शनिवार, 11 मई 2024

महाराजा सैनी: इतिहास, वंशावली और सैनी समाज

 महाराजा सैनी: इतिहास, वंशावली और सैनी समाज


सैनी शब्द का अर्थ एक तो वह जो सेना से सम्बंधित हो, सैनिक हो और दूसरा एक सैनिक जाति या एक युद्धक जाति से है, जो स्वयं को महाराजा शूरसेन से संबंधित बताती है। सैनी शब्द का एक शब्दिक अर्थ यह भी है कि ‘जो हर तरह से भव्य हो’ यानि परिपूर्ण भव्य को सैनी कहा जाता है। सैनी वंश के प्रवर्तक महाराजा सैनी या महाराजा शूरसैनी को माना जाता है। ये महाराज सैनी कोैन थे, यह जानकारी रखना प्रत्येक सैनी कहे जाने वाले वंशज के लिए आवश्यक है। 

सैनी समाज के प्रवर्तक मथुरा के राजा व सैनी साम्राज्य के सम्राट महाराजा सैनी रघुवंशी भगवान राम व शत्रुघ्न के परपौत्र, बड़े धनुर्धर और वेदों के ज्ञाता थे। धर्मात्मा न्यायशील महाराजा सैनी के राज्य में प्रजा बड़ी खुश रहती थी। राजा की राजधानी नर एवं पशु बलि से मुक्त थी। प्रजा का प्रत्येक नागरिक अपने आप को सैनी मानता कहलाता था।  महाराजा सैनी सफेद घोड़े पर सवार होकर युद्ध के मैदान में शत्रु को धूल चटा देते थे। त्रेता व द्वापर युग के संधिकाल में हुए इन महाराजा सैनी का शासन व वंश अफगानिस्तान के काबुल व गजनी शहर तक फैला हुआ था। अयोध्या सैनीवंश के राजाओं की ही नगरी रही थी। 

सैनी कुल के इतिहास का प्रारम्भ सैनी महाराजा या शूरसेन महाराजा से माना जाता है। यह मानने वाले लोग अपने आपको ‘भागीरथी सैनी’ कहे जाते हैं। पूरी वंशावली पर विचार किया जाए तो सैनी, शाक्य, कुशवाहा, मौर्य, माली आदि सभी एक ही समाज या यूं कहिए एक ही वंश से उत्पन्न वर्ग के लोग हैं। गंगा को धरती पर अवतरित करने वाले राजा भागीरथ इसी वंश के पूर्वज थे, ये इक्ष्वाकु वंश या रघुकुल, सूर्यवंशी क्षत्रिय जाति के थे, भगवान राम और शत्रुघ्न की वंश परम्परा इस कुल का स्वर्णिम इतिहास है। शत्रुघ्न के पुत्र शूरसेन और शूरसेन के पुत्र सैनी महाराज हुए, राजा चंद्रगुप्त मौर्य जी से मौर्य वंश प्रारंभ हुआ। इसी में 20 पीढ़ी पहले राजा भागीरथ हुए इस प्रकार महाराजा भागीरथ आदरणीय सैनी समाज, भगवान बुद्ध व अशोक महान के भी पूर्वज थे।

इसी वंश में 20 पीढ़ी पहले राजा भागीरथ हुए थे। इस प्रकार महाराजा भागीरथ सैनी समाज के आदरणीय और भगवान बुद्ध व सम्राट अशोक महान के भी पूर्वज थे। समय की गति के साथ-सथ शाखाएं अलग-अलग होती चली गई। किंतु उन सभी की जड़ें एक ही जगह पर स्थित है सैनी समाज को सूर्यवंशी क्षत्रिय समाज भी कहा जाता है। समाज के अंदर आने वाले कुछ नाम भागीरथी, गोले, शूरसेन, माली, कुशवाहा, शाक्य, मौर्य, कंबोज, रेड्डी आदि समाहित है। इन सभी के जेष्ठ पूर्वज महाराजा भागीरथ ही हम सबके पूर्वज हैं और उन्हीं की विभिन्न शाखाओं में होने वाले अत्यंत गुण शूरवीर और आदर्श महान हस्तियां सभी के लिए गौरव और आदर्श के प्रतीक है।

महाराज सैनी की वंश परम्परा के इतिहास में जाते हैं तो भारतीय इतिहास के गौरवमयी पन्ने सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र की तरफ जाना पड़ेगा। 

