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गुरुवार, 24 फ़रवरी 2022
कुलदेवी जाखण/जाखळ माता, आसोप
(तह. भोपालगढ़, जिला जोधपुर)
जाखण माता या जाखळ माता सांखला वंश की कुलदेवी के रूप में पूजी जाती है। माताजी की बढेर धाम आसोप में है। इसे माता का पाट स्थान भी कहा जाता है, लेकिन कुछ लोग जाखण माताका पाट स्थान रेण (मेड़तासिटी) में बताते हंै। रेण में भी जाखण माता का मंदिर है, लेकिन वह मंदिर गुर्जर गौड़ ब्राह्मण समाज की कुलदेवी के रूप में स्थापित है। माली (सैनिक क्षत्रिय) समाज के सांखला वंश की कुलदेवी का मंदिर आसोप में ही है। माली सांखला परिवार की कुलदेवी जाखण माँ की लगभग 800 वर्ष पुरानी मूर्ति आसोप में बताई जा रही है, जिसकी पूर्वज पूजा करते थे और अब उनके वंशज सांखला कुल के लोग पूजा करते हैं। एक मान्यता के अनुसार जाखण माता को यक्षिणी भी कहा जाता है।
सांखला वंश की इष्टदेवी के रूप में ओसियां की सचियाय माता को माना जाता है, क्योंकि सांखला परमार वंश की ही साख है और फिर माता सचियाय की कृपा से ही सांखला वंश के आदि पुरूष राणा वैरसी (वैरीसिंह) को जीत का आशीर्वाद मिला तथा अपनी मनोकामना पूर्ण कर पाये थे। इसके बाद कंवल पूजा के दौरान माता ने अपने हाथ का शंख वैरसी को देकर उनके प्राण बख्से और सांखला कहलाने का वरदान प्रदान किया था।
इष्टदेवी सचियाय माता के अलावा कुलदेवी के रूप में जाखण माता को ही माना और पूजा जाता है, जिसे जाखळ माता, जाखड़ माता, जैकल माता, जाखेण माता आदि नामों से भी जाना व पुकारा जाता है। अलग-अलग स्थानों पर भिन्न-भिन्न उच्चारण मिलते हैं। इनके मंदिर ग्यास (सोजत), सोडलपुर (मध्य प्रदेश) आदि विभिन्न स्थानों पर सांखला बंधुओं के माध्यम से बने हुये हैं। मूल व प्राचीन मंदिर आसोप (तहसील- भोपालगढ, जिला- जोधपुर) में ही है। जनमानस में जाखण माता को लोकदेवी का दर्जा भी प्राप्त है। जाखण माता की मान्यता देश के विभिन्न हिस्सों में हैं तथा अनेक मंदिर भी मौजूद हैं, जहां भारी संख्या में श्रद्धालु आते हैं और पूजा-अर्चना करते हैं।
सांखलाओं के आदि पुरूष के रूप में वैरसी को माना जाता है। सचियाय माता उनकी बुआ रही थी। सांखला वंश की माता के रूप में एक अप्सरा या यक्षिणी देवी ही थी, जो पूर्वज महाराजा छाहड़राव की परी रानी कही जाती थी। सचियाय माता की माता अप्सरा पहुंपावती या प्रभावती थी, जो रानी सशरीर अपने लोक में वापस चली गई। उनकी तीन संतानों में सांखला वंश भी है। संभवतः सांखला वंश के सभी लोग उसी यक्षिणी स्वरूप में माता जाखण को कुलदेवी के रूप में पूजते और मानते हैं। यह सर्वसिद्धिदात्री, धन-वैभव दात्री मानी जाती है और समस्त मनोकामनाओं को पूर्ण करनेे वाली देवी के रूप में प्रतिष्ठित हैं।
सैंकड़ों साल प्राचीन है जाखण माता की प्रतिमा
