मंगलवार, 6 जून 2017

क्षत्रिय मालियों के चलु, गोत, खांप, प्रशासक नूख

चौहान- सूरजवंशी, अजमेरा, निरवाणा, सिछोदिया, जंबूदिया, सोनीगरा, बागडीया, ईदोरा, गठवाला, पलिकानिया, खंडोलीया, भवीवाला, मकडाणा, कसू, भावाला, बूभण, सतराबल, सेवरीया, जमालपुरीया, भरडीया, सांचोरा, बावलेचा, जेवरीया, जोजावरीया, खोखरीया, वीरपुरा, पाथ्परीया, मडोवरा, अलुघीया, मूधरवा, कीराड वाल, खांवचां, मोदरेचा, बणोटीया, पालडि या, नरवरा बोडाणा, कालू, बबरवाल।

राठौड - सूरजवंशी, कनवारिया, घोघल, भडेल, बदूरा, गढवाल, सोघल, डागी, गागरिया, कस, मूलीया काडल, थाथी, हतूडीया, रकवार, गद्दवार दइया, बानर, लखोड , पारक, पियपड , सीलारी इत्यादि।

कच्छवाहा- सूरजवंशी, नरूका राजावत, नाथावत, द्रोखावत, चांदावत।

भाटी- चन्द्रवंशी, यादव (जादव), सिंधडा, जसलमेरा, अराइयां, सवालखिया, जादम, बूधबरसिंह, जाडेजा,महेचा, मरोटिया, जैसा, रावलोत, केलण, जसोड ।

सोलंकी- चन्द्रवंशी चालूक्या, लूदरेचा, लासेचा, तोलावत, मोचला, बाघेला।

पडि हार- सूर्यवंशी, जैसलमेरा मंडोवरा, बावडा, डाबी, ईदा, जेठवा, गौड , पढिहारीया, सूदेचा, तक्खी।

तुंवर- चन्द्रवंशी, कटीयार, बरवार, हाडी, खंडेलवाल, तंदुवार, कनवसीया, जाठोड  कलोड ।

पंवार- चन्द्रवंशी, परमार, रूणेचा, भायल, सोढा, सांखला, उमठ, कालमा, डोड, काबा, गलेय (कोटडीया)।
गहलोत- सूर्यवंशी, आहाड़ा, मांगलीया, सीसोदिया, पीपाडा, केलवा, गदारे, धोरणीया, गोधा, मगरोया, भीमला, कंकटोक, कोटेचा, सोरा, उहड , उसेवा, निररूप, नादोडा, भेजकरा, कुचेरा, दसोद, भटवेरा, पांडावत, पूरोत, गुहिलोत, अजबरीया, कडेचा, सेदाडि या, कोटकरा, ओडलिया, पालरा, चंद्रावत, बूठीवाला, बूटीया, गोतम, आवा, खेरज्या, धूडेचा, पृथ्वीराज गेलो, आसकरण गेलो, भडेचा, ताहड , गेलोत, मूंदोत, भूसंडिया, दोवड , चन्द्रावत, बागरोया, सादवा, रंगिया।

नोट- चौहान, देवडा टाक, यह तीनों एक परिवार है और सूर्यवंशी है।
१.      देवडा, देवराट, निरवाणा के बेटे का है, यह चौहानों की शाखा है।
२.      टाक सदूल का बेटा है जो चौहानों की शाखा है।
३.     सांखला पंवारों के भाई है और सखल, महप, धवल, उदिया, दतोत के ८वां पुत्र है।

नोट-

१. चौहान खांप के टाक पूना के तथा मारोटिया जैसिंह के है तथा खांप भाटी जादम व तंवर की नख तूदवाल है।
२. सैनिक क्षत्रिय का मुख्य शहर नागौर है तथा अपने रोजगार के लिए अन्य जगहों पर  आबाद हो गये।
३.  सैनिक क्षत्रिय शादी ३६ जातियों में ही करें लेकिन अन्य सामाजिक कार्य बाह्मणों के
     साढे छः गौत्रों की तरह मिलकर कार्य करें।
श्री श्री १००८ श्री स्वामी चेतन गिरीजी महाराज :