‘‘चन्द्र टरै सूरज टरै, टरै जगत व्यवहार, 

पै दृढ श्री हरिश्चन्द्र का, टरै न सत्य विचार।’’

धर्म पर दृढ़ रहने वाले और धर्म कभी न छोड़ने वाले राजा हरिश्चंद्र बड़े सत्यवादी थे। राजा हरिश्चंद्र अयोध्या के प्रसिद्ध सूर्यवंशी (इक्ष्वाकुवंशी, अर्कवंशी, रघुवंशी) राजा थे, जो सत्यव्रत के पुत्र थे। हरिश्चंद्र भगवान राम के पूर्वज थे। ये अपनी सत्यनिष्ठा के लिए अद्वितीय हैं और इसके लिए इन्हें अनेक कष्ट सहने पड़े। हरिश्चंद्र अपने वादे और शब्दों पर दृढता पूर्वक बने रहने के लिए जाने जाते थे। उन्होंने कभी भी विपरीत परिस्थितियों के बावजूद सत्य का मार्ग नहीं छोड़ा था। अयोध्या के ये राजा हरिशचंद्र बहुत ही सत्यवादी और धर्मपरायण राजा थे। हरिश्चन्द्र राजा सत्य और वचन पालन होने के कारण वे बहुत ही प्रख्यात राजा बने थे।

राजा हरिश्चंद्र का जन्म काशी में होना भी बताया जाता है। बताया जाता है कि सूर्य वंश की तैतीसवीं पीढ़ी में हरिश्चंद्र हुए थे और उस समय सत्युग चल रहा था। इसके बाद त्रेतायुग और द्वापर युग बीत कर कलियुग के 5000 से अधिक वर्ष बीत चुके हैं।

  राजा हरिश्चन्द्र भगवान राम के पूर्वज थे। ब्रह्मा जी से मरीचि का जन्म हुआ। मरीचि के पुत्र कश्यप थे। कश्यप के पुत्र विवस्वान हुए, विवस्वान के वैवस्वत मनु हुए और वैवस्वत मनु के पुत्र इक्ष्वाकु। आदिकाल में ब्रह्मा जी ने भगवान सूर्य के पुत्र वैवस्वत मनु को पृथ्वी का प्रथम राजा बनाया था। यह कहा जाता है कि भगवान सूर्य के पुत्र होने के कारण मनुजी सूर्यवंशी कहलाये तथा इनसे चला यह वंश सूर्यवंश कहलाया। अयोध्या के सूर्यवंश में आगे चल कर प्रतापी राजा रघु हुये। इसमें दिलीप, रघु, दशरथ, राम, कुश और अतिथि का विशेष वर्णन किया गया है। वे सभी समाज में आदर्श स्थापित करने में सफल हुए। ‘रघुवंश’ ग्रंथ में रघु कुल में अतिथि के बाद 20 रघुवंशी राजाओं की कथा है।

उन्हीं की आठवीं पीढ़ी में बहुत ही पराक्रमी राजा सगर हुए, उनकी दो रानियां थी, एक कश्यप कुमारी सुमति और दूसरी केसिनी। कश्यप कुमारी सुमति से 60 हजार पुत्र हुए और केसिनी से उन्हें असमंजस नामक पुत्र की प्राप्ति हुई। सूर्यवंश में बाहु नाम के राजा के पिता का नाम वृक था। भविष्य में इन्हीं राजा बाहु के पुत्र राजा सगर हुए, जिनके 60 हजार पुत्र थे। पुराने ग्रंथों के अनुसार महाराजा सगर ने चक्रवर्ती सम्राट की उपाधि प्राप्त करने के लिए आश्रम में अश्वमेध-यज्ञ किया। उनके द्वारा किए गए इस यज्ञ से इंद्रदेव अप्रसन्न हुए और उन्होंने यज्ञ का घोड़ा चुराकर पाताल में परम ऋषि कपिल मुनि के आश्रम में बांध दिया।

घोड़े के पीछे हुए निशानों को देखते हुए महाराजा सगर के 60 हजार पुत्र पाताल लोक में पहुंच गए और ऋषि मुनि के आश्रम में उत्पात मचाने लगे। इसी दौरान कुछ राजकुमारों ने ऋषि मुनि कपिल को ललकार कर उनका ध्यान भंग कर दिया। ऋषि मुनि कपिल ने अपनी कुपित दृष्टि से उनकी ओेर देखा तो सभी राजकुमार वहां अपनी ही अग्नि में जलकर भस्म हो गए।