आसोप स्थित जाखण माता के मंदिर में उनके साथ ही शीतला माता भी विराजमान है। बताया जाता है कि सांखला कभी रूण के शासक रहे थे, परन्तु प्राचीन समय में किसी कारणवश जब सांखला रूण को त्याग कर वहां से प्रस्थान करके आ रहे थे, तो अपनी कुलदेवी जाखण माता की इस प्रतिमा को वहां से साथ लेकर आये और आसोप में शरण ली, जहां के तत्कालीन जागीरदार ने उन्हें रहने व मंदिर बनाने की सहमति प्रदान की थी। यह प्रतिमा इस मंदिर से भी अधिक प्राचीन है और ऐतिहासिक प्रतिमा कही जाती है।
सांखला परिवार के इतिहास के अनुसार रुण गांव के बाद उन्होंने गांव सातलावास बसाया था। किसी विवाद के कारण सांखला परिवारांे ने रूण गांव छोडना ही उचित समझा और मारवाड़ से मेवाड़ की ओर आकर रहने लगे। जो सातला, जसनगर, कालू,रास, अमरपुरा, ग्यास, गोठन, आसोप आदि गांवो में निवास करने लगे। सांखला परिवार के इन लोगों ने जब गांव रुण को छोड़ा, तो वहां से अपनी माता की मूर्ति भी अपने साथ ले गए और वही मूर्ति अब गाँव आसोप में स्थापित की हुई है। माना जाता है कि सांखला परिवारों द्वारा ही सातलावास, शंखवास आदि गांवों को बसाया गया था। रूण छोड़ कर वहां से आने वाले सांखला परिवारों के साथ रूण के अलावा सातला, जसनगर, कालू रास, अमरपुरा, ग्यास, गोटन के सांखला परिवारों ने कुलदेवी जाखण माता की मूर्ति आसोप में स्थापित करवाने में सहयोग किया था, क्योंकि जाखण माता समस्त सांखला-माली परिवारों की कुलदेवी थी।
यह जाखण माता देवी ‘सर्वकार्य सिद्धिदात्री’ मानी जाती है। यहां इस मंदिर में सांखला बंधु ही पूजा-अर्चना करते रहे हैं और वर्तमान में भी कर रहे हैं। यह मंदिर बहुत ही प्राचीन है तथा अब इसके जीर्णोद्धार की आवश्यकता अनुभव की जा रही है। आसोप से सांखला बंधु धीरे-धीरे रोजी-रोटी आदि विभिन्न कारणों से उठ कर राज्य व देश के विभिन्न भागों में जाकर बस गये और वहीं के वाशिंदे बन गये। परन्तु, इन सबकी आस्था का केन्द्र कुलदेवी जाखण माता का धाम आसोप ही है। आसोप से उठ कर नागौर के चेनार और फिर बाद में लाडनूं में सांखलाओं के आने का समय विक्रम सम्वत् 1533 है। यानि कि आज से करीब 545 साल पूर्व सांखला आसोप से लाडनूं आये थे। यह सब भाट की बही में उल्लेखित है। लाडनूं में सबसे पहले गीधोजी और गागोजी सांखला आकर बसे थे। आसोप से उठ कर आने से सांखला वंश में इनकी खांप आसोपा कहलाती है। इन्हें आसोपा सांखला गौत्र से जाना जाता है। जाखण माता का मंदिर व प्रतिमा इससे कहीं बहुत अधिक वर्ष प्राचीन कही जा सकती है। यानि यह प्रतिमा साढे पांच सौ साल से अधिक प्राचीन है। अगर इसे एक हजार साल पुरानी कहा जाये, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
सुखदात्री सिद्धिदात्री है जाखण माता