      धन्य है सोजत माटी, जहां पर धर्मवीर, संत शिरोमणि श्री श्री १००८ श्रद्धेय चेतनगिरीजी महाराज का प्रादुर्भाव हुआ। धर्म की पवित्र यज्ञवेदी में अपने जीवन की आहुति देने की परम्परा को निभाने वाले स्वामी चेतनगिरीजी महाराज को माली समाज कैसे भूल सकता है। वैसे संतो की कोई जाति नही होती, आत्मा को परमात्मा से जोड़कर मानव जाति को मोक्ष प्राप्ति का रास्ता बतलाना उनका मुखय लक्ष्य होता है, लेकिन हमारे माली समाज में उनका प्रादुर्भाव है अतः समस्त माली समाज को गर्व है कि ऐसे महान संत का हमारे समाज में उदभव हुआ है।
      पारिवारिक परिचय:   स्वामी चेतनगिरीजी महाराज का जन्म १९६४ में भादवी सुदी २ को सौभाग्यशाली माता चम्पादेवी की कोख से, भाग्यशाली पिता धीसुरामजी टाक के घर पर सोजत नगर में हुआ। घीसूरामजी टाक एक साधारण कृषक थे। जिनके तीन सुपुत्र व तीन सुपुत्री है। जिनके नाम (१) बीजाराम (२) मोहनलाल (३) प्रकाश (चेतनगिरीजी) बहन भोलीदेवी एवं हेमादेवी है। इस प्रकार घीसूरामजी टॉक का साधारण किसान परिवार हॅसी खुशी से जीवन यापन कर रहा था। अचानक बड़े सुपुत्र बीजाराम प्रेत-बाधा से पीडित हो जाता है, ऐसे में लोगो की सलाह पर पिता अपने पुत्र को बर में स्थित संत शिरोमणि जी संतोषगिरीजी महाराज की कुटिया पर ले जाता है, जहां पर बीजाराम प्रेत से मुक्त हो जाते है।
कुछ समय बाद दुःख की छाया बहन भोली देवी पर आती है, जो पुत्र रत्न के अभाव में गृह-क्लेश से ग्रसित हो जाती है। संकट की घड़ी में पिता वापस संतोषगिरीजी की शरण में नीमच की वीरवां गांव की कुटियां पर जाते है। स्वामीजी ने ऊँ नम्‌ शिवाय का जप करने एवं परम पिता परमेश्वर की सता में विश्वास एवं श्रद्धा रखने का गुरू मंत्र दिया। जिस पर अमल करने पर नवें महिने के बाद बहन भोली देवी को पुत्र रत्न प्राप्त होता है। तभी से पूरे परिवार की श्रद्धा स्वामीजी के प्रति अटूट हो जाती है और घीसूरामजी टॉक स्वामीजी को सोजत में पधारने का निवेदन करते है जो सहृदय स्वीकार कर लेते है। सोजत में घीसूरामजी के सहयोग के स्वामीजी कुटिया बनाकर धुणी जगाते है और संतो के आश्रम की नींव उसी दिन से पड  जाती है।