इधर राजा सगर ने अपने पौत्र अंशुमान को यज्ञ के घोड़े और चाचाओं का पता लगाने को कहा। साथ ही उन्होंने उन्हें हमेशा वंदनीय को प्रणाम और दुष्ट को दंड देने का आदेश भी दिया। इसके साथ उन्होंने उन्हें कुशल-मंगल लौटने का आशीर्वाद भी दिया। अंशुमान राजा सगर का आदेश मानकर वहां से रवाना हो गए। अंशुमान अपने 60 हजार चाचाओं को ढूंढते-ढूंढते कपिल मुनि के आश्रम में जा पहुंचे। ऋषि कपिल मुनि के आश्रम का दृश्य देख कर आश्चर्यचकित हो गए और शोक से व्यथित व व्याकुल हो गए।

उन्होंने धैर्य रखते हुए कपिल मुनि को प्रणाम किया। कपिल मुनि उनकी भक्ति भाव और बुद्धिमानी को देखकर प्रसन्न हुए और उन्होंने अंशुमान को कहा कि घोड़ा ले जाओ और जो भी वर मांगना चाहते हो मांग लो। फिर अंशुमान ने थोड़ा सोचा और बोले कि मुनिवर, आप मुझे ऐसा वर दीजिए, जिससे मेरे सभी पितृगणों को स्वर्ग की प्राप्ति हो सके। ऋषि कपिल मुनि ने कहा कि तुम गंगा को पृथ्वी पर लाने का प्रयत्न करो, गंगा के जल से उनकी अस्थियों की भस्म स्पर्श होते ही उन्हें स्वर्ग की प्राप्ति हो जाएगी।  

इसके बाद अंशुमान अपने राज्य में वापस लौट आए और सभी बातें राजा सगर को सुना दी। फिर राजा सगर और उनके पुत्र असमंजस व असमंजस के पुत्र अंजुमान ने गंगा को पृथ्वी पर लाने के लिए कठोर तप करते-करते अपना जीवन त्याग गए। परंतु गंगा को पृथ्वी पर लाने का कोई भी मार्ग दिखाई नहीं दे रहा था। अंशुमान के पुत्र राजा दिलीप का जीवन भी यही सोच-विचार से व्यतीत हो रहा था, लेकिन कोई भी मार्ग दिखाई नहीं दे रहा था कि कैसे गंगा को पृथ्वी पर लाया जाए। राजा दिलीप के बाद उनका अत्यंत धर्मात्मा पुत्र भागीरथ राजा बने। सूर्यवंश के महान राजा सगर के वंशज भागीरथ के कोई संतान नहीं थी, उन्होंने अपने जीवन के दो लक्ष्य निर्धारित किए- पहला वंश वृद्धि/संतान प्राप्ति और दूसरा अपने प्रपितामहों को स्वर्ग की प्राप्ति के लिए, वह अपनी राज्य का भार अपने सभी राज्य मंत्रियों को देकर कठोर तपस्या में लीन हो गए। भागीरथ कौशल के राजा थे, जो प्राचीन भारत में एक साम्राज्य था और अयोध्या उसी राज्य में थी। 

  (विष्णु पुराण अध्याय 4: वाल्मीकि रामायण बाल कांड सर्ग 21 के अनुसार)

तब भगवान विष्णु जी प्रकट हुए और उन्होंने उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर इच्छा वर मांगने को कहा। भागीरथजी ने अपने अक्षय प्रपितामहों को स्वर्ग प्राप्ति के लिए गंगा को पृथ्वी पर लाने को और अपने वंशवृद्धि व संतान प्राप्ति का वर मांगा। भगवान विष्णु ने हिमालय की ज्येष्ठ पुत्री हेमवती गंगा जी के दर्शन भागीरथ जी को करा दिए और कहा इनकी तीव्र वेग को केवल भोले शंकर अपने मस्तक पर धारण कर सकते हैं, अन्यथा पृथ्वी उनके तीव्र वेग से पृथ्वी रसातल में धंसा जाएगी।