आसोप से उठे समस्त आसोपा सांखला वंश की कुलदेवी के रूप में आसोप की ‘‘जाखळ माता’’ को ही माना जाता है। वहां जाखळ माता का छोटा मंदिर बना हुआ है। उसी में शीतला माता का मंदिर भी है। इस मंदिर में स्थित आळे में यह पिंड आकार की प्रतिमा विराजित है, जो जाखण माता का स्वरूप है। मंदिर के बाहर दीवार में भैरव की मूर्ति लगी हुई है। मंदिर परिसर में एक कोने में माता की सवारी के शेर की एक ख्ंाडित प्रतिमा भी रखी हुई है। इस मंदिर में शीतला माता की प्रतिमा के साथ कुछ अन्य प्रस्तर प्रतिमायें भी विराजित हैं। यहां सबसे ऊंचे स्थान पर जाखण माता ही विराजमान है। यह मंदिर काफी प्राचीन है। यहां नियमित सेवापूजा की जाती है, जिसका श्रेय श्री पाबूराम की सांखला (पूर्व उपप्रधान-पंचायत समिति भोपालगढ) को है।
जाखळ माता के बारे में भाट की बही में लिखत के मुताबिक आया है कि-‘‘आदि सांखला आसोप थान कुलदेवी जाखड़ उदयगण को सिंहड़राव रो चाचगण रो मुहता राणा को बालो रावत को लालो रावत को मुण रावत को मेहराव को अजेसी को विजेसी को कंवलसी को बोबाजी सांखला हुआ।’’ यहां कुलदेवी आसोप थान की जाखड़ माता को बताया गया है और बोबाजी सांखला से आगे का वंश बताया गया है। मान्यता है कि जाखण माता सांखला कुल की समस्त बाधाओं को दूर करती है तथा उनके पूरे परिवार को सुखी व सम्पन्न बनाती है। परिवार पर आने वाली समस्त विपदाओं का हरण करती है और परिवार को सदैव खुशहाल बनाती है।
आसोप है समस्त सांखला वंष का केन्द्रस्थल
सांखला जाति के माली समाज के बंधुओं की कुलदेवी के रूप में जाखण माता को माना जाता है। इनके अलावा माहेश्वरी जाति के आगसूद खांप के काश्यप गौत्र के लोग भी जाखण माता को अपनी कुलदेवी मानते हैं। इसी प्रकार माहेश्वरी जाति के मानधन्या गौत्र के लोगों की कुलदेवी भी जाखण माता को ही माना जाता है। इन माहेश्वरी जाति के लोगों की कुलदेवी का स्थान संभवतः आसोप धाम में नहीं है। ये आसोप में भी जाखण माता की आराधना व पूजा आदि कर सकते हैं। आसोप के मंदिर में सभी जातियों के लोग धोक लगाने आते हैं। आसोप से उठे हुये समस्त सांखला वंश के बंधु पूरे देश में फैले हुये हैं, लेकिन उन सबकी आस्था का केन्द्र आसोप की जाखण माता ही है। कुलदेवी की पूजा-अर्चना के लिये वे सभी कभी न कभी आसोप जरूर आते हैं।यहां आने वाले सांखला बंधुओं का स्वागत-सम्मान यहां रहने वाले सांखला परिवार के बंधु बहुत ही स्नेह-भाव से करते हैं।
विकास व व्यवस्थाओं के लिये समिति का गठन