सोमवार, 5 जून 2017

सैनी समाज का इतिहास
क्षत्रिय वंश की उत्पत्ती -
                         हिन्दुओं के बड़े-बड़े पूर्वकाल के ग्रंथों से ज्ञात होता है कि पूर्वकाल में (विवस्वान) सूर्य तथा चंद्रमा महान आत्मा वाले तथा तेजयुक्त प्राकर्मी व्यक्तियों ने जन्म लिया। उन्होंने शनैः - शनैः क्षत्रिय कुल का विस्तार किया। विवस्तमनु ने सूर्यवंश तथा चंद्र के पुत्र बुद्ध ने चंद्रवंश की प्रसिद्धी की। दोनों महापुरूषों ने भारत भूमि पर एक ही समय में अपने विशाल वृक्षों को रोपित किया। आगे चलकर इन दोनों वंशों में जैसे-जैसे महापुरूषों का समय आता गया वंशों और कुलों की वृद्धि होती गई। सूर्यवंश में अनेक वंश उत्पन्न हुए, जैसे इक्ष्वांकु वंश, सगर वंश, रघु वंश, भागीरथी वंश, शूरसेन वंश तथा अनेक वंश व कुलों की उत्पत्ति हुई।
महाराजा भागीरथ के पूर्वज- श्रीमद् भागवत् पुराण, स्कंद पुराण, हरिवंश पुराण, विष्णु पुराण, पदम पुराण, वाल्मिकी रामायण, महाभारत और कौटिल्य के अर्थशास्त्र आदि ग्रंथों के अनुसार पहला आर्य राजा वैवस्वत मनु हुआ। उसकी एक कन्या व आठ पुत्र थे। सबसे बड़ा पुत्र इक्ष्वांकु था। जो मध्य देश का राजा बना। जिसकी राजधानी अयोध्या थी। इसी वंश को सूर्यवंश नाम से ख्याति मिली। राजा इक्ष्वाकु के 19 पीढ़ी बाद इस वंश में महान चक्रवर्ती सम्राट मान्धाता हुए। उनके 12 पीढ़ी बाद सत्यवादी राजा हरीश्चंद्र हुए, जो राजा त्रिशंकु के पुत्र थे। 
राजा हरीश्चंद्र की 8वीं पीढ़ी में राजा सगर हुए। इनकी दो रानियां थी एक कश्यप कुमारी सुमति और दूसरी केशिनी। सुमति से 60 हजार पुत्र हुए और रानी केशिनी से उन्हें असमंजस नामक पुत्र प्राप्त हुआ। पौराणिक अनुश्रुति के अनुसार राजा सगर ने चक्रवर्ती सम्राट की उपाधि धारण करने के लिए अश्वमेघ यज्ञ किया। इनकी अभिलाषा से अप्रसन्न इंद्र ने यज्ञ के घोड़े को चुराकर पाताल ;आधुनिक गंगा सागरद्ध स्थान पर परम् ऋषि कपिल के आश्रम में बांध दिया। घोड़े के खुरों के चिन्हों का पीछा करते हुए सगर के 60 हजार पुत्र आश्रम में पहुंचे। इस दौरान कुछ कुमारों ने उत्पात मचाते हुए मुनि को ललकारा और मुनि का ध्यान भंग हो गया। उन्होने कुपित दृष्टि से उनकी ओर देखा और थोड़ी ही देर में सभी राजकुमार अपने ही शरीर से उत्पन्न अग्नि में जलकर नष्ट हो गए। 
राजा सगर ने अपने पौत्र अंशुमान को 60 हजार चाचाओं और यज्ञ के घोडे के विषय में समाचार लाने का आदेश दिया। राजा ने उसे वंदनीय को प्रणाम और दुष्ट को दण्ड देने का आदेश देते हुए सफल मनोरथ के साथ लौटने का आशीर्वाद दिया। अंशुमान उन्हें खोजते-खोजते कपिल मुनि के आश्रम पहुंच गए। वहां का दृश्य देख वे शोक और आश्चर्य से व्याकुल हो उठे। उन्होंने धैर्य रखते हुए सर्वप्रथम मुनि की स्तुति की। कपिल मुनि उनकी बुद्धिमानी और भक्तिभाव से प्रसन्न होकर बोले- घोड़ा ले जाओ और जो इच्छा हो वर मांगो। अंशुमान ने कहा मुनिवर ऐसा वर दीजिए जो ब्रह्मदंड से आहत मेरे पित्रगणों को स्वर्ग की प्राप्ति कराने वाला हो। इस पर मुनि श्रेष्ठ ने कहा कि गंगा जी को स्वर्ग से पृथ्वी पर लाने का प्रयत्न करो। उसके जल से इनकी अस्थियों की भस्म का स्पर्श होते ही ये सब स्वर्ग को चले जाएंगे। अंशुमान वापस राज्य में आ गए और सब कुछ राजा सगर को कह सुनाया। राजा सगर और उनके पुत्र असमंजस और असमंजस के पुत्र अंशुमान अनेक प्रकार के तप और अनुष्ठान द्वारा गंगा जी को पृथ्वी पर लाने का प्रयास करते-करते जीवन त्याग गए। परंतु गंगा को पृथ्वी पर लाने का कोई मार्ग दिखाई नहीं दिया। अंशुमान के पुत्र राजा दिलीप का भी सारा जीवन इसी प्रयास में व्यतीत हो गया किन्तु सफलता नहीं मिली। राजा दिलीप के पश्चात उनका अत्यंत धर्मात्मा पुत्र भागीरथ राजा बना। उनकी कोई संतान नहीं थी। उन्हांेने अपने जीवन के दो लक्ष्य निर्धारित किए। एक वंश वृद्धि हेतु संतान प्राप्ति और दूसरा अपने प्रपितामहों का उद्धार। अपने राज्य का भार मंत्रियों पर छोड़कर वे गोकर्ण तीर्थ में जाकर घोर तपस्या में लीन हो गए। 