आगे चलकर भागीरथ को श्रुत नाम का पुत्ररत्न प्राप्त हुआ, उसके बाद फिर महाराजा भागीरथ ने महादेव को प्रसन्न करने के लिए 1 वर्ष तक शिवजी की कठोर तपस्या की और पैर के अंगूठों पर खड़े होकर की गई तपस्या से प्रसन्न होकर शिव जी गंगाजी को अपनी जटा में धारण करने को तैयार हुए। तब फिर भागीरथ जी ने पुनः ब्रह्मा जी की स्तुति पर गंगा को पृथ्वी पर लाने को कहा तब भोले शंकर ने गंगा के तीरे को अपनी जटाओं में धारण कर लिया। बाद उन्होंने गंगा को पृथ्वी पर लाकर बिंदु सरोवर में छोड़ दिया, उसके बाद गंगा भगीरथ के रथ के पीछे-पीछे चल दी। फिर राजा भगीरथ ने गंगा को अपने प्रपितामहों की भस्म तक ले गए। इसके जल में स्नान कर राजा भागीरथ जी ने अपने प्रपितामहों का तर्पण किया। प्रकार उनको सद्गति मिली।

भगीरथ ने ही गंगा को पृथ्वी पर उतार था। अपने इस सफल मनोरथ के बाद राजा भागीरथ अपने राज्य में लौट आए। गंगा जी को ‘भागीरथी’ नाम उसी कारण मिला था। भगीरथ के पुत्र ककुत्स्थ और ककुत्स्थ के पुत्र रघु हुए। रघु के अत्यंत तेजस्वी और पराक्रमी नरेश होने के कारण उनके बाद इस वंश का नाम रघुवंश हो गया। तब राम के कुल को रघुकुल भी कहा जाता है।

बताया जाता है कि राजा भागीरथ के बाद 17वें वंश में राजा रघु हुए, उनका रघुकुल वंश विख्यात हुआ। रघु के पुत्र अज हुए और अज के पुत्र दशरथ हुए। राजा दशरथ व उनके चार पुत्र हए। राजा दशरथ के ये चार पुत्र राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न थे। राम के पुत्र कुश से कुशवाहा वंश चला और आगे चलकर इसी वंश में भगवान बुद्ध का जन्म हुआ। उनका वंश शाक्य वंश के नाम से प्रारंभ हुआ। शत्रुघ्न के पुत्र शूरसेन और शूरसेन के पुत्र सैनी महाराज हुए, राजा चंद्रगुप्त मौर्य जी से मौर्य वंश प्रारंभ हुआ। 

- जगदीश यायावर (सैनी), 

राष्ट्रीय संयोजक, 

महाराजा सैनी संस्थान, लाडनूं।


गुरुवार, 18 अप्रैल 2024

समाज की कुलदेविया गौत्र वार

क्षत्रिय वंश की कुलदेवियां प्राचीन समय में भारत में वर्ण व्यवस्था थी, जिसे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र इन चार वर्णों में बाँटा गया था। यह वर्ण व्यवस्था समाप्त हो गई तथा इन वर्णों के स्थान पर कई जातियाँ व उपजातियाँ बन गई। क्षत्रियों का कार्य समाज की रक्षा करना था। भारतीय उपमहाद्वीप की बहुत प्रभावशाली जाति है। समाज की अपनी कुल देवियों की मान्यता है. जिनकी यह पूजा करते है और जिनसे उन्हें शक्ति मिलती है। 
इन सभी कुल शाखाओं ने नकारात्मक शक्तियों से सुरक्षित रखने के लिए कुल देवियों को स्वीकार किया। ये कुलदेवियां कुल के अनुसार निम्नलिखित हैं- 