हाल ही में सांखला वंश की कुलदेवी जाखण माता के स्थान आसोप में बसे सांखला भाइयों ने प्राचीन जाखण माता के मंदिर के पुनरोत्थान, पुनर्निमाण का विचार किया और एक व्हाट्सअप ग्रुप बनाकर उसमें परस्पर विचार-विमर्श के बाद 21 नवम्बर 2020 को तिथि तय करके आसोप मे कुलदेवी की छत्रछाया में समस्त सांखला वंश की एक बैठक आयोजित की जाकर चर्चाओं एवं विचार-विमर्श के पश्चात् मंदिर के पुनर्निमाण, देखरेख, विकास, व्यवस्थाओं आदि के लिये एक समिति का गठन किया जाने का निश्चय किया। ‘‘कुलदेवी जाखण माता सांखला गौत्र सेवा संस्थान’’ के नाम से एक संस्था का गठन इस बैठक के किया गया। इस संस्थान के अध्यक्ष पूर्व उपप्रधान रहे श्री पाबूराम जी सांखला को बनाया गया और इस पुस्तक के लेखक श्री जगदीश यायावर सांखला को सचिव पद की जिम्मेदारी दी गई। सम्पूर्ण देश भर में फैले सांखला वंश की यह संस्था प्रतिनिधि संस्था होगी। इस समिति की कार्यकारिणी के गठन में उपाध्यक्ष का पद श्री अनुराग जी सांखला सोडलपुर (मध्य प्रदेश) को दिया गया। संस्थान के कोषाध्यक्ष जैनाराम साख्ंाला आसोप, संगठन मंत्री डालमचंद सांखला लाडनूं, प्रचार मंत्री राजेन्द्र सांखला श्रीडूंगरगढ को चुना गया। कार्यकारिणी में सर्वसम्मति से तेजाराम सांखला आसोप, पूनमचंद सांखला राणीगांव, सुमित्रा आर्य पार्षदलाडनूं, हरजी सैनिक लाडनूं आदि को शामिल किया गया है।
जाखण या जाखन शब्द का अर्थ
जाखण माता शब्द यक्षिणी माता का अपभ्रंश है। यक्षिणी से जाखण बनना यहां पर आम है। जैसे योगी से जोगी, यमुना से जमना, यशोदा से जसोदा, संयोग से संजोग, कार्य से कारज, योद्धा से जोधा आदि शब्द बने हुये हैं। राजस्थान में ‘य’ को ‘ज’ बोलना आम बात है। यह अपभ्रंश भाषा में सामान्यतः मिलता है। यक्षिणी वह महिला शक्ति है, जो विशेष शक्तियों, जादुई ताकतों, ऊर्जाओं से भरपूर होती है तथा अपने उपासकों को लाभ पहुंचाती हैं। हिन्दी में एक जाखन शब्द मिलता है। यह ‘जाखन’ शब्द संज्ञा स्त्रीलिंग है। इसका अर्थ पहिए के आकार का गोल चाक या चक्कर है, जिसे कुएं की नींव में रखा जाता है या जमवट कहा जाता है। जाखन की परिभाषा और अर्थ मेंकुआं बनाते समय उसके तल में जमाकर रखी हुई गोल लकड़ी ही मिलता है।
यक्षिणी का अर्थ यक्ष की पत्नी अथवा कुबेर की पत्नी और लक्ष्मी भी होता है। शब्द रत्नावली में यक्षिणी को कुबेरपत्नी बताया गया है। कथा सरित्सागर में यक्षभार्या यानि यक्ष की पत्नी कहा है। यक्षिणी को यक्षी भी कहा जाता है। पालि भाषा मंे यक्खिनी या यक्खी शब्द मिलता है। हिन्दू, बौद्ध और जैन धार्मिक पुराणों में यक्षिणी वर्ग का वर्णन मिलता है। भारत में सदियों से वृक्ष विशेष या जलाशय विशेष के सशक्त रक्षक के रूप में यक्ष-यक्षिणियों का वर्णन मिलता है, जिनके पास विशेष जादुई ताकतें होती थी। जोधपुर जिले का एक गांव का नाम भी ‘जाखण’ है, जो वापिणी तहसील में है।
रविवार, 13 फ़रवरी 2022
<b>ध्यानार्थ -