विष्णु पुराण अध्याय-4 अंश चार एवं वाल्मिकी रामायण बाल कांड सर्ग 21 के अनुसार भगवान ब्रह्मा जी ने प्रकट होकर भागीरथ को वर मांगने को कहा। भागीरथ ने ब्रह्मा जी से अपने प्रपितामहों को अक्षय स्वर्ग लोक की प्राप्ति के लिए गंगा जल को पृथ्वी पर प्रवाहित करने और अपने वंश वृद्धि हेतु संतान का वर मांगा। भगवान ब्रह्मा जी ने हिमालय की ज्येष्ठ पुत्री हेमवती गंगा जी के दर्शन भागीरथ जी को कराए और कहा कि इसके तीव्र वेग को केवल भोले शंकर ही अपने मस्तक पर धारण कर सकते हैं अन्यथा सम्पूर्ण पृथ्वी रसातल में धंस जाएगी। वंश वृद्धि के लिए भगवान ब्रह्मा जी ने भागीरथ को वर दिया। आगे चलकर भागीरथ को श्रुत नाम का पुत्र रतन प्राप्त हुआ। भागीरथ जी ने एक वर्ष तक भगवान शिव की कठोर तपस्या की। जिस पर शिवजी प्रसन्न होकर गंगा को अपने मस्तक पर धारण करने को तैयार हुए। तब भागीरथ ने पुनः ब्रह्मा जी की स्तुति कर गंगा को पृथ्वी की कक्षा में छोड़ने को कहा। तब जाकर भगवान शंकर जी ने गंगा जी को अपनी जटाओं में धारण किया। इसके बाद उन्होंने गंगाजी को बिन्दू सरोवर में ले जाकर छोड़ दिया। वहां से यह महाराजा भागीरथ जी के रथ के पीछे चली और भागीरथ जी इसे अपने प्रपितामहों की भस्म तक ले गए। इसके जल में स्नान कर भागीरथ जी ने अपने प्रपितामहों का तर्पण किया। इस प्रकार उनको सद्गति मिली और राजा सगर भी पाप बोध से मुक्त हुए। सफल मनोरथ से भागीरथ अपने राज्य में लौट आए। गंगा जी को इनके नाम से जोड़कर भगीरथी भी कहा जाता है। राजा भागीरथ के बाद 17वें वंश में राजा रघु हुए। इनके नाम से रघुकुल अथवा रघुवंश विख्यात हुआ। रघु के अज और अज के राजा दशरथ हुए। इनके चार पुत्र राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघन हुए। राम के पुत्र कुश से कुशवाह वंश चला। आगे चलकर भगवान बुद्ध भी इसी वंश में हुए। उनसे शाक्य वंश प्रारम्भ हुआ। इसमें शत्रुघन के पुत्र शूरसेन और शूरसेन के पुत्र सैनी महाराज हुए। महाराजा चंद्रगुप्त मौर्य से मौर्य वंश प्रारम्भ हुआ। 
सैनी कुल इतिहास का प्रारम्भ सैनी महाराज अथवा शूरसेन महाराज से मानने की एक परम्परा आज भी प्रचलित है। इस कुल में एक वर्ग भगीरथी सैनी कहकर पुकारे जाने की परम्परा भी है। यदि विचार किया जाए तो स्वीकार करना पड़ेगा कि ये सभी एक ही वंश से हैं। इसी में 20 पीढ़ी पहले महाराजा भागीरथ हुए। इस प्रकार महाराजा भागीरथ आदरणीय सैनी समाज के भी पूर्वज थे। भगवान बुद्ध के भी पूर्वज थे, अशोक महान के भी पूर्वज थे। समय की गति के साथ शाखाएं फूटती हैं किन्तु जड़ एक और स्थिर रहती है। सैनी सूर्यवंशी हैं सैनी नाम के भीतर भागीरथी,गोला, शुरसेन, माली, कुशवाह, शाक्य, मौर्य, काम्बोज आदि समाहित हैं। महाराजा भागीरथ हमारे ज्येष्ठ पूर्वज हैं। इनकी विभिन्न शाखाओं में होने वाले अत्यंत गुणशील, वीर और आदर्श महान हस्तियां हम सबके लिए गौरव का प्रतीक हैं।
यह है सैनी समाज का इतिहास अर्थात पूर्व गौरव जो हमारी आंखों से ओझल हो रहा था। 750 वर्षों बाद हमारी आंखों के पट खुले हैं अब हमें अपनी आंखों की पट की रोशनी को बढ़ाना चाहिए, अन्यथा हमारी भुजाओं का वह रक्त किसी युग में नहीं उमड़ सकेगा। इसलिए हमारा कर्तव्य है कि हमें अपनी भुजाओं में पूर्व रक्त की बूंदों को चमका देना चाहिए।

