ है. इसी के कारण समाज में दलित शूद्रों की स्थिति और जीवन भयानक मानसिक और सामाजिक गुलामी में बीता है। यही पुस्तक सारे विनाश की जड़ है।

        मनुस्मृति की कर रचना मनु ने
        किया चातुर्वर्ण का विषैला निर्माण
        उसकी अनाचारी परम्परा हमेशा चुभती रही
        स्त्री और सारे शूद्र गुलामी की गुफा में हुए बन्द
        पशु की भाँति शूद्र बसते आए दड़बों में ॥13॥


पेशवा राज में शूद्र और दलितों की स्थिति किसी काल्पनिक नरक की अवधारणा से भी ज्यादा भयंकर थी तथा उस असहनीय यातना घर की तरह थी जिसमें शुद्र और दलितों को एकदम पद दलित की स्थिति पर खड़ा कर दिया। जिसमें उनकी स्थिति पशुओं से भी बदतर हो गई थी.

        पेशवा ने पाँव पसारे
        उन्होंने सत्ता, राजपाट संभाला
        और अनाचार, शोषण अत्याचार होता देखकर
        शूद्र हो गए भयभीत
        थूक करे जमा
        गले में बँधे मटके में
        और रास्तों पर चलने की पाबंदी
        चले धूल भरी पगडंडी पर,
        कमर पर बँधे झाडू से मिटाते
        पैरों के निशान॥17॥

सावित्रीबाई फुले अपने काव्य के माध्यम से पेशवाराज के जुल्मों का वर्णन करते हुए बताती है कि पेशवाराज  मे शूद्रो अतिशूद्रों के साथ उच्च वर्ग की स्त्रियों के हालात भी इतने बदत्तर थे कि पेशवा के बुलाने पर उसी की ऊंच जाति का निर्लज्ज पति अपनी पत्नी को यह करते हुए कि "चलो हवेली, एक सुनहरा मौका आ खड़ा हुआ है' कहकर रावबाजी पेशवा के यहाँ छोड़ आया करता था।

पेशवा राज के बाद अग्रेंजों के आगमन पर जब शुद्र और दलित वर्ग शिक्षा की ओर थोडा सा अग्रसर हुआ तो भट-ब्राह्मण दलित और शुद्रों का मज़ाक बनाते थे। उनकी इस अभद्रता के खिलाफ बोलते हुए सावित्री कहती है-


        ज्ञानी बनता देख भट लोग बरगलाते
        देखो, कैसे हाँके ईसा भेड़-बकरियों को
        झूठे बढ़ा-चढ़ाकर॥27॥

बावन्नकशी में वे ज्योतिबा के जन्म से लेकर पालन-पोषण, शिक्षण और उनके सामाजक कार्यों का बेहद सरल और रोचक शैली में वर्णन करती है।  जब ज्योतिबा केवल नौ ही महीने के थे तब उनकी माँ चल बसी और ज्योतिबा की मौसेरी बहन सगुणाबाई क्षीरसागर ने उनका पालन पोषण किया। ज्योतिबा ने अपनी पढ़ाई के साथ-साथ अपनी बड़ी बहन सगुणाबाई और अपनी जीवन साथी सावित्रीबाई को भी पढ़ाया। वे कहती है-

        मुझे और आऊ को उन्होंने ही
        पढ़ना-लिखना सिखाया
        नारी शिक्षा की भव्य घटना की
        रखी नींव जोतिबा ने॥38॥

             *************

        घर के कुँए से प्यासे अतिशूद्रों के लिए
        पानी पिलाने और भरने की
        अनोखी हुई शुरूआत
        इन्सानों को दिखाया जोतिबा ने सदमार्ग
        पढ़ाया दलितों को
        अपने अधिकारो का पाठ
        जोतिबा थे युगचेतना के आविष्कारक॥41॥



ज्योतिबा युग चेतना के अविष्कारक हीं नहीं थे अपितु वे युगदृष्टा भी थे। ज्योतिबा ने एक बच्चे को गोद लिया तथा उसे पढ़ाया लिखाया डॉक्टर बनाया और उसको भी अपने साथ सामाजिक कार्य में जोड़ा। सावित्री बाई फुले ज्योतिबा की तुलना संत तुकोबा से करते हुए कहती है - "जैसे संत तुकोबा वैसे संत ज्योतिबा । क्रांतिसूर्य ज्योतिबा का सबसे बड़ा योगदान उनका शूद्र दलित जनता को लगातार शिक्षा की ओर प्रेरित करते हुए बाह्मणवाद के अस्त्र-शस्त्र के पाखंड से निपटने का रास्ता दिखाना भी है।

        करते रहे बयान जोतिबा सच्चाई
        कि अंग्रजी माँ का दूध पीकर
        बलवान बनो
        और पूरे संकल्प से करते रहे प्रयास
        लगातार शूद्रों की शिक्षा-प्राप्ति के
        शूद्रों के संसार में
        सुख-शांति समाधान के लिए॥46॥


* * *
पढ़ा इतिहास
सत्य असत्य ढूँढकर सच्चाई
का बोध ले



ज्योतिबा ने दुखी-जन, स्त्रियों, शुद्रों और दलितों की तरक्की, उनकी इंसानी गरिमा को बरकरार रखने, उनके ऊपर हो रहे जुल्मो सितम के खिलाफ खडे होने, उनको सशक्त बनाने के लिए अनथक कार्य किए। यहीं कारण था और है कि दलित जनता उन्हें अपना सच्चा हितैषी मानती थी-

        यधपि जोतिबा का जन्म हुआ वहाँ
        जिन्हें शूद्र माली के नाम से
        पुकारा जाता था
        सभी दलित-शोषित उन्हें माली जाति के नहीं
        अपना मुक्तिदाता मानते थे
        महान जोतिबा अमर हो गए
        प्रणाम करती हूँ ऐसे जोतिबा को॥50॥

बावन्नकशी सुबोधरत्नाकर काव्य-संग्रह के अंत में सावित्री अपने लेखन की कसौटी अपनी दलित शूद्र जनता को ही बनाते हुए कहती है कि-

        मेरी कविता को पढ़-सुनकर
        यदि थोड़ा भी ज्ञान हो जाये प्राप्त
        मैं समझूंगी मेरा परिश्रम सार्थक हो गया
        मुझे बताओ सत्य निडर होकर
        कि कैसी हैं मेरी कविताएं
        ज्ञानपरक, यथार्थ, मनभावन या अद्भुत
        तुम ही बताओ॥52॥


वर्ण-व्यवस्था के पूर्वाग्रह से ग्रसित ब्राह्मणवादी जातीय समाज के कर्ता- धर्ताओं ने सच्ची  क्रांतिकारी, महान क्रांति सूर्या सावित्रीबाई फुले के इतने कार्यों के बाद भी उनके अमूल्य योगदान का आंकलन कभी ठीक से किया ही नही परंतु वह दिन अब दूर नही जब उनके सम्पूर्ण योगदान के पन्नों को एक एक करके खोल लिया जायेगा। यह हिन्दी में अनुवादित काव्य संग्रह उसी किताब का एक ढका पन्ना है जिसे हमने खोलकर पाठकों के समाने रख देने की कोशिशि की है।