हरियाणा के सैनी समाज के बारे में जानकारीश्रीमान जी आपके ब्लोग पर दी गई जानकारी पढ कर अच्छा लगा ..आप समाज को जागृत करने की दिशा में प्रयास कर रहे हैं लेकिन आपकी राज्यवार दी गई जानकारी अधुरे रिसर्च पर आधारित लग रही है ..हरियाणा में सैनी जाति को 1995 में पिछड़े वर्ग में शामिल किया गया जिसे 1996 में केन्द्र में भी ओबीसी का दर्जा मिला l उस समय सरकार द्वारा इस जाति को सैनी और शाक्य के रूप में सूचिबद्ध किया गया था इसके अलावा इसकी अन्य कोई उपजाति या उपनाम नहीं है l बाद में उत्तरप्रदेश और बिहार राज्यों से हरियाणा में बसे सैनी समाज के सजातीय बंधु जो कुशवाहा, मौर्य और कोईरी उपनाम का प्रयोग करते हैं उनके द्वारा सरकार को पत्र लिख कर कुशवाहा, मौर्य और कोईरी को सैनी और शाक्य के पर्यायवाची के तौर पर ओबीसी में शामिल कराने के प्रयास किये जिसके फलस्वरूप 2014 में इन प्रयासों में सफलता मिली l महोदय आप यह दूरुस्त कर लें कि हरियाणा में इस समुदाय की पहचान सैनी,शाक्य,मौर्य,कोईरी,कुशवाहा के रूप में हैं l गहलोत और माली हरियाणा सरकार के किसी भी दस्तावेज में प्रयुक्त नहीं होते हैं l गहलोत हरियाणा के सैनी समाज के लगभग 250 गोत्रों में से एक है जो राजस्थान सीमा के साथ लगते क्षेत्र में बहुत ही कम संख्या में है l और माली शब्द हरियाणा की अधिकारिक जातियों की सूचि में में कहीं नहीं मिलता है l इसलिये यह जानकारी दुरूस्त करने का कष्ट करें और समाज को जागरूक करने के प्रयास ऐसे ही करते रहें .... साधुवाद .... कुलदीप सिंह सैनी
शुक्रवार, 11 फ़रवरी 2022
क्षत्रिय वंश की कुलदेवियां
प्राचीन समय में भारत में वर्ण व्यवस्था थी जिसे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र इन चार वर्णों में बाँटा गया था। यह वर्ण व्यवस्था समाप्त हो गई तथा इन वर्णों के स्थान पर कई जातियाँ व उपजातियाँ बन गई। क्षत्रियों का कार्य समाज की रक्षा करना था। भारतीय उपमहाद्वीप की बहुत प्रभावशाली जाति है। समाज की अपनी कुल देवियों की मान्यता है. जिनकी यह पूजा करते है और जिनसे उन्हें शक्ति मिलती है। इन सभी कुल शाखाओं ने नकारात्मक शक्तियों से सुरक्षित रखने के लिए कुल देवियों को स्वीकार किया।
ये कुलदेवियां कुल के अनुसार निम्नलिखित हैं-
खंगार - गजानन माता,
चावड़ा - चामुंडा माता,
छोकर - चण्डी केलावती माता,
धाकर - कालिका माता,
निमीवंश - दुर्गा माता,
परमार - सच्चियाय माता,
आसोपा सांखला - जाखन माता,
पुरु - महालक्ष्मी माता,
बुन्देला - अन्नपूर्णा माता,
इन्दा - चामुण्डा माता,
उज्जेनिया - कालिका माता,
उदमतिया - कालिका माता,
कछवाहा - जमवाय माता,
कणड़वार - चण्डी माता,
कलचूरी - विंध्यवासिनी माता,
काकतिय - चण्डी माता,
काकन - दुर्गा माता,
किनवार - दुर्गा माता,
केलवाडा - नंदी माता,
कौशिक - योगेश्वरी माता,
गर्गवंश कालिका माता,
गोंड़ - महाकाली माता,
गोतम - चामुण्डा माता,
गोहिल - बाणेश्वरी माता,
चंदेल - मेंनिया माता,
चंदोसिया - दुर्गा माता,
चंद्रवंशी - गायत्री माता,