Kachwaha

The Kachwaha, also spelled as Kachavaha, Kuchhwaha Kachhawa, Kacchavahas, Kushwaha, Kakutstha, Kacchapghata, and Kurma are a Suryavanshi Rajput clan who ruled a number of kingdoms and princely states in India. The places ruled by the Kachwaha Kings include Alwar, Talcher, Maihar, while the largest kingdom was Jaipur, earlier known as Jainagara. Maharaja Sawai Jai Singh II founded Jaipur in 1727. The Maharaja of Jaipur is regarded as the head of the extended Kachwaha clan. Other than the state of Rajasthan, the Kachwaha Kings are found in Madhya PradeshUttar Pradesh and Bihar, but are chiefly found in MuzaffarnagarMeerut, Muttra, Agra and Cawnpore. Many Kachwaha Kings came from the Gwalior to Jalaun, where settlements were established in Etawah. The Kachwaha Kings of Bulandshahr have descended from Narwar and the Kachwaha Kings of Muzaffarnagar call themselves Jhotiyana.
Kachwaha
The sub-clans of the Kachwaha Kings count upto 71 and recognized sub-clans of the Kachhawa clan are Rajawat, Sheobramhpota, Shekhawat, Nathawat, Naruka, Khangarot and Kumbhani. Raja Prithiviraj organized his clan and had twelve main houses, which were regarded as eminent system. Among twelve houses called the Bara Kotris, nine were his sons and grandsons and three houses from his forefathers. the.
The Kachhawas are the descendants of the Surya or Sun Dynasty from the ancient Kshatriyas. Specifically, they claim their origin from Kusha, the younger of the twin sons of Rama and hero of the Ramayana, to whom patrilineal descent is from Surya. However, it has been suggested that Kachwaha Kings is a diminutive of the Sanskrit combined word `Kachhahap-ghata` or `Tortoise-killer`.Chandramahal
According to Vishnu Purana, Bardic chronicles and popular tradition, Sumitra was the last king of this dynasty in Ayodhya. In the fourth century BC Mahapadma Nanda of Nanda Dynasty included Ayodhya in his empire and Kushwahas were forced to leave. Kurma was son of Sumitra then migrated from their parental habitat and established them self at the bank of the River Son, where they constructed a fort and named it Rohtas (Rahatas) fort. The powerful districts were Kutwar, Gwalior, Dubkhund, Simhapaniya and Narwar (Nalapura). The clan then occupied Narwar in the 10th century and remained there until Parihara Rajputs captured Narwar in the 12th century. The Kachwahas were in Narwar several centuries earlier and after the downfall of Kannauj in the 8th-10th century, the Kacchapaghata state officially emerged as a principal power in the Chambal valley of present-day Madhya Pradesh.
The rise of the Kachwahas in Madhya Pradesh is closely associated with Suraj/Surya Sen, a Kachwaha prince of the 8th century, who was responsible for the building of Gwalior fort and the founding of that city. In the oldest section of Gwalior fort there still subsists as a sacred pond known as the Suraj-Kund.
Rohtas FortAccording to an inscription in the Sas-Bahu temple in the Gwalior fort, Vajradaman (Vazradaman) (964-1000 AD), the successor of the Kacchapaghata ruler Laksmana (940-964 AD) subsided the rising power of the ruler of Gandhinagara (Kannauj). According to Bardic chronicles and popular legend, Mangalraja succeeded his father Vazradaman. Mangalraja had two sons Kirtiraj (Kirtirai) and Sumitra. While Sumitra got Narwar to possess, Kirtiraj got Gwalior. Kirtiraj, also formed the temple city of Simhapaniya (present-day Sihonia) and got a Shiva temple constructed to fulfill the wish of his queen Kakanwati. The Kakan Math temple was built from 1015 to 1035 A.D and is 115 ft (35 m) high. Interestingly Simphaniya was a flourishing center of Jainism. After Sumitra, Madhubramh, Kanh, Devanik, and Isha Singh ruled Narwar. The famous Sas-Bahu inscription is dated to 1093 AD and it provides the genealogy of the ruling family up to Mahipal who died sometime before 1104 AD.GwaliorFort
The Kachwahas provided the Mughals some of their most eminent generals. Raja Bhagwant Das (1575-1589) introduced the secret of artillery production from Lahore to Amber in 1584, soon cannons began to be made at the foundry in Jaigarh Fort, much to the annoyance of the Mughals who kept the secret to themselves ever since they used it in the grand battles, against the Lodhis and the Rajputs. In 1589, Bhagwant Das was succeeded by Raja Man Singh I (1589-1614); they contributed much to establishment the Mughals rule. Sawai Jai Singh II (1700-1743), a grandson of Mirza Raja Jai Singh I, was known to be supremely talented on the battlefield. Maharaja Sawai Jai Singh II found the city of Jaipur and constructed a palace for Royal family. Sawai Man Singh II was the last ruler of Jaipur, after his death in 1970, he was succeeded by his eldest son Sawai Bhawani Singh of Jaipur, who in Democratic India reigns as current head of the Kachhawa Kings.
Some of the Kachwaha Kings in Dhundhar are as follows –
Raja DuhaladevaRaja KalyanaMirza Raja Man Singh I
Raja Kakaladeva (Kakil dev)Raja HunutdevaRaja Ram Singh I Bahadur
Raja NaradevaRaja Malaya SinghRaja Bishan Singh Bahadur
Raja Bijala DevRaja Pajjuna/Pajwan/Pradhyumn Singh
Raja JahnadadevaRaja Rajdeva
The twelve Kothris of Amber other than the royal house of Jaipur who belong to Rajawat sub clan are as follows –
PuranmalotBalbhadrotChaturbhujotSheobramhpota
PachyanotSurtanotKalyanotBanvirpota
NathawatKhangarotKumbhani
Thus nine of the 12 kothris of Kachawahas Kings, came from sons and grandsons of Raja Prithviraj of Amber (1502 to 1527), one from the descent of Raja Junasi(1328-1366) of Amber and one from sons of Raja Udaikaran (1366-1388) of Amber, and the last from the family of Raja Banvir (1427-1439) of Amber.

Origin of kushwaha

Kusha (Sanskrit: कुश), in Hindu mythology, was one of the twin sons of Lord Rama and Sita (the other being Lava). Born in the Forest after Sita had been banished from Ayodhya, they were educated and trained in military skills and were under the care of Sage Valmiki. When Rama performed the Ashvamedha Yagya, then they challenged their father (who was at this point unknown to them) to a duel by holding up the Yagya horse. When Rama found out their identity, he took them back to Ayodhya. Also called “Kush,” he was believed to be the ruler of a kingdom centered at Kasur in ancient times, and the present day Pakistani city still references him in name. His brother Lava is purported to be the founder of Lahore.
The illustrious line of kings which ruled Kashi (Kasi), also called Varanasi was derived from him. The Mauryan dynasty, an empire that ruled the Indian sub-continent (320-185 BC) claimed descent from Kush.
The Kuchhwaha (also spelled as Kushwaha & Kurma) are a Suryavanshi Kshatriya clan who ruled a number of kingdoms and princely states in India such as Alwar, Maihar, Talcher, while the largest kingdom was Jaipur (Jainagara) which was founded by Maharaja Sawai Jai Singh II in 1727. The Maharaja of Jaipur is regarded as the head of the extended Kachhwaha clan.
Outside of Rajasthan Kachhwahas are found in Madhya Pradesh, Uttar Pradesh and Bihar, but are chiefly found in Muzaffarnagar, Meerut, Muttra, Agra and Cawnpore. A number of Kachhwaha adventurers from the Gwalior also emigrated to Jalaun, where settlements were established in Etawah. Kachhwahas from Bulandshahr(chhtari village) are said to have descended from Narwar, while the Kachhwahas of Muzaffarnagar called themselves Jhotiyana.