खंगार - गजानन माता, 
 चावड़ा - चामुंडा माता, 
 छोकर - चण्डी केलावती माता, 
 धाकर - कालिका माता, 
 निमीवंश - दुर्गा माता, 
 परमार - सच्चियाय माता, 
 आसोपा सांखला - जाखन माता, 
 पुरु - महालक्ष्मी माता, 
 बुन्देला - अन्नपूर्णा माता, 
 इन्दा - चामुण्डा माता, 
 उज्जेनिया - कालिका माता, 
 उदमतिया - कालिका माता, 
 कछवाहा - जमवाय माता, 
 कणड़वार - चण्डी माता, 
 कलचूरी - विंध्यवासिनी माता, 
 काकतिय - चण्डी माता, 
 काकन - दुर्गा माता, 
 किनवार - दुर्गा माता, 
 केलवाडा - नंदी माता, 
 कौशिक - योगेश्वरी माता, 
 गर्गवंश कालिका माता, 
 गोंड़ - महाकाली माता, 
 गोतम - चामुण्डा माता, 
 गोहिल - बाणेश्वरी माता, 
 चंदेल - मेंनिया माता, 
 चंदोसिया - दुर्गा माता, 
 चंद्रवंशी - गायत्री माता, 
 चुड़ासमा -अम्बा भवानी माता, 
 चौहान - आशापूर्णा माता, 
 जाडेजा - आशपुरा माता, 
 जादोन - कैला देवी (करोली), 
 जेठंवा - चामुण्डा माता, 
 झाला - शक्ति माता, 
 तंवर - चिलाय माता, 
 तिलोर - दुर्गा माता, 
 दहिया - कैवाय माता, 
 दाहिमा - दधिमति माता, 
 दीक्षित - दुर्गा माता, 
 देवल - सुंधा माता, 
 दोगाई - कालिका (सोखा) माता, 
 नकुम - वेरीनाग बाई, 
 नाग - विजवासिन माता, 
 निकुम्भ - कालिका माता, 
 निमुडी - प्रभावती माता, 
 निशान - भगवती दुर्गा माता, 
 नेवतनी - अम्बिका भवानी,
 पड़िहार - चामुण्डा माता, 
 परिहार - योगेश्वरी माता, 
 बड़गूजर - कालिका (महालक्ष्मी) माँ, 
 बनाफर - शारदा माता, 
 बिलादरिया - योगेश्वरी माता, 
 बैस - कालका माता, 
 भाटी - स्वांगिया माता, 
 भारदाज - शारदा माता, 
 भॉसले - जगदम्बा माता, 
 यादव - योगेश्वरी माता, 
 राउलजी - क्षेमकल्याणी माता, 
 राठौड़ - नागणेचिया माता, 
 रावत - चण्डी माता, 
 लोह - थम्ब चण्डी माता, 
 लोहतमी - चण्डी माता, 
 लोहतमी - चण्डी माता,
वाघेला - अम्बाजी माता, 
 वाला - गात्रद माता, 
विसेन - दुर्गा माता, 
शेखावत - जमवाय माता, 
 सरनिहा - दुर्गा माता, 
 सिंघेल - पंखनी माता, 
 सिसोदिया - बाणेश्वरी माता, 
 सीकरवाल - कालिका माता, 
 सेंगर - विन्ध्यवासिनि माता, 
 सोमवंश - महालक्ष्मी माता, 
 सोलंकी - खीवज माता, 
 स्वाति - कालिका माता, 
 हुल - बाण माता, 
 हैध्य - विंध्यवासिनी माता, 
 मायला - इन्जु माता, 
 सिकरवार क्षत्रियों की कुलदेवी कालिका माता. 
 हरदोई के भवानीपुर गांव में कालिका माता का प्राचीन मंदिर है। सिकरवार क्षत्रियों के घरों में होने वाले मांगलिक अवसरों पर अब भी सबसे पहले कालिका माता को याद किया जाता है। यह मंदिर नैमिषारण्य से लगभग 3 किलोमीटर दूर कोथावां ब्लाक में स्थित है। कहा जाता है कि पहले गोमती नदी मंदिर से सट कर बहती थी। वर्तमान में गोमती अपना रास्ता बदल कर मंदिर से दूर हो गयी है, लेकिन नदी की पुरानी धारा अब भी एक झील के रूप में मौजूद है। बुजुर्ग बताते हैं कि पेशवा बाजीराव द्वितीय को 1761 में अहमद शाह अब्दाली ने युद्ध क्षेत्र में हरा दिया था। इसके बाद बाजीराव ने अपना शेष जीवन गोमती तट के इस निर्जन क्षेत्र में बिताया। चूंकि वह देवी के साधक थे। इस कारण मंदिर स्थल को भवानीपुर नाम दिया गया। पेशवा ने नैमिषारण्य के देव देवेश्वर मंदिर का भी जीर्णोद्धार कराया था। अब्दाली से मिली पराजय के बाद उनका शेष जीवन यहां माता कालिका की सेवा और साधना में बीता। उनकी समाधि मंदिर परिसर में ही स्थित है। यहां नवरात्र के दिनों में मेला लगता है। मेला में भवानीपुर के अलावा जियनखेड़ा, महुआ खेड़ा, काकूपुर, जरौआ, अटिया और कोथावां के ग्रामीण पहुंचते हैं। यहां सिकरवार क्षत्रिय एकत्र होकर माता कालिका की विशेष साधना करते हैं।