चुड़ासमा -अम्बा भवानी माता,
चौहान - आशापूर्णा माता,
जाडेजा - आशपुरा माता,
जादोन - कैला देवी (करोली),
जेठंवा - चामुण्डा माता,
झाला - शक्ति माता,
तंवर - चिलाय माता,
तिलोर - दुर्गा माता,
दहिया - कैवाय माता,
दाहिमा - दधिमति माता,
दीक्षित - दुर्गा माता,
देवल - सुंधा माता,
दोगाई - कालिका(सोखा)माता,
नकुम - वेरीनाग बाई,
नाग - विजवासिन माता,
निकुम्भ - कालिका माता,
निमुडी - प्रभावती माता,
निशान - भगवती दुर्गा माता,
नेवतनी - अम्बिका भवानी,
पड़िहार - चामुण्डा माता,
परिहार - योगेश्वरी माता,
बड़गूजर - कालिका(महालक्ष्मी)माँ,
बनाफर - शारदा माता,
बिलादरिया - योगेश्वरी माता,
बैस - कालका माता,
भाटी - स्वांगिया माता,
भारदाज - शारदा माता,
भॉसले - जगदम्बा माता,
यादव - योगेश्वरी माता,
राउलजी - क्षेमकल्याणी माता,
राठौड़ - नागणेचिया माता,
रावत - चण्डी माता,
लोह - थम्ब चण्डी माता,
लोहतमी - चण्डी माता,
लोहतमी - चण्डी माता,
वाघेला - अम्बाजी माता,
वाला - गात्रद माता,
विसेन - दुर्गा माता,
शेखावत - जमवाय माता,
सरनिहा - दुर्गा माता,
सिंघेल - पंखनी माता,
सिसोदिया - बाणेश्वरी माता,
सीकरवाल - कालिका माता,
सेंगर - विन्ध्यवासिनि माता,
सोमवंश - महालक्ष्मी माता,
सोलंकी - खीवज माता,
स्वाति - कालिका माता,
हुल - बाण माता,
हैध्य - विंध्यवासिनी माता,
मायला - इन्जु माता ,
सिकरवार क्षत्रियों की कुलदेवी कालिका माता.
हरदोई के भवानीपुर गांव में कालिका माता का प्राचीन मंदिर है। सिकरवार क्षत्रियों के घरों में होने वाले मांगलिक अवसरों पर अब भी सबसे पहले कालिका माता को याद किया जाता है। यह मंदिर नैमिषारण्य से लगभग 3 किलोमीटर दूर कोथावां ब्लाक में स्थित है। कहा जाता है कि पहले गोमती नदी मंदिर से सट कर बहती थी। वर्तमान में गोमती अपना रास्ता बदल कर मंदिर से दूर हो गयी है, लेकिन नदी की पुरानी धारा अब भी एक झील के रूप में मौजूद है। बुजुर्ग बताते हैं कि पेशवा बाजीराव द्वितीय को 1761 में अहमद शाह अब्दाली ने युद्ध क्षेत्र में हरा दिया था। इसके बाद बाजीराव ने अपना शेष जीवन गोमती तट के इस निर्जन क्षेत्र में बिताया। चूंकि वह देवी के साधक थे। इस कारण मंदिर स्थल को भवानीपुर नाम दिया गया। पेशवा ने नैमिषारण्य के देव देवेश्वर मंदिर का भी जीर्णोद्धार कराया था। अब्दाली से मिली पराजय के बाद उनका शेष जीवन यहां माता कालिका की सेवा और साधना में बीता। उनकी समाधि मंदिर परिसर में ही स्थित है। यहां नवरात्र के दिनों में मेला लगता है। मेला में भवानीपुर के अलावा जियनखेड़ा, महुआ खेड़ा, काकूपुर, जरौआ, अटिया और कोथावां के ग्रामीण पहुंचते हैं। यहां सिकरवार क्षत्रिय एकत्र होकर माता कालिका की विशेष साधना करते हैं।
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