Sub Clans of Kachhwaha Rajputs

Introduction and Definition of clans Rajput is a term used for princely Kshatriyas. It is mentioned in Yajurveda, which is oldest. The Suryavanshi or of Sun Dynasty followed a rule since Manu Vaivaswat known as Primoginiture. According to this rule only eldest male offspring of a king could succeed to the throne if otherwise qualified. Who is qualified and who is not was judged by priests. According to this rule, eldest male offspring of a king was given throne after him. But younger brothers were not neglected, they were given portions from the entire kingdom but on the condition that they would remain faithful to the kingdom and rule of Manu.The best example is of Bharata who was younger brother of Rama. Though he was nominated to be the next king, He never accepted it and upon order of his elder brother Rama ruled Ayodhya as regent for 14 years. He never enjoyed benefits of kingdom. He lived a simple life in a hut out side of the town of Ayodhya. Kachawahas followed the same rule. Accordingly younger brothers of a king were given portions of land later known as Thikanas. According to this rule the clan of the king was never counted.But the clan of his yoynger brothers was counted. It was only at the time of Raja Bhagwant Das, that his offspring got a different name. However the rule of primoginiture was neglected at certain times. After the Mughal Empire was founded, it was upon the emperor to recognise someone or not. There were many examples of it. Same was the rule of Kachhwahas, The king could recognise, disrecognise, oust, grant, any chiefship under him. Without the recognition, The kingdom or chiefship could not be founded. Here is a list of persons and places who derived from Dulhe Rai the original founder of Kachhwaha kingdom at Amber (city).
  1. Delnot
    Descendants of “Delan”, II son of Raja Dulah Rai, are known as Delanot. Lahar was their main Thikana.
  2. Bikalpota
    Descendants of “Bikal” III son of Raja Dulah Rai.Went to Bhind in MP, and Jalon UP.
  3. Jhamawat
    Descendants of “Jhama” son of Alaghrai and grandson of Raja Kankil Dev. Med and Kundal were their main Thikanas.
  4. Ghelnot
    Descendants of Ghelan, son of Raja Kankil Dev.Went to Gwalior, Rampura, and Orissa
  5. Ralnot
    Descendant of Ralan, son of Raja Kankil Dev.Live in Manoharpur during time of Nainsi.
  6. Delanpota
    Descendants of “Delan” fourth son of Raja Kankil Dev.Went to Gwalior.
  7. Jeetalpota
    Descendants of Jeetal,son of Raja Malayasi Dev.
  8. Talcheer ka Kachawaha
    Descendants of Bagha, Bhola, and Naro sons of Raja Bijal Dev.Went to Katak in Orissa and found new kingdom.
  9. Alnot(Jogi Kachawa)
    Descendants of Alan,son of Raja Kuntal Dev.
  10. Pradhan Kachawa
    Descendants of Bhinvasi and Lakhansi,sons of Raja Pajawan Dev are known as Pradhan.
  11. Sawantpota
    Descendants of Sanwat,son of Raja Rajdev.
  12. Khinvawat
    Descendants of Khinvraj, son of Pala and grandson of Raja Rajdev.
  13. Siyapota
    Descendant of “Siha”, son of Raja Rajdev.
  14. Bikasipota
    Descendant of “Bikasi”, son of Raja Rajdev.They have many “Khanps” (Sub sub-clans)
  15. Pilawat
    Descendant of “Pila”, son of Raja Rajdev.
  16. Bhojrajpota(Radharaka)
    Descendant of “Bhojraj”, son of Raja Rajdev are known as Bhojrajpota, Radharaka is one of their “Khanp”. Bikapota, Gadh ka,Sanwatsipota are other Khanps (Branches)
  17. Bikampota
    Descendants of Vikramsi” son of Raja Rajdev.
  18. Khinvrajpota
    Descendant of “Khinvraj”, son of Raja Kilhan Dev.
  19. Dasharathpota
    Descendants of “Dasharath” great grandson of Raja Rajdev.
  20. Badhwada
    Descendants of “Badhawa”, grandson of Raja Kuntal Dev.
  21. Jasarapota
    Descendants of “Jasraj”,son of Raja Kilhan Dev.
  22. Hammirde ka
    Descendant of “Hammir Dev”,son of Raja Kuntal Dev.
  23. Mehpani
    Descendants of “Napa” or Mehapa son of Raja Kuntal Dev.
  24. Bhakharot
    Descendants of”Bhakhar” son of Bhadasi and grandson of Raja Kuntal Dev.
  25. Sarawanpota
    Descendants of “Sarawan” son of Kuntal Dev.
  26. Napawat
    Descendants of “Jeetmal” son of Raja Kuntal Dev.Napa was among descendants of Jeetmal.
  27. Tungya Kachawa
    Descendants of Tungya son of Raja Kuntal Dev.
  28. Sujawat
    Descendants of “Suja” son of Raja Kuntal Dev.
  29. Dheerawat
    Descendants of “Dhiro” son of Khinvraj and grandson of Raja Kuntal Dev.
  30. Ugrawat
    Descendants of “Ugra”, who was descendant of Jaskaran, son of Raja Junasi Dev.
  31. Someshwarpota
    Descenants of “Someshwar”, son of Raja Kilhan Dev.”Ranawat” is their Khanp.Baghawat, Chittorika, etc are other khanps.
  32. Singhade
    Descendants of “Singha” ji fourth son Of Raja Junsi Dev.
  33. Kumbhani
    Descendants of “Kumbha” ji third son of Raja Junsi Dev. One of the Bara Kothris of Jaipur.
  34. Naruka
    Descendants of “Naru” son of Meraj and grandson of Barsingh.Barsingh was second son of Raja Udaikaran.Dasawat, Lalawat,Ratanawat are their Khanps.
  35. Melka
    Descendants of Melak son of Sawant Singh,who was son of Rao Barsingh Dev.)
  36. Shekhawat
    Descendants of “Rao Shekha” ji. Shekha ji was son of Rao Mokal ji, and grandson of Rao Balo ji, who was third son of Raja Udaikaran of Amber. Taknet, Ladkhani, Raojika, Bhojrajika, Girdharjika etc are their khanps.
  37. Balapota
    Descendants of “Khinvraj”,”Govind Das” and” “Natha” sons of Balaji. They favoured Raja Chandrasen during his conflict with Shekhaji.
  38. Mokawat
    Descendants of “Moka” son of Bala ji.
  39. Bhilawat
    Descendants of “Bhila” son of Bala ji.
  40. Binjhani
    Descendants of “Binjha” son of Bala ji.
  41. Sangani
    Descendants of “Sanga” son of Bala ji.
  42. Jeetawat
    Descendants of “Jeeta” son of Dungar Singh and grandson of Bala ji.
  43. Sheobramhpota
    Descendants of “Shivbramh” fourth son of Raja Udaikaran. One of the Bara Kothris.
  44. Patalpota
    Descendants of “Patal” fifth son of Raja Udaikaran.
  45. Peethalpota
    Descendants of “Peethal” sixth son of Raja Udaikaran.
  46. Samod ka Kachawa
    Descendants of “Napa” seventh son of Raja Udaikaran.
  47. Banveerpota
    Descendants of Younger sons of Raja Banveer of Amber. One of the Bara Kothris.Birampota, Mengalpota, Harjika are their khanps.
  48. Kumbhawat
    Descendants of “Kumbha” son of Raja Chandrasen of Amber.
  49. Bhimpota(Narwar Kachawa)
    Descendants Raja Bhim,His son Askaran was granted Jagir of Narwar By Akbar Badshah.
  50. Pichyanot
    Descendants of “Pachyan”, son of Raja Prithviraj.One of the Bara Kothris.
  51. Khangarot
    Descendant of Rao “Khangar”, son of Jagmal who was son of Raja Prithviraj. One of the Bara Kothris.
  52. Ramchandrot
    Descendants of “Ramchandra” son of Jagmal.Ramchandra went to Kashmir with Raja Bhagwant Das and settled there. They were called Dogra thereafter.
  53. Surtanot
    Descendants of “Surtan” son of Raja Prithviraj.One of the Bara Kothris.
  54. Chaturbhujot
    Descendants of “Chaturbhuj” son of Raja Prithviraj.One of the Bara Kothris.
  55. Balbhadrot
    Descendants of “Balbhadra” son of Raja Prithviraj.One of the Bara Kothris.
  56. Pratappota
    Descendants of “Pratap” son of Raja Prithviraj.
  57. Ramsinghot
    Descendants of “Ramsingh” son of Raja Prithviraj.
  58. Bhikawat
    Descendants of “Bhika” son of Raja Prithviraj.
  59. Nathawat
    Descendants of “Natha” son of Gopal and grandson of Raja Prithviraj.One of Bara Kothris.
  60. Baghawat
    Descendants of “Bagha” son of Gopal and grandson of Raja Prithviraj.
  61. Devkarnot
    Descendant of “Devkaran” son of Gopal and grandson of Raja Prithviraj.
  62. Kalyanot
    Descendants of “Kalyan” son of Raja Prithviraj.One of the Bara kothris.
  63. Saindasot
    Descendants of “Saindas” son of Raja Prithviraj.
  64. Rupsinghot
    Descendants of “Rup Singh” son of Raja Prithviraj).
  65. Puranmalot
    Descendants of Raja “Puranmal” of Amber).One of the Bara Kothris.
  66. Bankawat
    Descendants of “Bhagwan Das” son of Raja Bharmal and younger brother of Raja Bhagwant Das.
  67. Rajawat
    Descendants of Raja Bhagwant Das.Other sub clans also use Rajawat as surname. Kirtisinghot, Durjansinghot, Jujharsinghot etc are their khanps.
  68. Jagannathot
    Descendants of “Jagannath”, son of Raja Bharmal.
  69. Salhedipota
    Descendants of “Salhedi”, son of Raja Bharmal.
  70. Sadoolpota
    Descendants of “Sardool”, son of Raja Bharmal.
  71. Sundardasot
    Descendants of “Sundardas” son of Raja Bharmal.



History of kushwaha “Our origin & Glorious History”

 सैनी राजपूतों का अति संक्षिप्त इतिहास

            अर्जुन द्वारा यदुवंशियों को पंजाब में बसाने का प्रसंग विष्णु पुराण में आता है । विष्णु पुराण में "पंचनद" शब्द का प्रयोग है जो की मुल्तान वाला इलाका भी हो सकता है । कृष्ण जी के पड़पौत्र वज्र को मथुरा का राजा बनाने का प्रसंग श्रीमद भागवत के दशम स्कंध में आता है । इनके वंशजों ने अफगानिस्तान तक का इलाका जीत लिया था । गज़नी शहर सैनी-यदुवंशी अर्थात शूरसैनी राजा गज महाराज ने बसाया था । बाद में मथुरा पर मौर्यों का राज हो गया उसके पश्चात कुषाणों और शूद्र राजाओं ने भी यहाँ पर राज किया । कहा जाता है की लगभग सातवीं शताब्दी के आस पास सिंध से (जहां भाटियों का वर्चस्व था ) कुछ यदुवंशी मथुरा वापिस आ गए और उन्हों ने यह इलाका पुनः जीत लिया । इन राजाओं की वंशावली राजा धर्मपाल से शुरू होती है जो की श्री कृष्ण 77वीं पीढ़ी के वंशज थे । यह यदुवंशी राजा सैनी / शूरसैनी कहलाते थे । यह कमान का शिलालेख प्रमाणित करता है और इसको कोई प्रमाणित इतिहासकार चुनौती नहीं दे सकता । वर्तमान काल में करौली का राजघराना इन्ही सैनी राजाओं का वंशज है ।

          11वीं शताब्दी में भारत पर गज़नी के मुसलमानो के आक्रमण शुरू हो गए और लाहौर की कबुलशाही राजा ने भारत के अन्य राजपूतों से सहायता मांगी । इसी दौरान दिल्ली और मथुरा के तोमर-जादों (सैनी) राजाओं ने राजपूत लश्कर पंजाब में किलेबन्दी और कबुलशाहियों की सुरक्षा के लिए भेजे । इन्होने पंजाब में बहुत बड़ा इलाका मुसलमानो से दुबारा जीत लिया और जालंधर में राज्य बनाया जिसकी राजधानी धमेड़ी (वर्तमान नूरपुर) थी। धमेड़ी का नाम कृष्णवंशी राजा धर्मपाल के नाम से सम्बन्ध पूर्ण रूप से संभावित है और सैनी और पठानिआ राजपूतों की धमड़ैत खाप का सम्बन्ध इन दोनों से है । धमेड़ी का किला अभी भी मौजूद है और यहाँ पर तोमर-जादों राजपूतों की मुसलमानो के साथ घमासान युद्ध हुआ । दुर्भाग्यवश यह युद्ध राजपूत हार गए ।तोमर-जादों राजपूतों और गज़नी के मुसलमानो का युद्ध क्षेत्र लाहौर और जालंधर (जिसमे वर्तमान हिमाचल भी जाता है) से मथुरा तक फैला हुआ था । यह युद्ध लगभग 200 साल तक चले.
          इस दौरान मथुरा और दिल्ली से तोमर-जादों राजपूतों का पलायन युद्ध के लिए पंजाब की ओर होता रहा ।तोमर और जादों राजपूतों की खांपे एक दूसरे में घी और खिचड़ी की तरह समाहित हैं और बहुत से इतिहासकार इनको एक ही मूल का मानते हैं (उदाहरण: टॉड और कन्निंघम) । इन राज वंशों के मधयकालीन संस्थापक दिल्ली के राजा अनंगपाल और मथुरा के राजा धर्मपाल थे । पंजाब, जम्मू और उत्तरी हरयाणा के नीम पहाड़ी क्षेत्रों के सैनी इन्ही तोमर-जादों राजपूतों के वंशज हैं जो सामूहिक रूप से शूरसैनी /सैनी कहलाते थे । पहाड़ों पर बसने वाले डोगरा राजपूतों में भी इनकी कई खांपें मिली हुई हैं ।